Tuesday, February 28, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 55

गुण-कर्म विज्ञान – 55  
             तीसरे प्रकार का गुणों का स्थानान्तरण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में होता है और यह स्थानान्तरण प्रायः तात्कालिक ही होता है | इस प्रकार का स्थानान्तरण दो प्रकार का होता है – पहले प्रकार के स्थानान्तरण में गुरु से शिष्य को तथा सत्संग में वक्ता से श्रोता को होता है | इस प्रकार के गुणों के स्थानान्तरण में देह परिवर्तन नहीं होता है बल्कि केवल गुणों का ही स्थानान्तरण होता है | यह ठीक वैसे ही होता है जैसे किसी चुम्बक की निकटता से एक लोहे के टुकड़े अथवा लोहे की वस्तु में चुम्बक के गुण आ जाते हैं | इसी श्रेणी के दूसरे प्रकार के स्थानान्तरण में गुणों के स्थानान्तरण के साथ-साथ देह परिवर्तन भी होता है | ऐसे स्थानान्तरण को परकाया प्रवेश कहा जाता है | इस स्थानान्तरण की प्रक्रिया में एक व्यक्ति अपना शरीर त्यागकर गुणों और आत्मा के साथ तत्काल ही अपने समक्ष उपलब्ध किसी भी सुयोग्य निश्चेतन हुए अन्य भौतिक शरीर में प्रवेश कर लेता है | यह गुणों के स्थानान्तरण का सर्वोच्च प्रकार है | आदिकाल में ऋषि-मुनियों की जो सहस्रों वर्षों की आयु हुआ करती थी, उसका आधार परकाया प्रवेश ही होता था | आज भी बद्रीनाथ के पास स्थित नर पहाड़ की गुफा में ऐसे ही दीर्घायु प्राप्त एक बाबा निवास कर रहे हैं | कहा जाता है कि इन बाबाजी के पास परकाया प्रवेश की विधा है |
            परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर हुए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भी परकाया प्रवेश जैसी अनेकों उपलब्धियां आती हैं परन्तु जो व्यक्ति ऐसी किसी भी उपलब्धि के प्रति मोहग्रस्त हो जाता है, उसका परमात्मा को उपलब्ध होना लगभग असंभव हो जाता है | वह परकाया प्रवेश को तो संभव बना सकता है परन्तु मोक्ष अथवा मुक्ति से उसकी दूरी बढ़ती जाती है | अतः आवश्यक है कि ऐसी विधाओं में न उलझकर उनका उल्लंघन किया जाये |
            इस प्रकार हमने गुण और कर्मों का शास्त्रों और आधुनिक विज्ञान का तुलनात्मक विवेचन किया | समयाभाव के कारण इस श्रृंखला में मैंने अपने अध्ययन के कुछ मुख्य अंशों को ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया है, जिससे आपकी गुण, कर्म, कर्ता और आत्मा से सम्बन्धित कई भ्रांतियां टूट सके | आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, इस पर आपकी प्रतिक्रिया अवश्य चाहूँगा, जो मेरा मार्गदर्शन करेगी | श्रृंखला लम्बी खिंच गयी थी, अतः मुख्य विषय को अल्प शब्दों में प्रस्तुत करने की दृष्टि से इस श्रृंखला का समापन सार-संक्षेप के साथ कल होगा |   

प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल |
|| हरिः शरणम् ||

Monday, February 27, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 54

गुण-कर्म विज्ञान – 54     
                  द्वितीय प्रकार का स्थानान्तरण वास्तव में गुणों का स्थानान्तरण न होकर गुणों का प्रभाव है | किसी भी व्यक्ति में अब कोई विशेष गुण परिवर्तित होकर पर्याप्त मात्रा में संचय (Storage) हो जाता है, ऐसी स्थिति में उन गुणों का विकिरण (Radiation) होना प्रारम्भ हो जाता है | उस विकिरण का प्रभाव आस-पास के पदार्थों, भौतिक वस्तुओं और वातावरण में अनुभव किया जा सकता है | इस जगत में आपको इस सम्बन्ध में कई उदाहरण मिल जायेंगे | मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इस बात का अनुभव आपने भी अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य ही किया है | हरिः शरणम् आश्रम हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा इससे सम्बंधित एक दृष्टान्त देते हैं | वे बताते हैं कि इसी युग में जोधपुर में एक फूलां बाई नामक महिला हुई थी जो गोबर थापते हुए भी राम-राम जपती रहती थी | कहा जाता है कि उसके नाम-जप का इतना अधिक प्रभाव हो गया था कि उसके द्वारा थापी हुई थेपडी से भी राम नाम की मधुर ध्वनि निकलती रहती थी | रामचरितमानस में भी इस सन्दर्भ में एक वर्णन आता है | जब भगवान के वाहन गरुड़ के मन में परमात्मा को लेकर एक बार संशय पैदा हो गया था तब उसे काकभुसुंडि के पास ज्ञान लेने भेजा गया था | ज्योंही गरुड़ काकभुसुंडि गुफा के पास पहुंचा, उसका समस्त संशय दूर हो चूका था और मन एक दम निर्मल हो गया था | यह एक प्रकार से गुणों का विकिरण होते हुए स्थानान्तरण होना ही है | हमारे समस्त तीर्थ स्थल ऐसे ही सद्गुणों के विकिरण उपस्थित रहने वाले स्थानों पर बने हैं |
                आधुनिक युग में इन तीर्थ स्थानों को सुगम्य बना दिया गया है, जिस कारण से इनको देखने की होड़ सी मची हुई है | इसके कारण प्रत्येक व्यक्ति इनको देखकर पुण्य कमाने में लगा हुआ है | वास्तव में देखा जाए तो यहाँ जाकर किसी भी प्रकार का पुण्य-लाभ नहीं मिलता है | ऐसे स्थान महात्माओं की तपस्थली रहे हैं और वहां जाकर उनके गुणों का प्रभाव ही अनुभव करने को मिलता है | जिस आपाधापी के साथ और मौज मस्ती के लिए जो लोग यहाँ जाते हैं, उनको ऐसे किसी भी प्रभाव का अनुभव नहीं हो पाता है | यही कारण है कि तीर्थ यात्राओं को ‘धमाधमा’ से अधिक कुछ भी नहीं माना जाता है | मनोयोग से की जाने वाली तीर्थ-यात्रा आपके द्वारा प्रारम्भ की जाने वाली  आध्यात्मिक यात्रा का प्रथम सोपान तो बन सकती है परन्तु लक्ष्य प्राप्ति में इसका योगदान नगण्य ही होगा | आवश्यकता है, तीर्थ-यात्रा करके मन के गुणों में परिवर्तन करने की | अगर मन परिवर्तित नहीं हो सका तो सभी तीर्थ बेमानी हैं | इसीलिए कहा जाता है कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ |

क्रमशः प्रस्तुति - डॉ.प्रकाश काछवाल |
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, February 26, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 53

गुण-कर्म विज्ञान – 53
                प्रथम प्रकार के एक जन्म से दूसरे जन्म में गुणों के स्थानान्तरण में मनुष्य की भूमिका मात्र कर्म करने तक ही सीमित रहती है | व्यक्ति अपने मानव जीवन में जैसे भी कर्म करता है, गुणों के स्वरूप भी उसी प्रकार परिवर्तित हो जाते हैं | व्यक्ति के मनुष्य जीवन में यही परिवर्तित गुण मनोमय कोष (mindful sheath), विज्ञानमय कोष (Knowledge  sheath) और आनंदमय कोष (Joyous  sheath) में विद्युत-चुम्बकीय संकेतों (Electromagnetic signals) के रूप में संचित होते रहते है | ये गुण समस्त तीनों कोषों में संग्रहित होते रहते है, जो कि मृत्यु उपरांत उस शरीर को छोड़ कर आत्मा के साथ नए शरीर की तलाश में निकल पड़ते हैं | अन्नमय ( Grainful  sheath) कोष और प्राणमय कोष (Livelihood sheath) के परिवर्तित गुण तो उन्हीं कोषों के साथ इसी धरा पर मृत्यु के पश्चात रह जाते हैं परन्तु उसके संकेत उपरोक्त तीनों कोषों अर्थात चित्त में अंकित रह जाते हैं | मृत देह के विसर्जन (Dispose) के उपरांत जो पदार्थ बिखर जाते हैं, वे समय पाकर पुनः संयुक्त होते हैं और उन्हीं परिवर्तित गुणों को आधार बनाकर उसी के अनुरूप किसी दूसरे शरीर का निर्माण करते हैं | इस नए शरीर के अंतर्गत ही उपरोक्त दोनों कोष आ जाते हैं | इस प्रकार एक भौतिक शरीर से दूसरे भौतिक शरीर में ये गुण स्थानांतरित (Transfer) हो जाते हैं और फिर जब इस नए शरीर में शेष तीन कोषों का प्रवेश होता है तब यही गुण मिलकर पुनः कर्म की प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देते हैं | इस प्रकार गुणों का जो स्थानान्तरण होता है, उसे एक साधारण व्यक्ति अपने जीवन में कभी अनुभव नहीं कर पाता |
           जिस प्रकार इस प्रक्रिया का वर्णन किया गया है, उतनी सहजता और सरलता के साथ यह संपन्न नहीं होती है | इस प्रक्रिया को पूर्ण होने में समय की कोई निश्चित सीमा नहीं होती और न ही ऐसा कोई नियम है कि जो दो कोष यहाँ देहावसान के उपरांत रह जाते हैं, उन्हीं के समस्त गुणों को समाहित करते हुए वैसी ही देह का निर्माण होगा | देह और उसमें समाहित गुणों के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है परन्तु दोनों कोष (अन्नमय व प्राणमय कोष) अवश्य ही बने रहते हैं | दोनों कोष के गुण पूर्व के दोनों कोष की भांति नहीं रहेंगे जबकि इन दोनों कोषों की तुलना में शेष रहे तीनों कोष (मनोमय, ज्ञानमय और आनंदमय कोष) के गुण पूर्व की भांति बने रहते हैं जो प्रत्येक बार विभिन्न प्रकार की योनियों के अलग-अलग शरीर प्राप्त करते हुए यात्रा करते रहते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Saturday, February 25, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 52

गुण-कर्म विज्ञान – 52
          किसी एक अचेतन पदार्थ के गुणों में का दूसरे अचेतन पदार्थ में कृत्रिम रूप से स्थानान्तरण कर देना भविष्य में शायद संभव हो जायेगा परन्तु प्राकृतिक रूप से गुणों का स्थानान्तरण चेतन और अचेतन दोनों में ही सदैव होता रहता है | अचेतन में यह परिवर्तनशीलता निश्चित ही है तभी उन्हें जड़ पदार्थ कहा जाता है | मनुष्य में गुणों का स्थानान्तरण कैसे संभव हो सकता है ? आइये, अब हम इन गुणों और कर्मों के आधार पर जानने का प्रयास करें कि ये गुण एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित कैसे होते हैं ? 
          पदार्थ के तीन गुण आपस में अपनी गति से क्रिया करते रहते हैं और यह क्रिया अनन्त काल से होती आ रही है | पदार्थ का इन गुणों के कारण क्षरण होता है और फिर इन्हीं गुणों के कारण उनका पुनर्निर्माण भी होता है | इस प्रकार यह क्षरण, निर्माण और पुनः क्षरण का अटूट चक्र चलता रहता है | इस प्रकार प्रकृति के नियमानुसार उसके पदार्थ के गुण एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित होते रहते हैं | इस प्रकार गुणों का स्थानान्तरण निर्जीव पदार्थों में होने वाली एक प्राकृतिक व स्वाभाविक प्रक्रिया है | इस प्रक्रिया के बारे में आधुनिक विज्ञान लगभग पूर्ण रूप से जान चूका है |
          निर्जीव पदार्थों में गुणों का स्थानांतरण बहुत ही साधारण और नियमानुसार होने वाली एक प्रक्रिया है, जबकि सजीव में यही प्रक्रिया होती तो नियमानुसार ही है परन्तु होती बड़ी जटिल है | इस प्रक्रिया को विज्ञान अभी तक नहीं समझ पाया है | हाँ, हमारे ऋषि-मुनि इस प्रक्रिया को अवश्य जानते थे और हमारे सनातन-शास्त्र इस प्रक्रिया को स्पष्ट रूप सी व्यक्त भी करते हैं | सजीव में यह गुणों का स्थानान्तरण निर्जीव में भौतिक रूप से दिखाई पड़ने वाले स्थानान्तरण से एकदम भिन्न होता है | किसी भी सजीव में यह स्थानान्तरण मुख्यतः विद्युत-चुम्बकीय संकेतों के द्वारा होता है | मनुष्य में गुणों का स्थानान्तरण मुख्यतः तीन प्रकार से होता है –
1.       एक मानव के शरीर से पुनर्जन्म लेकर प्राप्त हुए दूसरे शरीर में |      
2.       एक मानव के शरीर से किसी निर्जीव तथा आस पास के वातावरण में |
3.       एक मानव के शरीर से किसी दूसरे प्राणी के शरीर में |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, February 24, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 51

गुण-कर्म विज्ञान – 51
                  मानव मस्तिष्क के प्राकृतिक गुणों में तीनों गुणों की भूमिका रहती है परन्तु उसकी सक्रियता विद्युतीय गुणों के कारण ही संभव होती है | स्मृति का अंकन भी इन्हीं विद्युत संकेत और गुण के रूप में होता है | स्मृति दो प्रकार की होती है- अल्पकालीन स्मृति (short term memory) और दीर्घ कालीन स्मृति (Long term memory) | दीर्घ कालीन स्मृति (LTM) की पुनर्जन्म में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है और अल्प कालीन स्मृति (STM) की भूमिका वर्तमान जीवन में नए-नए कर्मों को सम्पादित करने में |
                   इस प्रकार हमने मस्तिष्क के तीनों गुणों और उनमें होने वाले परिवर्तन का संक्षिप्त रूप से विवेचन किया | यह विवेचन बहुत ही साधारण शब्दों में एक साधारण बौद्धिक क्षमता वाले व्यक्ति की समझ के अनुसार किया गया है, जिससे वह कर्म और विज्ञान में आपस के सम्बन्ध को सरलता से आत्मसात कर सके | शरीर विज्ञान में इस विषय का विस्तृत विवरण उपलब्ध है तथा सम्बंधित पुस्तक पढ़कर आप और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं |
गुणों का स्थानान्तरण (Transfer of properties)
                गुण से कर्म और कर्म से गुण, इस प्रकार यह निरंतर चलती रहने वाली एक सामान्य प्रक्रिया है | विज्ञान, एक भौतिक पदार्थ की दूसरे भौतिक पदार्थ की तुलना करते हुए उनके गुणों में परिवर्तन करने के प्रयास में है | इसी आधार पर वह लोहे के विद्युत गुणों को परिवर्तित  कर उसे स्वर्ण अथवा अन्य धातु में परिवर्तित करने का प्रयास कर रहा है | हमारे शास्त्रों में पारस पत्थर का वर्णन आता है, जिसको किसी भी धातु से मात्र छू देने से वह स्वर्ण में बदल जाती है | यह कितना सत्य है, कह नहीं सकता परन्तु विज्ञान ने ऐसा पत्थर कभी खोज लिया तो वह पारस ही होगा | किसी एक धातु के रासायनिक गुणों को परिवर्तित कर बहुमूल्य धातुओं के निर्माण करने का वर्णन भी हमारे प्राचीन शास्त्रों में उपलब्ध है परन्तु उन विधियों को प्रयोग में लाने का प्रयास शायद ही किसी ने किया होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, February 23, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 50

गुण-कर्म विज्ञान – 50
शास्त्रों के अनुसार गुणों में परिवर्तन का प्रभाव-           
          हमने विज्ञान के आधार पर यह जाना कि मनुष्य में कैसे प्राकृतिक गुणों में अस्थायी व स्थाई परिवर्तन हो जाना उसके वर्तमान व भावी जीवन को प्रभावित करता है | अकेले एक गुण से जैसे किसी भी प्रकार का कर्म संपन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार अकेले एक गुण में परिवर्तन होना भी लगभग असंभव है | परिवर्तन प्रायः सभी गुणों में होता है जिसका परिणाम अप्रत्यक्ष (Indirectly) रूप से उसके वर्तमान व भावी जीवन को बदल देता है | वर्तमान जीवन में जो अस्थायी परिवर्तन आते हैं वे वापिस सही भी हो सकते हैं | जब किसी एक गुण से बार-बार एक ही प्रकार के कर्म करवाए जाते हैं तब उस गुण में स्थाई परिवर्तन आ ही जाता है, जो शेष दो गुणों को भी एक सीमा तक परिवर्तित कर देता है | स्थाई परिवर्तन विद्युतीय संकेतों के रूप में चित्त में जाकर संचित (Store) हो जाते हैं और देह मुक्ति के समय जीवात्मा (Spirit) उनको अपने साथ ले जाती है | फिर गुणों में आया यह परिवर्तन नयी योनि में जन्म लेने के साथ ही नए जीवन में दृष्टिगोचर होने लगता है | इस प्रकार यह परिवर्तन विभिन्न प्रकार के शरीरों में जाकर तब तक परिणाम देता रहता है, जब तक जीवात्मा उस परिवर्तन के परिणामों को भोगकर उन परिवर्तित हुए गुणों से मुक्त नहीं हो जाता |
           समस्त परिवर्तित हुए गुणों के अनुसार किये गए कर्मों के फलों को भोग लेने के पश्चात ही जीवात्मा एक प्रकार की ऐसी नयी मनुष्य योनि को पुन: प्राप्त कर सकता है, जैसी मनुष्य योनि उसे सर्वप्रथम मिली थी | वहाँ से वह फिर प्राकृतिक गुणों के साथ नया गुण-कर्म चक्र प्रारम्भ कर सकता है | इस स्थिति को प्राप्त करने में कई कल्प लग जाते हैं | गुणों में परिवर्तन होने के उपरांत मिली किसी अन्य प्राणी की योनि में तो वह केवल पूर्व के कर्म के फल ही भोगता है और बाद में कभी मनुष्य योनि मिलने पर व्यक्ति उन गुणों के कर्म फलों को तो भोगता ही है, साथ ही साथ इन गुणों में आये परिवर्तन को अपने प्रयास से सुधार सकता है | इस प्रकार यह संसार-चक्र निरंतर चलता रहता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, February 22, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 49

गुण-कर्म विज्ञान – 49
विज्ञान की दृष्टि में गुण-परिवर्तन का प्रभाव -
       मनुष्य के शरीर में उपस्थित भौतिक गुणों में परिवर्तन दो प्रकार से हो सकता है – तात्कालिक/अस्थाई तथा स्थाई | तात्कालिक या अस्थाई (Temporary) परिवर्तन ज्यादातर दुर्घटना के कारण होता है और इस कारण से उसके शरीर के अंग वर्तमान जीवन में क्षतिग्रस्त होते हैं अर्थात उसके शारीरिक अंगों में भौतिक परिवर्तन होता है | ऐसा परिवर्तन भावी जीवन (New life) को भौतिक रूप से परिवर्तित नहीं करता है | जबकि स्थाई (Permanent) परिवर्तन में भौतिक गुण इतने अधिक परिवर्तित (Change) हो जाते हैं कि वे कई जन्मों तक प्राणी को शारीरिक भौतिक व्याधि (Physically handicap) से पीड़ित करते रहते हैं | यह स्थिति तब तक सही नहीं हो सकती जब तक मनुष्य जीवन पुनः नहीं मिल जाता | मनुष्य जीवन में व्यक्ति अपने कर्मों में सुधार करते हुए पुनः सामान्य अवस्था में आ सकता है | रासायनिक गुणों और विद्युतीय गुणों में परिवर्तन भी भौतिक गुणों की तरह सतत चलने वाली प्रक्रिया है | एक गुण में आया परिवर्तन शेष दो गुणों में भी कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य ही करता है | इस प्रकार भौतिक, रासायनिक और विद्युतीय गुणों में स्थाई परिवर्तन प्राणी की देह के साथ-साथ उसमें होने वाली रासायनिक क्रियाओं और मानसिक विचारों (Thoughts) तक को प्रभावित करता है |
             डार्विन का विकास वाद का सिद्धांत भी यही बात कहता है जो बात हमारे शास्त्र सहस्राब्दियों से कहते आ रहे हैं | मानव का पूंछ विहीन हो जाना इसी प्रकार के भौतिक गुणों में आये स्थाई परिवर्तन का एक उदाहरण है | जब कोई अंग मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं रहता तो धीरे-धीरे उस अंग का लोप होना प्रारम्भ हो जाता है और एक लम्बी अवधि के बाद वह अंग शरीर से ही हट जाता है जैसे कि मनुष्य में पूंछ का अनुपयोगी होने के कारण हट जाना | इसी प्रकार जब किसी अंग का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है, तब उस अंग में निरंतर परिवर्तन होकर सुधार होता रहता है | मनुष्य के मस्तिष्क का विकसित होते जाना इसका एक उदाहरण है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, February 21, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 48

गुण-कर्म विज्ञान – 48
             गुणों के कारण जो कर्म स्वतः ही होते रहते हैं और वे स्वतः स्फूर्त कर्म कहलाते हैं |  जब स्वतः स्फूर्त कर्म के गुणों में परिवर्तन आ जाता है, तब वे तत्काल अपना प्रभाव दिखाते हैं | प्रारम्भ में यह प्रभाव अस्थायी होता है, परन्तु एक ही प्रकार की क्रिया बार-बार दोहराए जाने से गुणों में स्थाई परिवर्तन हो जाता है | मनुष्य के गुण कर्म करते हैं और एक ही प्रकार के कर्म करते रहने से उसके पूर्ववर्ती गुण भी परिवर्तित हो जाते है | ये गुणों का परिवर्तन चित्त में अंकित होता रहता है, जो नए जन्म में जाकर उसी के अनुरूप व्याधि के रूप में प्रकट होता है | इसी लिए हमारे शास्त्र वर्तमान जीवन की किसी भी व्याधि को पूर्वजन्म के कर्मों का प्रभाव बताते हैं | ऐसी कई व्याधियां हैं जिनका कारण आज तक विज्ञान बता नहीं पाया है, वे सभी रोग पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम है, ऐसा हमारे शास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं |
               क्रियान्वयन कर्म को करने में कारण तो प्रकृति के गुण ही होते हैं, परन्तु इनको प्रारम्भ करने में मनुष्य के मन की भूमिका अहम् रहती है | मन के कारण ही ये कर्म मनुष्य के सुख-दुःख का कारण बनते हैं | इन्हीं सुख-दुःख को आप ह्रदय की गहराई से कितना महत्त्व देते हैं, उसी पर गुणों में परिवर्तन होना निर्भर करता है | इसीलिए भगवन श्री कृष्ण कहते हैं कि जिस व्यक्ति के लिए सुख-दुःख, मान-अपमान आदि सब एक समान है और जिसमें राग-द्वेष नहीं है वह मुझे सबसे प्रिय है | जो व्यक्ति इन द्वंद्वों से निकल गया है और निर्द्वंद्व अवस्था को उपलब्ध हो गया है, फिर उसके गुणों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना असंभव है | ऐसे व्यक्ति में प्राकृतिक गुण सदैव अपनी वास्तविक स्थिति में बने रहते हैं | जिसने जीवन में द्वंद्व (Conflict) पर नियंत्रण नहीं किया वह गुण और कर्म के जाल में लिप्त होकर फंसता जाता है | ऐसे व्यक्ति में कर्म ही गुणों में परिवर्तन कर देते हैं जो अनन्त जन्मों तक उसके साथ चलते रहते है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, February 20, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 47

गुण-कर्म विज्ञान – 47
          ययाति-प्रसंग के यहाँ उल्लेख करने का मंतव्य केवल इतना मात्र ही नहीं है कि मैं आपको बता सकूँ कि हमारे सनातन-शास्त्र विज्ञान से कितने आगे की बात कहते हैं | इतना बताना तो केवल आत्मप्रशंसा करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा | मैं तो उससे भी आगे की बात कह रहा हूँ | ययाति के युवा होने के बाद जो परिस्थिति उनके समक्ष आई, वह युवावस्था प्राप्त करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है | राजा ययाति श्रीमद्भागवत महापुराण में कहते हैं-
        न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |
        हविषा  कृष्णवर्त्मेव   भूय  एवाभिवर्धते || भागवत – 9/19/14 ||
     अर्थात विषयों के भोगने से कभी काम-वासना शांत नहीं हो सकती बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और अधिक भड़क उठती है, वैसे ही भोग वासनाएं भी भोगों से और अधिक प्रबल हो उठती है | इस बात का अनुभव जब ययाति को हो जाता है, तब उसके लिए पुरु से प्राप्त यौवन भी बोझिल लगने लगता है | इसी प्रकार वैराग्य-शतकम् में राजा भर्तृहरि कहते हैं –
      भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः
      तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः |
      कालो न यातो वयमेव याताः
      तृष्णा: न जीर्णा वयमेव जीर्णाः || वैराग्य-शतकम्-7 ||
अर्थात हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं |
           भविष्य में विज्ञान से हम वह सब कुछ प्राप्त कर सकेंगे जो हमारे सनातन-शास्त्रों में लिखा है परन्तु उसको प्राप्त करने के बाद जो स्थिति हमारे सम्मुख उपस्थित होगी, वह राजा ययाति की स्थिति से भिन्न नहीं होगी | हमें यही विचार करना है कि युवावस्था प्राप्त करने के बाद भी ययाति उस काम से तृप्त क्यों नहीं हो पाए, जिसके लिए उन्होंने पुरु से उसकी युवावस्था मांग कर ले ली थी | भविष्य में इस प्रकार युवावस्था के स्थानान्तरण का साधन खोज लेने के लिए कोई न कोई शुक्राचार्य मिल ही जायेगा, परन्तु उसके आगे क्या होगा, उसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं | यह गुणों के स्थानान्तरण का उदाहरण ही है जिसमें एक काम अतृप्त व्यक्ति पहले अपनी काम-तृप्ति के लिए अपने पुत्र से गुण लेता है और फिर इस बात का ज्ञान हो जाने से कि काम से कभी कोई तृप्त नहीं हो सकता, यौवन के उन गुणों को वापिस अपने पुत्र को लौटाकर अपने स्वाभाविक गुणों को उत्थान के मार्ग की ओर मोड़ देता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Sunday, February 19, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 46

गुण-कर्म विज्ञान – 46
              मानव देह बड़ी ही जटिल (Delicate) व उच्च स्तर की देह है | इस शरीर में प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि सब कुछ इसमें व्यवस्थित तरीके (well-arranged manner) से और नियमानुसार (According to rules) ही घटित हो सकता है | कब किस रासायनिक तत्व (Chemical element) का स्तर रक्त (Blood level) में बढ़ाना है अथवा कम कर देना है, सब कुछ एक नियम के अंतर्गत एवं पूर्व निश्चित होता है | ऐसा किस प्रकार होना संभव है, विज्ञान के लिए अभी भी अबूझ पहेली बना हुआ है | हम विज्ञान के जानकार यह तो जानते हैं कि पुरुष हार्मोंस (Male hormones) शरीर में कब बढ़ते हैं और फिर कब कम होना शुरू हो जाते हैं, परन्तु यह नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है ? विज्ञान कहता है कि एक हार्मोन दूसरे हार्मोन को प्रभावित करता है परन्तु फिर उस दूसरे हार्मोन को कौन नियंत्रित करता है ? जब सभी हार्मोन्स का नियंत्रण मस्तिष्क में सहित पीयूष-ग्रंथि (Pituitary gland)  के पास है, तो फिर वही प्रश्न वापिस खड़ा हो जाता है कि पीयूष ग्रंथि का नियंत्रण किस के पास है ?  अभी भी यह स्पष्ट नहीं है | विज्ञान कहता है कि यह सभी ग्रंथियां एक दूसरे पर निर्भर हैं | एक का कार्य दूसरे की कार्य क्षमता से सम्बंधित रहता है | इन सभी ग्रंथियों में मुख्य ग्रंथि पीयूष-ग्रंथि है, मान लेते हैं परन्तु इसका भी तो कोई न कोई नियंता (Controller) होगा ही ? सनातन शास्त्रों में प्रत्येक ऐसी सभी समयबद्ध (Time bound) होने वाली क्रियाओं के कारण स्पष्ट रूप से वर्णित किये गए हैं | हमारे ऋषियों ने गहन शोध के उपरांत ऐसी सभी क्रियाओं को भी पूर्वजन्म के कर्मों के परिणाम से सम्बंधित होना माना है |
                 केवल इतना ही नहीं हमारे शास्त्र तो इससे भी कहीं बहुत आगे की बात भी कहते हैं | शास्त्र तो इन गुणों के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्थानांतरित करने की बात तक कहते हैं | वह तो हार्मोन्स को भी बिना किसी दिखाई देने वाली प्रक्रिया के केवल विद्युत तरंगों के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्थानांतरित किये जाने तक की बात भी कहते हैं |  श्री मद्भागवत महापुराण में ययाति-प्रसंग में इसी प्रक्रिया को सांकेतिक रूप से बताया भी गया है | राजा ययाति को इसी विधि के  द्वारा उसके पुत्र पुरु ने अपने पुरुष हार्मोन्स स्थानांतरित कर दिए थे, जिससे ययाति तो पुनः युवा हो गये थे और पुरु ने उनके स्थान पर स्वयं के लिए वृद्धावस्था को स्वीकार कर लिया था | बाद में ययाति ने ये हार्मोन पुरु को वापिस लौटा भी दिए थे, जिनसे पुरु पुनः युवा हो गया था |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ .प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, February 18, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 45

गुण-कर्म विज्ञान – 45             
             आयुर्वेद, जो कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार है, कहता है कि शरीर के प्रत्येक रोग के लिए प्रकृति के तीन गुण ही जिम्मेवार होते हैं | जब इन तीन गुणों का संतुलन बिगड़ जाता है तब व्यक्ति रोग ग्रस्त हो जाता है | इन तीन गुणों में पैदा हुए असंतुलन को हम दोष कह देते हैं जैसे कफ-दोष, वात-दोष और पित्त-दोष | कफ़ प्रकृति के भौतिक गुण से सम्बंधित है, वात विद्युतीय गुण से सम्बन्धित है जबकि पित्त रासायनिक गुण से सम्बंधित है | आयुर्वेद कहता है कि जब कोई एक गुण बढ़ता है अथवा कम हो जाता है तब इसे ‘इन गुणों में कोई दोष उत्पन्न हो गया है’ ऐसा कहा जाता है | ऐसी परिस्थिति पैदा होने पर शरीर में किसी न किसी रोग का जन्म अवश्य होता है | अतः शरीर की निरोग अवस्था के लिए प्रकृति के तीनों गुणों में आपसी संतुलन होना आवश्यक है | तीनों गुणों के मध्य असंतुलन पैदा हो जाने से ही व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है | किसी भी एक दोष के दीर्घ अवधि तक बने रहने के कारण यह दोष प्रकृति के गुणों को स्थाई रूप से प्रभावित करते हुए उन्हें परिवर्तित कर देते हैं, जो आगे जाकर नए जन्म में जन्म-जात रोग (Congenital diseases) व वंशानुगत-रोग (Hereditary diseases) के रूप में सामने आते हैं |
             विज्ञान के अनुसार जन्म-जात रोग गर्भावस्था में माँ के विभिन्न प्रकार के विषाणुओं (Viruses) अथवा रसायनों (Chemicals) या घातक क्ष-किरणों (X-Rays) व अन्य  रेडियोधर्मिता (Radioactive) वाले पदार्थों के संपर्क में आने से होते हैं | जबकि वंशानुगत-रोग जीन्स (Genes) में परिवर्तन हो जाने के कारण होते हैं | विभिन्न गुण-सूत्रों (Chromosomes) पर स्थित ये जींस (genes) कई प्रकार के कारणों से प्रभावित होकर परिवर्तित हो जाते हैं जिस कारण से पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले रोग अस्तित्व में आ जाते हैं | इसके अतिरिक्त जीवन में कभी-कभी जो रोग शरीर में अनायास ही उभर आते हैं, उनके पीछे भी गुणों में तात्कालिक परिवर्तन हो जाना ही एक मात्र कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, February 17, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 44

गुण-कर्म विज्ञान – 44  
कर्मों का जीवन पर प्रभाव-
       कर्म और उसका प्रकृति के गुणों पर पड़ने वाले प्रभाव को जान लेने के उपरांत यह जानना आवश्यक है कि ये गुण-कर्म हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं ? तो आइये, सर्वप्रथम  हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि कर्मों का वर्तमान जीवन में और भावी जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है ? जितने भी शरीर के भौतिक, रासायनिक गुण और विद्युतीय गुण हैं, उनमें से किसी एक में अथवा सभी में विकार आने पर व्यक्ति रोगी बन जाता है | भौतिक गुणों में परिवर्तन आने से शरीर के कार्मिक अंगों में विकार पैदा हो जाता है जैसे दुर्घटना में अंग-भंग हो जाना, शरीर में कैंसर जैसी बीमारी का होना आदि | रासायनिक गुणों में विकार आ जाने से व्यक्ति के शरीर की क्रियाओं पर असर पड़ता है जैसे अपच का शिकार होना, अतिसार रोग, हार्मोन्स का असंतुलित हो जाना, गर्भ का गिर जाना, गर्भ-धारण न कर पाना, गर्भाधान में सक्षम न होना, मधुमेह आदि | इसी प्रकार विद्युतीय गुणों में विकार पैदा हो जाने से व्यक्ति का मानसिक रोगी हो जाना है | आप यह जानकर आश्चर्यचकित रह जायेंगे कि जो भी आधुनिक युग की बीमारियाँ हैं, प्रायः इन विद्युतीय गुणों में विकार आने से ही हो रही है | हमारे धर्म-शास्त्रों में सहस्राब्दियों पहले ही इन बीमारियों के बारे में स्पष्ट करते हुए इनसे बचकर रहने को कहा गया है | ये बीमारियाँ हैं- राग-द्वेष, मान-अपमान की भावना, मोह, लोभ, ममता, क्रोध, असंतुष्टि की भावना, विषाद, अभिमान आदि | यह सभी मानसिक विकार हैं जो विद्युतीय गुणों में विकार आने से पैदा होते है |
             जीवन में ऐसा कभी नहीं होता कि केवल एक गुण ही प्रभावित होता हो | यह तो हो सकता है कि एक गुण अधिक प्रभावित हो परन्तु साथ में शेष दो गुण भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते | भौतिक गुण प्रभावित होते हैं तो व्यक्ति की केवल कार्य क्षमता प्रभावित होती है और भौतिक गुण अत्यल्प रूप से रासायनिक और विद्युतीय गुणों को भी प्रभावित करते हैं | रासायनिक गुणों से शारीरिक क्रियाएं प्रभावित होती है और साथ में वह भौतिक गुण को ज्यादातर प्रभावित करती ही है और विद्युतीय गुणों को भी | जबकि विद्युतीय गुणों में विकार आने पर वे भौतिक और रासायनिक गुणों, दोनों को ही प्रभावित करते है | हम जानते हैं कि जो भी कर्म इस शरीर द्वारा होते हैं, वे सभी इन्हीं तीनों गुणों से ही होते हैं और फिर ये कर्म ही इन तीनों गुणों को प्रभावित भी करते हैं | इस प्रकार गुण-कर्म, कर्म-गुण का एक अकाट्य चक्र बन जाता है जिसको तोडना बहुत ही मुश्किल हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल 

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, February 16, 2017

गुण-कर्म विज्ञान -43

गुण-कर्म विज्ञान – 43
                परमात्मा कहते हैं कि शरीर के नष्ट हो जाने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कर्म और गुण भी उसके साथ ही नष्ट हो गए हैं | सभी कर्म गुणों के रूप में चित्त के साथ संलग्न हो गए हैं और वे जीवात्मा के द्वारा दूसरा शरीर प्राप्त कर लेने का इंतजार कर रहे हैं | ज्योंही जीवात्मा को नया शरीर प्राप्त होगा, उसके साथ गए सभी गुण आपस में क्रिया करना प्रारम्भ कर देंगे और एक नई जीवन-यात्रा प्रारम्भ हो जाएगी | यह नई यात्रा पूर्ववर्ती जीवन यात्रा के अंतिम छोर से ही आगे बढ़ना प्रारम्भ करती है, ऐसे में उसे नई यात्रा न कहकर अनवरत चलने वाली यात्रा कहना अधिक उपयुक्त होगा | इस अनवरत यात्रा में केवल साधन (शरीर) बदलते रहते हैं, यात्री वही रहता है | अतः देह के खो जाने पर ‘सब कुछ खो गया है’, कहना अनुचित है | एक साधन छूटता है तो दूसरा नया साधन अवश्य ही उपलब्ध होगा और ऐसे विभिन्न प्रकार के साधन तब तक उपलब्ध होते रहेंगे, जब तक आपकी यात्रा पूरी नहीं हो जाती | इस बात को स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं-
                  तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् |
                 यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ||गीता-6/43||
अर्थात वहां उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग को वह अनायास ही पुनः प्राप्त कर लेता है, और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से वह फिर से सिद्धि प्राप्त करने के लिए पहले से अधिक प्रयत्न करता है |
             संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग से तात्पर्य उन गुणों का विद्युत संकेतों में अंकन ही है, जो चित्त के साथ जीवात्मा के रूप में शरीर के देहावसान होने पर उसे छोड़ देते हैं | चित्त में मन, बुद्धि और अहंकार तीनों समाहित है परन्तु कर्मों का प्रारम्भ नए शरीर में बुद्धि के प्रभाव से ही प्रारम्भ हो सकता है | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण यहाँ पर स्पष्ट कर रहे हैं कि गुणों और बुद्धि के संयोग से वह नया शरीर उन कर्मों को अनायास ही प्राप्त कर लेता है | अनायास से अर्थ है बिना किसी विशेष प्रयास के क्योंकि ये गुण इस शरीर में पुराने शरीर के द्वारा किये गए कर्मों के आधार पर ही उपलब्ध हुए हैं | एक मानव जन्म में किये गए प्रयास व कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जाते हैं बल्कि वे नए जीवन का आधार भी तैयार करते हैं | जिसके फलस्वरूप ऐसी देह और ऐसा परिवार मिलता है जहाँ पूर्वजन्म के शरीर से संग्रह किये गए कर्म और बुद्धि के संयोग से व्यक्ति नए जन्म में अपने कर्मों को गति प्रदान कर लक्ष्य प्राप्त कर सकता है | ऐसा तभी संभव हो सकता है जब पूर्वजन्म के सभी गुण और कर्म बुद्धि के साथ नए शरीर को मिले | जहाँ प्रकृति के गुणों के साथ बुद्धि और मन दोनों की उपस्थिति हो, वहां कर्म का होना अवश्यम्भावी है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, February 15, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 42

गुण-कर्म विज्ञान – 42
             इस प्रकार यह संसार कर्म के कारण निरंतर गतिमान बना रहता है | आत्मा विवश होकर चित्त के साथ एक शरीर से दूसरे शरीर में भ्रमण करती रहती है | कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते, उनका फल अवश्य ही प्राप्त होकर रहता है | इस महत्वपूर्ण बात को गीता में स्पष्ट किया गया है | भगवान श्री कृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन पूछ रहे हैं-
                   कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति |
                   अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ||गीता-6/38||
अर्थात हे महाबाहो ! क्या भगवत प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय रहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादलों की भांति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ?
          इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को पूछ रहा है कि कोई व्यक्ति किसी निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कर्म कर रहा है और वह बीच में ही अपना मार्ग बदल लेता है अथवा वह अपना उद्देश्य अन्य किसी कारण से उस जीवन में पूरा नहीं कर पाता तो क्या वह उस उद्देश्य को नए जन्म में जाकर भूल जाता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता ? उसके इस एक जन्म में किये गए प्रयास व कर्म कहीं नष्ट तो नहीं हो जाते ? कर्म नष्ट होने का अर्थ है गुणों का नष्ट हो जाना | गुण और कर्म एक दूसरे के पूरक हैं | अगर कर्म नष्ट होते हैं तो फिर केवल गुणों के उपस्थित रहने का कोई औचित्य नहीं है | कर्म नष्ट हो जाने का अर्थ है, व्यक्ति का नष्ट हो जाना | जब कर्म और गुण दोनों ही नष्ट हो जाते हैं तो फिर आत्मा जीवात्मा से मुक्त हो गई, समझो | ऐसे में संसार-चक्र का थम जाना निश्चित है परन्तु सामान्य परिस्थितियों में ऐसा होना संभव नहीं है | ऐसे में अर्जुन का यह प्रश्न करना उचित ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, February 14, 2017

गुण-कर्म विज्ञान - 41

गुण-कर्म विज्ञान – 41
कर्म का गुणों पर प्रभाव-
            गुण से कर्म बनते हैं और कर्म से गुण बनते हैं | यह एक प्रकार की दुतरफा यानि प्रतिवर्ती क्रिया (Reversible action) है | कहने का अर्थ है कि गुण से कर्म होते हैं और फिर ये कर्म गुणों को परिवर्तित कर देते हैं | ऐसा संभव होता है, निरंतर एक प्रकार के ही कर्मों को बार-बार दोहराए जाने से | जिस प्रकार रस्सी से कुएं में से लगातार कई दिनों तक पानी निकालने से हाथ की हथेली में एक प्रकार का कडापन आ जाता है, वह भौतिक गुण में परिवर्तन का एक उदाहरण है | इसी प्रकार पेटू व्यक्ति का आमाशय सदैव अत्यधिक मात्रा में भोजन करने के कारण बड़े आकार का हो जाता है | सदैव मिष्ठान के प्रति आसक्ति रखने वाले व्यक्तियों के रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रण में रखने के लिए अग्नाशय (Pancreas) से इन्सुलिन (Insulin) अधिक मात्रा में स्रावित (Secrete) होती रहती है जो कि रासायनिक गुण में परिवर्तन का एक उदाहरण है | इसी प्रकार कामी पुरुषों के रक्त में टेस्टोस्टेरोन (Testosterone) नामक पुरुष हार्मोन्स का स्तर (Level) ऊँचा (High) देखा गया है | राग-द्वेष, क्रोधी, अहंकारी व्यक्तियों में मस्तिष्क की विद्युतीय तरंगों में अति सक्रियता व विविधता मापी गयी है, जो कर्मों के द्वारा विद्युतीय गुण प्रभावित होने का एक उदाहरण है |
                तीन प्रकार के प्राकृतिक गुणों में चाहे जिस प्रकार के गुण/गुणों में परिवर्तन हो जाते हों, वे सभी परिवर्तन विद्युत संकेतों के रूप में ही चित्त में अंकित होते है | मन, बुद्धि और अहंकार को सामूहिक रूप से चित्त अथवा अंतर्मन कहा जाता है | इस प्रकार जीवात्मा में मन, बुद्धि और अहंकार, तीनों ही आत्मा के साथ सम्मिलित रहते हैं और देहावसान होने पर शरीर को छोड़कर आगे की यात्रा पर निकल पड़ते हैं | संचित-कर्म तो विभिन्न परिवर्तित गुणों के रूप में मन (चित्त) में अंकित रहते हैं | अहंकार भावी जन्म और नए शरीर को प्राप्त करने में सहयोग प्रदान करता है जबकि बुद्धि प्राप्त हुए शरीर में जाकर मन के माध्यम से संचित-कर्मों का फल दिलाने के लिए काम्य-कर्म प्रारम्भ कराने में भूमिका निभाती है | इस प्रकार मन, बुद्धि और अहंकार, तीनों ही सूक्ष्म विद्युत संकेतों के रूप में आत्मा  के साथ संलग्न होकर एक शरीर से दूसरे भौतिक शरीर की यात्रा करते रहते हैं | त्याग देते हैं | जीवात्मा में से जीव अर्थात मन, बुद्धि और अहंकार तो नये शरीर में प्रवेश कर कर्मों का प्रारम्भ करवा देते हैं तथा आत्मा उदासीन (Neutral) अवस्था में मात्र दृष्टा (Viewer) की भूमिका में उस नए शरीर में उसके अवसान होने तक उपस्थित रहती है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||