Thursday, August 31, 2017

गुरु के सूत्र - 26

गुरु के सूत्र – 26
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
                             एक बहुत ही प्रसिद्ध भजन की पंक्तियाँ मैं यहाँ उद्घृत करने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ | इन पंक्तियों से प्रेम-रस को सुगमता से समझा जा सकता है | प्रायः यह भजन प्रत्येक संत जन अपने प्रवचन कार्यक्रमों में गाते गुनगुनाते हैं | बहुत ही सारपूर्ण यह भजन कहता है –
प्रेम जब अनंत हो गया, रोम रोम संत हो गया |
देवालय बन गया बदन, मन (हृदय) तो महंत हो गया ||
          प्रेम जब अपनी उत्कर्ष अवस्था को छू लेता है, तब उसे प्रेम का अनन्त होना कहते हैं | इस सर्वोत्कर्ष अवस्था में व्यक्ति का रोम रोम अर्थात शरीर की प्रत्येक कोशिका संत बन जाती है | संत का अर्थ है जो सत की राह पर चलता हो, जिसके सभी संकल्पों-विकल्पों का अंत हो गया हो | संत की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति के  शरीर और इन्द्रियां शांत हो जाते है और उस पर किसी भी प्रकार के सांसारिक आकर्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता | देवालय बन गया बदन, अर्थात संत की अवस्था को उपलब्ध व्यक्ति का भौतिक शरीर मंदिर बन जाता है, जहाँ किसी भी प्रकार के कुत्सित विचारों का प्रवेश संभव नहीं हो पाता है | प्रेम की अनंतता की अवस्था में व्यक्ति का मन महंत बन जाता है | महंत अर्थात वह व्यक्ति जिसने अपनी सभी महत्वकांक्षाओं का अंत कर दिया हो | व्यक्ति के मन में ही कामनायें उठती हैं, पलती हैं और विस्तार पाती है | प्रेम-रस से सरोबार व्यक्ति के मन की सभी कामनाओं का अंत हो जाता है, यहाँ तक कि मन भी अमन हो जाता है, जिसके कारण ही वह महंत कहलाता है | शरीर में मन स्थित है | मन में कामनाओं के समाप्त होते ही भौतिक शरीर देवालय बन जाता है और मन उस देवालय का महंत | उसके इस देवालय रुपी शरीर का रोम रोम सत्य को ही पुकारकर संत बन जाता है | प्रेम की अनंतता सांसारिक व्यक्ति को अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचा देती है |
क्रमशः – कल समापन कड़ी
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, August 30, 2017

गुरु के सूत्र - 25

गुरु के सूत्र – 25
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) –
               यह मात्र एक संयोग है कि जिस विषय पर हम अभी चर्चा कर रहे हैं, उसी समय न्यायलय के आये एक  निर्णय ने थोडा सा लीक से हटकर लिखने को मजबूर कर दिया | आज गंभीरता से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि क्या ऐसे किसी व्यक्ति को जो कि धर्म की आड़ में पाप कर रहा हो, संत कहा जा सकता है ? विरासत में मिले इस पद की गरिमा को उसने तार-तार कर दिया है | सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि ऐसा सब कुछ सनातन धर्म की आड़ में हो रहा था | भारत की संस्कृति ऐसी कभी भी नहीं रही है और न ही हमारा धर्म ऐसे किसी पाप-कर्म को पोषित करता है | जहाँ जन्म से ही नारी की महानता का बखान करते हुए उसका मातृ-स्वरुप हमें घूंटी के साथ पिलाया जाता था, उसमें कहीं न कहीं तो किसी विकृति ने अवश्य ही प्रवेश किया है, जो आज सम्पूर्ण युवा पीढ़ी को भ्रमित कर रही है | आज हमारे समक्ष ऐसा समय आकर उपस्थित हो गया है जो हमें यह सोचने को विवश कर रहा है कि हम विचार करें कि हमसे कहाँ गलती हुई है ? गलती अवश्य ही हुई है अन्यथा ऐसा परिणाम नहीं मिलता | समय की मांग को स्वीकार करते हुए यह आवश्यक है कि हम इस बात पर चिंतन करें और अपने मानवीय मूल्यों को पुनः उत्कर्ष पर पहुँचाने का प्रयास करें |  आइये ! अब पुनः भाव रस से प्रेम-रस की और चलते हैं |
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय |
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||
          यह कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा है | कबीर कहते हैं कि सारा संसार पुस्तकों में ज्ञान खोज रहा है परन्तु शास्त्र पढ़कर भी आज तक कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सका है, पंडित नहीं बन सका है | परन्तु जिसने ‘प्रेम’ शब्द के ढाई अक्षर पढ़ लिए, जो प्रेम-रस में डूब गया वह तत्काल ही पंडित हो गया अर्थात ज्ञान को उपलब्ध हो गया | आत्म-ज्ञान हो जाना ही परमात्मा को पा लेना है |
                    आत्म-ज्ञान होते ही सभी में परमात्मा नज़र आने लगते हैं | प्रेम और परमात्मा में कोई भेद नहीं है | कबीर कहते हैं –
सुन्न मरे अजपा मरे, अनहद ही मर जाय |
रामस्नेही ना मरे, कहत कबीर बुझाय ||
                    कबीर कहते हैं कि जो परमात्मा को शून्य कहते हैं, जो उसे अजपा कहते हैं और जो उसे अनंत मानते हैं, वे सभी मरेंगे क्योंकि वे प्रेम-भाव में अभी डूबे नहीं हैं | जो राम का प्रिय है और राम से प्रेम करता है, वह कभी नहीं मर सकता | जो सभी से प्रेम-भाव रखता है, वह सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है अर्थात राम को ही देखता है | भला, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला कभी मर सकता है ? यहाँ मरने का अर्थ केवल शरीर के मरने और बार-बार जन्म लेने से नहीं है | जो संसार में सब को राम समझता है और सबसे प्रेम करता है वह जीते जी ही मुक्त है, उसका पुनर्जन्म नहीं हो सकता | वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है और परमात्मा कभी मरता नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, August 29, 2017

गुरु के सूत्र - 24

गुरु के सूत्र – 24
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे)
                        संत तो अपनी यात्रा सफल कर गए परन्तु क्या आज के संत इस यात्रा मार्ग से भटक नहीं रहे हैं ? ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज सदैव इस बात के बारे में अपने साधकों को चेताते रहते थे | उनके यहाँ साधक और साधिकाओं के बैठने तक की अलग-अलग व्यवस्था रहती थी | परन्तु आज तो सब कुछ गडमड हो रहा है | ऐसे में हम इन कथित संतों के पतन के अलावा और देख भी क्या सकते हैं ? किसी एक अथवा दो सम्मानित व्यक्तियों के पतन को हम सनातन धर्म से नहीं जोड़ सकते | सनातन धर्म तो सदैव साधना पथ में आ रही ऐसी बाधाओं को प्रमुखता के साथ कहता आया है और उनसे बच के रहने को आवश्यक बताता है | अब यह तो व्यक्ति स्वयं पर निर्भर करता है कि वह ऐसी बाधाओं से पार निकल जाये अथवा इनमें उलझकर अपने स्तर से नीचे गिर जाये |
              भाव-रस से प्रेम-रस की और जाने पर ऐसी बाधाएं निश्चित रूप से आएँगी ही | इसका भी एक कारण है | भाव रस में दो का होना आवश्यक है,भक्त और भगवान, जबकि प्रेम-रस में एक का अर्थात स्वयं का अंत कर देना होता है | जहां दो है, वह अखंड तो हो सकता है, परन्तु अनंत नहीं | भाव-रस आपको प्रसिद्धि की और लेकर जायेगा ही, इसमें कोई दो राय नहीं है | प्रसिद्धि की अवहेलना करेंगे और स्वयं को अहंकार से मुक्त रखेंगे तो आपका “मैं” समाप्त हो जायेगा | प्रायः जहाँ प्रसिद्धि होती है वहां अहंकार का आगमन हो जाता है और अहंकार के आते ही दो में से एक अर्थात गोविन्द का साथ छूट जायेगा और अनेकों का साथ बढ़ता जायेगा | यह अनेक उसी संसार के हैं, जिसे आप कुछ समय पूर्व छोड़कर आये हैं | इस प्रकार आप जहां से सब कुछ छोड़कर आयें हैं, पुनः उसी स्थान पर लौट जाते हैं | केवल लौट ही नहीं जाते बल्कि उससे भी निम्न स्तर को प्राप्त हो जाते है | जहां आप भगवान को पाने से पूर्व  ही स्वयं को भगवान मानने लगते हों, वहां पतन के अतिरिक्त और कुछ शेष बचता ही नहीं है |  आप स्वयं भगवान तभी हो सकते हो जब आपने अपने “मैं” का अंत कर दिया हो | प्रेम में व्यक्ति के “मैं” का अंत हो जाता है और फिर किसी प्रकार की बाधा उसे प्रभावित नहीं कर सकती | अतः हमें भोग और प्रेम में अंतर को सपष्ट रूप से जानते हुए स्वयं की “मैं” को त्यागकर परमात्मा में लीन हो जाना होगा तभी यह गोविन्द की यात्रा सफल होगी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकास्ग काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, August 28, 2017

गुरु के सूत्र - 23

गुरु के सूत्र – 23
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे)
                 भाव रस तक पहुँच कर पतन से बचने के लिए आप क्या कर सकते हैं ? आपको अपने मान-सम्मान और बढ़ती प्रसिद्धि की अवहेलना करनी होगी और दृष्टि को अपने एक मात्र लक्ष्य पर जमाये रखना होगा | साधना रत व्यक्ति के जीवन में एक नहीं अनेकों मेनकाएँ आएगी ही, यह सत्य है | आपको अडिग रहना है, लडखडाना नहीं है | पतन को प्राप्त हुए संतों ने यही गलती की कि उन्होंने प्रत्येक साधिका को मेनका समझ लिया | प्रत्येक साधिका मेनका नहीं हो सकती | अतः आपको सभी मेनकाओं से अपने आप को दूर रखना होगा | इस सम्बन्ध में एक छोटा सा दृष्टान्त प्रस्तुत है |
                एक घुमक्कड़ संत घूमते-घूमते एक छोटे से नगर में पहुँच गए | नगर वासी उनके मुख मंडल के तेज को देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके | सभी नगरवासियों ने स्वामीजी से आग्रह किया कि वे कुछ समय के लिए इसी नगर में रूक कर उनका मार्गदर्शन करें | उन्होंने संत के रहने के लिए एक छोटी सी कुटिया बना दी | नगर के एक मात्र मंदिर में उनके प्रवचन का कार्यक्रम रखा गया | कुटिया से संत जब मंदिर के लिए पैदल निकलते तो उन्हें एक वैश्या के घर के सामने से होकर जाना पड़ता | वैश्या भी संत के मुखमंडल को देखकर प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी | एक बार जब संत वैश्या के घर के सामने से मंदिर के रास्ते पर अग्रसर थे, तभी वैश्या ने छत पर से ऊँची आवाज में पूछा-“स्वामीजी, आप कच्चे संत है अथवा पक्के संत ?” संत ने छत पर खड़ी वैश्या पर एक दृष्टि डाली और उसकी भाव भंगिमाओं को देखते हुए प्रश्न को अनसुना कर दिया | दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ, संत उसके घर के सामने से निकल ही रहे थे कि वैश्या ने पुनः उनसे वही प्रश्न किया | अब तो  प्रतिदिन ही ऐसा होने लगा | स्वामीजी का वैश्या के घर के सामने से निकलना, वैश्या का उनसे वही प्रश्न पूछना और संत का बिना उत्तर दिए मंदिर की ओर चलते जाना |
                   दैव-योग, एक दिन संत चल बसे | नगरवासियों ने संत की सम्मान के साथ शव यात्रा निकाली | शव यात्रा के मार्ग में फिर उसी वैश्या का घर | वैश्या भी उत्सुकता वश छत पर खड़ी संत के अंतिम दर्शन के लिए प्रतीक्षा कर रही थी | संत की शव यात्रा देखकर उसके मुंह से अनायास ही निकल गया- “हाय ! संत तो मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही चले गए |” यह सुनते ही संत के शरीर में हलचल हुई और वे बोल पड़े – “ मैं पक्का संत हूँ | जब तक शरीर जीवित था तब तक मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं था कि मैं पक्का संत हूँ क्योंकि तुम्हें देखकर और तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देकर मैं तुम्हारे जाल में कभी भी फंस सकता था | आज मेरा यह जड़ शरीर नहीं रहा, अब मैं पतन की और नहीं जा सकता इसलिए दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं एक पक्का संत हूँ |”
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, August 27, 2017

गुरु के सूत्र - 22

गुरु के सूत्र – 22
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) –
             प्रेम-रस में डूबने जा रहे व्यक्ति को वे सभी सूत्र जीवन में स्थाई रूप से अपनाये रखने होते हैं, जो गुरु उसे रसमय जीवन की स्थिति को प्राप्त करने से पूर्व बताते हैं | किसी भी एक सूत्र का परित्याग करते ही पतन होना प्रारम्भ हो जाता है और प्रेम-रस से विमुख होकर व्यक्ति भोग-रस में पुनः डूब सकता है | अपरिपक्व प्रेम वासना में परिवर्तित हो सकता है | जो व्यक्ति वासना को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं, वे बहुत बड़े भ्रम में हैं | संतुष्ट जीवन, स्वाधीन जीवन व होशपूर्ण जीवन प्रेम-रस की उच्चावस्था को प्राप्त कर उसे बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं | किसी भी एक सूत्र की अवहेलना प्रेम को वासना में परिवर्तित कर सकती है | इस स्थिति से बचने के लिए ही गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है |
                 भाव-रस से प्रेम रस तक पहुँचने का मार्ग एक साधक के लिए सबसे कठिन मार्ग है | यहाँ तक आकर बड़े-बड़े महापुरुष तक लडखडा जाते हैं | ऐसे उदाहरण आप आज देख ही रहे हैं | वे सब भाव-रस से प्रेम-रस तक की यात्रा में ही लडखडा कर पतन को प्राप्त हुए हैं | मेरे मित्र पूछते हैं कि साध्य की इस यात्रा के अंतिम चरण के पास तक पहुँच कर ऐसा क्यों होता है ? इसका एक मात्र कारण है, स्वयं को गोविन्द के मार्ग पर चलने के लिए पक्के रूप से तैयार न कर पाना | भाव-रस से प्रेम-रस जीवन की यात्रा में आपकी प्रसिद्धि दिन दूनी रात चोगुनी की गति से बढ़ती है जिसके कारण आपके संपर्क में आकर बहुत से लोग प्रभावित होकर अनुयायी बन जाते हैं | बढ़ती अनुयायियों की संख्या देखकर आप में अहंकार पैदा हो जाता है | उस प्रसिद्धि का सुख ही आपको आनंद लगने लगता है, जबकि वास्तव में वह आनंद न होकर एक प्रकार का भोग-रस ही है | इसी को समझने में आप भूल कर बैठते हैं और आप पुनः संसार के भोगों में रत होकर पतन को प्राप्त हो जाते हैं | 
          आज हम इस युग में अध्यात्म की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त व्यक्तियों का ऐसे ही किसी एक सूत्र का त्याग कर देने से पतन को प्राप्त हुए देख रहे हैं | जो कभी आध्यात्मिकता की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर अपने शिष्यों का मार्गदर्शन कर रहे थे, वे स्वयं ही उन सूत्रों का त्याग कर पतन को प्राप्त हो चुके हैं | अतः आवश्यक है कि प्रेम-रस में डूबकर होश नहीं खोना है, किसी की स्वाधीनता को छीनने का प्रयास नहीं करना है और शांति के साथ संतुष्ट होकर होश पूर्वक जीना है | तभी हम प्रेम-रस के शिखर को छूकर परमात्मा को उपलब्ध हो सकते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, August 26, 2017

गुरु के सूत्र – 21

गुरु के सूत्र – 21
रसमय जीवन (कल से आगे) -
                        भाव-रस हमें संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होने देता | प्रत्येक प्राणी के लिए करुणा और सहृदयता रखना ही भाव-रस है | भक्ति का प्रारम्भ ही भाव के साथ होता है | भाव के अभाव में भक्ति केवल एक दिखावा भर बन कर रह जाती है, जो मूल्यहीन है |अतः भोग-रस को छोड़कर शांत-रस को प्राप्त कर भाव-रस में डूबना होगा, तभी हम गोविन्द को पाने की ओर अग्रसर हो सकते हैं | स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहा करते थे कि भाव-रस अखंड है परन्तु अनन्त नहीं है | भाव-रस में सदैव ही द्वैत की अवस्था बनी रहती है, जबकि हमें इससे आगे बढ़कर अद्वैत तक पहुंचकर एकाकार होना है | कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति को केवल भाव-रस पर आकर ही अटक नहीं जाना है | हमें उस रस को पाना है, जो अखंड भी हो और अनन्त भी हो | वह चौथा रस क्या है, आइये ! चलते हैं उस ओर |
                    रसपूर्ण जीवन का चौथा और सर्वोत्तम रस है, प्रेम-रस | स्वामी शरणानन्द जी महाराज के अनुसार प्रेम-रस अखंड भी है और अनन्त भी | अखंड और अनंत रस, जिसे प्रेम-रस कहा जाता है वह न तो कभी मध्य में आकर टूट सकता और न ही कभी समाप्त हो सकता है | अनंत केवल गोविन्द है और उसे अनंत प्रेम-रस से ही पाया जा सकता है | प्रेम कभी भी किसी से प्रतिदान में कुछ नहीं चाहता है | प्रेम स्वार्थी नहीं है | प्रेम में द्वैत है ही नहीं, प्रेम में केवल एकत्व है | प्रेम-रस से बढकर कोई दूसरा रस हो ही नहीं सकता | रस की सर्वोत्तम निधि प्रेम ही है और प्रेम पाकर, प्रेम बांटकर मनुष्य का जीवन सफल हो जाता है | अतः अपने जीवन को प्रेम-रस से परिपूर्ण कर ले | प्रेम के रसपूर्ण जीवन और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है | कबीर इस प्रेम के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय |
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नांय ||
                    प्रेम में ‘मैं’ की समाप्ति हो जाती है और ‘मैं’ की समाप्ति पर जो शेष रहता है, वह है प्रेम से परिपूर्ण गोविन्द | प्रेम में एक ही रहता है, दूसरा बचता ही नहीं है | दो का एक हो जाना ही प्रेम है | भक्त का भगवान हो जाना, आत्मा का परमात्मा हो जाना |
   ते दिन गए अकारथी, संगत भई न संत |
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ||
                   कबीर गुरु और प्रेम को सपष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्य जीवन के वे दिन व्यर्थ ही बीत गए, जिस दिन उसने किसी संत से सत्संग नहीं किया अर्थात किसी गुरु का सानिध्य प्राप्त नहीं किया | गुरु ही हमें प्रेम से सरोबार कर देता है, प्रेम-रस में डुबो देता है | प्रेम बिना तो मनुष्य का जीवन पाशविक जीवन है | भक्ति भगवान के प्रति प्रेम ही तो है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, August 25, 2017

गुरु के सूत्र - 20

गुरु के सूत्र – 20
चौथा सूत्र-रसमय जीवन(कल से आगे) -
                रंगशाला में नृत्य कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हुआ | तीनो नृत्यांगनाएं एक से बढ़कर एक प्रस्तुति दे रही थी | नृत्य और संगीत का तालमेल बहुत ही उच्च कोटि का था | महर्षि पतंजलि बार-बार आगे बढकर नृत्य और संगीत की प्रशंसा करते हुए दाद दे रहे थे | सभी शिष्य नृत्य और संगीत का आनंद ले रहे थे | एक शिष्य जिसक नाम चरित्र था, उसको अपने गुरु का इस प्रकार नृत्य और संगीत का रसास्वादन करना अनुचित लग रहा था | उसका ध्यान नृत्य और संगीत में कम और अपने आचार्य की भाव भंगिमाओं पर अधिक था | खैर ! मध्यरात्रि को आयोजन का समापन हुआ | सभी अपने अपने शयन कक्ष की ओर बढ़ चले | महर्षि पतंजलि से अपने शिष्य चरित्र की दुविधा अधिक समय तक छुपी न रह सकी | उन्होंने अपने उस शिष्य को संबोधित करते हुए कहा – ‘चरित्र ! मैं अनुभव कर रहा हूँ कि तुम किसी बड़ी दुविधा में हो, कहो क्या बात है ?’ चरित्र ने कहा – “आचार्य ! मेरी दुविधा है कि आपके द्वारा इस प्रकार नृत्य और संगीत का रसास्वादन करना कहीं चित्त वृति निरोध में बाधक तो नहीं है ?’ महर्षि पतंजलि, जो अष्टांग योग के प्रणेता हैं, ने कहा – ‘नहीं चरित्र ! नृत्य और संगीत को भोग-रस की तरह लेना ही चित्त वृति निरोध में बाधक है, इसे भाव-रस की तरह लेने से आप कला की केवल प्रशंसा ही करते है, उस कला को भोगते नहीं हैं | मैंने नृत्य और संगीत की उच्चतम कोटि की प्रशंसा की है, उन नृत्यांगनाओं की सुन्दरता की नहीं | सुन्दरता हमें भोग-रस प्रदान के लिए आकर्षित करती है और संगीत व नृत्य हमें भाव-रस प्रदान करता है | हमारा जीवन केवल भोग-रस प्राप्त के लिए नहीं ही है परन्तु वह भाव-रस को प्राप्त करने के लिए अवश्य है |’ इस उत्तर से चरित्र की दुविधा मिट गई और महर्षि पतंजलि के प्रति उसका आदर भाव और अधिक बढ़ गया |
                    महर्षि पतंजलि के जीवन का यह दृष्टान्त स्पष्ट करता है कि मनुष्य के जीवन में भोग और भाव, इन दो प्रकार के रसों में सूक्ष्म सा अंतर है | भोग-रस सुख-दुःख से व्यक्ति को मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस व्यक्ति को आनंद की अवस्था की ओर ले जाता है | भोग-रस अस्थाई रस है, जबकि भाव रस अखंड रस है | भोग-रस हमें आवागमन से मुक्त नहीं होने देता जबकि भाव-रस हमें मुक्ति की ओर ले जाता है | अज्ञान के कारण कई बार हम भोग-रस और भाव-रस के अंतर को समझ नहीं पाते हैं | योगाचार्य पतंजलि के इस दृष्टान्त से यह अंतर बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, August 24, 2017

गुरु के सूत्र - 19

गुरु के सूत्र – 19 
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
                बहुत ही महत्वपूर्ण भाव-रस, जहाँ कोई किसी से भिन्न नहीं, सभी अपने, कोई भी पराया नहीं  | चोर और साधू, पशु व मानव सभी में परमात्मा को देखना | भाव-रस हमें परमात्मा की और ले जाता है | महान कवि श्री मैथिली शरण गुप्त ने कहा भी है-
जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं |
वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं ||
                  भाव-रस दया और करुणा का रस है | इस संसार में भोग-रस से निवृत हो व्यक्ति शांति को उपलब्ध होता है | शांति प्राप्त करने के उपरांत उसमें प्रत्येक प्राणी के प्रति दया और करुणा का भाव जगता है | इसीलिए इस भाव-रस को भावना प्रधान कहा गया है | गोविन्द की यात्रा के लिए मनुष्य का भाव-प्रधान होना आवश्यक है | भाव, भोग से एकदम विपरीत अवस्था है और प्रेम से पूर्व की अवस्था है | भोग-रस से प्रेम-रस के मार्ग पर अग्रसर होने पर मध्य में भाव-रस की उपलब्धि होती है |
                               महान योगाचार्य महर्षि पतंजलि के जीवन का एक वृतांत है | तत्कालीन राजा पुष्पराज ने एक बार अपने राजमहल में एक माह तक चलने वाले यज्ञ का आयोजन किया | उस यज्ञ में उन्होंने महर्षि पतंजलि को भी आमंत्रित किया | महर्षि ने पुष्पराज को स्पष्ट किया कि इतनी दीर्घ अवधि तक गुरुकुल छोड़ कर जाना संभव नहीं है क्योंकि इससे मेरे एक सौ विद्यार्थियों की शिक्षा अवरुद्ध हो जाएगी |  राजा पुष्पराज ने कहा कि मैं आपके साथ-साथ सभी एक सौ विद्यार्थियों के आवास, भोजन और शिक्षा की व्यवस्था कर देता हूँ | वहां आप यज्ञ में भी भाग ले सकते हैं और अपने शिष्यों को विद्याध्ययन भी करा सकते हैं | राजा पुष्पराज के आग्रह को आखिर महर्षि टाल नहीं सके और अपने शिष्यों सहित राजा के मेहमान बन गए |
                प्रातःकाल महर्षि पतंजलि यज्ञादि कार्यक्रमों में भाग लेते और तत्पश्चात गुरुकुल की तरह ही अपने शिष्यों को विद्याध्ययन कराते | इस प्रकार एक पक्ष बीत गया | एक दिन राजा ने महल की नाट्यशाला में एक भव्य नृत्य और संगीत के कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें राज्य की सुन्दरतम प्रसिद्ध तीन नृत्यांगनाओं को नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया गया था | यह कार्यक्रम सांय काल को प्रारम्भ होकर मध्य रात्रि तक चलना था | राजा पुष्पराज ने महर्षि पतंजलि को भी इस नृत्य-संगीत कार्यक्रम को देखने के लिए निमंत्रित किया | महर्षि ने कहा कि मैं अकेला नहीं आ पाउँगा, अगर निमंत्रित करना है तो मेरे साथ मेरे सभी एक सौ शिष्यों को भी निमंत्रित करना होगा | राजा पुष्पराज ने सभी को आमंत्रण दिया और उनके बैठने की रंगशाला में उचित व्यवस्था कर दी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, August 23, 2017

गुरु के सूत्र - 18

गुरु के सूत्र - 18
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
                        इस प्रकार कठोपनिषद में वर्णित यम-नचिकेता संवाद में यम ने नचिकेता को स्पष्ट कर दिया है कि जीवात्मा से पूर्व इस व्यक्त संसार में केवल बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ है | इन्द्रियों को बलपूर्वक दबाने के स्थान पर अपनी बुद्धि से विचार करते हुए स्वीकार करें कि भोग-रस अंततः हमें दुःख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकते | शांति प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि से मन में उठ रही विभिन्न कामनाओं को नियंत्रित करें | कामनाओं पर नियंत्रण मन को नियंत्रण में लेकर पाया जा सकता है | इस प्रकार कामनाओं पर नियंत्रण पाते ही आपकी इन्द्रियां स्वतः ही नियंत्रित हो जाएगी |  इस अवस्था को उपलब्ध होते ही आपके जीवन में शांत-रस का आगमन हो जायेगा | शांत-रस कामनाओं के शांत होने पर ही मिलना संभव हो सकता है |
                 अब चलते हैं, जीवन के एक और महत्वपूर्ण रस की ओर | यह महत्वपूर्ण तीसरा रस है-भाव-रस | शांत-रस प्राप्त कर लेने के उपरांत साधक को भाव-रस प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना चाहिए | भाव-रस का अर्थ है, मनुष्य का भावना प्रधान होना, भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होना | इस भाव-रस में मुख्यतः भावना प्रधान होती है | जैसा मैं हूँ वैसे ही सब प्राणी हैं | कोई किसी से अलग अथवा भिन्न नहीं है | जैसे भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||गीता-6/30||
अर्थात जो सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझको ही व्याप्त देखता है और सब भूतों को मुझके अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं और मेरे लिए वह कभी भी अदृश्य नहीं होता |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, August 22, 2017

गुरु के सूत्र - 17

गुरु के सूत्र – 17
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
           दूसरा रस है- शांत-रस | इस शांत-रस में सभी भोगों की कामनाएं शांत करनी होती है | यह शांत-रस किसी इन्द्रिय को जबरदस्ती दबाकर नहीं पैदा करना चाहिए बल्कि मन को नियंत्रण में लेकर भोग-रस की कामना का त्याग कर शांति के साथ शांत-रस का आनंद लेना चाहिए | आज मनुष्य विभिन्न प्रकार के भोग-रस में डूबा हुआ है, इस कारण से उसमें शांति के अवतरण की कल्पना नहीं की जा सकती | भोग-रस में आसक्ति के कारण व्यक्ति सदैव उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में प्राप्त करने का प्रयास करता रहता है | इन्द्रियों पर उसका नियंत्रण समाप्त हो जाता है | अशांति उसे चारों ओर से घेर लेती है | यहाँ पर भोगों से दूरी बनाये रखना उसके लिए असंभव हो जाता है | भोगों में आसक्ति न रखने का एक ही उपाय है, कामनाओं पर नियंत्रण | इन्द्रियों को दबाना नहीं है बल्कि कामनाओं को दबाना है | मन में उठ रही कामनाओं को रोककर ही इन्द्रियों को नियंत्रण में रखा जा सकता है | एक बार कामनाएं नियंत्रित हो गयी तो फिर जो शांति-रस प्राप्त होता है, वह भोग-रस से भी अधिक आनंददायक होता है |
          हमारी समस्त इन्द्रियां और मन भी तो परमात्मा के कारण है | ऐसे में इन्द्रियों का दमन करना तो परमात्मा के सृजन का अनादर करना है | आप अगर स्वादेंद्रिय को नियंत्रण में रखने के लिए अपनी जिव्हा को काटकर भी फैंक देंगे, तो क्या आपको भोजन का रस नहीं आएगा ? भोजन का रस आपको कल्पना में मिलता रहेगा और उसको आप अपनी जिव्हा काटकर नियंत्रित नहीं कर सकते | भगवान् ने आपको स्वादेंद्रिय दी है, स्वाद की अनुभूति के लिए | आपका मन एक विशेष स्वाद की और अधिक अथवा सतत मिलते रहने की कामना करता है | अगर आपके मन में उसी स्वाद को प्राप्त करने की कामना नहीं उठेगी तो फिर आप सुगमता से मिल रहे भोजन का रस स्वादेंद्रिय से लेने को स्वतन्त्र है | भोजन न भी मिले तो आपके मन में किसी भी प्रकार का विचलन नहीं होना चाहिए | यही शांत-रस है |
             इस बारे में कठोपनिषद् कहती है –
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ||
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः |
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः || कठो.-1/3/10-11||
अर्थात इन्द्रियों से विषय बलवान है; विषयों से मन, मन से बुद्धि, बुद्धि से महान जीवात्मा होने से वह अधिक बलवान है | उस जीवात्मा से अधिक बलवान है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति अर्थात प्रकृति; और सबसे श्रेष्ठ है परम पुरुष भगवान; उनसे अधिक श्रेष्ठ और बलवान अन्य  कोई नहीं है | वही सबकी परम अवधि और वही सबकी परम गति है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, August 21, 2017

गुरु के सूत्र - 16

गुरु के सूत्र – 16
चौथा सूत्र – रसमय जीवन (कल से आगे) -
                             ययाति ने सत्य ही कहा है | सभी विषय-भोग ऐसे ही होते हैं जिन्हें मनुष्य जीवन भर भोगना तो चाहता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि वह इन भोगों का स्वयं ही भोग बनता जा रहा है | जब तक इस बात का पता उसे चल पाता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | ययाति को इस बात का ज्ञान होते ही अपने पुत्र पूरु को उसकी युवावस्था लौटा दी और साथ ही साथ अपना राज्य उसको देकर शांत भाव से वन को प्रस्थान कर गए | मनुष्य को शांति तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि उसको यथार्थ का ज्ञान नहीं हो जाये | यथार्थ क्या है ?
                 यथार्थ वह नहीं है, जो हमें अपनी आँखों से दृष्टिगत है | यथार्थ उस दृश्य के पीछे छुपा हुआ है जिसे केवल वही व्यक्ति देख सकता है, जिसके आंतरिक चक्षु खुले हों | नेत्र और उनकी दृष्टि दोनों ही जड़ होते हैं अतः यथार्थ को देखने से वे कोसों दूर रहती है | परन्तु आंतरिक दृष्टि यथार्थ को देख सकती है | आंतरिक दृष्टि को जाग्रत करने का एक ही साधन है – ज्ञान | ज्ञान हमें यथार्थ तक ले जाता है | जब यथार्थ से हमारा सामना होता है, संसार का सब कुछ बहुत पीछे छूट जाता है | द्वंद्व तो इस संसार में है और संसार एक स्वप्न, एक कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | स्वप्न हमें उद्वेलित करता है, जबकि यथार्थ का ज्ञान हमें शांति प्रदान करता है | संसार के भोग स्वप्न मात्र हैं, उनसे शांति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता | अतः शांति को उपलब्ध होने के लिए भोग-रस का त्याग करना आवश्यक है |
                     हमें भोग-रस का त्याग कर दूसरे रस की ओर अग्रसर होना चाहिए | परन्तु भोगों को त्यागा कैसे जाये ? भोगों का त्याग करना सम्भव ही नहीं है | जैसा कि कर्म-सिद्धांत कहता है कि प्रत्येक कर्म का फल भोग के रूप में प्राप्त होकर ही रहता है, ऐसे में भोगों के त्याग की कल्पना भी नहीं की जा सकती | हाँ, यह सत्य है कि हमें अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल वर्तमान जीवन में भोग के रूप में मिलता है | अतः उन कर्मों के फलस्वरूप मिले भोगों को भोगना अनुचित नहीं है | यहाँ भोगों के त्याग से अर्थ है, उन भोगों में आसक्त न होना | भोगों में आसक्त होने से कैसे बचा जा सकता है, इस बारे में ईशावास्योपनिषद् कहता है –
ईशा वास्यमिदंसर्वं यत्किंच्य जगत्यां जगत् |
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ||
अर्थात अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन संसार है; यह समस्त संसार ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर को साथ रखते हुए; त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो | इसमें आसक्त मत होओ | धन, भोग्य पदार्थ आदि किसी के नहीं है | इस प्रकार इस मन्त्र को दृष्टिगत रखते हुए मिले हुए भोगों को भी त्यागपूर्वक भोग जा सकता है और विषय-भोग के प्रति अनासक्त हुआ जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, August 20, 2017

गुरु के सूत्र - 15

गुरु के सूत्र – 15
चौथा सूत्र- रसमय जीवन (कल से आगे)
                प्रथम रस है, भोग-रस | जितनी भी हमारी इन्द्रियां है, वे भोग-रस प्राप्त कर हमें उसका ज्ञान कराती हैं | मनुष्य के शरीर की ये इन्द्रियां जब तक सक्रिय रहती है तब तक भोग-रस की उनकी मांग बढ़ती जाती है | यह रस भी मनुष्य के सांसारिक जीवन के लिए आवश्यक है परन्तु आध्यत्मिक जीवन के लिए इस भोग-रस का त्याग करना आवश्यक है | सांसारिक भोगों से मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकता |
                    भागवत में ययाति-प्रसंग आता है | राजा ययाति को उनके श्वसुर शुक्राचार्य ने शाप दिया था जिसके कारण उनके शरीर को वृद्धावस्था ने असमय ही आकर जकड लिया था | सांसारिक भोगों से उन्हें अभी तक संतुष्टि नहीं मिल पाई थी | वे शुक्राचार्य से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें सांसारिक व शारीरिक भोग के लिए कुछ समय और मिलना चाहिए क्योंकि उनकी पुत्री देवयानी का इसी में भला है | शुक्राचार्य कहते हैं कि श्राप तो अन्यथा हो नहीं सकता | इससे बच निकलने का एक ही उपाय है कि जो व्यक्ति प्रसन्नता से तुम्हें अपनी युवावस्था दे दे, उससे अपनी वृद्धावस्था बदलकर शारीरिक सुख भोग सकते हो | इस प्रकार शुक्राचार्य से उन्हें भोग-रस का पान करने के लिए समय तो मिल जाता है परन्तु युवावस्था कहाँ से लाये ? शारीरिक भोग के लिए युवा बने रहना आवश्यक है | राजा ययाति के समक्ष युवावस्था प्राप्त करने का एक मात्र साधन उसके पुत्र ही थे | उन्होंने एक-एक कर सभी पुत्रों से अपनी युवावस्था उन्हें देने का आग्रह किया | सभी पुत्रों ने युवावस्था देने से मना कर दिया | केवल सबसे छोटे पुत्र पूरु ने अपने पिता का आग्रह स्वीकार किया और उनसे वृद्धावस्था ले ली तथा उन्हें भोगों के लिए अपनी युवावस्था दे दी | युवावस्था पा कर ययाति ने कई वर्षों तक शारीरिक भोग भोगे | परन्तु फिर भी इन भोगों से उन्हें तृप्ति नहीं हुई बल्कि उलटे भोगों को प्राप्त करने की कामना दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई | अंततः उनको इस बात का ज्ञान हुआ कि शारीरिक भोगों से कभी भी कोई तृप्त नहीं हो सकता | ययाति इन भोगों के बारे में कहते हैं –
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति |
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते || भागवत-9/19/14||
अर्थात विषयों को भोगने से भोगवासना कभी शांत नहीं हो सकती | जैसे घी की आहुति डालने से अग्नि और अधिक भड़क उठाती है वैसे ही भोगवासनायें भी भोगों से प्रबल हो उठती है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Saturday, August 19, 2017

गुरु के सूत्र - 14

गुरु के सूत्र -14
                अब आते हैं गुरु के अंतिम और अतिमहत्वपूर्ण सूत्र पर | यह अंतिम सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्त्व का है क्योंकि आनंद की अवस्था को उपलब्ध करने के लिए यह सूत्र ही मुख्य आधार बनता है | यह सूत्र है – जीवन रसमय हो, नीरस नहीं | इस जीवन को रसमय बनाकर तभी जिया जा सकता है, जब आप संसार की वास्तविकता को समझ लें | जब आप समझ जाते हैं कि इस संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब कुछ एक प्रपंच के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | आज आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा ने अपने शाश्वत सूत्र में लिखा है उसका भावार्थ भी यही है कि हम इस संसार की माया में उलझकर अपनी सरसता को खो बैठे हैं | हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जादूगर अपने खेल में साधारण कागज को जलाकर सौ रुपये के नोट में कभी भी नहीं बदल सकता | हम तो उस जादूगर के खेल को ही वास्तविकता समझ बैठते हैं, जब कि वह हमारे देखने की क्षमता को केवल मात्र भ्रमित ही करता है, जो कुछ भी हमें दिखता है, वास्तव में वैसा होता नहीं है | जो इस खेल को समझ जाता है, वह फिर इस खेल में नहीं उलझता और अपने जीवन को रसमय बना लेता है | आइये, गुरु के इस महत्वपूर्ण सूत्र ‘रसमय जीवन’ पर विचार करते हैं |
4. रसमय जीवन –
                  जीवन रस से भरा हो | रसपूर्ण जीवन ही मनुष्य और पशु के जीवन में अंतर करता है | भला, शुष्क जीवन भी कोई जीवन होता है | रस से परिपूर्ण जीवन मनुष्य को सरलता से परमात्मा की ओर ले जाता है | जीवन में उपलब्ध रसों के बारे में भी हमें ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य के जीवन में सभी रसों का महत्वपूर्ण स्थान है | वैसे कुल रस नौ हैं परन्तु वास्तव में देखा जाये तो मनुष्य के जीवन में निम्न चार प्रकार के रस  महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | भोग-रस, शांत-रस,भाव रस और प्रेम-रस | इन रसों के एक प्रकार के रस से क्रमश दूसरे प्रकार के रस पर स्थानांतरित होते जाना ही, गुरु से गोविन्द के रास्ते पर आगे बढ़ते जाना है | आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि संसार में सभी मनुष्य भोगों में डूबे हुए हैं | जब तक वे उन भोगों से अपना पिंड छुड़ाकर शांत नहीं हो जायेंगे तब तक परमात्मा के मार्ग पर प्रगति नहीं हो सकती | तो आइये ! चलते हैं, प्रत्येक रस को अल्प रूप से जानने के लिए तथा एक रस से दूसरे रस पर जाने के रास्ते को पहचानने के लिए |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, August 18, 2017

गुरु के सूत्र – 13

गुरु के सूत्र – 13
तीसरा सूत्र – चैतन्य जीवन (कल से आगे)
                         हम आज जी रहे हैं परन्तु भीतर विचार चल रहे हैं कल के | या तो हम बीते हुए कल पर विचार कर रहे होते हैं अथवा आनेवाले कल की कोई योजना बना रहे होते है | यह होशपूर्वक जीना नहीं है क्योंकि जिस समय में आप जी रहे हो, बह समाप्त होता जा रहा है | ध्यान रहे, बीता हुआ कल पुनः नहीं आता और न ही आने वाला कल कभी आएगा | परन्तु आज सदैव ही आज बना रहेगा, अतः जीना है तो आज में जियें, दोनों में से किसी भी एक कल में नहीं | आज में जीना ही होशपूर्वक जीना है | आज में रहते हुए किसी भी कल के बारे में सोचना कल्पना में जीना है और कल्पना में जीना स्वप्न में जीना है, मूर्छा में जीना हैं |
                      यह आवश्यक नहीं है कि आप जागते हुए भी होश में रहें | हम जागते हुए भी बेहोशी या निद्रा में हो सकते हैं और सोते हुए भी होश में रह सकते हैं | होशपूर्वक जीना उसी को कहते हैं जो केवल जागते हुए ही होश में न रहे बल्कि निद्रावस्था में भी होश में रहे | तथागत के बारे में कहा जाता है कि वे जब रात को सोते थे तो सम्पूर्ण रात्रि में एक ही करवट सोये रहते थे | इसका कारण था कि कहीं करवट बदलने पर उनसे कोई जीव हिंसा नहीं हो जाये | हो सकता है कोई छोटा सा जीव दूसरी ओर विचरण कर रहा हो और करवट बदलने पर वह जीव उनके नीचे दबकर कुचल जाये | इसे कहते हैं, होशपूर्वक जीना, निद्रावस्था में भी होश नहीं खोना | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: || गीता-2/69 ||
अर्थात सम्पूर्ण सांसारिक प्राणियों के लिए जो रात होती है, संयमी व्यक्ति उस समय भी जाग्रत रहता है | जब सांसारिक व्यक्ति जागते हैं उस समय मुनि के लिए वह समय रात्रि के समान है |
              इसका अर्थ यह नहीं है कि मुनि जब संसार के लिए दिन होता है, तब सो जाता है | इसका अर्थ यह है कि जब सांसारिक व्यक्ति दिन के समय अपने सांसारिक कार्य कलापों में व्यस्त हो जाते हैं तब भी मुनि होशपूर्वक रहता है और उन सांसारिक कार्यों में व्यस्त नहीं होता | इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक स्थितप्रज्ञ दिन हो अथवा रात सदैव होशपूर्वक जीवन जीता है | गुरु आपको मानव जीवन के उद्देश्य से परिचित कराता है, जिससे आप आज और अभी को जी सको, होश में रहते हुए जी सको | अतः सर्वप्रथम उनकी इस बात को आत्मसात करें और होशपूर्वक जीने का प्रयास करें |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, August 17, 2017

गुरु के सूत्र - 12

गुरु के सूत्र – 12
तीसरा सूत्र – चैतन्य जीवन (कल से आगे)
               क्या बेहोशी में भी पूजा की जा सकती है ? हाँ, हो सकती है क्योंकि आज आप पूजा करते समय, परमात्मा से प्रार्थना करते समय  साथ में अतिरिक्त कार्य भी कर रहे होते हो | इसी को बेहोशी में पूजा करना कहते हैं | ऐसी पूजा अर्थहीन पूजा है, निरर्थक प्रार्थना है | जब आप परमात्मा का ध्यान कर रहे हो, आपके बाहर भीतर सब जगह, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नज़र नहीं आना चाहिए | जो कुछ भी आप उच्चारित कर रहे हो, आपके कान केवल उसे ही सुनने चाहिए, दृष्टि उस समय केवल परमात्मा पर होनी चाहिए, गंध केवल उसी की महसूस होनी चाहिए | कहने का अर्थ यह है कि सभी इन्द्रियां और मन उसी कार्य में लगा होना चाहिए जिसको वर्तमान में आप कर रहे हो, इसी को होशपूर्वक जीना कहते हैं |
                हम बचपन में नानी के घर जाया करते थे | मेरी बड़ी नानी सुबह शाम भगवान की आरती किया करती थी | आरती करते समय वह घर का मुख्य द्वार खोलकर रखती थी | वह पूजा घर में दीपक जलाती और सस्वर आरती बोलती- “ॐ जय जगदीश हरे,स्वामी जय जगदीश हरे ----“| एक दिन मैंने देखा कि आरती के मध्य में ही गली से एक श्वान घर के मुख्य द्वार से घर में प्रवेश कर रहा है | नानी ने आरती गाते हुए भी उसे घर में प्रवेश करते देख लिया | आरती को बीच में ही छोड़ वह बोल पड़ी-‘दुर्र, दुर्र’ अर्थात वह उस श्वान को बाहर निकल जाने के लिए उसे दुत्कार रही थी | इस समय उनका मस्तिष्क तो कार्य कर रहा था क्योंकि उन्होंने श्वान को अंदर आते देख लिया था परन्तु क्या उनका ध्यान उस समय परमात्मा से की जा रही प्रार्थना में था ? नहीं, अगर उनका ध्यान प्रार्थना में होता तो उसे घर में प्रवेश करते हुए भी परमात्मा ही नज़र आते, श्वान नहीं | उनका ध्यान परमात्मा पर न होकर घर में हो रही गतिविधियों पर था | जो कार्य आप कर रहे हो, उसमें अगर आपका ध्यान नहीं है तो वह कार्य बेहोशी में ही कर रहे हो |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, August 16, 2017

गुरु के सूत्र - 11

गुरु के सूत्र – 11
तीसरा सूत्र- चैतन्य जीवन (कल से आगे)
              पशु केवल भयग्रस्त रहते हुए आहार, निद्रा और मैथुन की क्रियाओं में ही सदैव रत रहता है | आज इस आधुनिक भौतिक युग में मनुष्य भी इन चारों अर्थात आहार, निद्रा, भय और मैथुन के चक्र व्यूह से बाहर कहाँ निकल पाया है ? इसे एक प्रकार से मूर्छा का जीवन नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे ? एक पशु भी यांत्रिक जीवन जीता है और आज मनुष्य भी एक यांत्रिक जीवन जी रहा है | मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह अपना जीवन होशपूर्वक जिए | उसे स्वयं का ज्ञान होना आवश्यक है तभी उसके जीवन को होश वाला जीवन कहा जा सकता है | होशपूर्ण जीवन ही मानव प्रजाति की पशुजीवन पर श्रेष्ठता सिद्ध करता है |
                 आप प्रातः उठकर केवल रास्ते में खुलने वाली किसी खिड़की अथवा दरवाजे के पास खड़े हो जाइये और फिर वहां से आते-जाते हुए लोगों का गहराई के साथ निरीक्षण करें | आपको पता चल जायेगा कि प्रायः सभी व्यक्ति एक प्रकार की मूर्छा में यांत्रिक जीवन जी रहे हैं | उद्देश्यहीन होकर इधर उधर भटक रहे हैं | जीवन का उद्देश्य केवल खान-पीना, सोना, भयग्रस्त रहना और संतानोत्पति ही रह गया है | अपने इन्हीं  उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आज का मनुष्य अपना हीरे जैसा अनमोल जीवन गवां रहा है |
                जिसका मस्तिष्क सक्रिय हो, जो अपने दैनिक कार्य सुगमता पूर्वक कर रहा हो, केवल इतने को ही  नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति होश पूर्वक जी रहा है | आज में जीना होशपूर्वक जीना है | आप जो दैनिक कार्य कर रहे हैं, क्या वह भी आप होशपूर्वक कर रहे हैं ? मैं कहता हूँ कि, नहीं | आपको एक आदत पड़ चुकी है, वह कार्य करने की | आपकी यह आदत बन चुकी है, एक ही प्रकार के कार्य को नियमित रूप से करने के कारण | याद कीजिये वह दिन, जब आप जीवन में पहली बार पाठशाला गए थे | उस दिन आप होश पूर्वक गए थे, पाठशाला | ज्यों ज्यों आप बड़े होते गए, आपको शाला जाने की आदत बन गयी और आप यंत्रवत शाला जाने लगे | इसी प्रकार जब आपके मन में परमात्मा का विचार आया और आपने प्रारम्भिक स्तर पर उनकी पूजा-अर्चना प्रारम्भ की, तब आपको कितना आनंद मिला था ? क्या वह आनंद आज भी उस प्रकार की पूजा में मिल रहा है ? नहीं , न | कभी सोचा कि वह आनंद कहाँ चला गया ? प्रथम बार आपने वह पूजा होश में की थी और अब वही पूजा आप एक प्रकार की बेहोशी में कर रहे हो |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, August 15, 2017

गुरु के सूत्र - 10

गुरु के सूत्र – 10
दूसरा सूत्र - स्वाधीन जीवन(कल से आगे)
                         धर्म हमें अपने अधीन होने को कहता है अर्थात स्वयं के अधीन | स्वतंत्रता केवल तंत्र के अधीन होने का कहती है, तंत्र के बाहर आप स्वच्छंद हैं, कुछ भी कर सकते हैं | स्वाधीनता कहती है नहीं, स्वच्छंद नहीं बल्कि स्व-अधीन | कुछ आपके कार्यों पर स्वयं का भी अंकुश होना चाहिए | धर्म कहता है – सत्य, अहिंसा, तप और दान – ये चार मनुष्य के पालन करने योग्य हैं | स्वतत्रता आपको इस प्रकार के धर्म से मुक्त रखती है, हाँ, असत्य और हिंसा पर अंकुश अवश्य लगाये रखती है | स्वाधीनता आपको धर्म के इन चारों अंगों की पालना करने को कहती है | आप नहीं करते, वह बात अलग है परन्तु आप अगर स्वाधीन है तो आपको इनका पालन अवश्य करना चाहिए |
                  आप स्वाधीन हैं, इसका अर्थ यह है कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी स्वाधीन हैं | केवल सनातन धर्म ही ऐसी स्वाधीनता की बात करता है | किसी भी प्राणी को किसी भी विशेष कार्य को करने अथवा न करने के लिए विवश नहीं करें | वे आपकी बात मानें अथवा न मानें; आपको इस बात से किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होना है | आपको प्रत्येक प्राणी की स्वाधीनता का सम्मान करना है | स्वाधीनता ही सबके लिए सुखदाई होती है | सनातन धर्म में वर्णित वाक्य ‘वसुदेव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का भाव हमें सभी की  स्वाधीनता की रक्षा करने की कामना करता है |
              संतुष्ट और स्वाधीन जीवन के बाद गुरु का तीसरा महत्त्व पूर्ण सूत्र है- जीवन चैतन्य होना चाहिए | चैतन्य जीवन का अर्थ है- होश पूर्वक जीना |
  3.तीसरा सूत्र - चैतन्य जीवन –
                    जीवन मूर्छा में रहते हुए न जीयें | आपका जीवन होशपूर्ण होना चाहिए | इस संसार की भौतिकता में मनुष्य इस स्तर तक डूबा हुआ है कि वह आज एक व्यक्ति न रहकर एक मशीन बन कर रह गया है | यांत्रिक जीवन गतिमान प्रतीत अवश्य होता है परन्तु वास्तव में वह गतिहीन जीवन ही होता है | एक यंत्र की यात्रा उस यंत्र के लिए केवल उद्देश्यहीन यात्रा है | जबकि मानव जीवन उद्देश्यपूर्ण है | आपको अपने मनुष्य होने का उद्देश्य पता होना चाहिए | उद्देश्यहीन मानव जीवन तो एक प्रकार से पशुवत जीवन ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, August 14, 2017

गुरु के सूत्र - 9

गुरु के सूत्र – 9
  2.दूसरा सूत्र - स्वाधीन जीवन –
                 स्वाधीन होकर जीयें | पराधीन जीवन अभिशाप है | जीवन में आप स्वयं के अधीन रहें दूसरों के अधीन नहीं | साथ ही साथ किसी दूसरे को भी पराधीन करने का विचार मन में न रखें | स्वाधीन का अर्थ सांसारिक मन के अधीन होना नहीं है बल्कि आत्मा (आध्यात्मिक मन)के अधीन होना है | आपकी आत्मा जो भी कहेगी वह सदैव सत्य ही कहेगी | आपको अपनी आत्मा की बात सुननी है और फिर उसी का अनुसरण करना है | किसी दूसरे व्यक्ति की बात को सुनकर उसके अनुसार चलना ही पराधीन होना है | आपके अतिरिक्त आपका कोई मित्र नहीं है | गीता में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं –
 उद्धरेदात्मनाSत्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||गीता-6/5 ||
अर्थात अपने द्वारा अपना संसार सागर से उद्धार करें और अपने आपको अधोगति में न डालें क्योंकि आप ही तो स्वयं के मित्र है और आप ही अपने शत्रु हैं |
                   अपना स्वयं का मित्र होना अर्थात स्वाधीन होना | गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य श्री रामचरितमानस में कहा है –‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं’ अर्थात जो व्यक्ति पराधीन है, उसको स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता, वास्तविक जीवन में तो सुख की कल्पना तक नहीं की जा सकती | इसलिए आध्यात्मिक जीवन के लिए यह आवश्यक है कि अपना जीवन स्वाधीनता पूर्वक जीयें | सभी प्रकार की द्वंद्वात्मक स्थिति से स्वयं को दूर रखें |
                  स्वाधीनता के साथ जीने का अर्थ है अपने स्वभाव के अनुसार जीना | प्रायः हम देखते हैं कि इस संसार में व्यक्ति एक दूसरे को देखकर जी रहे हैं | हम सदैव यही सोचते रहते हैं कि उसके पास जो है, वह मेरे पास क्यों नहीं है ? अथवा यह सोचते हैं कि अगर मैं ऐसा करता हूँ या करूँगा तो लोग क्या कहेंगे ? हमारा सम्पूर्ण जीवन दूसरे के अनुसार जीने में ही व्यर्थ चला जाता है | जीवन की यह उधेड़बुन आपको स्वाधीनता पूर्वक जीने नहीं देती | स्वाधीन होकर जीने का अर्थ हैं स्वयं के विवेकानुसार जीना |
                         स्वाधीन होकर जीना और स्वतंत्रतापूर्वक जीना, इन दोनों में समानता होते हुए भी एक मूलभूत अंतर है | स्वतंत्र का अर्थ होता है स्वयं के द्वारा स्वीकार किये गए एक तंत्र के अनुसार जीना | हमारा देश स्वतन्त्र है, इस देश के तंत्र को स्पष्ट करता है, यहाँ का संविधान | हमें उस संविधान की पलना करनी ही पड़ती है | परन्तु हम जिस प्रकार अपन निजी जीवन जीते हैं, उस तंत्र से थोडा अलग हटकर भी जीते हैं | जीवन की सभी बातें संविधान में नहीं लिखी होती | हमारा आचरण कैसा होना चाहिए, उसको हमारा संविधान कुछ सीमा तक नियंत्रित अवश्य कर सकता है, सम्पूर्ण रूप से नहीं | हम स्वाधीन होकर अपना आचरण अधिक शुद्ध रख सकते हैं | स्वाधीन का अर्थ है अपने अधीन होकर जीना | स्वाधीन जीवन ही हमारा धर्म कहलाता है | स्व-विवेक के अनुसार जीवन जीना ही धर्म के अनुसार जीना है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||