Monday, July 14, 2014

व्यक्त-अव्यक्त - ५ |

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

              केवल मात्र तीर्थ यात्रायें या माला फेरना अथवा नित्य पूजा करना मात्र ही आपको व्यक्त से अव्यक्त कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है । यह सब कार्य तो आप आज के आधुनिक यंत्रों से भी कर सकते हैं । आप किसी भी तीर्थ को नेट पर जाकर देख सकते है । व्यावसायिक व्यक्तियों ने तो आजकल ओंन लाइन पूजा जिसे इ-पूजा कहते हैं कि सुविधा भी उपलब्ध करा दी है । इसी प्रकार आप एक सीडी चलाकर भी भगवान को स्मरण करने का आधुनिक तरीका काम में ले सकते हैं । यह सब क्रियाकलाप उन लोगों को कुछ संतुष्टि अवश्य ही प्रदान करते है जिनका पूजा करना और माला फिराना एक नियमित कर्म बन गया है । परन्तु क्या इस  संतुष्टि को आप आत्म संतुष्टि कह सकते हैं । नहीं न । क्योंकि यह संतुष्टि आपको दिग्भ्रमित कर सकती है परन्तु वास्तविक संतुष्टि नहीं दे सकती । प्रातःकाल लोग  प्रायः मंदिर जाने की परम्परा का निर्वाह करते हैं । परन्तु क्या ऐसे लोग वास्तव में  मंदिर जाते हैं ? मेरा मानना है कि मंदिर जाना जिंदगी में सिर्फ एक बार होता है क्योंकि एक बार जो मंदिर चला गया उसका वापिस संसार में लौटना असंभव है । और जो एक बार मंदिर से लौट आता है वह प्रत्येक बार मंदिर से लौटेगा ही । उसका मंदिर जाना कभी भी सार्थक नहीं होगा ।
                     राजस्थान का ही एक दृष्टान्त देना चाहूँगा । यहाँ एक महिला भक्त करमा बाई बड़ी प्रसिद्ध  है । करमा बाई के पिताजी नियमित रूप से भगवान को भोजन अर्पित करके ही भोजन ग्रहण किया करते थे । एक बार किसी आवश्यक कार्यवश उन्हें किसी दूसरे गाँव जाना पड़ा । समस्या यह पैदा हुई कि उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोजन कौन देगा ?करमा बड़ी ही सीधी साधी और भोली भाली कन्या थी । परिवार में उसके अलावा कोई अन्य सदस्य भी नहीं था जिसे उसका बापू भगवान को भोग लगाने की जिम्मेदारी देता । उसने करमा को यह जिम्मेदारी दी और गाँव चला गया । करमा ने अपने लिए भोजन बनाया और भगवान् के लिए भी । उसने भोजन करने से पहले भगवान की मूर्ति के सामने भोजन की थाली रख दी और उनके द्वारा भोजन ग्रहण किये जाने का इंतजार करने लगी । थोड़ी थोड़ी देर में देख लेती परन्तु भोजन तो जस का तस पड़ा था । उसने भी जिद्द करली कि जब तक भगवान भोजन नहीं करेंगे तब तक वह भी भूखी बैठी रहेगी । अचानक उसे स्मरण हुआ कि बापू भगवान् के आगे पर्दा लगाते थे । उसको और कुछ सुझा नहीं अपने लहंगे का ही पर्दा कर दिया । ऐसी जिद्द देखकर उस अव्यक्त परमात्मा को भी व्यक्त होना पड़ा, उन्हें शरीर रूप में आना ही पड़ा और करमा के हाथ का भोजन खाना पड़ा ।
                  सुनने वाले के लिए यह एक कहानी मात्र हो सकती है परन्तु इसमे भी एक सन्देश छुपा है । करमा का मन एक दम निर्मल था और निर्मल मन ही अव्यक्त को व्यक्त और  व्यक्त को अव्यक्त कर देने की क्षमता रखता है ।
                      मन ऐसा निर्मल करो,जैसे गंगा नीर ।
                     पाछे पाछे हरि  फिरे ,कहत कबीर कबीर ॥
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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