गुरु के सूत्र –
15
चौथा सूत्र-
रसमय जीवन (कल से आगे)
प्रथम रस है, भोग-रस | जितनी भी हमारी
इन्द्रियां है, वे भोग-रस प्राप्त कर हमें उसका ज्ञान कराती हैं | मनुष्य के शरीर की
ये इन्द्रियां जब तक सक्रिय रहती है तब तक भोग-रस की उनकी मांग बढ़ती जाती है | यह रस
भी मनुष्य के सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक है परन्तु आध्यत्मिक जीवन के लिए इस भोग-रस
का त्याग करना आवश्यक है | सांसारिक भोगों से मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता |
भागवत में ययाति-प्रसंग आता
है | राजा ययाति को उनके श्वसुर शुक्राचार्य ने शाप दिया था जिसके कारण उनके शरीर
को वृद्धावस्था ने असमय ही आकर जकड लिया था | सांसारिक भोगों से उन्हें अभी तक
संतुष्टि नहीं मिल पाई थी | वे शुक्राचार्य से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें
सांसारिक व शारीरिक भोग के लिए कुछ समय और मिलना चाहिए क्योंकि उनकी पुत्री
देवयानी का इसी में भला है | शुक्राचार्य कहते हैं कि श्राप तो अन्यथा हो नहीं
सकता | इससे बच निकलने का एक ही उपाय है कि जो व्यक्ति प्रसन्नता से तुम्हें अपनी
युवावस्था दे दे, उससे अपनी वृद्धावस्था बदलकर शारीरिक सुख भोग सकते हो | इस
प्रकार शुक्राचार्य से उन्हें भोग-रस का पान करने के लिए समय तो मिल जाता है
परन्तु युवावस्था कहाँ से लाये ? शारीरिक भोग के लिए युवा बने रहना आवश्यक है | राजा
ययाति के समक्ष युवावस्था प्राप्त करने का एक मात्र साधन उसके पुत्र ही थे | उन्होंने
एक-एक कर सभी पुत्रों से अपनी युवावस्था उन्हें देने का आग्रह किया | सभी पुत्रों ने
युवावस्था देने से मना कर दिया | केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ने अपने पिता का आग्रह
स्वीकार किया और उनसे वृद्धावस्था ले ली तथा उन्हें भोगों के लिए अपनी युवावस्था
दे दी | युवावस्था पा कर ययाति ने कई वर्षों तक शारीरिक भोग भोगे | परन्तु फिर भी
इन भोगों से उन्हें तृप्ति नहीं हुई बल्कि उलटे भोगों को प्राप्त करने की कामना दिन
प्रतिदिन बढ़ती ही गई | अंततः उनको इस बात का ज्ञान हुआ कि शारीरिक भोगों से कभी भी
कोई तृप्त नहीं हो सकता | ययाति इन भोगों के बारे में कहते हैं –
न जातु कामः
कामानामुपभोगेन शाम्यति |
हविषा
कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते || भागवत-9/19/14||
अर्थात विषयों
को भोगने से भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती | जैसे घी की आहुति डालने से अग्नि और
अधिक भड़क उठाती है वैसे ही भोगवासनायें भी भोगों से प्रबल हो उठती है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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