जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है ।
भगवान श्रीराम मानस में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
निर्मल मन जान सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
अर्थात जिसका मन निर्मल होगा वही मुझे प्राप्त कर सकेगा ,मुझे संसार के छल,कपट और धोखा देना कदापि स्वीकार्य नहीं है । इस संसार में बिना निर्मल मन का व्यक्ति एक मशीन के समान है जिसका कार्य मात्र एक ही होता है ,जिसके लिए उसे बनाया गया है । परन्तु मानव तो उस मशीन से भी निम्न दर्जे का यंत्र होता जा रहा है जिसे यह भी पता नहीं है कि उसे यह मनुष्य शरीर रुपी यंत्र किसलिए मिला है ?
व्यक्ति अपने जीवन को यंत्रवत बना डालने के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है । यह उसका यंत्रवत व्यवहार भौतिक संसार के लिए तो आवश्यक है परन्तु आध्यात्मिकता में इस तरह के व्यवहार की दो कौड़ी की कीमत भी नहीं है । अगर भौतिक संसार में यंत्रवत कोई कार्य नहीं हो तो यहाँ की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है । जैसे यातायात और सड़क पर चलने के नियम है । हम उन नियमों की यंत्रवत ही पालना करते हैं । अगर हम इन नियमों की पालना नहीं करें तो किसी भी भयंकर दुर्घटना के कभी भी शिकार हो सकते हैं । हम इन नियमों को इतना आत्मसात कर चुके हैं कि हम सदैव अपनी गाड़ी को सड़क के बांयी ओर ही चलाते है । दूर से ही चौराहे की लाल बत्ती देखकर गाड़ी की गति को धीरे करते हुए वहां पर रोक लेते हैं । यह सब एक प्रकार का यंत्रवत व्यवहार ही है । इसी प्रकार ट्रेन के समयानुसार ही हम रेल्वे स्टेशन पहुंचते हैं । हम जानते हैं कि जरा सी देर ही हमें अपनी यात्रा से वंचित कर सकती है । ऐसी स्थिति में हमें यंत्रवत होना ही पड़ता है । भौतिक संसार को सुगमता से चलने के लिए कुछ नियम कायदे आवश्यक होते है और उन नियम कायदों को अपने जीवन में ढाल लेना ही व्यक्ति को यंत्रवत बना देता है । यह सब व्यक्त की महिमा ही है । नियमानुसार चलने पर ही यह व्यक्त संसार हमें अर्थपूर्ण लगता है । ज्यों ही हम कोई भी नियम तोड़ते हैं यह संसार अर्थहीन हो जाता है ।
आध्यात्मिकता में किसी भी प्रकार का कोई नियम लागू नहीं होता । इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यवहार भी कभी भी यंत्रवत नहीं हो सकता । आध्यात्मिक व्यक्ति न तो संसार के कोई नियम तोड़ता है और न ही किसी के द्वारा तोड़े जाने पर उसे दुःख होता है । वह अपने आप में ही इतना मस्त रहता है कि कोई भी बंधन उसे बांध ही नहीं सकता । जो व्यक्ति भौतिकता में रमे हुए हैंउनके लिए सब कुछ बंधन है और उनके लिए ये बंधन अर्थपूर्ण और स्वीकार्य भी है । बंधता व्यक्ति स्वयं है ,कोई अन्य उसे बांध ही नहीं सकता । और जब व्यक्ति इतने सरे बंधनो में जकड जाता है तब उसे ये बंधन एक दिन असह्य हो जाते हैं । प्रायः लोग इन बंधनों में बंधे रहना ही पसंद करते है और असह्य होने के बाद भी उन्हें ढोते रहते हैं । परन्तु कोई व्यक्ति जब इन बन्धनों से ऊपर उठकर,इनको एक सिरे से नकारते हुए , इनकी जकड से छूटने का प्रयास प्रारम्भ करता है ,तभी आध्यात्मिकताका जन्म होता है । यहीं से व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा भी प्रारम्भ होती है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
भगवान श्रीराम मानस में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
निर्मल मन जान सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
अर्थात जिसका मन निर्मल होगा वही मुझे प्राप्त कर सकेगा ,मुझे संसार के छल,कपट और धोखा देना कदापि स्वीकार्य नहीं है । इस संसार में बिना निर्मल मन का व्यक्ति एक मशीन के समान है जिसका कार्य मात्र एक ही होता है ,जिसके लिए उसे बनाया गया है । परन्तु मानव तो उस मशीन से भी निम्न दर्जे का यंत्र होता जा रहा है जिसे यह भी पता नहीं है कि उसे यह मनुष्य शरीर रुपी यंत्र किसलिए मिला है ?
व्यक्ति अपने जीवन को यंत्रवत बना डालने के लिए स्वयं ही जिम्मेदार है । यह उसका यंत्रवत व्यवहार भौतिक संसार के लिए तो आवश्यक है परन्तु आध्यात्मिकता में इस तरह के व्यवहार की दो कौड़ी की कीमत भी नहीं है । अगर भौतिक संसार में यंत्रवत कोई कार्य नहीं हो तो यहाँ की व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है । जैसे यातायात और सड़क पर चलने के नियम है । हम उन नियमों की यंत्रवत ही पालना करते हैं । अगर हम इन नियमों की पालना नहीं करें तो किसी भी भयंकर दुर्घटना के कभी भी शिकार हो सकते हैं । हम इन नियमों को इतना आत्मसात कर चुके हैं कि हम सदैव अपनी गाड़ी को सड़क के बांयी ओर ही चलाते है । दूर से ही चौराहे की लाल बत्ती देखकर गाड़ी की गति को धीरे करते हुए वहां पर रोक लेते हैं । यह सब एक प्रकार का यंत्रवत व्यवहार ही है । इसी प्रकार ट्रेन के समयानुसार ही हम रेल्वे स्टेशन पहुंचते हैं । हम जानते हैं कि जरा सी देर ही हमें अपनी यात्रा से वंचित कर सकती है । ऐसी स्थिति में हमें यंत्रवत होना ही पड़ता है । भौतिक संसार को सुगमता से चलने के लिए कुछ नियम कायदे आवश्यक होते है और उन नियम कायदों को अपने जीवन में ढाल लेना ही व्यक्ति को यंत्रवत बना देता है । यह सब व्यक्त की महिमा ही है । नियमानुसार चलने पर ही यह व्यक्त संसार हमें अर्थपूर्ण लगता है । ज्यों ही हम कोई भी नियम तोड़ते हैं यह संसार अर्थहीन हो जाता है ।
आध्यात्मिकता में किसी भी प्रकार का कोई नियम लागू नहीं होता । इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यवहार भी कभी भी यंत्रवत नहीं हो सकता । आध्यात्मिक व्यक्ति न तो संसार के कोई नियम तोड़ता है और न ही किसी के द्वारा तोड़े जाने पर उसे दुःख होता है । वह अपने आप में ही इतना मस्त रहता है कि कोई भी बंधन उसे बांध ही नहीं सकता । जो व्यक्ति भौतिकता में रमे हुए हैंउनके लिए सब कुछ बंधन है और उनके लिए ये बंधन अर्थपूर्ण और स्वीकार्य भी है । बंधता व्यक्ति स्वयं है ,कोई अन्य उसे बांध ही नहीं सकता । और जब व्यक्ति इतने सरे बंधनो में जकड जाता है तब उसे ये बंधन एक दिन असह्य हो जाते हैं । प्रायः लोग इन बंधनों में बंधे रहना ही पसंद करते है और असह्य होने के बाद भी उन्हें ढोते रहते हैं । परन्तु कोई व्यक्ति जब इन बन्धनों से ऊपर उठकर,इनको एक सिरे से नकारते हुए , इनकी जकड से छूटने का प्रयास प्रारम्भ करता है ,तभी आध्यात्मिकताका जन्म होता है । यहीं से व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा भी प्रारम्भ होती है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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