Wednesday, July 31, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१८|चित्त |

क्रमश:
     गीता में भगवान ने किसी जीव को उत्पन्न करने के लिए पांच तत्वों,पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय,दस इन्द्रियों के अलावा मन,बुद्धि और अहंकार आवश्यक बताये है,जो कि प्रकृति से पैदा होते हैं|जबकि श्रीमद्भागवत महापुराण में इनके अतिरिक्त चित्त को भी शामिल किया है|चित्त को भी प्रकृति से उत्पन्न माना गया है|हालाँकि मन और चित्त में स्थिति के अनुसार कोई फर्क नहीं है,दोनों शरीर और आत्मा को जोड़ते है|अंतर केवल गुणात्मक है|अन्य शब्दों में कहा जाये तो इन को प्रयायवाची कह सकते है|मन और चित्त एक ही सिक्के के दो पहलू है|मन को पट्ट और चित्त को चित्त कह सकते है|मन का जो किनारा शरीर व संसार को छूता है वह मन है और दूसरा किनारा जो आत्मा को छूता है वह चित्त कहलाता है|दोनों शब्द केवल शब्दों का फेर है|मन कभी भी चित्त बन सकता है और चित्त कभी भी मन|
                                  मन का हिस्सा जो बुद्धि से प्रभावित होता है और आत्मा भी उसे प्रभावित करता है ,उसे अंतःकरण भी कहते हैं|इसलिए अन्तःकरण की आवाज ज्यादा मायने रखती है,बजाय मन की आवाज के|व्यक्ति जब सांसारिक मोहजाल में फंसा रहता है और उसके मस्तिष्क पर काम और वासनाएं हावी होने लगती है तब वह चित्त यानि अन्तःकरण अथवा अंतर्मन की आवाज की उपेक्षा करनी शुरू कर देता है|यहीं से चित्त का परिवर्तन मन में होने लगता है|इस आवाज की लगातार उपेक्षा करते जाने से उस व्यक्ति को इसका सुनाई देना भी बंद हो जाता है|ऐसी स्थिति में चित्त के स्थान को मन पूर्ण रूप से घेरकर समस्त स्थान पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेता है|यह मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है|इस त्रासदी से निकलना मनुष्य के लिए लगभग असंभव हो जाता है|इस संसार में डाकू से महर्षि बनने के उदाहरण एक दो से ज्यादा नहीं है|जब चित्त की आवाज सुनकर मनुष्य अच्छी राह पर चल देता है तो फिर परमात्मा से उसकी दूरी तुरंत समाप्त हो जाती है,कोई इंतज़ार नहीं करना होता|फिर वह स्वयं ही परमात्मा स्वरुप होते होते परमात्मा ही हो जाता है|
                                           यह सब पढना और लिखना जितना आसान है|जीवन में उतारना उतना ही मुश्किल|क्योंकि कर्ता भाव हमें इसे जीवन में उतारने से रोक देता है|हम ही इस संसार में सभी कार्य करने वाले बन जाते हैं|यह सब हमारे चित्त को प्रभावित करती है और मन प्रभावशील हो जाता है|सब "मैं" ही हूँ , यह मन का स्वभाव है,सब परमात्मा है यह चित्त का स्वभाव है|जब आप मन के अधीन होते हैं, तब आप कुछ ना करते हुये,केवल सोचते हुये भी सब कुछ करते है(कर्म-बंधन) ,और जब आप चित्त के अधीन होकर कुछ करते है ,तो आप सब कुछ करते हुये भी कुछ नहीं करते हैं|(कर्म-संन्यास)|कर्म बंधन आप को जन्म-मरण के चक्र से बाहर नहीं आने देता ,जबकि कर्म संन्यास मुक्ति का मार्ग खोलता है|गीता में भगवान कहते है-
                                     यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः|
                                     इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः||गीता २/६०||
अर्थात्,हे अर्जुन!आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली अर्थात् अपना प्रभुत्व कायम करने के स्वभाव वाली इन्द्रियां यत्न करते हुये बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती है|
      इस श्लोक से स्पष्ट है कि जब मनुष्य को भोग प्रधान कर्म करने में आनंद आने लगता है तो इन्द्रियां मन पर अपना प्रभाव कायम कर लेती है| जिस कारण मनुष्य अधिक आनंद उठाने के लिए कर्म करने को विवश हो जाता है|वह कर्म के साथ अपने आप को बांध लेता है-यही कर्म-बंधन है|
                                          कर्म-बंधन में व्यक्ति को  अतुलनीय आनंद की अनुभूति होती है|कर्म-संन्यास को वह एक काल्पनिकता मानता है|आज जो सामने है उसको नकारना असंभव है|जो अभी सामने नहीं है,वह है भी या नहीं,इसी सोच में पूरा जीवन समाप्त हो जाता है|फिर कोई  कहाँ से कर्म-बंधन छोड़ कर कर्म-संन्यास को उपलब्ध होगा?इस देश के नागरिकों की यही विडम्बना है|हम योग नहीं कर सकते,जिम जा सकते हैं|हम घर पर निम्बू पानी नहीं पियेंगे,बाहर की बोतलबंद पेय  पी लेंगे;घर पर शाम को बनी रोटी अगले दिन सुबह नहीं खायेंगे,महीने पहले के बने बिस्किट खा लेंगे;छः महीने के बच्चे को डिब्बाबंद खाद्य  देना पसंद करेंगे;घर पर सूजी की खीर नहीं खिलाएंगे,ऐसे सैंकडों उदहारण मिल जायेंगे|काश!इस चित्त और मन को पश्चिम का कोई वैज्ञानिक सिद्ध कर दे तब फिर हम  भी इन सब पर विश्वास कर सकेंगे| हमारे सभी शास्त्र वैज्ञानिक पुष्टि कर के लिखे हुये हैं,विश्वास तो हमें ही करना होगा|अन्यथा हमारे पास चित्त न होकर मात्र मन होगा और कर्म-संन्यास के स्थान पर सिर्फ कर्म-बंधन|हमारा भविष्य हम ही तय कर सकते है,कोई अन्य नहीं|
क्रमश:
              || हरि शरणम् || 

Tuesday, July 30, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१७|मन-६

क्रमश:
                        गीता के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं, कर्म,अकर्म और विकर्म|इनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें अलग तरीके से तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है-सात्विक, राजसिक और तामसिक कर्म| मनुष्य के कर्म ,जो भी वह अपने जीवन में करता है ,वे सब प्रकृति के गुणों(Characteristics of nature)के कारण ही संभव है|गुण भी तीन प्रकार के होते है-सात्विक,राजसिक और तामसिक|
                                                   मन के बारे में पूर्ण जानकारी हो जाने पर पता चलता है कि मन आत्मा को शरीर से जोड़े रखने की एक कड़ी है|जिसका स्वयं का कोई उर्जा स्रोत नहीं होता ,बल्कि वह दो उर्जा स्रोतों के बीच एक सामंजस्य पैदा करता है जिससे संसार की सभी क्रियाएँ सामान्य रूप से संचालित होती रहे|मन शुरुआत में एक ठहरे हुये जल की झील के समान होता है,जिसमे छोटा सा एक कंकड डालने से ही हलचल मच जाती है|इस हलचल से उत्पन्न तरंगे दोनों ही तटों को प्रभावित करती है-आत्मा को भी और शरीर को भी|इस हलचल से प्रभावित ना होना लगभग असंभव होता है|
                                    मन और शरीर का उद्भव ईश्वर की प्रकृति से होता है|और प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण तीनो गुण इनमे उपस्थित होते है|कोई भी मन और शरीर इन तीनो गुणों से अछूता नहीं हो सकता|किसी में एक गुण की प्रधानता होती है तो किसी में अन्य की|प्रधान गुण के कारण उस व्यक्ति का वैसा ही आचरण होता है और वह उसी के अनुरूप कर्म करता है|
     
                                   गीता में भगवान कहते हैं-
                               सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा:|
                               निबध्नन्ति  महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्||गीत१४/५||
                               अर्थात्, हे अर्जुन!सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण-ये  प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं|
     यहाँ जो तीन गुणों के बारे में भगवान बता रहे हैं ,वे सब शरीर और जीवात्मा को बांधे रखने की एक कड़ी है|इसी प्रकार मन भी जीवात्मा को शरीर से जोड़ने की एक कड़ी है|गुणों के अनुरूप ही कर्म होते है,जो फिर से मन में संचित होकर पुनर्जन्म को निर्धारित करते हैं|
                    विज्ञानं के अनुसार अगर देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर और उसके समस्त अंगों में विद्युत उर्जा निरंतर बनी रहती है ,जिसके कारण जैव विद्युत-चुमबकीय क्षेत्र(Bio Electromagnetic field) सक्रिय रहता है|किसी एक अंग के इस क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन का असर दूसरे अंग के क्षेत्र को प्रभावित करता है|इस परिवर्तन होने को ही कर्म होना कहते हैं|उदाहरण के तौर पर अगर पेट यानि आमाशय (Stomach)में इस क्षेत्र में परिवर्तन होता है , तब हमें भूख लगने या पेट भर जाने आदि का अनुभव होता है|यह परिवर्तन हाथों में उपस्थित क्षेत्र को प्रभावित करता है जिससे खाना शुरू करने या खाना बंद करने की प्रकिया होती है|यहाँ गुण अमाशय में उपस्थित जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र है और कर्म वह प्रकिया है जो इस क्षेत्र में परिवर्तन आने से घटित होती है| यह उदाहरण जैविक कर्म का है|एक अन्य उदहारण भौतिक कर्म का लेते है-आप हमेशा प्रातः भ्रमण को जाते है|प्रतिदिन सुबह आपके मष्तिष्क के जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन आता है,वह आपके शरीर की अन्य मांसपेशियों के क्षेत्र को प्रभावित करता है जिससे आपके भ्रमण की प्रकिया शुरू हो जाती है|इसी प्रकार भ्रमण के दौरान आपके कान अगर पीछे से दौड़कर आते हुये  पशुओं की आवाज सुनते है,तो यह सब  कान के  भीतरी यंत्र में इस क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन के कारण होता है |यह परिवर्तन अनायास ही आपके पैरों में उपस्थित इसी क्षेत्र को प्रभावित करता है,जिससे आप अचानक एक झटके के साथ उछलकर उन पशुओं के रास्ते से हट जाते हैं|यह प्रतिक्रियात्मक कर्म का एक उदाहरण है|इन कर्मों से  जो विद्युत चुम्बकीय  क्षेत्र उत्पन्न होता है वह मन में अंकित यानि रेकॉर्ड होता है|यह फिर से शरीर को और आत्मा को प्रभावित करता है|जिस कर्म को करने से मनुष्य को आनंद आता है,मन की इसी रिकार्डिंग से पुनः शरीर को वही कर्म दोहराने का आदेश मिलता है |यह प्रक्रिया सतत जीवन भर चलती रहती है,और व्यक्ति भौतिक कर्म करते करते विकर्म की तरफ अग्रसर होता जाता है|उसे यह भान भी नहीं होता कि इन सब का लेख मन के एक हिस्से में अंकित हो रहा है,और जिनका परिणाम उसे अगले जन्म में मिलेगा|
                                     इस प्रकार हम देखते है कि  समस्त कर्म  इन जैव विद्यत चुम्बकीय क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तन मात्र ही है,और ये क्षेत्र प्रकृति के गुण ही है|इसको ही गीता में सभी गुण, गुणों में ही वरत रहे है,ऐसा कहा गया है|जिस व्यक्ति को इसका भान हो जाता है वह फिर भौतिक कर्म से विकर्म की और जाने की बजाय अकर्म की तरफ जाने का प्रयास करता है|जब वह इसमे सफल हो जाता है तब उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते है,फिर वह कर्म करते हुये भी कर्म में बंधता नहीं है|कर्म में बंधने का अर्थ यह है की इन कर्मों के लेख मन के किसी भी  हिस्से में अंकित नहीं होते है| वास्तविकता में इसी स्थिति को मुक्त होना या मोक्ष प्राप्त होना कहते है|
      क्रमश:
                || हरि शरणम् ||
                                    

Monday, July 29, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|१६|मन-५

क्रमश:
        इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-(१)जैविक कर्म (२)प्रतिक्रियात्मक कर्म और (३)सक्रिय कर्म |फिर सक्रिय कर्म भी तीन प्रकार के होते है-(अ )भौतिक कर्म (ब)अकर्म और (स )विकर्म|
जैविक कर्म शरीर में होने वाले निश्चित कर्म है,जिनका मन से कोई सम्बन्ध नहीं है|प्रतिक्रियात्मक वे कर्म है जो मन के साथ पूर्वजन्म से संचित कर्म के रूप में आते है और इस जन्म में परिणाम देने के लिए प्रतिक्रियात्मक रूप से होते है|तीसरे कर्म जो इस जन्म में सक्रिय कर्म किये जाते है ,वे मन में अंकित होते रहते है और पुनर्जन्म में उनका परिणाम मिलता है जो अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी|सक्रिय कर्म में केवल अकर्म ही  यहाँ इस जन्म में परिणाम दे सकते है परन्तु इस कर्म को करनेवाले को न तो कर्म से लगाव होता है और न ही परिणाम से|इसलिए अकर्म मन में संचित नहीं होते और न ही अगले जन्म में उनका कोई परिणाम मिलता है|
            केवल भौतिक कर्म और विकर्म ही मन में संचित होकर आत्मा के साथ नए शरीर में जाते हैं|उनका परिणाम जो भी तय होता है,नए शरीर में ही मिलता है|जिस जन्म में ये कर्म किये जाते है उस जन्म में इन कर्मो का कोई परिणाम नहीं मिलता|वर्त्तमान जन्म में केवल पूर्व जन्म में किये भौतिक कर्म और विकर्म के परिणाम ही प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये ही प्राप्त होते हैं|
                  इस संसार में मनुष्य योनि को छोड़कर ८४ लाख तरह के जीव-जंतु और भी है|संचित कर्म(भौतिक और विकर्म) ,के अनुसार ही मनुष्य इन योनियों में जन्म लेता है और प्रतिक्रियात्मक कर्म करते हुये उनका परिणाम भुगतता है|ये सभी भोग योनियाँ होती है|यहाँ इन योनियों में किये कर्म केवल प्रतिक्रियात्मक ही होते है|कोई भी सक्रिय कर्म नहीं होते,अतः ये कर्म संचित भी नहीं होते|जब प्राणी अपनी इन योनियों में सभी का परिणाम को भोग लेता है तभी उसे मानव योनि फिर से सुलभ होती है|अगर यहाँ फिर से मानव जीवन में वह भौतिक कर्म औरविकर्म के चक्कर में आ जाता है तो उसे फिर से इन ८४ लाख योनियों में ही भटकते रहना होगा |
                                             इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा गया है|अतः महापुरुषों ने मानव जन्म में हमेशा अच्छे कर्म करने को ही महत्व देने का कहा हैं|जिससे कम से कम इन ८४ लाख भोग योनियों में तो ना भटकना पड़े|गीता में भगवान कहते है कि जो जैसा इस जन्म में करता है ,अगले जन्म में उसको सब वैसा ही मिल जाता है|व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु|
                                              उद्धारेदात्मनात्मानं   नात्मानमवसादयेत् |
                                              आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ||गीता ६/५||
अर्थात्,अपने द्वारा इस संसार सागर से अपना उद्धार करे और अपने आप को अधो गति में न डाले,क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है|
                                             बन्धुरात्मात्मंनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
                                             अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्, जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का वह आप ही तो मित्र है;और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है,वह आप ही शत्रु की तरह शत्रुता बरतता है|
        उपरोक्त दोनों श्लोकों में भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य कैसे अपने मन के द्वारा इन्द्रियों को जीतकर अकर्म के द्वारा अपना उद्धार कर सकता है;और ऐसा न कर पाने पर वह भौतिक कर्म और विकर्म करते हुये ८४ लाख योनियों में भटकते हुये जन्म-मरण के चक्कर में ही घूमता रहेगा|
               
  क्रमश:
                           || हरि शरणम् || 

Sunday, July 28, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१५|मन-४

क्रमश:
                           इस प्रकार हमने देखा कि  मानव शरीर से तीन प्रकार के कर्म संभव है|जैविक कर्म में और प्रतिक्रियात्मक कर्म में मनुष्य का कोई सक्रिय योगदान नहीं होता है,परन्तु सक्रिय कर्म ,मनुष्य के योगदान के बिना संभव नहीं है|गीता में जो कर्मयोग भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कह गया है,वह इन सक्रिय कर्म से ही सम्बन्धित है|भगवान कहते हैं-
                       किं कर्म किमकर्मेति  कवयोSप्यत्र मोहिताः|
                    तत्ते क्रम प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेSशुभात्||गीता-४/१६||
अर्थात्, कर्म क्या है, अकर्म क्या है ,इस पर विद्वान भी स्पष्टत: नहीं बता पाते हैं|वह कर्म तत्व मैं तुझे भलीभांति कहूँगा,जिसको जानकर तू इस संसार सागर से मुक्त हो जायेगा|
          यह स्पष्ट है कि अभी भी कर्मों का विवेचन कोई भी विद्वान स्पष्ट नहीं कर पाया है|इस श्लोक में भगवान जिस कर्म की चर्चा कर रहे है,वह सक्रिय कर्म की ही है|सक्रिय कर्म तीन तरह के होते है-
(१)भौतिक कर्म (Materialistic act)-यह कर्म किसी कामना के वशीभूत होकर किये जाते हैं|गीता में इन्हें केवल कर्म शब्द से ही संबोधित किया गया है|
(२)अकर्म-(Act without ambition)-वे कर्म जो बिना कामना के किये जाते हैं अर्थात् कर्ता,कर्म के साथ लिप्त नहीं होता,उसे अकर्म कहते हैं|
(३)विकर्म(Act for lust)-जब कामनाएं एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है और कर्म में लिप्तता अधिक हो जाती है,उस स्थिति में किये जाने वाले कर्म विकर्म कहलाते हैं|ये कर्म निकृष्टतम श्रेणी के माने जाते हैं|इस स्थिति में व्यक्ति अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है|
                           पहले और तीसरे कर्म संचित कर्म भी कहलाते हैं|इनका संचय ही पुनर्जन्म का कारण बनते हैं,और उनका परिणाम वहीं पर भुगतना होता है|दूसरे तरीके के कर्म अर्थात् अकर्म संचित नहीं होते और ना  ही उनका कोई परिणाम भुगतना होता है,वे यहीं पर नष्ट हो जाते हैं|
            गीता में फिर भगवान आगे कहते हैं-
                        कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च क्रम यः |
                        स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ||गीता-४/१८||
अर्थात्, जो मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है और जो कर्म में अकर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान है,वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करनेवाला है|
           भगवान यहाँ कहते कि वह सब कर्मो को करने वाला है,क्योंकि वह कर्मों में बिलकुल भी लिप्त नहीं है|अतः कर्म  करते हुये भी वह कर्मों से विलग है अर्थात् कर्मबंधन से मुक्त है|इसलिए वह बुद्धिमान और योगी कहलाने का अधिकारी है|ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुये भी कुछ नहीं करता है|इसके यह कर्म संचित कर्म भी नहीं होते हैं|
                        मन की परिचर्चा में कर्म की चर्चा आवश्यक होती है|कर्म के बिना मन की कोई उपयोगिता भी नहीं है और मन के बिना कर्म की|प्रत्येक सक्रिय कर्म मन के कारण ही किये जाते हैं,इसी प्रकार किये हुये सभी कर्म मन में ही संचित हो जाते हैं|यही मन में संचित कर्म पुनर्जन्म का कारण बनते है|और मनुष्य इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है|
  क्रमश:
             || हरि शरणम् ||


Saturday, July 27, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना-१४|मन-३

क्रमश:        
                  शरीर का अपना आकर्षण और प्रतिकर्षण बल (गुरुत्वाकर्षण बल,Gravitational force) होता है और आत्मा का अपना|जब दोनों के गुरुत्वाकर्षण बल आपस में एक दूसरे पर प्रभाव डालते है,तब एक स्थान पर दोनों का बल बराबर बराबर(Balanced) हो जाता है|वही स्थान मन का है|यह स्थिति फिर कैसे परिवर्तित होती है,यह आगे की चर्चा में आएगा|
                          एक दूसरी शक्ति या उर्जा की चर्चा यहाँ आवश्यक हो जाती है|वह है विद्युतीय उर्जा(Electrical energy)| भौतिक  शरीर का आधार भी तत्व ही है,तत्व में परमाणु यानि उर्जा|एक परमाणु का अपना एक केन्द्र(Nucleus) होता है,जिसमे प्रोटोन(Protons) के रूप में धन (Positive)आवेश रहता है|इस केंद्र के चारों और ऋण(Negative) आवेशित इलेक्ट्रोन(Electrons) परिक्रमा करते है|परमाणु विद्युत उत्पादन करते है,जिससे एक विद्युतीय क्षेत्र का निर्माण होता है|इसी तरह से ही  आत्मा का भी अपना एक विद्युतीय क्षेत्र(Electrical field) होता है|दोनों ही क्षेत्र एक दूसरे को प्रभावित करते हैं|इससे एक स्थान पर दोनों का प्रभाव बराबर होता है|इस नए बने केन्द्र का नाम ही मन है|शरीर और आत्मा का प्रभाव जब मन पर बराबर होता है,ऐसी स्थिति में मन किसी के भी पक्ष में नहीं होता है|आप इसे सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था में मन की स्थिति कह सकते है.|इस विद्युतीय क्षेत्र की विशेषता यह होती है कि यह विद्युत प्रवाह बंद होने के बाद भी बना रहता है|
               विद्युत प्रवाह के दौरान ही एक दूसरे क्षेत्र का निर्माण और होता है-चुम्बकीय क्षेत्र(Magnetic field)|विद्युत प्रवाह के बंद होने के साथ ही चुम्बकीय क्षेत्र भी समाप्त हो जाता है|जब विद्युत प्रवाह होता रहता है,तब विद्युतीय चुम्बकीय क्षेत्र(Electromagnetic field) दोनों साथ साथ होते है|इन दोनों के साथ साथ रहने और अकेले विद्युतीय क्षेत्र के रहने का इस  शरीर पर अलग अलग प्रभाव होता है|प्रत्येक जीव में उपस्थित इस विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र को जैविक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र () कहा जाता है|जीव में होने वाली सभी क्रियाएँ इसी क्षेत्र के प्रभाव से संपन्न होती है|इन क्रियाओं को ही कर्म() कहा जाता है|
               प्रत्येक जीवित शरीर में होने वाली ये क्रियाएँ मुख्यतः तीन प्रकार से होती है|
(१)जैविक कर्म(Biological act)-पहली क्रियाएँ उस प्रकार की होती है जिसमे हो रही क्रियाओं का ज्ञान जीव को नहीं होता,यानि कि उसे महसूस नहीं होता कि शरीर में कुछ घटित हो रहा है||जैसे-भोजन के पचने की क्रिया(Digestion),उपापचय(Metabolism),यकृत (Liver)और गुर्दे(Kidneys) तथा शरीर के अन्य अंगों की क्रियाएँ,अन्तःस्रावी(Endocrine glands) व बाह्य स्रावी (Exocrine glands) ग्रंथियों की क्रियाएँ,साँस लेना और ह्रदय का धडकना आदि|इन क्रियाओं को जैविक कर्म(Biological action) कहा जा सकता है|
(२)प्रतिक्रियात्मक कर्म(Reflex act)- दूसरी क्रियाएँ इस प्रकार की होती है जो किसी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है|इन क्रियाओं का ज्ञान आपको रहता है परन्तु आपका नियंत्रण नहीं|ज्ञान के अनुसार आप इन क्रियाओं को कैसे भी करना चाहे,वै होती आपके नियंत्रण में नहीं होती-क्रियाओं का परिणाम आपके पक्ष का भी हो सकता है और विपक्ष का भी |इन क्रियाओं को प्रतिक्रियात्मक कर्म(Reflex act) कहा जा सकता है|
(३)सक्रिय कर्म  (Active act)-तीसरी तरह की क्रियाएँ वे होती है जो आप अपने ज्ञान और विवेक से करते हैं,उन पर आपका नियंत्रण होता है और जो आप किसी निश्चित फल प्राप्त करने के उद्देश्य से करते है|फिर भी इसके परिणाम पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता है|इन क्रियाओं को सक्रिय कर्म( Active Act) कहा जा सकता है|
   क्रमश:
           || हरि शरणम् ||

Friday, July 26, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१३|मन-२

       क्रमश:
                                  इस प्रकार हमने देखा कि  दोनों उर्जा क्षेत्रो के प्रभाव से उत्पन्न यह तीसरा क्षेत्र ही मन  है|जिसके पास अपनी कोई उर्जा नहीं है|संसार का शाश्वत नियम है कि जिसका स्वयं का कोई उर्जा श्रोत नहीं होता या जिसमे स्वयं की उर्जा नहीं होती उसका स्थायित्व भी नहीं होता है|और ऐसा इस मन के साथ भी है|परन्तु यथार्थ रूप से  इसे स्वीकार करना बड़ा ही मुश्किल है|
                             इस संसार में जितनी भी भौतिक वस्तुए है उनसे संबधित न्यूटन द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत है| "संसार में प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित भी करती है,और प्रतिकर्षित भी करती है|आकर्षण और प्रतिकर्षण बल समान होने पर उन वस्तुओं की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता है|"जब इन दोनों बलों में विषमता पैदा होती है, तब स्थायित्व खतरे में पड जाता है|यह सिद्धांत छोटे से छोटे अणु परमाणु से लेकर विराट तक,सब पर समान रूप से लागु होता है|इस ब्रह्माण्ड में सभी कार्य एक निश्चित सिद्धांत के अनुसार ही होते हैं|जिसमे यह सिद्धात महत्वपूर्ण है कि "यहाँ जो भी है चाहे अणु में चाहे विराट में,सब एक समान है|" यहाँ पर सब इस उर्जा का खेल ही चलता रहता है|यह सब खेल ही तो ईश्वर की माया है|इसकी इस माया को पूर्णतया समझ लेना ही ईश्वर को पा लेना है|
                              इन आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों से सम्बन्धित  एकछोटा सा उदाहरण देना चाहूँगा, जिससे इस सिद्धांत को समझने में आसानी होगी|पृथ्वी और सूर्य के बीच उपरोक्त दोनों बल भी कार्य करते हैं| लाखों वर्ष पूर्व दोनों के इन बलों में असमानता पैदा होने के परिणाम स्वरुप चंद्रमा अस्तित्व में आया|आकर्षण और प्रतिकर्षण बालों में विषमता पैदा हो जाने के फलस्वरूप पृथ्वी का एक टुकड़ा टूट कर उससे अलग होकर दूर जाने लगा|जहाँ पर दोनों के बलों में संतुलन हुआ,वही यह पिण्ड स्थित  हो गया|दोनों के बलों में संतुलन बनाये रखने के लिए वह पृथ्वी के चक्कर लगाने लगा|आज चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच उसी स्थान से पृथ्वी के चारों और परिक्रमा कर रहा है,जहाँ पर सूर्य और पृथ्वी के बल  उसे समान रूप से  प्रभावित करते है|यही स्थिति आत्मा और शरीर के मध्य में मन की है|मन और चंद्रमा की तुलना हो सकती है,क्योंकि जो क्षुद्र में है वह विराट में भी है|इसी कारण से चंद्रमा को मन का देवता भी कहा जाता है|शास्त्रों में  चंद्रमा को मन के  देवता की उपाधि ऋषियों ने ऐसे ही नहीं दी है,इस के पीछे यही एक वैज्ञानिक कारण है|
                                                     कोई भी पिण्ड अगर किसी दूसरे पिण्ड की परिक्रमा कर रहा है तो उनके बीच उपरोक्त दो बलों के अलावा दो बल और कार्य करते हैं|जिन्हें क्रमश:अभिकेंद्रित(Centripetal force)और अपकेंद्रित (Centrifugal force)बल कहते हैं|अभिकेन्द्रित बल घूमने वाले पिण्ड को मुख्य पिण्ड की तरफ ले जाने की कोशिश करता है ,जबकि अपकेंद्रित बल उसे  दूर ले जाने की|दोनों बल जब समान या सन्तुलित अवस्था में रहते है,तो यथा स्थिति में परिक्रमा पथ बना रहता है|हालाँकि इन बलों का मन से ज्यादा कोई संबंध नहीं है|अभी तक मन के सम्बन्ध में आकर्षण व प्रतिकर्षण बल ही अधिक महत्वपूर्ण है|आगे हम अन्य बलों की चर्चा करेंगे,जो इस मन से सम्बन्धित है|
क्रमश:
         || हरि शरणम्  ||

Thursday, July 25, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१२|मन-१

                      शरीर का विकास किस तरह से होता है,संक्षेप में समझाने का प्रयास किया गया है|वैसे यह इतना विशाल विषय है कि इसको समझने के लिए इस विज्ञानं और श्रीमद्भागवत महापुराण का गहराई से अध्ययन करना जरूरी है|यहाँ पर ,पुनर्जन्म का विषय होने के कारण केवल उन्हीं विषयों पर चर्चा की गयी है,जिन्हें जानना जरूरी है,अन्यथा पुनर्जन्म के बारे में समझाना मुश्किल होता|फिर भी अगर आवश्यक हुआ तो सम्बन्धित विषय को साथ साथ में स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा|
                        प्रकृति के २४ तत्व तथा २५ वां महतत्व मिलकर शरीर का पूर्णरूपेण निर्माण करते है|प्रकृति के २४ तत्वों में से २० से होने वाले शारीरिक विकास की चर्चा पूर्व में कर चुके है|अब इस स्थूल विकास से सूक्ष्म विकास कि तरफ ध्यान करते है|शेष बचे चार हैं-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार|गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
             इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मनः |
             मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः ||गीता३/४२||
 अर्थात्,इन्द्रियां स्थूल शरीर से सूक्ष्म और बलवान है,इन इन्द्रियों से मन,मन से बुद्धि अधिक सूक्ष्म और बलवान है|परन्तु इन सबसे सूक्ष्म और बलवान है,वह आत्मा ही है|
                   स्थूल शरीर पांच भौतिक पदार्थों से बना है|पदार्थ का आधार तत्व है ,और तत्व का आधार परमाणु,यानि उर्जा|अतः यह स्पष्ट है कि उर्जा का स्थूल रूप ही यह भौतिक शरीर है|इस उर्जा के स्थूल रूप(Macro)से हम सूक्ष्म रूप(Micro) की तरफ चलेंगे|स्थूल शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां है,जिनके विकास की जानकारी भागवत में पूर्ण रूप से दी गयी है|इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है|इन्द्रियां तो स्थूल शरीर का ही एक भाग है ,जो हम साक्षात् देख सकते है,और उनका  अनुभव भी कर सकते है|परन्तु मन इससे भी सूक्ष्म है,जिसको हम देख तो नहीं सकते परन्तु अनुभव जरूर कर सकते है|मन ,इन्द्रियों की तरह नहीं है| ना ही इसका कोई विकास गर्भावस्था में होता है|फिर आखिर यह मन है क्या ?
                              मन शरीर की कोई अवस्था का नाम नहीं है|आत्मा और शरीर को आपस में जोड़ने वाली कड़ी का नाम ही मन है|समस्त दसों इन्द्रियां और इन इन्द्रियों के पांचो विषय(Subject,characteristics),पांच तत्वों से बने भौतिक शरीर में अवस्थित हैं|उपरोक्त सभी स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित है|मन अपरा पृकृति से सम्बन्धित है,परन्तु यह अपरा और परा यानि सूक्ष्म के बीच की अवस्था है,जो कि प्रकृति को परमात्मा से जोड़ती है|प्रकृति भी परमात्मा की ही शक्ति है|
                      प्रकृति भी उर्जा है,परमात्मा भी उर्जा है|उर्जा ,शक्ति , बल आदि एक ही है|उर्जा के बारे में आवश्यकता अनुसार पहले विवरण आ चूका है|उर्जा कभी नष्ट नहीं होती,केवल उसका स्वरुप परिवर्तित हो सकता है|उर्जा का अपना प्रभाव होता है जो उससे संबन्धित क्षेत्र को प्रभावित करता है|जब दो उर्जा क्षेत्र किसी एक जगह पर कार्य कर रहे हो तो एक नया तीसरा क्षेत्र प्रभाव में आजाता है,अर्थात् एक नया क्षेत्र बन जाता है|इस नवनिर्मित क्षेत्र से दोंनो क्षेत्र प्रभावित होते हैं,जिससे दोनों अपना अपना प्रभुत्व बनाए रखने का प्रयास करते हैं|जिससे दोनों के बीच एक संतुलन (Balance)बन जाता है|इस संतुलन के कारण उस निश्चित क्षेत्र में कोई अव्यवस्था की स्थिति नहीं बनती,और सभी कार्य सुचारू रूप से बेरोकटोक चलते रहते है|
                              मानव शरीर में भी ऐसा ही होता है|पहला उर्जा क्षेत्र यह भौतिक शरीर है,जिसमे पांच तत्व,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय शमिल है|यह पहला उर्जा क्षेत्र प्रकृति का है|दूसरा उर्जा क्षेत्र आत्मा का है|दोनों के प्रभाव क्षेत्र में जो तीसरा उर्जा क्षेत्र बन जाता है ,वही मन है|यह मन अपने मुख्य उर्जा क्षेत्रों से उर्जा लेते हुये उन्ही को प्रभावित करता है|और दोनों मुख्य उर्जा क्षेत्र अपना अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए एक सामंजस्य स्थापित कर लेते है|इस संतुलन के कारण मानव जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है|जहाँ पर भी इस  संतुलन में विषमता आती है,जीवन का सुगमता पूर्वक चलना दुर्भर हो जाता है|अतः इस संतुलन का बने रहना आवश्यक हो जाता है|
          क्रमश:
                      ||हरि शरणम् ||  

Wednesday, July 24, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:११|भ्रूण विज्ञानं-२ (Embryology)

                             अभी तक हम शास्त्रों में वर्णित ज्ञान की आधुनिक विज्ञानं से तुलना कर रहे थे|शास्त्रों में जो भी लिखा गया है,उसे विज्ञानं साबित कर पाया है|परन्तु अभी भी ऐसे कई ज्ञान छुपे हुये है,जिन्हें आधुनिक विज्ञानं अभी भी सिद्ध नहीं कर पाया है|आशा है एक दिन यह सब संभव होगा|भ्रूण विज्ञानं से संबधित  जो महत्वपूर्ण बातें श्रीमद्भागवत में वर्णित है,उनमे से कुछ आज प्रस्तुत कर रहा हूँ,जो अभी भी विज्ञानं की शोध से अछूती है|
            श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में इन्द्रियों के विकास की चर्चा है|जिसे संक्षेप में प्रस्तुत करना बहुत ही मुश्किल है|प्रयास कर रहा हूँ|इस अध्याय में बताया गया है कि मानव शरीर की रचना पांच महाभूतों,दस इन्द्रियों [पांच ज्ञानेन्द्रियाँ(Five senses of knowledge) व पांच कर्मेन्द्रियाँ(Five senses of act) ],पांच ज्ञानेन्द्रियों के तन्मात्र (विषय) तथा चार-मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार ;इस प्रकार कुल मिलाकर =२४|उपरोक्त सब प्रकृति के कार्य है|इनके साथ जब काल यानि पुरुष रूप साक्षात् भगवान जब २५ वें तत्व के रूप में सक्रिय होते है तभी मानव शरीर का निर्माण संभव होता है|यहाँ पुरुष रूप भगवान महतत्व या वासुदेव(Chief element) भी कहलाते हैं| महतत्व को स्पष्ट करते हुये गीता में भगवान कहते हैं-
                               प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
                              भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ||गीता-९/८ ||
   अर्थात्, अपनी प्रकृति को अंगीकार करके यानि वशीभूत करके ,उसी प्रकृति की सहायता से अपने कर्मानुसार जन्म-मृत्यु के अधीन इन समस्त प्राणियों की बार बार सृष्टि करता हूँ|
                          पांच महाभूत  यथा भूमि,जल,आकाश ,अग्नि और समीर;तो शरीर निर्माण के लिए मुख्य आधार है ही,इन्ही से आगे ज्ञानेन्द्रियों ,कर्मेन्द्रियों का विकास संभव होता है|ज्ञानेन्द्रियों से इन्हीं के पांच विषय (SUBJECTS i.e. Taste,Smell,Touch,Vision and Hearing)विकसित होते है| चूँकि इन्द्रियों से ही सब भोग संभव है,अतः इनके विकसित होने की जानकारी आवश्यक है|इन्द्रियां ही मन में कामनाएं पैदा करती है,जो कर्मेन्द्रियों द्वारा पूरी की जाती है|कामनाएं पूरी ना होने से क्रोध उत्पन्न होता है,क्रोध से मतिभ्रम पैदा हो जाता है जिससे मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है|कामनाएं अधूरी रह जाना ही पुनर्जन्म का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है|अतः इन इन्द्रियों के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है|
ज्ञानेन्द्रियों का विकास--
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               महतत्व(Chief element) के विकृत(Differentiation or Change) होने पर अहंकार उत्पन्न होता है|अहंकार से वैकारिक,तैजस और तामस इन तीन का प्रादुर्भाव होता है|तामस से पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है,जबकि वैकारिक से मन की|तैजस ही इन इन्द्रियों की उत्पत्ति  का मूल कारण होता है|तैजस से ही बुद्धितत्व(Intelligence) की उत्पत्ति होती है |तामस इनका मूल स्रोत है|जिसके विकृत होने पर तैजस और वैकारिक के द्वारा इन्द्रियों और मन का विकास होता है|इन सब का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है,जिसके कारण ये एक दूसरे के लिए पूरक भी हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं|गर्भावस्था के दौरान ज्ञानेन्द्रियों का विकास इस प्रकार होता है|--
    (१)कान-(आकाश) EARS-(HEARING) पांच महाभूतों की (तामस) विकृति(Differentiation) से शब्द तन्मात्र(Basic element) की उत्पत्ति होती है,जिससे शब्द का ज्ञान करने वाली श्रोनेंद्रिय यानि कान की उत्पत्ति होती है|जिसके लक्षण हैं-अर्थ का प्रकाशक,ओट में खड़े वक्ता का ज्ञान कराना और आकाश का सूक्ष्म रूप होना ;जिससे शरीर का संतुलन बनता है|यह इन्द्रिय आकाश का प्रतिनिधित्व करती है|
    (२)त्वचा (वायु)-SKIN- (TOUCH SENSATION)    इस शब्द तन्मात्र यानि आकाश में विकार होने पर स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति (त्वचा)होती है,जो कि वायु का प्रतिनिधित्व करती है|इसके लक्षण है-कोमलता,कठोरता,उष्णता और शीतलता आदि का ज्ञान कराना|
    (३)नैत्र -(अग्नि) EYES- (VISION) स्पर्श तन्मात्र यानि वायु के विकृत होने पर रूप तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|यह नैत्र है|नैत्र अग्नि यानि तेज का प्रतिनिधित्व करते है|नैत्र दृष्टेन्द्रीय है|इस इन्द्रिय से देखने का कार्य किया जाता है|
  (४)जीभ  (जल)TONGUE-(TASTE)  रूप यानि तेज के विकृत होने पर रस तन्मात्र की उत्पत्ति होती है|जीभ,जो कि जल का प्रतिनिधित्व करती है|यह स्वाद का ज्ञान कराती है|
(५)नाक -(पृथ्वी)-(NOSE)-(SMELL)  रस(जल) तन्मात्र के विकृत होने पर गंध तन्मात्र की उत्पत्ति होती है,यानि नाक ,जोकि पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करती है|यह गंध का ज्ञान करने वाली इन्द्रिय है|
     उपरोक्त सब विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण ३/२६ से लिया गया है|आधुनिक विज्ञानं इस बात से सहमत है कि सभी इन्द्रियों का विकास ECTODERM से होता है|और इस ECTODERM में विकार से अलग अलग इन्द्रियों का प्रादुर्भाव संभव होता है|आज जो STEM CELLS से अंगों का निर्माण निकट भविष्य में संभव होने जा रहा है ,वहां भागवत का यह विकार (DIFFERENTIATION)वाला सिद्धांत ही मुख्य भूमिका निभा रहा है|
               हम भारतीय लोग भी इन धर्मशास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन कर शोध कर सकते है,परन्तु देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी है|और धर्मशास्त्रों को केवल बुढ़ापे में अगला जन्म सुधारने के लिए पठन हेतु छोड़ दिया गया है|जब किसी को इस अवस्था में शास्त्र पढ़ने से शोध की सोच भी उभरती है तो उसके जीवन में ना तो  समय बचता है और न ही उर्जा|अतः आवश्यक है कि इन शास्त्रों की शिक्षा बचपन से ही दी जावे,जिससे इनका फायदा देश को मिल सके और पूर्व की भांति भारत अग्रिम पंक्ति में शामिल हो सके|
      क्रमश:
                   || हरि शरणम् ||

Tuesday, July 23, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१०|शरीर-५ भ्रूण विज्ञानं (Embryology)

                            मानव शरीर, जो हम किसी बच्चे के पैदा होने के बाद देखते है,तो बडा साधारण सा नजर आता है|एक कौशिका से पूरे शरीर बनने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल होती है,इसका हमें ज्ञान भ्रूण विज्ञानं को पढने से मिलता है|भ्रूण के विकास को जानने का प्रयास सबसे पहले अरस्तू ने ईसा पूर्व(३८४-३२२)किया था|उसके बाद से अब तक भ्रूण के विकास की जानकारी कई वैज्ञानिको ने हासिल की है|जिसके लिए उन्होंने कई उन्नत उपकरणों का सहारा लिया है|भारतीय मनीषियों के बारे में यही कहा जाता रहा है कि उन्होंने दर्शन शास्त्र के आधार पर ही प्रगति की है,विज्ञानं में नहीं|आज से लगभग ५५६० ईसा पूर्व लिखा गया "महाभारत"नामक ग्रन्थ में भ्रूण के विकास की जानकारी मिलती है, उसे पढकर बडा आश्चर्य होता है कि इतने वर्ष पूर्व भी रचनाकार को भ्रूण विज्ञानं की जानकारी हो सकती है|श्रीमद्भागवत जो कि १६५० ईसापूर्व लिखी गयी है, में भी भ्रूण के विकास की जानकारी उपलब्ध है|दोनों ग्रंथों में वर्णित जानकारी को विज्ञानं के साथ तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ|
                          हमारे ऋषियों के अनुसार स्त्री के रज (Ovum)और पुरुष के शुक्राणु (Sperm)के मिलने पर ही आगे भ्रूण(Embryo) का विकास होता है|इसके उपरांत ही जीव पनपता है|महाभारत के शांतिपर्व में वर्णन आता है की शोणित (Ovum)एवं शुक्र (Sperm)के मिलने से कलल का निर्माण होता है|कलल को युग्मनज या निषेचित अंड(Zygote) भी कहा जाता है|यह वर्णन महाभारत के शांतिपर्व ११७,३०१,३२०,३३१ एवं ३५६ तथा भागवत में ३/३१ में मिलता है|भागवत के अनुसार एक ही रात यानि १२ घंटे में ही इस कलल का निर्माण हो जाता है|कलल ५ दिनों में एक बुलबुले के आकार का हो जाता है|(भागवत ३/३१/२)(Blastula)|१० दिन में यह बेर के आकार का और कडा हो जाता है|११वे दिन यह अंडाकार नजर आने लगता है|भागवत के ३/३१/३ में स्पष्ट लिखा है कि एक माह में भ्रूण का सिर नजर आने लगता है|अगर आज इस स्थिति में सोनोग्राफी करवाई जाये तो भ्रूण का सिर नजर आएगा|इसी में आगे लिखा है कि दूसरे माह के अन्त तक भ्रूण में हाथ,पांव और शरीर के अन्य अंग विकसित होने लगते है|
      गर्भावस्था के तीसरे महीने में नाखून , बाल,हड्डियां एवं जननांगों,और गुदा का विकास होने लगता है|चौथे महीने के आते आते सात प्रकार की धातुओं(Tissues) का निर्माण होने लगता है|ये है-रस,(Tissue fluids)रक्त(Blood),स्नायु(Muscles),मेदा(Fatty tissues),अस्थि(Bone),मज्जा(Nervous tissue) और शुक्र(Reproductive tissue)|यहाँ भी भागवत और विज्ञानं में समानता है,कही कोई विरोधाभास नहीं है|पांचवे महीने में भूख और प्यास का अनुभव होने लगता है|भ्रूण विज्ञानं ने यह सिद्ध भी किया है|बच्चे की आंतों में इस अवस्था में शरीर की त्वचा के हिस्से और बाल पाए गए है,जो कि उसके शरीर से अलग होकर Amniotic fluid में गिरते रहते है|बच्चा इस द्रव को प्यास और भूख लगने पर पीता है|यह द्रव बच्चे के और गर्भाशय के बीच भरा रहता है|
       छठे महीने से बच्चा घूर्णन करने लगता है  तथा सातवें महीने से उसका मस्तिष्क भी कार्य करने लग जाता है|इस अवस्था में भी अगर बच्चा जन्म ले ले तो उसके जीवन की सम्भावना अच्छी होती है|भारतीय संस्कृति में इसी लिए गर्भावस्था की अवधि में माता को अच्छा साहित्य पढने के लिए कहा जाता है,क्योंकि  इस अवस्था में शिशु का मस्तिष्क कार्य करने लगता है और माँ की मानसिक स्थिति का बच्चे पर असर होता है|इसका सबसे बड़ा प्रमाण अभिमन्यु द्वारा अपनी माँ के गर्भ में चक्रव्यूह भेदन की कला का सीख जाना है|सात से नौ माह की अवधि के दौरान शिशु का वजन तेजी से बढता है|
   सन्दर्भ -श्रीमद्भागवत -२/१०/१७ से २२,३/६/१२ से १५,३/६/५४ से ६० --गर्भ में शिशु का विकास |
             -श्रीमद्भागवत -३/६/१से५  में २३ गुणसूत्रों के बारे में लिखा है|
             -श्रीमद्भागवत  -३/२६/६३ से ७०  में लिखा है कि शिशु के सब अंग सुचारू रूप से कार्य सात माह की गर्भावस्था में करने लग जाते हैं,फिर प्रसव काल दो माह बाद ही क्यों होता है?आज तक विज्ञानं इसका जवाब नहीं ढूंढ पाया है|इसके लिए वह शरीर में उत्पन्न होने वाले हार्मोन्स को कारण मानता है|जबकि भागवत में इसका कारण स्पष्ट किया हुआ है|
           -श्रीमद्भागवत-३/६/७ में स्पष्ट लिखा है कि भ्रूण पहले एक बार विभाजित होता है|ऐसा फिर १० बार होता है|ऐसा फिर अलग अलग चरणों में तीन बार होता है|हर विभाजन में कोशिकाओं की संख्या पहले से दुगुनी हो जाती है|विज्ञानं इन तीनों को क्रमश:Ectoderm,mesoderm व endoderm कहता है|भागवत के अनुसार इन्हीं तीन चरणों से विकसित अंगों के गुण भी तदनुसार ही होते है|
                          जब हजारों वर्ष पूर्व लिखे शास्त्रों में इतनी शोध अंकित है,तो क्यों हम भारतीय लोग अभी भी पश्चिम की खोज को ही महत्त्व देते हैं?क्या यह हम भारतीयों की २०० वर्षों की मानसिक गुलामी का प्रतीक नहीं है|जरा समय निकलकर सोचिये|
            ||हरि शरणम् ||

        Full term foetus in amniotic sac ready to deliver.

Friday, July 19, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:९|शरीर-४

क्रमश:
                 मनुष्य का जीवन चक्र इस प्रकार का है,जिसमे प्रत्येक दिन या ऐसे कह सकते है कि प्रत्येक क्षण कुछ ना कुछ बदलाव होता रहता है|यह बदलाव प्रतिदिन इतने सूक्ष्म प्रकार से होता है कि इसे हर दिन महसूस नहीं किया जा सकता है|लंबे अंतराल में हमें महसूस होता है कि शरीर में बदलाव आ रहा है|जन्म लेने के बाद शिशु अवस्था होती है, जिसमे बदलाव तेजी से होते है|शिशु का वजन तेजी से बढ़ता है,और सीखना भी|१-११/२ वर्ष का होने तक वह चलना सीख जाता है|शिशु अवस्था में मानसिक विकास की  गति बड़ी तेज होती है,और शिशु के मस्तिष्क का विकास  २ वर्ष की आयु तक लगभग पूरा हो जाता है|शिशु के बाद बाल्यावस्था में शरीर का विकास तेज गति से होता है|युवावस्था में शरीर की सभी इन्द्रियां विकसित हो जाती है|इस समय उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास अपने उच्चत्तम स्तर पर होता है|५० वर्ष उपरांत प्रोढावस्था आ जाती है|इस वय में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमता कम होने लगाती है|अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है,जब व्यक्ति की सभी शक्तियां चूक जाती है,शरीर क्षय होने लगता है और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है|
                         इस जीवन चक्र को देखने से पता चलता है कि मानसिक विकास शिशु अवस्था में,और शारीरिक विकास बाल्य से युवावस्था के दौरान चरम पर होता है|युवावस्था अर्थात् २५-५० वर्ष की उम्र के दौरान लगभग स्थिरता रहती है| ५० वर्ष की उम्र के बाद शारीरिक क्षय शुरू हो जाता है जो वृद्धावस्था के दौरान अपने चरम पर होता है|
                   इन सबसे अलग विकास की अवस्था गर्भावस्था होती है,जहाँ एक कोशिकीय अवस्था से पूर्ण शरीर का विकास ९ माह की अवधि में माँ के गर्भ में होता है|यह विकास की एक जटिल प्रक्रिया है|आज विज्ञानं आधुनिक उपकरणों से इस प्रक्रिया को समझ पाया है|भारतीय शास्त्र "महाभारत" ,जो कि लगभग ५५०० वर्ष पूर्व लिखी गयी थी,उसमे वर्णित इस विकास की प्रक्रिया को विज्ञानं की शोध से तुलना करे तो सब कुछ समान है|आश्चर्य  इसी बात का है कि आधुनिक उपकरणों के अभाव में भी ऋषियों ने शोध कर  सब कुछ स्पष्टत: वर्णित किया है|

Thursday, July 18, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश :८|शरीर-३

क्रमश:
          शरीर निर्माण की साधारण प्रकिया अभी हमने समझी है|सतही तौर पर यह आसान लगाती है,परन्तु यह बड़ी जटिल प्रक्रिया है|परन्तु यह प्रक्रिया हमेशा एक कौशिका से ही शुरू होती है|माता एवं पिता से एक एक कौशिका मिलकर फिर एक कोशिका ही बनाती है|इस कोशिका का फिर विभाजन शुरू होताहै|विभाजन के बाद वर्गीकरण शुरू होता है,जो यह तय करता  है कि कौन सा अंग कैसे और कहाँ बनना है|उनका कार्य क्या होगा,सब तय हो जाता है|यह भ्रूण विज्ञानं का विषय है|
           प्राचीन भारतीय शास्त्रों में सम्पूर्ण शरीरिक विकास जो कि गर्भावस्था के दौरान होता है,उसका चित्रण श्रीमद्भागवत में विस्तार से और वैज्ञानिक तरीके से किया गया है| विज्ञानं और भागवत दोनों में शरीर निर्माण प्रकिया में फर्क नहीं है|आश्चर्य है कि ५००० वर्ष पूर्व कोई भी वैज्ञानिक साधन उपलब्ध न होने पर भी इतना स्पष्ट चित्रण किया गया है|आज विज्ञानं के कारण गर्भावस्था के दौरान होने वाले विकास को और सूक्ष्म रूप से जानने में सफलता मिली है|एक कौशिका से सम्पूर्ण शरीर निर्माण पर हम भ्रूण विज्ञानं(Embryology) भाग में करेंगे|
       गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को शरीर  के निर्माण इस प्रकार समझाते है--
           महाभूतान्यहंकारो  बुद्धिरव्यक्त्मेव      च |
           इन्द्रियाणि  दशैकं  च  पञ्च  चेंद्रियगोचरा ||गीता १३/५||
अर्थात्,पांच महाभूत , अहंकार ,बुद्धि और(अव्यक्त ) मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियां , एक मन और पांच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध|कुल मिलाकर २४|
                        पांच महाभूत इस भौतिक शरीर के स्थूल हिस्से के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते है|जब शरीर का निर्माण हो जाता है ,तब वह अपने सूक्ष्म रूप को विकसित करने की तरफ अग्रसर होता है|इस शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है,जो हमें इस संसार में जो भी उपलब्ध है उनसे परिचय कराती है|ये हैं-आँख या नेत्र,श्रवनेंद्रिय यानि कान,स्वादेंद्रिय यानि जीभ,घ्रानेंद्रिय यानि नाक और स्पर्शेन्द्रिय यानि त्वचा|पांच ही कर्मेन्द्रियाँ  है-वाक्(Tongue),पाणी(Upper limbs),पाद(Lower limbs),उपस्थ(Urinary) और पायु(Anus)|पांच ही ज्ञानेन्द्रियों के विषय है-शब्द(Sound),स्पर्श(Touch).रूप(Vision),रस(Taste) और गंध(Smell)|                                                     भगवान ने इन दस इन्द्रियों के साथ साथ  मन को भी एक इन्द्रिय माना है|इसका कारण यह है कि मन में जो भी इच्छाये.,लालसायें, कामनायें , आदि  होती है,उनका सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों से ही  होता है|अगर व्यक्ति इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लेता है ,तो मन पर उसका नियंत्रण स्वयं ही हो जाता है|
                    विज्ञानं, इन्द्रियों तक की बात स्वीकार करता है|परन्तु मन के बारे में विज्ञानं अभी भी कुछ स्पष्ट नहीं कर पाया है|हो सकता है ,निकट भविष्य में कुछ सटीक प्रगति हो|मन के बारे में मानसिक विभाग जरूर है|जो कि मानवीय मनोविज्ञान जानने कि दिशा में प्रगतिशील है|मानसिक परिवर्तन और मन की कार्यिकी की बारे में कोई उत्साहवर्धक परिणाम अभी तक  सामने नहीं आये है|
      क्रमश:
                           || हरि शरणम् ||
   

Wednesday, July 17, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:७ शरीर-२

क्रमश:
          गोस्वामीजी रामचरितमानस में लिखते है--
                    छिती जल पावक गगन समीरा|पंच रचित अति अधम शरीरा||४/११/४||
  एक साधारण से व्यक्ति को इससे अच्छी तरह शरीर के निर्माण के बारे में कोई नहीं समझा सकता,जैसे आज से ५०० वर्ष पूर्व गोस्वामी तुलसीदास ने समझाया है|बड़ी ही सुन्दर चौपाई है यह|बाली वध के बाद उसकी पत्नी तारा जब बाली के शव के पास बैठकर विलाप करती है,तब भगवान श्रीराम शरीर की रचना और उसकी नश्वरता के बारे में उसे समझाते है|यह नश्वर शरीर पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु एवं आकाश से निर्मित है|गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को पूर्ण रूप से शरीर निर्माण और उसमे स्थित जीवात्मा के बारे में ज्ञान देते है,जिससे उसका इस शरीर और उस जैसे अन्य शरीरों से मोह भंग हो और युद्ध करे|
         शरीर के निर्माण के बारे में गीता एकदम स्पष्ट है,कही पर कोई विरोधाभास नहीं है|
                              भूमिरापोSनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |
                               अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ||
                            अपरेयमितस्त्वन्याँ प्रक्रिति विद्धि में पराम्|
                                जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्||गीता७/४-५||
           अर्थात्, पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु ,आकाश ,मन ,बुद्धि और अहंकार -इस प्रकार आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है |यह तो मेरी अपरा यानि जड़ प्रकृति है,|हे महाबाहो!इससे दूसरी को ,जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान|
                 यहाँ गीता में शरीर निर्माण में पंच महाभूतों(पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और आकाश)के अलावा मन ,बुद्धि और अहंकार को भी शामिल किया गया है|भगवान ने इनको अपरा प्रकृति बताया है|   अपरा यानि स्थूल ( Macro)विज्ञानं के अनुसार शरीर निर्माण में पंचमहाभूतों में से आकाश को शरीर निर्माण में स्थान नहीं दिया गया है|लेकिन यह अंतर कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है| जिस प्रकृति को भगवान ने चेतन ,परा,या सूक्ष्म (Micro) बताया है,उसकी अनुपस्थिति में  केवल शरीर से कुछ भी कल्पना नहीं की जा सकती|पंच महाभूत तो है ही अपरा प्रकृति के ,परन्तु मन ,बुद्धि और अहंकार इस स्थूल शरीर में चेतन अवस्था में आने के के लिए बीचकी अवस्था(Transitional phase) है|अतः एक प्रकार से देखा जाये तो मन, बुद्धि और अहंकार न तो पूर्णतया स्थूल प्रकृति के है और न ही चेतन प्रकृति के|
                             उपरोक्त श्लोक में एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है|भगवान ने पूरी शरीर रचना का वर्णन एक दम वैज्ञानिक तरीके से किया है|पृथ्वी से लेकर चेतन तक की यात्रा स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम की यात्रा बताई है|पृथ्वी से सूक्ष्म जल;जल से सूक्ष्म अग्नि;अग्नि से सूक्ष्म वायु;वायु से सूक्ष्म आकाश;आकाश से सूक्ष्म मन;मन से सूक्ष्म बुद्धि;और बुद्धि से सूक्ष्म अहंकार और अन्त में इन सबको धारण करने वाली सूक्ष्मतम चेतन प्रकृति|
          शरीर विज्ञानं के अनुसार शरीर की इकाई कोशिका है|कोशिकाएं मिलकर उत्तकों का निर्माण करती है|उत्तक मिलकर अंगों का निर्माण करते है|और अंगों से शरीर निर्माण होता है|कोशिका का निर्माण इन्ही पंच भौतिक तत्वों से होता है|एक कोशिका में बाहरी आवरण (Cellular membrane) और उसे जुडी अन्य झिल्लियाँ (Endoplasmic reticulum) पृथ्वी है,जिसमे वही तत्व आपको मिलेंगे जो इस पृथ्वी पर है|इसमे साईंटोप्लाजम(Cytoplasm) जल से निर्मित है|मायटोकोन्डरीया(Mitochondria) अग्नि से निर्मित है|वायु में ओक्सीजन(Oxygen) इसका मूल आधार है और वेक्युओल्स (Vacuoles),आकाश से निर्मित है|यही कौशिका पूरे शरीर की इकाई है|कोशिकाओं से उत्तक,फिर उत्तकों से अवयव का निर्माण होता है जैसे-यकृत,गुर्दा,ह्रदय,फेफड़े इत्यादि|समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियों का निर्माण भी विभिन्न प्रकार के उत्तकों से होता है|
         CELLS---TISSUES-----ORGANS-------BODY
         इस प्रकार हम देखते है कि एक कोशिका से पूरे शरीर का निर्माण सम्भय है|
       क्रमश:
                                                 || हरि शरणम् ||

Tuesday, July 16, 2013

पुनर्जन्मका वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:६|शरीर-१

क्रमश:
               पदार्थ का छोटे से छोटा भाग जिसे और आगे विभाजित नहीं किया जा सकता ,परमाणु (Atom)कहलाता है|परमाणु ही इस जगत का मूल आधार है|इसी से सरे ब्रह्माण्ड(Universe) का प्रादुर्भाव हुआ है|उर्जा का प्रारंभिक स्रोत भी यही है|परमाणु के बिना यहाँ पर किसी की कल्पना नहीं कर सकते|इन्ही परमाणुओं से तत्व(Element) का निर्माण होता है|तत्व परमाणुओं की स्थिरता(Stability) का एक नाम है|तत्व से ही आगे की निर्माण यात्रा शुरू होती है|तत्वों से यौगिकों(Compounds) का निर्माण और यौगिकों से मिश्रण(Mixture) और पदार्थ(Material) का निर्माण होता है|
                   तत्व तक की अवस्था को गीता में ईश्वर ने अपनी परा या सूक्ष्म (Micro) अर्थात चेतन  प्रकृति कहा है|तत्व के बाद जिन भौतिक पदार्थों या रचनाओं का निर्माण होता है वे सब अपरा या जड़ अथवा स्थूल (Macro)प्रकृति कहलाती है|परा या अपरा,दोनों का मूल उर्जा(Energy) ही है,यही मुख्य बात ध्यान योग्य है|
                  विज्ञानं में किसी भी पदार्थ का अद्ययन रसायन शास्त्र (Chemistry) के अंतर्गत किया जाता है|इस विज्ञानं के अनुसार सन् २०१० तक ११८ तत्वों की खोज कर ली गयी है|जिनमे मात्र ८८ ही स्थायित्व वाले है,बाकी ३० तत्व अस्थायित्व है|इनका विवरण तत्व तालिका (Elemental table) में उनकी प्रकृति  (Nature) के अनुसार वर्णित है |पहले स्थान पर हाईड्रोजन है ,उसको H के रूप में दर्शाया गया है|हीलियम दूसरे नंबर पर है,जिसे He के रूप में दर्शाया गया है|इस प्रकार सभी तत्वों को एक एक रूप के तहत अंगरेजी के अक्षर दिए गए है|सभी की प्रकृति के अनुसार सभी तत्वों को सात  भागों में बांटा गया है-जैसे सरगम के सात  सुर--सा,रे,गा,मा,प, ध नि,सा|प्रत्येक आठवे स्थान पर फिर लगभग समान गुण, धर्म वाला तत्व आजाता है|ये तत्व गैस,अधातु और धातु के रूप में वर्णित है|आपस में नियमों के तहत क्रिया करके यौगिको का निर्माण करते है,और इससे फिर पदार्थ का निर्माण होता है|सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ९९.९प्रतिशत हिस्सा हाईड्रोजन एवं हीलियम गैस का है|परन्तु यह दोनों गैस पृथ्वी पर अत्यंत अल्प मात्रा में है,इसी कारण यहाँ जीवन संभव हुआ है|अथक प्रयासों के बावजूद अभी ब्रह्माण्ड के बाकी हिस्सों में से कहीं पर भी जीवन होने के संकेत नहीं मिले है|
                  भारतीय शास्त्रों के अनुसार ८८ तत्व स्थायित्व लिए है और २० तत्व अस्थायित्व  लिए|कुल१०८ तत्व वर्णित है|इसी के कारण हर शुभ कार्य में १०८ का विशेष महत्त्व है|माला में मनको की संख्या भी १०८ इसी कारण से की गई है|इन्ही तत्वों से पृथ्वी,वायु,अग्नि एवं जल का निर्माण हुआ है,जिनसे हम शरीर का निर्माण हुआ मानते है|पूरे शरीर,मन और आत्मा का आधार एक मात्र यह तत्व है,जिसे भारतीय ऋषियों ने सघन खोज के बाद शास्त्रों में सही तरीके से वर्णित किया है|गीता में भगवान श्री कृष्ण ज्ञान विज्ञानं योग अध्याय की शुरुआत में ही अर्जुन को कहते है--
                              ज्ञानं   तेSहं    सविज्ञानमिदं  वक्षयाम्यशेषत:|
                              यज्ज्ञात्वा नेह भूयोSन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते||गीता७/२||
अर्थात्,मैं तेरे लिए इस विज्ञानं सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्ण रूप से कहूँगा,जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता|
            यह तत्व ज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जिसको समझ कर व्यक्ति के पास समझने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता है|जीने का आनंद इसको जानने के बाद ही मिल पता है|इसी ज्ञान को जान जाने से व्यक्ति अपने आप को भी सम्पूर्ण रूप से जान जाता है|यही वास्तव में स्वयं को जानने की यात्रा है|
       क्रमश:
       || हरि शरणम् ||
         

Monday, July 15, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:५ -माया-२

          क्रमश:
                     कबीर ने माया का वर्णन बड़े ही सुन्दर तरीके से किया है|वे कहते हैं--
                                   माया छाया एकसी,विरला जाने कोय|
                                   भागत के पिछे पड़े,आगे सन्मुख होय||
     यह माया और छाया की प्रकृति एक ही है| अगर आप दोनों  को पकड़ने की कोशिश करेंगे तो ये आपसे दूर भागेगी,और अगर आप इनसे दूर भागने की कोशिश करोगे तो यह आपका पीछा करेगी|अतः ना तो इससे दूर भागो और न ही इनको पाने की लालसा रखो|
               अब कल की बात को आगे बढ़ाते है|माया का भी मूल आधार उर्जा ही है|उर्जा का स्थूल रूप|इस स्थूल रूप को उर्जा किस प्रकार हासिल करती है,यह जानना  ही तत्व को जानना है|यही ज्ञान ही तात्विक ज्ञान है|माया मतलब पदार्थ|पदार्थ यानि उर्जा का दिखाई देने वाला रूप|किसी भी पदार्थ की छोटी से छोटी इकाई-परमाणु होता है ,जो कि उर्जा का एक अदृश्य रूप है|इस अदृश्य से दृश्य होना ही ईश्वर द्वारा माया का निर्माण है|विज्ञानं ने दृश्य पदार्थ(material) से  परमाणु (Atom) तक की यात्रा की है,जबकि अध्यात्म ने परमाणु से पदार्थ की|दोनों में केवल खोज की दिशा का यानि जानने के तरीके का ही फर्क है|उपलब्धियां दोनों की समान है|उर्जा से पदार्थ की यात्रा इस प्रकार होती है---
  पदार्थ की इकाई(Unit)परमाणु(Atom), परमाणुओं से अणु(Molecule),अणुओं से तत्व(Element) तथा तत्वों के मिलाने से यौगिक(Compound) और कई यौगिकों के मिलने से बनता है , पदार्थ अर्थात् माया(Material)|
    यह है अदृश्य से दृश्य की यात्रा|पदार्थ असत् है, क्योंकि यह कभी भी समाप्त हो सकता है|उर्जा, ( पदार्थ की इकाई )सत् है ,यानि कभी भी समाप्त न होने वाली|इसीलिए कबीर कहते हैं--
               माया महाठगिनी हम जानी|
       कबीर का यही ज्ञान ही असली तत्व ज्ञान है|
                 संसार में चारो और जो भी दृश्यमान है ,सब पदार्थ या पदार्थ के रूप हैं ,और परिवर्तनशील है|कबीर ने छाया इसलिए कहा है कि व्यक्ति की छाया हमेशा  परिवर्तित होती रहती है|जहाँ स्थायित्व नहीं है,वो सत् कैसे हो सकता है?और जो सत् है वह दृश्यमान नहीं है|यही तत्व की बात है|गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को तत्व की बात इसी तरह से समझाते हुए कहते हैं--
                                  जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः |
                                 त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोSर्जुन||गीता४/९||
अर्थात्,हे अर्जुन!मेरे जन्म और कर्म दिव्य है,इस प्रकार जो मनुष्य इसको तत्व से जान लेता है,वह इस भौतिक शरीर को त्यागकर फिर जन्म (पुनर्जन्म) को प्राप्त नहीं होता ,बल्कि मुझे ही प्राप्त होता है|
                इस प्रकार अगर कोई व्यक्ति तत्व की बात समझ लेता है,तो फिर वह जन्म-मरण को भी अच्छी तरह समझ जाता है|अब वह इस संसार में,इस जीवन को कैसे जिया जाये,समझकर बेहतर तरीके से जीता है|तब वह मृत्यु से नहीं डरेगा,बल्कि उसका स्वागत करेगा|इसी को जीते जी मुक्त होना कहते है|तत्व को जानकर संसार से अपने आप को अलग मान लेना ही ईश्वर को पा लेना है|जो जीते हुये मुक्त नहीं हो सके,मरने के बाद मुक्ति मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है|यही तात्विक बात है|
                               माया के अंतर्गत ही शरीर आता है क्योंकि उसका निर्माण भी भौतिक पदार्थों से ही संभव है|बिना माया को समझे शरीर को समझना असंभव है|मन भी माया का एक भाग है,लेकिन उसको समझने से पहले शरीर को समझना आवश्यक है|कल से इसी पर चर्चा करेंगे|
                क्रमश:

Sunday, July 14, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:४ -माया|

                                            कल के ब्लॉग में हमने जाना कि शरीर के निर्माण की प्रक्रिया क्या होती है?उर्जा के साथ माया(material)का योग ही दृश्य का निर्माण करता है|क्योंकि उर्जा अदृश्य होती है,इसलिए हमें सिर्फ माया ही दृष्टिगोचर होती है|एक तरफ हम कहते है,इस संसार या ब्रह्माण्ड में उर्जा के सिवाय कुछ भी नहीं है,तो फिर यह माया कहाँ से आ गयी|इसलिए शरीर को समझने से पहले माया को समझना जरूरी होगा|
                                माया के बारे में भारतीय मनीषियों ने काफी कुछ लिखा है|सभी ने माया को असत् कहा है और उर्जा को सत्|गीता में भी यही वर्णित है|आखिर में अब विज्ञानं ने भी स्वीकार कर लिया है कि सत् सिर्फ और सिर्फ उर्जा ही है|भारतीय ऋषियों ने माया को उर्जा का स्थूल रूप कहा है|उर्जा का रूप अतिसूक्ष्म है|जब ऋषियों और वैज्ञानिको में इस बारे में कोई मत भिन्नता नहीं है,तो आम व्यक्ति को कैसे भिन्नता नज़र आती है|इसका भी एक महत्वपूर्ण कारण है|
                                 आधुनिक  विज्ञानं पश्चिम की देन है,जहाँ भोगवादी संस्कृति है|वहां स्थूल को ज्यादा महत्त्व मिला है|इसका स्पष्ट असर विज्ञानं पर देखा जा सकता है|वहां विज्ञानं ने भी स्थूल को केंद्र में रखते हुये अपनी यात्रा शुरू की|अगर आधुनिक विज्ञानं के इतिहास पर नजर डालेंगे तो स्पष्ट हो जायेगा|गैलीलियो से पहले कहा जाता था कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसकी परिक्रमा करता है|गैलीलियो ने स्पष्ट किया कि नहीं,सूर्य स्थिर है,पृथ्वी उसकी परिक्रमा करती है|फिर आज का विज्ञानं कहता है कि नहीं,सूर्य भी अपने ग्रहों को लेकर किसी और पिंड की परिक्रमा कर रहा है|सूर्य भी स्थिर नहीं है|एक और उदहारण देना चाहूँगा -पहले यह माना जाता था कि पदार्थ का सबसे छोटा हिस्सा अणु है,फिर उससे छोटा हिस्सा परमाणु कहलाया|फिर परमाणु के भी तीन छोटे हिस्से खोज लिए गए|अब उन हिस्सों के भी और छोटे हिस्से खोजे जा रहे है|यह सब स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है|
                           आद्यात्मिकता भारत की देन है|यहाँ सूक्ष्म को ऋषियों ने काफी पहले खोज लिया था|उनकी खोज का केन्द्र सूक्ष्म था|उन्होंने सूक्ष्म से और सूक्ष्म को खोज लिया|उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के बारे में पता था|उन्हीं को आज विज्ञानं अपनी नयी खोज बताकर वाहवाही लूट रहा है|अतः दोनों का मानना लगभग समान है|अगर भारतीय मनीषी कुछ कह रहे है ,उस विषय पर अगर विज्ञानं मौन है तो इसका एक मात्र अर्थ यही है कि विज्ञानं अभी वहां तक पहुँच नहीं पाया है|
                                     गीता में भगवान श्री कृष्ण जोकि उर्जा के ही एक रूप है,कहते है-
                    यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति|
                    तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ||गीता६/३०||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्म रूप मुझको ही व्यापक रूप से देखता है और सब भूतों को मुझके अंतर्गत देखता है,उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |
                इसका अर्थ यही है कि सभी सभी जीवों और सभी स्थानों पर सिर्फ उर्जा प्रवाह ही देखें|तब ईश्वर ही उसको दिखाई देंगे और ईश्वर के लिए वह भी दृश्यमान होगा|
                  क्रमश:

Saturday, July 13, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:३ -उर्जा

                                  आज सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हमें जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है,वह वास्तव में है क्या? सर्वप्रथम हमें यह जानना जरूरी है|इसको जाने बिना हम अपने आप को कभी भी न जान और समझ पाएंगे|केवल मानव प्रजाति ही इस संसार में ऐसी है जिसे ईश्वर ने सोचने और समझने की क्षमता दी है|बाकी सब प्रजातियां तो पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के अनुसार उनका फल भोगने के लिए ही बनी है|अन्य प्रजातियों को कभी यह नहीं सोचना होता है कि उग्रवाद क्या है,प्राकृतिक आपदा कैसे आती है,बीमारियों का इलाज क्या है,वह कहाँ से आया है,कहाँ उसे जाना है?मानव प्रजाति इसके ठीक विपरीत है|प्रतिदिन उसके दिमाग में सवाल उठते है,और वह फिर उनका हल ढूँढने में जुट जाता है|इसी प्रकार का प्रश्न यह भी है|
                                 ब्रह्माण्ड की उत्पति का कारण वैज्ञानिक लोग उर्जा(Energy) को मानते है| सनातन धर्मग्रंथों में इसको उर्जा,शक्ति,बल आदि कई नामों से संबोधित किया गया है|चारों और जो भी दृश्य है या अदृश्य है सभी उर्जा के ही रूप है|विज्ञानं के अनुसार उर्जा ना तो पैदा की जा सकती है ना ही नष्ट की जा सकती है,केवल उसका स्वरुप परिवर्तित किया जा सकता है या हो सकता है|मुख्य रूप से उर्जा के दो प्रकार है-स्थितिज उर्जा (static energy) और गतिज उर्जा (kinetic energy)|दोनों उर्जा के ही रूप हैं और एक दूसरे में परिवर्तित होते रहते है या किये जा सकते है|सूक्ष्म रूप से देखा जाये तो उर्जा के अन्य रूप भी है जैसे-chemical,electric,magnetic,radisant,electromagnetic,nuclear,ionization,sound,gravitational,thermal,intrinsic etc.
परन्तु इन उर्जा के रूपों को हम दोनों में से किसी एक मुख्य स्वरुप में रख सकते है|
                                 यही उर्जा समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है|जो हमें दिखाई दे रहा है वह भी उर्जा है और जो अदृश्य है वह भी उर्जा है|उर्जा के बिना इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी संभव नहीं है|प्रत्येक जीव में मुख्यत तीन तत्व होते है-शरीर,मन और आत्मा|शरीर उर्जा का दिखाई देने वाला रूप है जबकि मन और आत्मा उर्जा के अदृश्य रूप है|लेकिन है सब उर्जा ही|यह उर्जा शरीर का कैसे निर्माण करती है तथा कैसे यह मन और आत्मा के रूप में होती है,विज्ञान जानने को प्रयत्नशील है|
             उर्जा को सनातन धर्म में मुख्य स्थान दिया गया है और इसी को ईश्वर माना गया है|आदि काल से हिंदू लोग उर्जा की पूजा शक्ति के रूप में करते आये है|सनातन धर्म मे भी इस संसार में उर्जा को ही सब कुछ माना गया है,और आज विज्ञानं भी मान चूका है कि उर्जा ही सब कुछ है|जो भी यहाँ घटित होता है,दिखाई देता है सब उर्जा ही है, उर्जा के सिवाय कुछ भी नहीं है|अतः दोनों में इसे स्वीकार करने को लेकर कोई मतभेद नहीं है|वैसे उर्जा बहुत विशाल विषय है,मैंने अल्प रूप से समझाने की कोशिश की है|उर्जा को समझ लेने पर शरीर ,मन और आत्मा को आसानी से समझ पाएंगे|
                         उर्जा के द्वारा शरीर का निर्माण कैसे होता है?बड़ा ही रोचक विषय है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है--
                                    अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोSपि सन् |
                                    प्रकृतिं    स्वामधिष्ठाय    सम्भवाम्यात्मयया ||गीता४/६||
अर्थात्,मै अजन्मा और अविनाशी स्वरुप व समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुये भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ|
                   यहाँ भगवान ने अपने आप को अजन्मा,अविनाशी स्वरूप बताया है|यही स्वरूप उर्जा का वैज्ञानिक बताते है|प्रकृति को अपने अधीन करते हुये योगमाया से भगवान यहाँ अपना शरीर धारण करते है|योगमाया =योग(Total)+माया(Material)|अर्थात्उर्जा (गतिज) जो कि भगवान स्वयं है,प्रकृति को,(स्थितिज उर्जा)को अपने अधीन करते हुये माया (भौतिक पदार्थ  यानिMaterial )का अपने साथ योग (Total)करते है तब इस संसार में भगवान शरीर धारण करते है|यही प्रक्रिया आम रूप से शरीर धारण की ही  है|
   अतः      शरीर=उर्जा+भौतिक पदार्थ|  प्रकृति के अधीन |
आगे इसी पर चर्चा करेंगे|      क्रमश:

Friday, July 12, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार -एक परिकल्पना| क्रमश:२

                              न जायते म्रियतेव कदाचि-
                             न्नायं भूत्वा भविता व न भूयः|
                             अजो नित्यः शाश्वतो अयं पुराणों
                             न हन्यते हनेमाने शरीरे||गीता२/२०||
अर्थात्, यह आत्मा किसी काल में न तो जन्मता है न मरता ही है तथा न यह उतपन्न होकर फिर होनेवाला ही है;क्योंकि यह अजन्मा ,नित्य ,सनातन और पुरातन है;शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता|
                                          पुनर्जन्म अपने आप में एक विवादित विषय होने के साथ साथ विवादित शब्द भी है|एक तरफ हम कहते है कि आत्मा अवध्य है,ना ये जन्म लेती है,ना ये मरती है और ना ही  ना ये मारी जा सकती है|उपरोक्त श्लोक के आधार पर यह बिलकुल स्पष्ट भी है|अगर ऐसा वास्तव में है तो फिर पुनर्जन्म किसका होता है?कम से कम आत्मा का तो नहीं होता है|भौतिक शरीर के समाप्त हो जाने के बाद वह भी वापिस पंचतत्वों में विलीन कर दिया जाता है या हो जाता है|अब बचा एक मात्र मन|मन ही एक मात्र है जिसके कारण नए शरीर की जरुरत पड़ती है|अतः मन जिस नयी देह में आत्मा के साथ प्रवेश करता है उस प्रक्रिया को पुनर्जन्म होना कहा जाता है|पुनर्जन्म शब्द मन और आत्मा के नए शरीर में प्रवेश करने का ही एक नाम है|अतः यही कहा जा सकता है कि मन का पुनर्जन्म होता है|कबीर कहते है--
                        मन मरा ना ममता मरी,मर मर गए शरीर|
                        आशा तृष्णा ना मरी, कह गया दास  कबीर||
साथ ही मरण धर्मा शरीर के बारे में कहते है-
                           एक दिन यह तन खाक मिलेगा,काहे फिरे मगरूरी में|
                          कहत कबीर सुनो भाई साधो,साहेब मिले सबूरी में||
                                                      मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में||
                                               इस पुनर्जन्म की सम्पूर्ण प्रक्रिया में मूल रूप से तीन की भूमिका होती है--
(१)आत्मा                (२)शरीर                     (३)मन
                                                              पुनर्जन्म की पूरी प्रक्रिया को वैज्ञानिक तरीके से समझने के लिए पहले इन तीनो के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है|यह उसीप्रकार है जैसे किसी पुस्तक को पढने से पूर्व भाषा ज्ञान आवश्यक होता है|इनके बारे में गीता क्या कहती है और विज्ञानं क्या कहता है,जब दोनों के पक्ष सामने आयेंगे तो विषय वस्तु को समझने में ज्यादा आसानी रहेगी|
                         गीता में भगवान शरीर,मन और आत्मा के बारे में अर्जुन को समझते हुये कहते है कि ---
                                          इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः|
                                          मनसस्तु  परा  बुद्धिर्यो  बुद्धे:  परतस्तु  सः||गीता३/४२||
अर्थात्, इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ ,बलवान और सूक्ष्म कहते है'इन इन्द्रियों से पर मन है ,मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यंत पर है वह आत्मा है|
                              विज्ञानं शरीर के बारे में ज्यादातर जान चूका है|मन के बारे में अभी पूर्ण रूप से जानना शेष है और आत्मा के बारे में अभी कुछ भी नहीं जान पाया है|शरीर के बारे में जो भी विज्ञानं जान पाया है ,गीता में पहले से ही वर्णित है|इस शरीर को जानने के उपरांत ही शेष को जाना जा सकता है|कल से शरीर के बारे में----
        क्रमश:

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना |

               अब तक हम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके है कि पुनर्जन्म होता है|मानवीय स्वभाव के अनुसार मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि पुनर्जन्म की पूरी प्रक्रिया क्या है और यह कैसे संपन्न होती है?
यह सब समझने के लिए हमें शुरुआत वहां से करनी होगी,जहाँ इसे मान्यता है|बिना कुछ माने अज्ञात को ज्ञात करना असंभव है|यह गणित का मूल आधार है|और बिना गणना के विज्ञानं भी पंगु है|अतः अज्ञात को जानने से पहले कुछ मान लेना जरूरी होता है |संसार में सभी प्रचलित धर्मों में मात्र सनातन धर्म ही ऐसा धर्म है जहाँ पुनर्जन्म को माना जाता है और उस पर विश्वास किया जाता है|सनातन का अर्थ होता है-जो पहले था,वर्तमान में है और भविष्य में भी होगा|अतः आगे बढ़ने से पहले सनातन धर्म के बारे में संक्षेप में जान लिया जाये|
                                                                                    सनातन धर्म एक पूर्णकालिक वैज्ञानिक धर्म है|यहाँ पर प्राचीन काल से अब तक जो भी मान्यताएं है,वे सब मात्र ढकोसला नहीं है|प्रत्येक बात को विज्ञानं के आधार पर सही साबित कर ग्रंथों में समाहित की गई है|अतः सनातन धर्म के सभी पौराणिक ग्रंथों की बातों पर अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता है|अविश्वास और अनर्गल बातें केवल वही लोग करते है,जो इन ग्रंथो की बजाय छोटी मोटी ऐसी पुस्तकें पढ़ लेते है. जो इधर उधर धर्मिक साहित्य के रूप में बेचीं जा रही है या फिर उन लोगों के विचार अख़बारों में पढ़ लेते है,जो इस धर्म के बारे में कुछ भी नहीं जानते है और ना ही जानना चाहते है|वे व्यक्ति एक तरह से सनातन धर्म के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित होते है|
                   सनातन धर्म का कोई प्रवर्तक नहीं है,बाकी सभी धर्मों के प्रवर्तक है|जैसे ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसामसीह,इस्लाम के मोहम्मद साहब,सिक्ख धर्म के गुरु गोबिंद साहेब इत्यादि|सनातन धर्म में ऋषि मुनि परम्परा रही है|प्रवर्तक की बातें हुबहू धर्मग्रंथो में शामिल  है,और उनपर विश्वास ही करना पड़ता है|ये मात्र एक व्यक्ति के विचार होते है|प्रवर्तक को अवतार या पैगम्बर कहा गया है|सनातन धर्म में ऐसा नहीं है|यहाँ प्राचीन काल में ऋषि एवं मुनि होते थे|ऋषि ,वैज्ञानिक तथा मुनि दार्शनिक -माने जा सकते है|क्योंकि उनका कार्य इसी प्रकार का होता था|ऋषि गण शोध करते थे--जैसे चरक,सुश्रुत आदि|मुनि गण दार्शनिक और विचारक होते थे|दोनों अपने अपने क्षेत्र में पारंगत होते थे और अपने शोध कार्यों और विचारों को पुष्ट कर समय समय पर ग्रंथों की रचना करते थे|आज ये सभी ग्रन्थ हमारी अकाट्य अमूल्य निधि है|
                                   ऋषि जो भी एवं जिस विषय पर शोध करते थे उसे प्रमाणित कर ग्रंथो की रचना करते थे|उसी प्रकार मुनि लोग अपने आद्यात्मिक विचारों को ग्रंथो का रूप दे देते थे|सभी ग्रंथो का सार श्री मद्भागवत गीता को कहा गया है|गीता में पुनर्जन्म का आधार समाहित है|अतः पुनर्जन्म को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने के लिए गीता को आधार बनाना उचित होगा|जितने भी वैज्ञानिकों ने अब तक नए आविष्कार किये है,सभी का आधार सनातन धर्म ग्रन्थ ही रहे है|वैज्ञानिको ने समय समय पर इसको स्वीकार भी किया है|गीता में समाहित पुनर्जन्म को वैज्ञानिक आधार देने को आप एक परिकल्पना भी कह सकते है|इस परिकल्पना का आधार इतना मजबूत है कि आप एक सिरे से इसको नकार नहीं सकेंगे|हो सकता है एक दिन वैज्ञानिक इस परिकल्पना को साकार करदे और पुनर्जन्म को वास्तविकता माने|डॉक्टर ब्रायन विज ,अमेरिका में इस पर शोध किया है और उनकी पुस्तकें पुनर्जन्म को स्वीकार भी करती है|मेरा यह प्रयास साधारण जन को समझाने के लिए है |जिससे वह पुनर्जन्म को स्वीकार करे और अपनी जिंदगी बेहतर तरीके से जिए|

Wednesday, July 10, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता|क्रमश:-११

क्रमश:
               पुनर्जन्म एक वास्तविकता है,बिलकुल स्पष्ट है|फिर भी अंतिम समय में व्यक्ति क्यों भयभीत हो जाता है?इसका एक मात्र कारण उसकी पुनर्जन्म के बारे में सोच है|वह सोचता है कि आज जो कुछ है,मरने के बाद सब समाप्त हो जायेगा|वास्तव में ऐसा नहीं है|आपकी अधूरी ईच्छा के अनुरूप ही आपको नया शरीर मिलने वाला है|आपकी इच्छाए अब यह वृद्ध जीर्ण शीर्ण शरीर पूरी नहीं कर पायेगा,अतः आपको नया शरीर लेना आवश्यक है|नया और शक्तिशाली शरीर मरे बिना हासिल होना असंभव है|भगवान पुनर्जन्म को साधारण भाषा में अर्जुन को स्पष्ट करते है---
                           देहिनोSस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
                           तथा   देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र   न   मुह्यति ||गीता२/१३||
अर्थात्,जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन,जवानी और वृद्धावस्था होती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है;उस विषय में धीर पुरूष मोहित नहीं होता|
         इसका सीधा अर्थ यही है की पुनर्जन्म को आप इस शरीर में निरंतर परिवर्तित होने वाली अवस्था के तौर पर ही एक अवस्था माने|वृद्धावस्था के बाद आने वाली अवस्था|ऐसा मान लेने से आप शरीर के प्रति मोहित नहीं होंगे और मृत्यु को भी एक साधारण रूप से होने वाला अवस्था परिवर्तन ही मानेंगे|इस तरह मृत्यु के प्रति व्याप्त भय दूर हो जायेगा|भय के दूर होते ही वर्तमान जीवन का पूरा उपयोग कर पाएंगे|इसी को स्पष्ट करते हुये भगवान आगे कहते है--
                          देही   नित्यमव्ध्योSयं   देहे  सर्वस्य भारत|
                         तस्मात्सर्वाणी  भूतानि न त्वं शोचितमर्हसि||गीता२/३०||
अर्थात्,हे अर्जुन!यह देही(आत्मा)सबके शरीर में सदा ही अवध्य है|इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है|
          इस देह यानि शरीर में अवस्थित देही कभी भी नहीं मरती है|यह देही आखिर है क्या?यहाँ भगवान ने आत्मा शब्द काम में नहीं लिया है,इसका विशेष कारण है|आत्मा को कभी भी देह की जरूरत नहीं होती है|आत्मा का स्थाई निवास तो परमात्मा है|उसे तो मजबूरीवश देह में आना पड़ता है|आत्मा को मजबूर करता है मन|मन में दबी आधी अधूरी आकांक्षाये आत्मा को परमात्मा की तरफ जाने से रोक लेती है और मन उन आकाक्षाओं को पूरा करने के लिए बलात् आत्मा को नए शरीर में ले आता है|इसी कारण से भगवान ने यहाँ आत्मा शब्द नहीं कहा है|आत्मा और मन को संयुक्त रूप से देही नाम दिया है|आत्मा को अवध्य माना गया है|यहाँ भगवान ने मन और आत्मा दोनों  अवध्य बताया है,क्योंकि संयुक्त रूप में होने के कारण यहाँ मन भी  अवध्य हो जाता है|अतः देही अगर अवध्य है तो फिर नया शरीर उपलब्ध होगा ही|इस प्रकार किसी भी प्राणी की मृत्यु पर शोकग्रस्त हो जाना उचित नहीं है|अब इस देही में आत्मा ही एक मात्र सत्य है|इसको स्पष्ट करते हुये कृष्ण कहते है-
                          नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः|
                         उभयोरपि दृष्टोSन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि||गीता२/१६||
अर्थात्,असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है|इस प्रकार दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है|
               संसार में असत् की सत्ता नहीं है,और सत् का अभाव नहीं है,अर्थात्  सत् हमेशा रहता है|यहाँ सत् आत्मा है|असत् शरीर को कहा गया है|इसका मतलब यह नहीं है कि शरीर झूठ हैशरीर भी  सत्य है,परन्तु यह हमेशा के लिए नहीं है जबकि आत्मा हमेशा के लिए है|स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे--
           "है" सो सुन्दर है सदा,"नहीं" सो सुन्दर नाहीं|
           " नहीं"को प्रकट देखिये",है" सो दिखे नाहीं||
 इस बात को जब आत्मसात कर लेंगे तो वास्तविकता आपके सामने होगी,और चलने के लिए बिलकुल नया रास्ता|अन्त में ईश्वर को यही कहना चाहता हू कि-
   तुझमे मुझमे बस फर्क यही,मैं नर हूँ तुम नारायण हो|
   मैं हूँ संसार के हाथों में और संसार तुम्हारे हाथों में||
     कल से-" पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार---एक परिकल्पना" जिससे आप सहमत भी हो सकते है|असहमत हो तो लिखे,विषयवस्तु को स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा|
                       ||    हरिः शरणम्  ||

Tuesday, July 9, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता |क्रमश: -१०

क्रमश:
                अब तक यह स्पष्ट हो चूका है कि पुनर्जन्म मात्र कोरी कल्पना नहीं बल्कि एक वास्तविकता है|भारतीय जीवन पद्धति की रग रग में यह भावना रक्त बन कर दौड रही है|यही कारण है कि जीवन के दौरान किये जाने वाले हर कार्य को यहाँ पाप और पुण्य के अनुसार ही देखा जाता है|आधुनिक भोगवादी संस्कृति को धीरे धीरे आत्मसात करते जाने के कारण कर्मो को आजकल इतनी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है|फिर भी कोई अति दुष्कृत्य करने से पहले सोचने को मजबूर जरूर होता है|वर्तमान जन्म में जो कार्य किये जाते है, उसी अनुसार उसका भविष्य तय होता है|गीता में भगवान अर्जुन को इसी प्रकार समझाते है|वे कहते हैं---
                           यान्ति     देवव्रता   देवान्पित्रि न्यान्ति     पितृव्रता:|
                           भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोSपि माम्||गीता ९/२५||
अर्थात् देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते है,पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं,भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होतें हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको प्राप्त होते हैं|इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता|
            भगवान का पूजन से आशय किये जाने वाले कार्यों से है ,ना कि पूजा जैसे कर्मकांडों से|देवत्व  वाले कर्मों के करने से देवलोक,माता पिता के सेवाकर्म से पितृ लोक,भूतों यानि इस पृथ्वी पर जीवित सभी प्राणियों के लिए किये गए कर्मों से पृथ्वीलोक और ईश्वर के निमित किये गए कर्मों से ईश्वर को यानि मोक्ष को प्राप्त होते हैं|अतः स्पष्ट है कि केवल ईश्वर के निमित किये कार्यों से ही पुनर्जन्म नहीं होता हैदेवलोक की प्राप्ति के बाद पुण्यों  का जब पूर्णरूपेण क्षरण हो जाता है तो पृथ्वीलोक में मानव के रूप में जन्म लेना होता है|यही स्थिति पितृलोक को प्राप्त हुये की होती है,अंतर केवल इतना ही है कि इसमे पुनर्जन्म देवलोक की तुलना में जल्दी होता है|दोनों ही स्थितियों में पुनर्जन्म मानव के रूप में ही होता है|तीसरी स्थिति में पुनर्जन्म किसी भी योनि में हो सकता है जबकि अंतिम स्थिति में पुनर्जन्म नहीं होता है|इसी बात को भगवान और स्पष्ट करते हुये कहते हैं---
                            आब्रह्मभुवानालोका:पुनरावर्तिनोSर्जुन |
                            मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८/१६||
अर्थात्, हे अर्जुन!ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं;परन्तु हे कुन्तीपुत्र !मुझ को प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता ;क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादिक लोक काल के द्वारा सीमित होने से अनित्य है|
           उपरोक्त श्लोक से भी स्पष्ट हो जाता है कि एक मात्र ईश्वर प्राप्ति के बाद ही इस आवागमन और पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है|अन्यथा अपने जन्म में किये कर्मों के अनुसार बार बार इस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ेगा,चाहे किसी भी योनि में आना पड़े|

Monday, July 8, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता|क्रमश: -९

क्रमश:
             कल के पोस्ट पर कुछ मित्रों ने प्रश्न किये है|कुछ ने फोन पर पूछा है,कुछ ने मेल किये है|आज की पोस्ट में सभी की जिज्ञासाओं का समाधान हो जायेगा ,ऐसा मैं सोचता हूँ|फिर भी किसी की और जिज्ञासा हो तो समय समय पर आने वाली पोस्ट से समाधान होता रहेगा|
                    युक्तः कर्मफलं  त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्|
                    अयुक्तः     कामकारेण  फले  सक्तो   निबध्यते ||गीता५/१२||
अर्थात्,कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरूष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है|
         उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट हो जाता है कि जितने भी फल की आशा से कर्म व्यक्ति द्वारा किये जाते है,वह उन कर्मो व उत्पन्न फलों में ही उलझ कर रह जाता है|इसी को बंधन कहते है और यही बार बार जन्म लेने का कारण है|जो व्यक्ति कर्मों से उत्पन्न फलों को अपने द्वारा करना नहीं मानता उसके लिए फिर कोई बंधन नहीं रह जाता है|जया  का पुनर्जन्म इसी कर्मबंधन के कारण हुआ है|क्योंकि उसने जगत की सहायता किसी फल की आशा रखते हुए की थी|अगर हर जन्म के साथ कर्मफल का त्याग करते हुए चले तो एक दिन इस जन्म मरण के चक्र से मुक्ति जरूर मिल सकती है|
               आरिफ के पुनर्जन्म में एक साल क्यों लगा?यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है| हो सकता है कि आरिफ के भी एक जन्म पूर्व में किये कर्मो के कारण उसे दूसरी योनियों में जन्म लेना पड़ा हो|कुल ८४ लाख और एक योनियाँ होती है,जिसमे ८४ लाख केवल भोग के लिए होती है,जिनमे मानव जन्मो में किये कर्मों को भोगने के लिए जन्म लेना पड़ता है|केवल मानव जन्म ही ऐसा है जहाँ आप कर्मों के आधार पर अगले जन्म को या मोक्ष को सुनिश्चित कर सकते है|इसलिए मानव जन्म को योग योनि भी कहते है|पूर्व मानव जन्मों के कर्मो को तो इस जन्म में भोगना ही पड़ेगा|अतः मानव योनि भोग एवं योग योनि दोनों है|
                  अब प्रश्न सामने आता है कि एक मानव जन्म और दूसरे मानव जन्म के बीच अगर आत्मा किसी और योनि में नहीं जाती तो क्या होगा?ऐसीस्थिति  में तीन संभावनाएं होती है|
१.तुरंत नया शरीर मानव रूप में मिल जाता है और तत्काल पुनर्जन्म की स्थिति बन जाती है|
२. अगर सत्कर्म किये हो तो देवत्व की स्थिति प्राप्त कर लेते है और पुण्य समाप्त होने पर पुनः मानव योनि प्राप्त कर लेते है|
३.अगर पाप कर्म एक सीमा से अधिक हो तो ऐसे में उसे कोई योनि उपलब्ध नहीं होती और प्रेतात्मा के रूप में भटकती रहती है|ऐसो का उद्धार कैसे होता है,अभी भी स्पष्ट नहीं है|कहा जाता है कि कुछ कर्मकांड ,जो कि उसकी भावी पीढ़ी द्वारा किये जाने पर ही उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति मिल सकती है|
                                     क्रमश:

Sunday, July 7, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता| क्रमश:-८

क्रमश:
             यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्|
             तं   तमेवैति  कौन्तेय  सदा   तद्भावभावितः ||गीता८/६||
अर्थात्,हे कुन्तीपुत्र अर्जुन !यह मनुष्य अंतकाल में जिस जिस भी भाव का स्मरणकरता हुआ शरीर का त्याग करता है,उस उसको ही प्राप्त होता है;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है|
                उपरोक्त श्लोक के माध्यम से भगवान अर्जुन को समझते है कि जो व्यक्ति मरने से पूर्व जैसा सोचता है,उसको अगले जन्म में उसी प्रकार का वातावरण उपलब्ध होता है जहाँ वह अपनी सोच को पूर्णत में बदल सके|उदाहरणार्थ अगर कोई व्यक्ति मरते हुये अपने पुत्र को याद करता है,तो पुत्र के घर में ही पुनः पैदा होने की सम्भावना प्रबल होती है|हालाँकि पुनर्जन्म के लिए मात्र यही एक कारण नहीं होता है,परन्तु अन्य कारण भी इसमे अपना योगदान देते है|कोई भी व्यक्ति मरते हुये सबसे ज्यादा उन्ही भावों में भ्रमण करता है जो जीवन में उसके लिए अत्यधिक मोह का कारण रहे हों|मरते हुये चाह कर भी कोई व्यक्ति इन भावों के स्मरण से अपने आप को अलग नहीं कर सकता|
                  पुनर्जन्म के जो दो उदहारण पूर्व में दिए गए है,आइये इस श्लोक से उनका विश्लेषण करते है|पहले उदहारण में आरिफ के बारे में जो जानकारी मिली उससे पता चलता है कि उसका लगाव अपनी अम्मी के प्रति अत्यधिक था|उसने अपनी अन्तिम साँस अपनी माँ की गोद में ही ली थी|लगभग एक साल बाद उसका जन्म उसी माँ की कोख से रजिया नाम की लड़की के रूप में होता है|
                   दूसरे उदहारण में जया जगत को लेने रेल्वेस्टेशन जाती है,जगत उस ट्रेन से आता नहीं है,वह उसकी यादों में खोई घर के लिए चल पड़ती है और रास्ते में एक जीप से वह टकरा जाती है|देर रात उसकी मृत्यु अस्पताल में जगत को याद करते हुये हो जाती है|जगत के लिए जया का पुनर्जन्म होना स्वाभाविक था,क्योंकि मरते वक्त वह जगत के भाव से भावित थी|सम्भावना के अनुरूप ही उसका पुनर्जन्म नोहर के पास ही भादरा में होता है और परिस्थितियां ऐसी पैदा हो जाती है कि जया जो कि अब सरिता है की मुलाकात आखिर में जगत से हो ही जाती है|आज सरिता जगत के सामने उसी स्थिति में है जैसी स्थिति जया के साथ मृत्यु पूर्व थी|सरिता की शादी जिस व्यक्ति से या जगत की शादी जिस महिला से हुई है उनका भी सरिता के और जगत के पूर्व जन्म से कोई ना कोई सम्बन्ध जरूर है|
                      अब सरिता  के सम्बन्ध में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस जन्म में  जगत से उसका क्या सम्बन्ध रहेगा?मरने से पूर्व जया ,जगत से केवल एक बार मिलना चाहती थी,वह उसने सरिता के रूप में आकर संभव बना लिया है|आगे उनका क्या होगा,यह इस जन्म में एक दूसरे के प्रति व्यवहार ,चाहत और एक दूसरे के प्रति समर्पण कितना पैदा होता है,उस पर निर्भर करेगा|हो सकता है उनके पूर्ण मिलन के लिए उनको और कई जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़े|अगर इस जन्म में वे अपने जीवन साथियों से संतुष्ट रहे तो अगले जन्मों में उनके बीच की दूरियां भी बढती जायेगी|
                    गीता के आधार पर अब यह स्पष्ट है की पुनर्जन्म मात्र एक अवधारणा नहीं है बल्कि एक वास्तविकता है|जरूरत है कि पुनर्जन्म में अगर किसी को पूर्वजन्म की यादें ताज़ा हो,उस पर और ज्यादा अध्ययन किया जाये ,जिससे इस बारे में पूर्वाग्रह दूर हो सके|

Saturday, July 6, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता| क्रमश:-७

क्रमश:
          पुनर्जन्म के दो उदाहरण मैंने आपको दिए है|अब प्रश्न यह उठना स्वाभाविक है कि इन्हें पुनर्जन्म के रूप में मान्यता दी जाये या व्यक्ति विशेष की मानसिक अवस्था माना जाये| मनोवैज्ञानिक इसको केवल मात्र मानसिक परिस्थिति से ज्यादा मानने  को तैयार नहीं है| दोनों ही मामलो को अगर गंभीरता से देखा जाये तो पहला मामला मानसिक अवस्था का तो कदापि हो भी नहीं सकता ,क्योंकि एक तीन साल की मासूम बच्ची,जिसे अभी अपने परिवार के बाकी सदस्यों के नाम तक मालूम नहीं है,वह कैसे अपने भाई के नाम को अपना नाम बता सकती है,जबकि उसके भाई के नाम का जिक्र कभी परिवार में होता भी नहीं था| अतः इस मामले को मानवीय मनोविज्ञान कहना कतई उपयुक्त नहीं होगा|
       अब हम जगत,जया  और सरिता के मामले को लेते है| काफी हद तक यह मामला यह एक मानवीय मनोविज्ञान का हो सकता है|परन्तु केवल इसी दृष्टि से इसको देखना भी त्रुटिपूर्ण होगा|पाठक स्वयं निर्णय करें | मैं कुछ बिन्दु दोनों के ही पक्ष के रख रहा हूँ|
मानवीय मनोविज्ञान के पक्ष में----
१.जगत जो कि १९७३ से १९७४ की अवधि के दौरान मात्र तीन महीने मुश्किल से जया  के साथ रहा होगा|ऐसे में जया  का उसके प्रति अगाध प्रेम का इस हद तक बढ़ जाना लगभग असंभव है|
२. जया  का उसकी तरफ झुकाव दो मनोवैज्ञानिक कारणों से हो सकता है-एक तो वह गरीब था और मेधावी भी तथा दूसरे वह शारीरिक रूप से आकर्षक भी था|
३.जया  की मौत एक हादसा थी और उस वक्त तक जगत का उसके प्रति कोई झुकाव नहीं था|
४.जया  की मौत के बाद जगत का उसके प्रति प्रेम का होना एक मानवीय संवेदना के अतिरिक्त मानना उचित नहीं होगा|
५.जगत का जया की मौत के करीब १५ साल बाद तलाश करना ,जबकि वह शादी करके दो बच्चों का पिता बन चूका था,एक मनोवैज्ञानिक कारण है|विपरीत लिंग की तरफ आकर्षण एक स्वाभाविक पौरूषीय प्रकृति है|जिसके कारण सरिता की तरफ उसका झुकाव  मनोवैज्ञानिक रूप से ही संभव है|
६.सरिता का जगत के प्रति झुकाव का कारण भी यही माना जा सकता है|
७.सरिता को पूर्वजन्म की याद आ जाना मात्र मानसिक कारण से है|जब आप एक कहानी को उसी व्यक्ति को बार बार दुहराते है तो वह व्यक्ति अपने आप को उस कहानी के एक पात्र की तरह समझने लगता है|
पुनर्जन्म का पक्ष-----
१.प्रेम का पैदा होना कभी भी समय और स्थान से ताल्लुक नहीं रखता है|
२.राजसी प्रवृति के व्यक्ति भावुक ज्यादा होते है|इसी के कारण जया  का प्रेम पूर्ण समर्पण को दर्शाता है| गीता का १७ वां अध्याय देखें|
३.जया कि मौत एक हादसा थी,जगत का उसके प्रति प्रेम उस वक्त तक नही था|परन्तु यहाँ पुनर्जन्म जया का होता है ना कि जगत का|जगत को जया के प्रेम का उसकी माँ के द्वारा ही पता चलता है|
४.गीता में स्पष्ट लिखा है कि मरते वक्त जो व्यक्ति के मन  में जो अधूरी ईच्छा  रह जाती है,पुनर्जन्म उसी के अनुरूप होने की सम्भावना रहती है|गीता का  ८ वां अध्याय देखें|
५.जगत एक स्त्री रोग विशेषज्ञ है|उसका वास्ता केवल महिला मरीजों से रहता है|इसके बावजूद उसका फेसबुक के माध्यम से सरिता को जया सा मन लेना मात्र विपरीत लिंग का आकर्षण नहीं माना जा सकता|विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तो उसके व्यवसाय में हर वक्त उपलब्ध था|
६. सरिता अपने परिवार व पति से पूर्ण संतुष्ट है,अतः सरिता का जगत के प्रति आकर्षण का भी यह कारण नहीं हो सकता|
७.पूर्वजन्म की बातें याद आ जाना कोई मानसिक कारण नहीं है|भारतीय समाज में आज भी अगर कोई पुरूष ऐसी बातें किसी स्त्री से करना चाहे तो वह अकेले ही अपने स्तर पर निपट लेने में सक्षम है|
                                                 अतः केवल यह एक मनोविज्ञान का मामला मान लेना तर्क संगत प्रतीत नहीं होता है|आज विज्ञान को ही एक मात्र सत्य मान लेना और धर्मग्रंथों को झुठला देना ,प्रवृति बनती जा रही है|अज्ञात को जानने के लिए हमें कुछ मान लेना पहले पड़ता है,नहीं तो अज्ञात को कैसे ज्ञात कर पाएंगे| गणित में जैसे कोई राशि ज्ञात करने के लिए हम मान  लेते है कि राम के पास १०० रू. हैं|उसी से आगे बढ़ते हुये हम सही जवाब हासिल कर पातें है,उसी प्रकार पुनर्जन्म को सही रूपसे समझने के लिए हमें किसी एक को मानना पड़ेगा|और इसके लिए गीता से बढ़कर कोई ग्रन्थ नहीं है|
                क्रमश:

Wednesday, July 3, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता |क्रमश: भाग ६

क्रमश:
                    अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानी भारत|
                    अव्यतनिधनान्येव       तत्र  का परिवेदना ||गीता२/२८||
अर्थात्,हे अर्जुन ,सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं,केवल बीच में ही प्रकट हैं;फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
      गीता के उपरोक्त श्लोक में भगवान बताते है कि जन्म से पहले सभी प्राणी कहाँ थे यह किसी को पता नहीं रहता और मरने के बाद वे कहाँ जाते है,यह भी किसी को पता नहीं होता| इससे स्पष्ट है कि यह प्रकट और अप्रकट होने का खेल चलता रहता है और किसी को पता भी नहीं चलता कि सब कैसे हो रहा है?लेकिन मानव जन्म ही एक ऐसा जन्म है जहाँ व्यक्ति को यह स्वतंत्रता होती है की वह इस रहस्य को समझे जिससे उसे प्रकट और अप्रकट होना क्या ,कैसे और क्यों होता है,इसका पता लगा सके|साथ ही अपने बारे में भी यह सुनिश्चित कर सके की वह आगे फिर से इस खेल का हिस्सा ना बने|लेकिन आज इस भौतिकतावादी संसार में साधारण व्यक्ति केवल राग,द्वेष,और मोह,माया इत्यदि में उलझ कर रह गया है|उसे इससे कोई मतलब भी नहीं है कि यह एक खेल है या कुछ और|अब ऐसा व्यक्ति इस खेल को कब समझ पायेगा और कैसे समझेगा,यह सब अधिकार परमात्मा ने अपने पास रख रखा है|रामचरितमानस में एक जगह गोस्वामीजी लिखते है---
                       सोई जानहि जेहि देऊ जनाई|जानत तुमहि  तुमइ होई जाई ||
राम जब वनवास के चलते वाल्मिकी आश्रम आते है,तब वल्मिकीजी के द्वारा भगवान राम को उपरोक्त शब्द कहे गये है|आप वल्मिकीजी के भूतकाल से अच्छी तरह वाकिफ है ही|बिना ईश्वर की अनुकम्पा के वल्मिकीजी में परिवर्तन आना असंभव था|
      अतः स्पष्ट है कि अगर व्यक्ति को इस खेल को समझते हुए अपने अप्रकट और प्रकट को समझना है तो उसपर ईश्वरीय अनुकम्पा जरूरी है|सब समझ जाने के बाद पुनः अप्रकट से प्रकट ना होने के लिए क्या करना होगा,यह तय उसको स्वयं को करना होगा|  सरिता,जगत और रजिया को उपरोक्त अनुकम्पा मिली है |उन्हें तय करना है कि इसको उन्हें किस तरह लेना है|सरिता ,जो अभी एक द्वंद्व में जी रही है ,उसके लिए एक राह मिल सकती है|खोजना उसे स्वयं ही होगा|और निः संदेह गीता आपकी इस खोज को आसान बना देगी|क्यंकि जहाँ से प्रश्न उठते है,सामान्यतया उत्तर भी वहीँ होते हैं|गीता पुनर्जन्म की बात करती है,अतः इस पर अविश्वास होने या करने का प्रश्न नहीं है,प्रश्न है इस बार बार होते जा रहे जीवन चक्र से मुक्ति पाने का| पुनर्जन्म और उससे मुक्ति पर उठने वाले प्रश्नों के उत्तर भी गीता में ही है,चाहिए समय उसे पढ़ने का और गीता को जीवन में उतारने का|
                 क्रमश:
                   

Tuesday, July 2, 2013

पुनर्जन्म-अवधारणा या वास्तविकता| क्रमश: भाग-५

क्रमश:
         जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवम् जन्म मृतस्य च |   ||गीता२/२७||
अर्थात् जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुये का जन्म निश्चित है|
          गीता में वर्णित इसी उक्ति को आधार बनाकर जगत जया की तलाश में इधर उधर भटकता  रहा|आखिर एकदिन उसे जया से मिलती जुलती एक लड़की अपने शहर के पास के शहर  भादरा में दिखाई दी| उसने गोपनीयता रखते हुये उस लड़की के बारे में तमाम जानकारी जुटानी शुरू की|जब उस लड़की जिसका नाम सरिता है,के बारे में जानकारियां सामने आयी तो जगत दंग रह गया|उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे साक्षात् वह जया ही हो|लेकिन ऐसी स्थिति में उससे मिलकर बात करना उस वक्त में सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं था|जगत नोहर में अपना अस्पताल चला रहा था और भादरा उससे ज्यादा दूर भी नहीं था|
      कई दिनों तक और कोई नयी जानकारी उसे मिल नहीं पाई|इस दौरान सरिता के परिवार से उसने मेलजोल बाधा भी लिया था|१९९९ के अंत में स्नातक करने के बाद घरवालों ने सरिता की शादी जयपुर कर दी गई|वह ससुराल चली गई और जगत कशमकश में आगे कुछ नहीं कर पाया|
         २०१२ की एक सुबह फेसबूक पर सरिता से उसका सामना हुआ|यह सरिता से उसकी पहली मुलाकात थी|दोनों दोस्त बन गए|सूचनाये मिलाती गयी,दोस्ती बढती गयी और आखिर एक दिन.......जगत ने अपने दिल की सभी बातें उसे बता दी|सरिता हतप्रभ रह गयी| बार बार फेसबुक पर जगत उसे लगभग ४० साल पुरानी बातें याद दिलाता रहा और धीरे धीरे सरिता को लगने लगा कि आज जिस स्थिति का सामना उसको करना पड़ रहा है उसका कोई ना कोई पूर्वजन्म से जरूर सम्बन्ध है|आज २०१३ में. सरिता की मजबूरी देखिये,वह दोहरी जिंदगी जीने को मजबूर है|आज वह अपने पति से संतुष्ट है|दो प्यारे प्यारे बच्चों की माँ है|आज वह अपने पूर्वजन्म के प्यार जगत से भी सम्बन्ध रखना चाहती है और पारिवारिक जीवन को भी बचाए रखना चाहती है|पुनर्जन्म की यादें बनी रह जाना या उनका फिर से प्रकट हो जाना एक व्यक्ति के सामने कैसी परिस्थिति पैदा कर देता है,सरिता आज इसका जीता जागता उदहारण है|उसकी इससे बड़ी और क्या विडम्बना हो सकती है?
              आज मेरे सामने यह उदहारण स्पष्ट करता है कि ईश्वर क्यों किसी को पूर्वजन्म की यादे अगले जन्म में साथ नहीं ले जाने देता|पुनर्जन्म का यह एक ऐसा केस है जिसमे एक व्यक्ति दूसरे के दो जन्मों का साक्षी है|जगत और सरिता आज भी दुविधाग्रस्त है|इस दुविधा का समाधान भी शायद ईश्वर के सिवाय किसी के पास होगा भी नहीं|
      उपरोक्त दोनों उदाहरण पुनर्जन्म की बात को सही समझने का आधार देंगे|यह उदाहरण पुनर्जन्म की अवधारणा को मान्यता प्रदान करते है|
                                        

Monday, July 1, 2013

पुनर्जन्म--अवधारणा या वास्तविकता | क्रमश:भाग-४

क्रमश:
   लेकिन ऐसा होना शायद ईश्वर को मंजूर नहीं था|जगत के पिताजी नहीं चाहते थे कि वह जयपुर रहकर पढ़े|क्योंकि जयपुर महंगा शहर है|फिर उनके एक रिश्तेदार बीकानेर रहते है,जिससे जगत की देखभाल भी आसान हो जाती|मजबूर होकर जगत ने बीकानेर पढना स्वीकार कर लिया|उसने बीकानेर मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया|जया को जब इसका पता चलो तो वह मायूस हो गयी|जयपुर में जब जगत साक्षात्कार देकर उसके घर  पहुंचा, तो उससे काफी नाराज हुई|दोनो ने कोई नया विकल्प ढूँढने की कोशिश की|फिर इस आश्वासन के साथ अपने शिक्षा स्थानों के लिए निकल गए कि जल्दी ही कोई रास्ता निकल आएगा|
                 इधर बीकानेर पहुँच कर जगत ने दोस्तों का नया ग्रुप बना लिया|डॉक्टर बनने के सपनो के साथ वह जया की भावनाओं से दूर होता गया|वह जया के प्यार को मात्र अपनी माली हालत के कारण उपजी सहानुभूति समझता रहा|इस दौरान जया से उसका सम्पर्क समाप्तप्राय हो चूका था|और इधर अजमेर में जया उसकी याद में घुट घुट कर जी रही थी|जब जया का दर्द सीमा तोड़ने लगा तो उसने मन ही मन एक निर्णय ले लियाउसने जगत के हॉस्टल फोन कर उसे शीतकालीन अवकाश में जयपुर बुलाया|जगत ने १९ दिसम्बर को रात को जयपुर के लिए निकलने का  वादा कर लिया|उसे जयपुर २०/१२ को सुबह जयपुर पहुंचना था|
              इधर जया २०/१२ को सुबह जयपुर रेलवे स्टेशन पर अपनी लूना लेकर जगत को लेने पहुँच गयी|ट्रेन आने पर जया ने जगत को काफी ढूंढा,पर जगत नहीं मिला|अब जया अपने आपको ठगा सा महसूस करने लगी|गुस्से में वह अपनी लूना लेकर घर के लिए निकल पड़ी|
    इधर जगत की ट्रेन १९ को छूट गयी|उसने दूसरे दिन की टिकट बनाई और २०/१२ की रात को जयपुर के लिए निकला|२० को सुबह जयपुर स्टेशन पर उसने जया को तलाशा,वह नहीं मिली तो मायूसी लिए रिक्शा लेकर उसके घर जाने को निकला|जया के घर पहुंचा तो वहां मातम पसरा मिला|उसे बताया गया कि कल जब वह स्टेशन से घर लौट रही थी तो एक जीप की चपेट में आ गयी|अस्पताल में काफी कोशिशों के बाद भी उसे बचाया नहीं जा  सका और देर रात उसने दम तौड दिया|                
          अब जगत को अपने लेट होने पर पछतावा हो रहा था|वह पूरी तरह से टूट गया|उसे अब जया की एक एक बात याद आ रही थी|जिसे वह अपने प्रति जया की सहानुभूति समझ रहा था वह उसके प्रति उसका प्रेम था|लेकिन अब सब कुछ समाप्त हो चूका था|जया के अंतिम संस्कार के बाद वह उसकी माँ से मिला|माँ ने बताया कि वह मरते दम तक उसको कितना याद कर रही थी|सब कुछ समाप्त समझ कर जगत वापिस बीकानेर लौट आया|
       बीकानेर आने के बाद जगत अवसादग्रस्त हो गया|हर पल ,हर जगह जया की यादें उसका पीछा करती|जया की मौत के लिए वह अपने आप को जिम्मेद्दार समझने लगा|और.....जैसा होता है,उसने एक खतरनाक निर्णय लिया|आत्म हत्या का|ट्रेन तक गया भी,परन्तु उसके एक मित्र के समय पर आ जाने से इस घटना से बच निकला|मित्र ने सारी बातें समझी|अपने एक परिचित ज्योतिषी से उसे मिलाया|ज्योतिषी ने सारा अवलोकन किया और जगत को आशान्वित किया कि जया उसे फिर मिलेगी,पर दूसरा जन्म लेकर|ज्योतिषी का इतना कहना उसे अवसाद से बाहर निकलने के लिए काफी था|अब उसे इंतज़ार था,जया से पुनः मिलने का|उसने१९७९ में M.B.B.S.पूरी की और फिर १९८३ में  M.S.(Gynaecology) |जो कि जया करना चाहती थी|उसके बाद उसने राजकीय सेवाकी|जब उसके जानकारी में  पुनर्जन्म का एक केस आया तो उसके मन में जया से मिलने की ईच्छा जोर मारने लगी|आखिर १९९९ में राजकीय सेवा छोड़ कर वह उसकी तलाश में निकल पड़ा| तब तक अपने पापा के समझने पर शादी करली और दो बच्चों का पिता भी बनचुका था|
                     क्रमश :