Friday, July 18, 2014

व्यक्त-अव्यक्त | -९

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

           "  यह संसार हमें अपने में से बाहर निकलने ही नहीं देता । "यह प्रायः आम व्यक्ति का कहना होता है । मुझे तो यह कहना तर्कसंगत बिलकुल भी नहीं लगता । मैं अगर आपके यहाँ आज आता हूँ तो क्या आप मुझे वापिस जाने का कहते हैं या मैं स्वयं ही आपको कहता हूँ कि अब मुझे वापिस जाना है । मैं स्वयं ही कहता हूँ ना । इसका कारण है कि हो सकता है कि आपने मुझे अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया हो,परन्तु आपके यहाँ आना हुआ तो मेरी इच्छा से ही । जब मैं आया अपनी मर्जी से हूँ तो फिर मैं अपनी इच्छा होते ही चला जाऊंगा ,आप मुझे अधिक समय तक रोक भी नहीं सकते । मेरे पास कई व्यक्ति आते है और कहते है कि साहब, मेरा पान  मसाला खाना छुड़वा दो । मैं हमेशा सबको एक ही जवाब देता हूँ कि क्या पान मसाला खाना मैंने शुरू करवाया था ?अरे,जिसने पान मसाला खाना पकड़ा था वही तो उसे खाना छोड़ेगा । मेरी भूमिका  एक प्रेरक की हो सकती है । मैं उसे लाख कहूँ कि पान मसाला खाना छोड़ दे,वह बिलकुल भी नहीं छोड़ेगा अगर उसकी आंतरिक इच्छा नहीं होगी । इसी प्रकार संसार में हम अपनी मर्जी से आये हैं और हम अपनी इच्छा से ही उसे छोड़ सकते है । कोई अन्य मात्र एक प्रेरक हो सकता है संसार को छुटाने वाला नहीं ।
                         मोह  ही संसार को त्यागने में सबसे बड़ा बाधक है । मोह  आपका किसी में भी हो सकता है । धन,जन और मन को मोहकारक कहा जाता है । मन में भी मोह? यह कैसे हो सकता है ? धन और जन में तो मोह हो जाना समझ में आता है । मन आत्मा को शरीर के साथ जोड़ने की एक कड़ी है और इस मन में पैदा हुआ मोह ही व्यक्ति को संसार से मुक्त नहीं होने देता । आप मन की सुनते हो, यही आपका मन के प्रति मोह प्रदर्शित करता है । तभी कबीर को भी कहना पड़ता है -
                                       मन के मते न चालिए ,मन के मते अनेक ।
                                      जो मन पर असवार हो,वो  साधु कोई एक ॥
                    मन की अधीनता आपको अर्थपूर्ण लगती है । इस मन में मोह होने कारण आप यहाँ अव्यक्त की ओर  दृष्टि ही नहीं डालते हैं । इसी कारण आप इस व्यक्त संसार को ही अर्थपूर्ण मान बैठते हैं ,जबकि जो अव्यक्त है वह इस व्यक्त से भी अधिक  सुन्दर है ।
क्रमशः
                               ॥ हरिः शरणम् ॥   

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