किसी भी वस्तु को किसी अन्य को दे देना या किसी के लिये त्याग देना,उस पर अपना अधिकार छोड देना उस वस्तु का अर्पण कहलाता है । तन,मन और धन को किसी के लिए त्याग देना ,किसी को भेंट कर देना इनका अर्पण कहलाता है । जब तन,मन और धन को परमात्मा को अर्पित कर दिया जाता है तब आपका अधिकार उपरोक्त तीनों पर से समाप्त हो जाता है । तन,मन और धन को अर्पित कर देना ही "सर्वस्व अर्पण" की श्रेणी में नहीं आता । अभी भी व्यक्ति के पास और कुछ भी शेष बच जाता है जिसका अर्पण अभी भी नहीं हुआ है । तन,मन और धन के अर्पण से परमात्मा के पास तक पहुंचा तो जा सकता है परन्तु उसे पाया नहीं जा सकता । अभी भी आप और परमात्मा दो अलग अलग हैं । जब तक दो हैं तब तक परमात्मा केवल दृष्टिगत है ,दिखाई दे रहे हैं परन्तु प्राप्त होने की अवस्था से अभी भी कोसों दूर है ।
ऐसी स्थिति में व्यक्ति को क्या करना चाहिए,जिसे वह परमात्मा को पा ले ? आपके पास तन,मन और धन के अतिरिक्त कुछ और भी है जिसे आप अभी तक समझ ही नहीं पाए हैं । परमात्मा को उसका अर्पण करदें आप परमात्मा में विलीन हो जायेंगे ,आप स्वयं ही परमात्मा हो जायेंगे । जब नदी बहती हुई समुद्र में जाकर मिल जाती है तब नदी स्वयं ही समुद्र हो जाती है । संसार कहता है कि नदी का अस्तित्व समुद्र में मिलकर समाप्त हो जाता है । मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से । मैं कहता हूँ कि नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता बल्कि वह विशालता ग्रहण कर समुद्र हो जाती है । जब तक उसका अस्तित्व एक धारा के रूप में था तब तक वह नदी ही कहलाती रही । जब इसी धारा ने विशाल आकार ले लिया, अपने आप को समाहित करके,तभी वह समुद्र हो गई । बरसात में पड़ रही पानी की छोटी छोटो बूंदे जब समुद्र में गिरती है तब वे भी समुद्र हो जाती है । एक एक बूंद में समुद्र का अस्तित्व छुपा हुआ है परन्तु उसे अपने विशाल अस्तित्व का तब तक ज्ञान नहीं होता जब तक वह अपने क्षुद्र अस्तित्व का त्याग नहीं करती । इस अस्तित्व त्याग को,इस बूंद के समुद्र में समाहित हो जाने को,समर्पण कहते हैं ।
इसी प्रकार व्यक्ति भी एक तन,एक मन के अतिरिक्त कुछ ओर भी है जिसे हम उसका "मैं" होना कह सकते है ,उसमे आत्मा का होना कह सकते है ,उसे उसके कारण शरीर का नाम दे सकते है । नाम चाहे कुछ भी दें,कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । अपने इसी "मैं" को परमात्मा को तन,मन और धन के साथ ही अर्पित कर दें । अब यही अर्पण आपका समर्पण बन जायेगा । समर्पण ही आपको परमत्मा में विलीन कर सकता है । समर्पण के साथ ही आप भी परमात्मा हो जायेंगे । एक बार परमात्मा हो जाने पर न कोई ईच्छा रहेगी,न कोई लालसा । सारा संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । ऐसा हो जाना ही वास्तविक समर्पण है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
ऐसी स्थिति में व्यक्ति को क्या करना चाहिए,जिसे वह परमात्मा को पा ले ? आपके पास तन,मन और धन के अतिरिक्त कुछ और भी है जिसे आप अभी तक समझ ही नहीं पाए हैं । परमात्मा को उसका अर्पण करदें आप परमात्मा में विलीन हो जायेंगे ,आप स्वयं ही परमात्मा हो जायेंगे । जब नदी बहती हुई समुद्र में जाकर मिल जाती है तब नदी स्वयं ही समुद्र हो जाती है । संसार कहता है कि नदी का अस्तित्व समुद्र में मिलकर समाप्त हो जाता है । मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से । मैं कहता हूँ कि नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता बल्कि वह विशालता ग्रहण कर समुद्र हो जाती है । जब तक उसका अस्तित्व एक धारा के रूप में था तब तक वह नदी ही कहलाती रही । जब इसी धारा ने विशाल आकार ले लिया, अपने आप को समाहित करके,तभी वह समुद्र हो गई । बरसात में पड़ रही पानी की छोटी छोटो बूंदे जब समुद्र में गिरती है तब वे भी समुद्र हो जाती है । एक एक बूंद में समुद्र का अस्तित्व छुपा हुआ है परन्तु उसे अपने विशाल अस्तित्व का तब तक ज्ञान नहीं होता जब तक वह अपने क्षुद्र अस्तित्व का त्याग नहीं करती । इस अस्तित्व त्याग को,इस बूंद के समुद्र में समाहित हो जाने को,समर्पण कहते हैं ।
इसी प्रकार व्यक्ति भी एक तन,एक मन के अतिरिक्त कुछ ओर भी है जिसे हम उसका "मैं" होना कह सकते है ,उसमे आत्मा का होना कह सकते है ,उसे उसके कारण शरीर का नाम दे सकते है । नाम चाहे कुछ भी दें,कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । अपने इसी "मैं" को परमात्मा को तन,मन और धन के साथ ही अर्पित कर दें । अब यही अर्पण आपका समर्पण बन जायेगा । समर्पण ही आपको परमत्मा में विलीन कर सकता है । समर्पण के साथ ही आप भी परमात्मा हो जायेंगे । एक बार परमात्मा हो जाने पर न कोई ईच्छा रहेगी,न कोई लालसा । सारा संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । ऐसा हो जाना ही वास्तविक समर्पण है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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