Sunday, July 13, 2014

व्यक्त-अव्यक्त - ४ |

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                                    जब व्यक्ति भौतिकता से ऊपर उठ जाता है तभी वह इस उक्ति का निहितार्थ समझ पाता है । परमात्मा आपके निकट से भी अति निकट है और आपकी सोच से जितना दूर है उससे भी अधिक दूर है । यह सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर  करता है कि आप परमात्मा को अपने कितना पास या आपसे  कितना दूर समझते हैं । भौतिकता में आसक्त व्यक्ति से वह अत्यधिक दूर है और आध्यात्मिक व्यक्ति के अति निकट । भौतिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा व्यक्त से अव्यक्त होने की ही एक यात्रा है । आप कहीं पर उपस्थित रहते हैं तो इस भौतिक संसार के लिए आप व्यक्त हैं परन्तु आप उस स्थान पर उपस्थित रहते हुए भी व्यक्त होते हुए भी सभी के लिए अव्यक्त हो सकते हैं । आप जिस समय उस वातावरण से मानसिक रूप से अपने आपको अलग कर लेते हैं तभी आप स्वयं के लिए भी उस वातावरण,उस स्थान से अव्यक्त हो जाते हैं । आप भौतिक रूप से अगर उस वातावरण से अलग हो जाते हैं और फिर भी अगर आपका मन उस वातावरण को याद करता है,उस स्थान के बारे में ही सोचता रहता है तो फिर आप उस स्थान से अव्यक्त होते हुए भी उस स्थान पर व्यक्त हैं ।
                                हो सकता है कि आप इस बात को थोडा कम समझ पाए हों।,इसलिए इसे थोडा और स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ । सनातन धर्म ही नहीं संसार के प्रायः सभी धर्मों में तीर्थ यात्रा का बड़ा  महत्त्व है । तीर्थ यात्रा  करना व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा है, चाहे यह आंशिक रूप से ही हो । मैंने सनातन धर्मानुसार कई तीर्थ यात्रायें की है और प्रतिवर्ष करता ही रहता हूँ । प्रायः मेरी ये यात्रायें एकाकी यात्रायें होती है ,परन्तु कभी कभी समूह में भी जाना होता है और कभी कभी तीर्थ स्थान पर पहुँच कर सामूहिक चर्चाएँ हो  जाती है । मैंने वहां देखा है कि प्रायः लोग फोन पर वहीँ से अपना व्यवसाय संचालित करते रहते हैं और महिलाएं ज्यादातर बैठकर अपने परिवार की बातें करती रहती हैं । यह व्यक्त से अव्यक्त होने की यात्रा नहीं हो सकती । आप तीर्थ स्थान पर भौतिक रूप से उपस्थित होते हुए भी अपने व्यवसाय या परिवार के साथ मानसिक रूप से व्यक्त है । फिर ऐसी तीर्थ यात्रा का महत्त्व क्या रहा ? इससे तो अच्छा यह रहता कि आप व्यावसायिक स्थल पर रहते हुए बेहतर तरीके से व्यवसाय संचालित करते या महिलाएं घर-परिवार के  साथ बैठकर अपनी व्यथाऐं कहती,परिवार को संभालती या बच्चों की देखभाल करती । यही कारण है कि आजकल जिस प्रकार लोग तीर्थ  यात्रायें करते हैं वे सब अर्थहीन होती जा रही है । व्यक्ति तीर्थ स्थान पर जाकर भी संसार  से विमुख होकर अपने भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है । फिर ऐसी तीर्थ यात्रा का औचित्य भी क्या है?
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥
                             

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