Wednesday, July 23, 2014

संसार -१

                              संसार यहाँ पर सबसे ज्यदा निन्दित है । क्यों?अगर संसार इतना गलत है तो फिर परमात्मा ने मनुष्य को इस संसार में भेजा ही क्यों?सुबह से शाम तक हम इस संसार में  घूमते रहते हैं,इसी संसार में रहकर आजीविका चलाते हैं ,यहीं पर सब कुछ कार्य संपन्न करते है और अंत में इसी संसार की निंदा भी करते हैं । संसार की निंदा करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि आखिर यह संसार है क्या ? किसी बात को जाने पहचाने और समझे बिना उसकी प्रशंसा अथवा निन्दा करना सर्वथा अनुचित है । हममे से कितने ऐसे व्यक्ति हैं जो यह दावा कर सकते हैं कि हमने जान लिया है कि संसार क्या है ?यह प्रश्न जब मैंने अपने मित्रों से किया और उनके उत्तर जाने ,उन्हें आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ । मैं यह नहीं कह सकता कि उनके उत्तर सही हैं या गलत ? मैं सब कुछ आपके विवेक पर निर्भर करता है कि आप उनके उत्तर को किस प्रकार लेते हैं ।
               मेरे एक मित्र हैं जो व्यवसाय करते हैं । उनके अनुसार संसार एक दुकान की तरह है जहाँ खुलने पर खाते में रोकड़ जमां कितने हैं और रात को दुकान बंद हो जाने पर, रोकड़ लिखने के बाद जमां शेष कितने बचते हैं उसी अनुसार दुसरे दिन का व्यापार तय होता है । संसार में दुकान आपका मनुष्य जन्म है,दिन आपका जीवन काल है और लेनदेन आपके बुरे और अच्छे कर्म है । मृत्यु शाम को दुकान का बंद होना है और दूसरे दिन दुकान का खुलना पुनः मानव जन्म होना हैं । उसी अनुसार आपका भविष्य तय होता है । दुसरे मित्र  पैसे से एक वकील हैं । उनके अनुसार संसार एक न्यायिक व्यवस्था है । यहाँ पर जज आपकी आत्मा है,मनुष्य शरीर या किसी अन्य प्राणी के शरीर के रूप में जन्म लेना आपके मुक्कद्दमे का निर्णय है । मनुष्य जन्म में किये गए पाप कर्म आपके अपराध है ,पुण्य कर्म आपका अच्छा चाल चलन है जिसके आधार पर आपकी पाप कर्मों की सजा कम हो सकती है ।
                      मेरे तीसरे मित्र एक दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति हैं और शिक्षा के क्षेत्र में विशेषज्ञ भी । उनके अनुसार संसार है ही नहीं । जो कुछ भी यहाँ पर आपको दृष्टिगत होता है या अदृश्य है वह सब परमात्मा ही है । जो 'है' वह नहीं है और जो 'नहीं है' वह वास्तव में है । जो दृष्टिगत है अर्थात जिसे हम संसार कहते हैं  वह पाठशाला की तरह है ,इस पाठशाला में मनुष्य एक विद्यार्थी है और शिक्षक परमात्मा है । विद्यार्थी जब शिक्षा ग्रहण करते हुए सफलता अर्जित करते है तो शिक्षक उन्हें आगे की कक्षा में क्रमोन्नत कर देते हैं उसी प्रकार मानव जन्म में व्यक्ति लगातार या तो क्रमोन्नत हो सकता है या फिर उसी स्तर पर बना रह सकता है ।  जैसे ज्यादा उद्दंडता करने पर शिक्षक उस विद्यार्थी को कक्षा से निकाल बाहर करते हैं उसी प्रकार परमात्मा भी मनुष्य को बाहर करते हुए किसी अन्य प्राणी के रूप में उसे व्यक्त कर देते हैं ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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