समर्पण का अर्थ है-सब कुछ त्याग देना या किसी पर या किसी के लिए छोड़ देना। यह त्याग करते ही व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो जाता है । मन एकदम निर्भाव हो जाता है और न तो कोई कामना और न ही कोई ईच्छा शेष रहती है । जो कुछ भी उपलब्ध सुगमता के साथ हो जाता है ,व्यक्ति उसी में संतुष्ट रहता है । परन्तु समर्पण इतना आसान नहीं है । इसके लिए व्यक्ति को अपनी मानसिक स्थिति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है । बिना मानसिक स्थिति परिवर्तित हुए समर्पण असंभव है ।
व्यक्ति की मानसिक स्थिति दो तरह से परिवर्तित हो सकती है । पहले तरीके में व्यक्ति की मानसिक स्थिति स्वतः ही मजबूरी वश परिवर्तित हो जाती है । लगातार बढ़ते जा रहे मानसिक दबाव को सहन न कर पाने के कारण वह समर्पण कर बैठता है । पर यह समर्पण परमात्मा के समक्ष न होकर किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख ही होता है । ऐसे समर्पण के लिए व्यक्ति की परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती है । इन परिस्थितियों के दबाव के कारण योग्य व्यक्ति अगर विवेकशील हो तो वह किसी भी अन्य व्यक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण करने के स्थान पर अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देता है । ऐसे समर्पण से परमात्मा उसे विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । किसी व्यक्ति के समक्ष किये गए समर्पण में वह व्यक्ति उसकी मजबूरी में सहायता करते हुए कुछ आकांक्षा भी रखेगा जबकि परमात्मा किसी की भी मजबूरी का कोई फायदा नहीं लेता बल्कि निर्विकार भाव से सहयोग करता है ।
दूसरी प्रकार का समर्पण स्वेच्छिक होता है और वह समर्पण केवल परमात्मा के लिए और सम्पूर्ण रूप से होता है । इस समर्पण में व्यक्ति को असीम और अनंत शांति का अनुभव होता है । इस समर्पण के बाद व्यक्ति व्यथित नहीं होता बल्कि प्रसन्नता का अनुभव करता है । यही वास्तविक समर्पण है । परमात्मा को समर्पण व्यक्ति की उच्चत्तम आध्यात्मिक अवस्था है और इस समर्पण के बाद संसार में रहते हुए भी वह संसार में लिप्त नहीं होता ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समर्पण दो प्रकार से होता है -प्रथम अनिवार्य समर्पण ,जिसमे व्यक्ति को अपनी विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का कोई अन्य रास्ता नज़र नहीं आता और समर्पण करना उसकी मज़बूरी बन जाती है । इस समर्पण में परिस्थतियों के अनुकूल होते ही व्यक्ति समर्पण भाव से बाहर निकल जाता है । दूसरा समर्पण है स्वेच्छिक समर्पण ,जिसमे व्यक्ति आंतरिक रूप से मज़बूत होकर समर्पित होता है और यह समर्पण भाव स्थाई होता है चाहे समर्पण की अवधि में परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हो जाये । सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना ही वास्तविक समर्पण है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
व्यक्ति की मानसिक स्थिति दो तरह से परिवर्तित हो सकती है । पहले तरीके में व्यक्ति की मानसिक स्थिति स्वतः ही मजबूरी वश परिवर्तित हो जाती है । लगातार बढ़ते जा रहे मानसिक दबाव को सहन न कर पाने के कारण वह समर्पण कर बैठता है । पर यह समर्पण परमात्मा के समक्ष न होकर किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख ही होता है । ऐसे समर्पण के लिए व्यक्ति की परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती है । इन परिस्थितियों के दबाव के कारण योग्य व्यक्ति अगर विवेकशील हो तो वह किसी भी अन्य व्यक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण करने के स्थान पर अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देता है । ऐसे समर्पण से परमात्मा उसे विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । किसी व्यक्ति के समक्ष किये गए समर्पण में वह व्यक्ति उसकी मजबूरी में सहायता करते हुए कुछ आकांक्षा भी रखेगा जबकि परमात्मा किसी की भी मजबूरी का कोई फायदा नहीं लेता बल्कि निर्विकार भाव से सहयोग करता है ।
दूसरी प्रकार का समर्पण स्वेच्छिक होता है और वह समर्पण केवल परमात्मा के लिए और सम्पूर्ण रूप से होता है । इस समर्पण में व्यक्ति को असीम और अनंत शांति का अनुभव होता है । इस समर्पण के बाद व्यक्ति व्यथित नहीं होता बल्कि प्रसन्नता का अनुभव करता है । यही वास्तविक समर्पण है । परमात्मा को समर्पण व्यक्ति की उच्चत्तम आध्यात्मिक अवस्था है और इस समर्पण के बाद संसार में रहते हुए भी वह संसार में लिप्त नहीं होता ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समर्पण दो प्रकार से होता है -प्रथम अनिवार्य समर्पण ,जिसमे व्यक्ति को अपनी विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का कोई अन्य रास्ता नज़र नहीं आता और समर्पण करना उसकी मज़बूरी बन जाती है । इस समर्पण में परिस्थतियों के अनुकूल होते ही व्यक्ति समर्पण भाव से बाहर निकल जाता है । दूसरा समर्पण है स्वेच्छिक समर्पण ,जिसमे व्यक्ति आंतरिक रूप से मज़बूत होकर समर्पित होता है और यह समर्पण भाव स्थाई होता है चाहे समर्पण की अवधि में परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हो जाये । सब कुछ परमात्मा पर छोड़ देना ही वास्तविक समर्पण है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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