पिछले एक माह से हम परमात्मा को तन,मन और धन अर्पण करने पर चर्चा कर रहे थे । हम यंत्रवत कोई भी कार्य करते हैं तो वह एक प्रकार की बेहोशी में किया गया कार्य होता है । जिस प्रकार प्री-रिकार्डेड केसेट या सीडी उसी आरती को प्रतिदिन हमें सुना सकती है ,ठीक उसी प्रकार हम प्रतिदिन परमात्मा की आरती अपने मुंह से उच्चारित करते हैं । इस प्रकार बेहोशी में की गई प्रार्थना से आज तक किसी का भी कल्याण नहीं हुआ है । अगर कल्याण ही होता तो फिर उस टेप रिकार्डर या सीडी का तो कभी का हो चूका होता । वह तो हमसे भी अधिक उच्च स्वर में और कर्णप्रिय आवाज़ में आरती गा सकती है । हमें यह मानना चाहिए कि जब तक हम होशपूर्वक कोई प्रार्थना नहीं करते तब तक हमारे और उस टेप रिकार्डर में कोई अंतर नहीं होगा । अतः आवश्यकता है कि हम कम से कम परमात्मा से प्रार्थना तो होशपूर्वक करें ।
जब प्रार्थना होश पूर्वक होगी तो उस प्रार्थना के शब्द हमारे भीतर से प्रस्फुटित होंगे । यही शब्द परमात्मा तक पहुंचेंगे । आपके पास तन भी है ,मन भी है और धन भी है । आप कहते हैं कि " हे परम पिता परमात्मा ! ये तीनों आपके ही दिए हुए है और मैं इनको आपको ही अर्पित कर रहा हूँ । मेरा इनसे और इनके द्वारा किये गए कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।" यह उच्च कोटि की प्रार्थना है । इस प्रार्थना में आप सब कुछ ईश्वरीय प्रसाद ही मानते हैं और जो कुछ भी तन,मन और धन का उपयोग आप कर सकते हो ,वह सब कुछ परमात्मा के द्वारा करना और उसी के लिए करते हुए उसी को ही अर्पित कर रहे हो । यह आपको कर्तापनके भाव से मुक्त करता है । मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह कर्तापन के भाव से अपने आप को कभी मुक्त नहीं होने देता ।जब कोई काम अच्छा कर देता है तो श्रेय स्वयं लेता है और उल्टा हो जाने पर परमात्मा को दोष देता है ।
होश पूर्वक की गई प्रार्थना में आप भीतर से परमात्मा से जो कुछ भी मिला है उसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हो । जो कुछ भी आपके तन,मन और धन से हुआ हैऔर आपके माध्यम से हुआ है , वह सब कुछ परमात्मा को अर्पित कर देते हो । यह त्याग ही आपको असीम शांति प्रदान करता है ।इस अर्पण से आपके अहंकार को बढ़ावा नहीं मिल पाता और मन की भटकन पर भी रोक लगती है । मन पर आपका नियंत्रण स्थापित होता है । मन पर नियंत्रण स्थापित कर लेना ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । यही मुक्ति का मार्ग है । मन पर नियंत्रण से ही तन,मन और धन का परमात्मा को अर्पण किया जा सकता है । अर्पण वह प्रक्रिया है जिसमे आपके अधिकार की पूर्णतया समाप्ति हो जाती है और अर्पित किये जानेवाले का स्वामित्व स्थापित हो जाता है । तन,मन और धन पर व्यक्ति का स्वामित्व कभी भी नहीं था , अतः इसका परमात्मा को अर्पण कर देना ही मुक्ति का सही मार्ग है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
जब प्रार्थना होश पूर्वक होगी तो उस प्रार्थना के शब्द हमारे भीतर से प्रस्फुटित होंगे । यही शब्द परमात्मा तक पहुंचेंगे । आपके पास तन भी है ,मन भी है और धन भी है । आप कहते हैं कि " हे परम पिता परमात्मा ! ये तीनों आपके ही दिए हुए है और मैं इनको आपको ही अर्पित कर रहा हूँ । मेरा इनसे और इनके द्वारा किये गए कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।" यह उच्च कोटि की प्रार्थना है । इस प्रार्थना में आप सब कुछ ईश्वरीय प्रसाद ही मानते हैं और जो कुछ भी तन,मन और धन का उपयोग आप कर सकते हो ,वह सब कुछ परमात्मा के द्वारा करना और उसी के लिए करते हुए उसी को ही अर्पित कर रहे हो । यह आपको कर्तापनके भाव से मुक्त करता है । मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह कर्तापन के भाव से अपने आप को कभी मुक्त नहीं होने देता ।जब कोई काम अच्छा कर देता है तो श्रेय स्वयं लेता है और उल्टा हो जाने पर परमात्मा को दोष देता है ।
होश पूर्वक की गई प्रार्थना में आप भीतर से परमात्मा से जो कुछ भी मिला है उसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हो । जो कुछ भी आपके तन,मन और धन से हुआ हैऔर आपके माध्यम से हुआ है , वह सब कुछ परमात्मा को अर्पित कर देते हो । यह त्याग ही आपको असीम शांति प्रदान करता है ।इस अर्पण से आपके अहंकार को बढ़ावा नहीं मिल पाता और मन की भटकन पर भी रोक लगती है । मन पर आपका नियंत्रण स्थापित होता है । मन पर नियंत्रण स्थापित कर लेना ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । यही मुक्ति का मार्ग है । मन पर नियंत्रण से ही तन,मन और धन का परमात्मा को अर्पण किया जा सकता है । अर्पण वह प्रक्रिया है जिसमे आपके अधिकार की पूर्णतया समाप्ति हो जाती है और अर्पित किये जानेवाले का स्वामित्व स्थापित हो जाता है । तन,मन और धन पर व्यक्ति का स्वामित्व कभी भी नहीं था , अतः इसका परमात्मा को अर्पण कर देना ही मुक्ति का सही मार्ग है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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