Tuesday, July 15, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-६

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                      करमा की कहानी को ही आगे लिए चलते हैं । कल्पना करें कि जब करमा का बापू वापिस लौटा होगा तो क्या हुआ होगा ? कुछ यह कहानी इस प्रकार आगे बढती है कि करमा का बापू उसे पूछता है कि क्या उसने भगवान को भोजन कराया था ? करमा ने कहा-"हाँ । और बापू तुम्हारा भगवान तो बड़ा ही भूखा निकला । मैं जितना उसके लिए बनाती उसे तुरंत ही खा डालता । अगली बार जब मैं उसके लिए और अधिक पकाती,फिर भी वह जूठा कुछ भी नहीं छोड़ता । "उसके बापू को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है ? उसने अपने सामान घर को देखा । वास्तव में खाने पीने का सामान कम हो चला था । उसने सोचा ऐसा कैसे हुआ ?वह यह मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि मैं इतने दिनों से भगवान को भोजन दे रहा हूँ,आज तक उसने उसे चखा तक नहीं ,फिर वह करमा के हाथ का भोजन कैसे कर लेता है? उसने वास्तविकता जानने के लिए एक बार उसने करमा को फिर से कहा कि वह कुछ समय के लिए बाहर जा रहा है । भगवान को दोपहर का भोग लगा देना । शाम तक वह वापिस लौट आएगा ।
              करमा का तो फिर वही अंदाज़ । दो व्यक्तियों का भोजन पकाया और भगवान के हिस्से का भोजन मूर्ति के सामने परोस कर रख दिया । आज उसने बाजरे का खिचड़ा बनाया था । बापू ने तो बाहर जाने का बहाना किया था । वह तो दीवार की ओट से सबकुछ देख रहा था । करमा ने उसी अंदाज़ में सांवरे को बुलाया और जल्दी से भोजन करने को कहा । भगवान कृष्ण रूप में व्यक्त हुए और भोजन कर अव्यक्त हो गए । बापू की आँखों से आंसू छलक पड़े । उसको महसूस हुआ कि वह जिसको भक्ति समझ रहा था, वह तो मात्र एक ढकोसला थी । भक्ति तो करमा की थी जो उसने अपने बापू तक को परमात्मा के दर्शन करा दिए । और करमा की भक्ति भी ऐसी भक्ति जिसके बारे में करमा को एहसास भर भी नहीं था ।
                        अगर देखा जाये तो करमा ने कोई कर्मकांड नहीं किया अपनी जिन्दगी में,परमात्मा के प्रति । लेकिन उसका निर्मल मन,भोलापन ही उसे परमात्मा तक ले गया । आप कहेंगे कि मैं कर्मकांड का इतना विरोध क्यों करता हूँ ?  मैं किसी भी कर्मकांड का विरोधी कतई  नहीं हूँ । मैं प्रत्येक उस भावना का विरोधी हूँ जिसको ध्यान में रखकर कर्मकांड किये जाते हैं । कर्मकांड के पीछे छुपी भावना ही उसे आपकी आदत बना देती है । और भगवान की  आराधना को आप निश्चित समय और स्थान पर बांध नहीं सकते । जब पूजा एक बंधन बन जाती है तब व्यक्ति भगवान से दूर होता  जाता है । पूजा बंधनमय होते ही कर्मकांड बन जातीु है । कर्मा के लिए परमात्मा को भोग लगाना कर्मकांड के रूप में एक बंधन नहीं था बल्कि उसकी ,परमात्मा की आराधना थी और इसी लिए परमात्मा ने करमा की पूजा स्वीकार की न कि उसके बापू द्वारा किये जा रहे कर्मकांड को ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥
             

No comments:

Post a Comment