गुरु के सूत्र –
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दूसरा सूत्र -
स्वाधीन जीवन(कल से आगे)
धर्म हमें अपने अधीन
होने को कहता है अर्थात स्वयं के अधीन | स्वतंत्रता केवल तंत्र के अधीन होने का
कहती है, तंत्र के बाहर आप स्वच्छंद हैं, कुछ भी कर सकते हैं | स्वाधीनता कहती है
नहीं, स्वच्छंद नहीं बल्कि स्व-अधीन | कुछ आपके कार्यों पर स्वयं का भी अंकुश होना
चाहिए | धर्म कहता है – सत्य, अहिंसा, तप और दान – ये चार मनुष्य के पालन करने
योग्य हैं | स्वतत्रता आपको इस प्रकार के धर्म से मुक्त रखती है, हाँ, असत्य और हिंसा
पर अंकुश अवश्य लगाये रखती है | स्वाधीनता आपको धर्म के इन चारों अंगों की पालना करने
को कहती है | आप नहीं करते, वह बात अलग है परन्तु आप अगर स्वाधीन है तो आपको इनका
पालन अवश्य करना चाहिए |
आप स्वाधीन हैं, इसका अर्थ यह है
कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी स्वाधीन हैं | केवल सनातन धर्म ही ऐसी स्वाधीनता
की बात करता है | किसी भी प्राणी को किसी भी विशेष कार्य को करने अथवा न करने के
लिए विवश नहीं करें | वे आपकी बात मानें अथवा न मानें; आपको इस बात से किसी भी
प्रकार से प्रभावित नहीं होना है | आपको प्रत्येक प्राणी की स्वाधीनता का सम्मान
करना है | स्वाधीनता ही सबके लिए सुखदाई होती है | सनातन धर्म में वर्णित वाक्य ‘वसुदेव
कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का भाव हमें सभी की स्वाधीनता की रक्षा करने की कामना करता है |
संतुष्ट और स्वाधीन जीवन के बाद
गुरु का तीसरा महत्त्व पूर्ण सूत्र है- जीवन चैतन्य होना चाहिए | चैतन्य जीवन का
अर्थ है- होश पूर्वक जीना |
3.तीसरा सूत्र - चैतन्य जीवन –
जीवन मूर्छा में रहते हुए न जीयें
| आपका जीवन होशपूर्ण होना चाहिए | इस संसार की भौतिकता में मनुष्य इस स्तर तक डूबा
हुआ है कि वह आज एक व्यक्ति न रहकर एक मशीन बन कर रह गया है | यांत्रिक जीवन गतिमान
प्रतीत अवश्य होता है परन्तु वास्तव में वह गतिहीन जीवन ही होता है | एक यंत्र की यात्रा
उस यंत्र के लिए केवल उद्देश्यहीन यात्रा है | जबकि मानव जीवन उद्देश्यपूर्ण है | आपको
अपने मनुष्य होने का उद्देश्य पता होना चाहिए | उद्देश्यहीन मानव जीवन तो एक प्रकार
से पशुवत जीवन ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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