गुरु के सूत्र –
26
चौथा सूत्र –
रसमय जीवन (कल से आगे) -
एक बहुत ही प्रसिद्ध
भजन की पंक्तियाँ मैं यहाँ उद्घृत करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ | इन
पंक्तियों से प्रेम-रस को सुगमता से समझा जा सकता है | प्रायः यह भजन प्रत्येक संत
जन अपने प्रवचन कार्यक्रमों में गाते गुनगुनाते हैं | बहुत ही सारपूर्ण यह भजन
कहता है –
प्रेम जब अनंत
हो गया, रोम रोम संत हो गया |
देवालय बन गया
बदन, मन (हृदय) तो महंत हो गया ||
प्रेम जब अपनी उत्कर्ष अवस्था को छू
लेता है, तब उसे प्रेम का अनन्त होना कहते हैं | इस सर्वोत्कर्ष अवस्था में
व्यक्ति का रोम रोम अर्थात शरीर की प्रत्येक कोशिका संत बन जाती है | संत का अर्थ
है जो सत की राह पर चलता हो, जिसके सभी संकल्पों-विकल्पों का अंत हो गया हो | संत
की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति के शरीर और
इन्द्रियां शांत हो जाते है और उस पर किसी भी प्रकार के सांसारिक आकर्षण का कोई
प्रभाव नहीं पड़ता | देवालय बन गया बदन, अर्थात संत की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति का
भौतिक शरीर मंदिर बन जाता है, जहाँ किसी भी प्रकार के कुत्सित विचारों का प्रवेश संभव
नहीं हो पाता है | प्रेम की अनंतता की अवस्था में व्यक्ति का मन महंत बन जाता है |
महंत अर्थात वह व्यक्ति जिसने अपनी सभी महत्वकांक्षाओं का अंत कर दिया हो | व्यक्ति
के मन में ही कामनायें उठती हैं, पलती हैं और विस्तार पाती है | प्रेम-रस से सरोबार
व्यक्ति के मन की सभी कामनाओं का अंत हो जाता है, यहाँ तक कि मन भी अमन हो जाता है,
जिसके कारण ही वह महंत कहलाता है | शरीर में मन स्थित है | मन में कामनाओं के
समाप्त होते ही भौतिक शरीर देवालय बन जाता है और मन उस देवालय का महंत | उसके इस
देवालय रुपी शरीर का रोम रोम सत्य को ही पुकारकर संत बन जाता है | प्रेम की अनंतता
सांसारिक व्यक्ति को अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचा देती है |
क्रमशः – कल
समापन कड़ी
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||