सृष्टि के प्रारंभ में ही इसी सृष्टि में एक शरीर के रूप में आपका प्रादुर्भाव होता है और सृष्टि के अंत में आप ऐसे ही किसी शरीर को त्याग कर इस संसार से पार हो जाते हैं। परन्तु सृष्टि के प्रारंभ से लेकर सृष्टि के अंत होने तक आपके कई शरीर बदलते रहते हैं और आप का संसार यथावत बना रहता है । केवल मात्र शरीर बदल जाने से संसार नहीं बदल सकता । आप एक शरीर, जो कि एक मनुष्य का है ,के साथ इस संसार में है । मनुष्य शरीर के रूप में आपने अपने संसार का निर्माण कर रखा है । जब यह मनुष्य की देह असहाय होने लगती है तब आप इस देह को त्याग कर अपने संसार में उसी प्रकार बने रहने के लिए पुनः एक नए शरीर के साथ आ जाते हैं । यह शरीर आपके द्वारा किये गए संसार निर्माण के अनुसार ही आपको प्राप्त होता है । इसमे कुछ भी विसंगति नहीं हो सकती । अतः यह कहना एकदम उचित है कि एक शरीर की मृत्यु हो जाना यानि एक शरीर को त्याग देना मात्र ही संसार सागर से पार हो जाना नहीं है । हो सकता है नए शरीर के प्राप्त हो जाने पर आपका परिवेश बदल जाये,वातावरण बदल जाये परन्तु आपके द्वारा बनाया हुआ संसार कभी भी बदल नहीं सकता । इसका कारण क्या है ?
संसार चूँकि आपकी सोच का ही पैदा किया हुआ है अतः आपको जो नया शरीर मिलेगा वह आपकी सोच के द्वारा निर्मित किये हुए संसार के अनुसार और उसी परिवेश में मिलेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि आप चाहे कितना ही चीखते चिल्लाते रहें कि आपको संसार सागर के पार जाना है,आप पार हो ही नहीं सकते । आप अपनी सोच को तो रत्ती भर भी परिवर्तित नहीं करना चाहते और पार उतरने की खोखली बातें करते हैं । इससे तो अच्छा है कि आप अपने इस संसार में रहते हुए इसीका आनंद लें ,आनंद तो क्या खाक लेंगे क्योंकि इस सोच से निर्मित आपका संसार आपके इर्द गिर्द ऐसा ताना बाना बुनता है कि आप "आज" में कभी बने ही नहीं रहते । इस संसार में बने रहने के लिए व्यक्ति अपनी सोच से बाहर कभी निकल ही नहीं पाता । और सोच कभी भी "आज" को जीने की नहीं होती । सोच या तो आने वाले कल के लिए होती है या फिर बीते हुए कल की । "आज "को जीने के लिए किसी सोच की,किसी विचार की आवश्यकता नहीं होती है । सोच में जीने वाला,विचारों में जीने वाला व्यक्ति कभी भी "आज" में नहीं जी सकता और जो "आज" को नहीं जी सकता वह सदैव ही आनन्द से महरूम ही रहता है,वह आनंद कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
संसार चूँकि आपकी सोच का ही पैदा किया हुआ है अतः आपको जो नया शरीर मिलेगा वह आपकी सोच के द्वारा निर्मित किये हुए संसार के अनुसार और उसी परिवेश में मिलेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि आप चाहे कितना ही चीखते चिल्लाते रहें कि आपको संसार सागर के पार जाना है,आप पार हो ही नहीं सकते । आप अपनी सोच को तो रत्ती भर भी परिवर्तित नहीं करना चाहते और पार उतरने की खोखली बातें करते हैं । इससे तो अच्छा है कि आप अपने इस संसार में रहते हुए इसीका आनंद लें ,आनंद तो क्या खाक लेंगे क्योंकि इस सोच से निर्मित आपका संसार आपके इर्द गिर्द ऐसा ताना बाना बुनता है कि आप "आज" में कभी बने ही नहीं रहते । इस संसार में बने रहने के लिए व्यक्ति अपनी सोच से बाहर कभी निकल ही नहीं पाता । और सोच कभी भी "आज" को जीने की नहीं होती । सोच या तो आने वाले कल के लिए होती है या फिर बीते हुए कल की । "आज "को जीने के लिए किसी सोच की,किसी विचार की आवश्यकता नहीं होती है । सोच में जीने वाला,विचारों में जीने वाला व्यक्ति कभी भी "आज" में नहीं जी सकता और जो "आज" को नहीं जी सकता वह सदैव ही आनन्द से महरूम ही रहता है,वह आनंद कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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