Friday, July 11, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-३

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 
                                 
                                                  अव्यक्त जब व्यक्त होता है तब क्या कारण है कि वह कम अर्थपूर्ण हो जाता है ?अव्यक्त सदैव ही अधिक सुन्दर और अर्थपूर्ण होता ही है । एक सफ़ेद कोरे कागज को देखिये , जिस पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। अब उस कागज पर पेंसिल से कुछ भी लिख डालिए;चाहे एक पतली सी लकीर ही खींच डालिए और देखिये कि कागज पहले अधिक सुन्दर लग रहा था या अब । निःसंदेह पहले वाले कोरे कागज में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं थी,वह सुन्दर भी था और अर्थपूर्ण भी । एक पतली रेखा खींचते ही वह अर्थपूर्ण तो हो गया लेकिन एक निश्चित अर्थ के साथ, एक निश्चित सीमा तक और साथ ही पहले कोरे कागज की तरह सुन्दर भी नहीं रहा । यही कारण है कि व्यक्त है वह तो अर्थपूर्ण है ही परन्तु जो अव्यक्त है वह उससे भी अधिक सुन्दर और अधिक अर्थपूर्ण है ।
                          आपके मन में क्या है,जब तक अव्यक्त है तब तक वह सुन्दर और अर्थपूर्ण है । प्रत्येक व्यक्ति आपके मन के विचार जानने को उत्सुक रहता है । उसके दिमाग में आपके अव्यक्त विचारों के बारे में बड़ी ही सुन्दर कल्पनाएँ होती है । वह सोचता है कि आपके अव्यक्त विचार न जाने कितने अर्थपूर्ण होंगे । अव्यक्त विचार जब तक व्यक्त नहीं हो जाते तब तक अर्थपूर्ण और अधिक सुन्दर बने रहते हैं । परन्तु जब एक बार आपके यही विचार व्यक्त हो जाते हैं तब उन्हें सुनने वाले श्रोता अपने अपने अनुसार उनका विश्लेषण करते है जिस कारण से उनकी सुन्दरता और उनका अर्थ बदल जाते हैं । व्यक्त विचारों के अर्थ अव्यक्त विचारों की तुलना में कम सुन्दर हो जाते हैं ।
                            यह सब हम भौतिकता के दायरे में रहते हुए व्यक्त और अव्यक्त की व्याख्या कर रहे हैं ।लेकिन चाहे भौतिकता में व्यक्त-अव्यक्त पर चर्चा करें या आध्यात्मिकता के दायरे में आकर इसकी व्याख्या करें ,दोनों की व्याख्या में रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ने वाला । इस ब्रह्माण्ड का एक सिद्धांत है कि यहाँ जो कुछ भी है ,सब कुछ समान है । जो कुछ एक अणु में है वही सब कुछ विराट में भी है । अतः चाहे व्यक्त-अव्यक्त भौतिक रूप से हो या आध्यात्मिक रूप से ,वेद की यह उक्ति सब स्थान पर एक जैसी ही चरितार्थ होती है । भौतिक दायरे में रहते हुए इसलिए चर्चा पहले करनी पड़ी क्योंकि हमारी समझ भौतिकता की ही गुलाम है । जब हम संसार से परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं तब यही समझ व्यक्त-अव्यक्त के बारे में अधिक प्रगाढ़ होती जाएगी ।
क्रमशः
                               ॥ हरिः शरणम् ॥  

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