जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है ।
भौतिकता के इन्हीं बंधनों में एक बंधन है परिवार का मोह । हम चाहे कितना भी कहते हों कि परिवार और उसके सदस्यों से किसी भी प्रकार का मोह नहीं है परन्तु सब असत्य है । अगर आपका मोह परिवार के साथ नहीं है तो फिर हर समय मस्तिष्क में उसी का ख्याल क्यों बना रहता है ? मोह इतना अधिक होता है कि वह एक दिन बंधन बन जाता है । यह बंधन ही व्यक्ति के व्यक्त से अव्यक्त होने में बहुत बड़ी बाधा है। परिवार से प्रेम करना कदापि अनुचित नहीं है ,प्रेम तो साक्षात परमात्मा है । परन्तु दुर्भाग्य है हमारा कि हम प्रेम और मोह में अंतर नहीं कर पा रहे हैं । हम अपने मोह को प्रेम का नाम दे देते हैं । जबकि प्रेम और मोह में बड़ा भारी अंतर है । मोह एक बंधन है जबकि प्रेम मुक्ति । मोह आपको किसी से बांधता है जबकि प्रेम आपको मुक्त करता है । मोह सांसारिकता का लक्षण है और प्रेम आध्यात्मिकता का । मोह आपको सदैव ही और प्रत्येक स्थान पर व्यक्त करता है जबकि प्रेम कभी भी दिखाई नहीं देता बल्कि अनुभव किया जाता है । प्रेम सदैव ही अव्यक्त होता है उसे कभी भी व्यक्त नहीं किया जा सकता । अगर कोई आपसे कहता है कि वह आपसे प्रेम करता या करती है तो वहां प्रेम की बात नहीं है,किसी और को ही प्रेम के नाम से व्यक्त किया जा रहा है । प्रेम तो सदैव ही अव्यक्त है और इसी कारण से प्रेम को परमात्मा कहा गया है ।
मोह,व्यक्त है इस लिए अर्थपूर्ण भी है । मोह के चक्रव्यूह से जरा बाहर निकल कर प्रेम मार्ग पर अग्रसर हों । आपको प्रेम ,मोह से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर महसूस होगा । इसीलिए वेद की यह उक्ति एकदम सटीक है । हम उसे ख़ारिज नहीं कर सकते । हम सांसारिकता को ही केवल अर्थपूर्ण समझे बैठे हैं । आध्यात्मिकता,सांसारिकता से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर है । हम संसार में रहते हुए इसमें इतने अधिक आसक्त हो चुके हैं कि हमें यहाँ से दूर हटना भी अप्रिय लगता है । किसी बंद कोठरी में सूर्य की किरणे जब प्रवेश करती है तो बाहर किसी सुन्दर वातावरण होने का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है । परन्तु इस सुन्दर वातावरण को आत्मसात करने के लिए इस संसार रुपी कोठरी से बाहर आने की यात्रा तो स्वयं को ही प्रारम्भ करनी होती है ।एक बार बाहर आ गये तो फिर उस कोठरी में लौटने का विचार भी आपके मस्तिष्क में जन्म नहीं लेगा । अगर आप सूर्य किरणों को कोठरी में बैठे हुए ही निहारते रहोगे तो आपके लिए वह कोठरी ही अर्थपूर्ण बनी रह जाएगी ।क्योंकि वही आपके लिए व्यक्त और अर्थपूर्ण है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
भौतिकता के इन्हीं बंधनों में एक बंधन है परिवार का मोह । हम चाहे कितना भी कहते हों कि परिवार और उसके सदस्यों से किसी भी प्रकार का मोह नहीं है परन्तु सब असत्य है । अगर आपका मोह परिवार के साथ नहीं है तो फिर हर समय मस्तिष्क में उसी का ख्याल क्यों बना रहता है ? मोह इतना अधिक होता है कि वह एक दिन बंधन बन जाता है । यह बंधन ही व्यक्ति के व्यक्त से अव्यक्त होने में बहुत बड़ी बाधा है। परिवार से प्रेम करना कदापि अनुचित नहीं है ,प्रेम तो साक्षात परमात्मा है । परन्तु दुर्भाग्य है हमारा कि हम प्रेम और मोह में अंतर नहीं कर पा रहे हैं । हम अपने मोह को प्रेम का नाम दे देते हैं । जबकि प्रेम और मोह में बड़ा भारी अंतर है । मोह एक बंधन है जबकि प्रेम मुक्ति । मोह आपको किसी से बांधता है जबकि प्रेम आपको मुक्त करता है । मोह सांसारिकता का लक्षण है और प्रेम आध्यात्मिकता का । मोह आपको सदैव ही और प्रत्येक स्थान पर व्यक्त करता है जबकि प्रेम कभी भी दिखाई नहीं देता बल्कि अनुभव किया जाता है । प्रेम सदैव ही अव्यक्त होता है उसे कभी भी व्यक्त नहीं किया जा सकता । अगर कोई आपसे कहता है कि वह आपसे प्रेम करता या करती है तो वहां प्रेम की बात नहीं है,किसी और को ही प्रेम के नाम से व्यक्त किया जा रहा है । प्रेम तो सदैव ही अव्यक्त है और इसी कारण से प्रेम को परमात्मा कहा गया है ।
मोह,व्यक्त है इस लिए अर्थपूर्ण भी है । मोह के चक्रव्यूह से जरा बाहर निकल कर प्रेम मार्ग पर अग्रसर हों । आपको प्रेम ,मोह से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर महसूस होगा । इसीलिए वेद की यह उक्ति एकदम सटीक है । हम उसे ख़ारिज नहीं कर सकते । हम सांसारिकता को ही केवल अर्थपूर्ण समझे बैठे हैं । आध्यात्मिकता,सांसारिकता से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर है । हम संसार में रहते हुए इसमें इतने अधिक आसक्त हो चुके हैं कि हमें यहाँ से दूर हटना भी अप्रिय लगता है । किसी बंद कोठरी में सूर्य की किरणे जब प्रवेश करती है तो बाहर किसी सुन्दर वातावरण होने का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है । परन्तु इस सुन्दर वातावरण को आत्मसात करने के लिए इस संसार रुपी कोठरी से बाहर आने की यात्रा तो स्वयं को ही प्रारम्भ करनी होती है ।एक बार बाहर आ गये तो फिर उस कोठरी में लौटने का विचार भी आपके मस्तिष्क में जन्म नहीं लेगा । अगर आप सूर्य किरणों को कोठरी में बैठे हुए ही निहारते रहोगे तो आपके लिए वह कोठरी ही अर्थपूर्ण बनी रह जाएगी ।क्योंकि वही आपके लिए व्यक्त और अर्थपूर्ण है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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