Sunday, August 27, 2017

गुरु के सूत्र - 22

गुरु के सूत्र – 22
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) –
             प्रेम-रस में डूबने जा रहे व्यक्ति को वे सभी सूत्र जीवन में स्थाई रूप से अपनाये रखने होते हैं, जो गुरु उसे रसमय जीवन की स्थिति को प्राप्त करने से पूर्व बताते हैं | किसी भी एक सूत्र का परित्याग करते ही पतन होना प्रारम्भ हो जाता है और प्रेम-रस से विमुख होकर व्यक्ति भोग-रस में पुनः डूब सकता है | अपरिपक्व प्रेम वासना में परिवर्तित हो सकता है | जो व्यक्ति वासना को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं | संतुष्ट जीवन, स्वाधीन जीवन व होशपूर्ण जीवन प्रेम-रस की उच्चावस्था को प्राप्त कर उसे बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं | किसी भी एक सूत्र की अवहेलना प्रेम को वासना में परिवर्तित कर सकती है | इस स्थिति से बचने के लिए ही गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है |
                 भाव-रस से प्रेम रस तक पहुँचने का मार्ग एक साधक के लिए सबसे कठिन मार्ग है | यहाँ तक आकर बड़े-बड़े महापुरुष तक लडखडा जाते हैं | ऐसे उदाहरण आप आज देख ही रहे हैं | वे सब भाव-रस से प्रेम-रस तक की यात्रा में ही लडखडा कर पतन को प्राप्त हुए हैं | मेरे मित्र पूछते हैं कि साध्य की इस यात्रा के अंतिम चरण के पास तक पहुँच कर ऐसा क्यों होता है ? इसका एक मात्र कारण है, स्वयं को गोविन्द के मार्ग पर चलने के लिए पक्के रूप से तैयार न कर पाना | भाव-रस से प्रेम-रस जीवन की यात्रा में आपकी प्रसिद्धि दिन दूनी रात चोगुनी की गति से बढ़ती है जिसके कारण आपके संपर्क में आकर बहुत से लोग प्रभावित होकर अनुयायी बन जाते हैं | बढ़ती अनुयायियों की संख्या देखकर आप में अहंकार पैदा हो जाता है | उस प्रसिद्धि का सुख ही आपको आनंद लगने लगता है, जबकि वास्तव में वह आनंद न होकर एक प्रकार का भोग-रस ही है | इसी को समझने में आप भूल कर बैठते हैं और आप पुनः संसार के भोगों में रत होकर पतन को प्राप्त हो जाते हैं | 
          आज हम इस युग में अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त व्यक्तियों का ऐसे ही किसी एक सूत्र का त्याग कर देने से पतन को प्राप्त हुए देख रहे हैं | जो कभी आध्यात्मिकता की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर अपने शिष्यों का मार्गदर्शन कर रहे थे, वे स्वयं ही उन सूत्रों का त्याग कर पतन को प्राप्त हो चुके हैं | अतः आवश्यक है कि प्रेम-रस में डूबकर होश नहीं खोना है, किसी की स्वाधीनता को छीनने का प्रयास नहीं करना है और शांति के साथ संतुष्ट होकर होश पूर्वक जीना है | तभी हम प्रेम-रस के शिखर को छूकर परमात्मा को उपलब्ध हो सकते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment