जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है ।
केवल मात्र तीर्थ यात्रायें या माला फेरना अथवा नित्य पूजा करना मात्र ही आपको व्यक्त से अव्यक्त कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है । यह सब कार्य तो आप आज के आधुनिक यंत्रों से भी कर सकते हैं । आप किसी भी तीर्थ को नेट पर जाकर देख सकते है । व्यावसायिक व्यक्तियों ने तो आजकल ओंन लाइन पूजा जिसे इ-पूजा कहते हैं कि सुविधा भी उपलब्ध करा दी है । इसी प्रकार आप एक सीडी चलाकर भी भगवान को स्मरण करने का आधुनिक तरीका काम में ले सकते हैं । यह सब क्रियाकलाप उन लोगों को कुछ संतुष्टि अवश्य ही प्रदान करते है जिनका पूजा करना और माला फिराना एक नियमित कर्म बन गया है । परन्तु क्या इस संतुष्टि को आप आत्म संतुष्टि कह सकते हैं । नहीं न । क्योंकि यह संतुष्टि आपको दिग्भ्रमित कर सकती है परन्तु वास्तविक संतुष्टि नहीं दे सकती । प्रातःकाल लोग प्रायः मंदिर जाने की परम्परा का निर्वाह करते हैं । परन्तु क्या ऐसे लोग वास्तव में मंदिर जाते हैं ? मेरा मानना है कि मंदिर जाना जिंदगी में सिर्फ एक बार होता है क्योंकि एक बार जो मंदिर चला गया उसका वापिस संसार में लौटना असंभव है । और जो एक बार मंदिर से लौट आता है वह प्रत्येक बार मंदिर से लौटेगा ही । उसका मंदिर जाना कभी भी सार्थक नहीं होगा ।
राजस्थान का ही एक दृष्टान्त देना चाहूँगा । यहाँ एक महिला भक्त करमा बाई बड़ी प्रसिद्ध है । करमा बाई के पिताजी नियमित रूप से भगवान को भोजन अर्पित करके ही भोजन ग्रहण किया करते थे । एक बार किसी आवश्यक कार्यवश उन्हें किसी दूसरे गाँव जाना पड़ा । समस्या यह पैदा हुई कि उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोजन कौन देगा ?करमा बड़ी ही सीधी साधी और भोली भाली कन्या थी । परिवार में उसके अलावा कोई अन्य सदस्य भी नहीं था जिसे उसका बापू भगवान को भोग लगाने की जिम्मेदारी देता । उसने करमा को यह जिम्मेदारी दी और गाँव चला गया । करमा ने अपने लिए भोजन बनाया और भगवान् के लिए भी । उसने भोजन करने से पहले भगवान की मूर्ति के सामने भोजन की थाली रख दी और उनके द्वारा भोजन ग्रहण किये जाने का इंतजार करने लगी । थोड़ी थोड़ी देर में देख लेती परन्तु भोजन तो जस का तस पड़ा था । उसने भी जिद्द करली कि जब तक भगवान भोजन नहीं करेंगे तब तक वह भी भूखी बैठी रहेगी । अचानक उसे स्मरण हुआ कि बापू भगवान् के आगे पर्दा लगाते थे । उसको और कुछ सुझा नहीं अपने लहंगे का ही पर्दा कर दिया । ऐसी जिद्द देखकर उस अव्यक्त परमात्मा को भी व्यक्त होना पड़ा, उन्हें शरीर रूप में आना ही पड़ा और करमा के हाथ का भोजन खाना पड़ा ।
सुनने वाले के लिए यह एक कहानी मात्र हो सकती है परन्तु इसमे भी एक सन्देश छुपा है । करमा का मन एक दम निर्मल था और निर्मल मन ही अव्यक्त को व्यक्त और व्यक्त को अव्यक्त कर देने की क्षमता रखता है ।
मन ऐसा निर्मल करो,जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे ,कहत कबीर कबीर ॥
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
केवल मात्र तीर्थ यात्रायें या माला फेरना अथवा नित्य पूजा करना मात्र ही आपको व्यक्त से अव्यक्त कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है । यह सब कार्य तो आप आज के आधुनिक यंत्रों से भी कर सकते हैं । आप किसी भी तीर्थ को नेट पर जाकर देख सकते है । व्यावसायिक व्यक्तियों ने तो आजकल ओंन लाइन पूजा जिसे इ-पूजा कहते हैं कि सुविधा भी उपलब्ध करा दी है । इसी प्रकार आप एक सीडी चलाकर भी भगवान को स्मरण करने का आधुनिक तरीका काम में ले सकते हैं । यह सब क्रियाकलाप उन लोगों को कुछ संतुष्टि अवश्य ही प्रदान करते है जिनका पूजा करना और माला फिराना एक नियमित कर्म बन गया है । परन्तु क्या इस संतुष्टि को आप आत्म संतुष्टि कह सकते हैं । नहीं न । क्योंकि यह संतुष्टि आपको दिग्भ्रमित कर सकती है परन्तु वास्तविक संतुष्टि नहीं दे सकती । प्रातःकाल लोग प्रायः मंदिर जाने की परम्परा का निर्वाह करते हैं । परन्तु क्या ऐसे लोग वास्तव में मंदिर जाते हैं ? मेरा मानना है कि मंदिर जाना जिंदगी में सिर्फ एक बार होता है क्योंकि एक बार जो मंदिर चला गया उसका वापिस संसार में लौटना असंभव है । और जो एक बार मंदिर से लौट आता है वह प्रत्येक बार मंदिर से लौटेगा ही । उसका मंदिर जाना कभी भी सार्थक नहीं होगा ।
राजस्थान का ही एक दृष्टान्त देना चाहूँगा । यहाँ एक महिला भक्त करमा बाई बड़ी प्रसिद्ध है । करमा बाई के पिताजी नियमित रूप से भगवान को भोजन अर्पित करके ही भोजन ग्रहण किया करते थे । एक बार किसी आवश्यक कार्यवश उन्हें किसी दूसरे गाँव जाना पड़ा । समस्या यह पैदा हुई कि उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोजन कौन देगा ?करमा बड़ी ही सीधी साधी और भोली भाली कन्या थी । परिवार में उसके अलावा कोई अन्य सदस्य भी नहीं था जिसे उसका बापू भगवान को भोग लगाने की जिम्मेदारी देता । उसने करमा को यह जिम्मेदारी दी और गाँव चला गया । करमा ने अपने लिए भोजन बनाया और भगवान् के लिए भी । उसने भोजन करने से पहले भगवान की मूर्ति के सामने भोजन की थाली रख दी और उनके द्वारा भोजन ग्रहण किये जाने का इंतजार करने लगी । थोड़ी थोड़ी देर में देख लेती परन्तु भोजन तो जस का तस पड़ा था । उसने भी जिद्द करली कि जब तक भगवान भोजन नहीं करेंगे तब तक वह भी भूखी बैठी रहेगी । अचानक उसे स्मरण हुआ कि बापू भगवान् के आगे पर्दा लगाते थे । उसको और कुछ सुझा नहीं अपने लहंगे का ही पर्दा कर दिया । ऐसी जिद्द देखकर उस अव्यक्त परमात्मा को भी व्यक्त होना पड़ा, उन्हें शरीर रूप में आना ही पड़ा और करमा के हाथ का भोजन खाना पड़ा ।
सुनने वाले के लिए यह एक कहानी मात्र हो सकती है परन्तु इसमे भी एक सन्देश छुपा है । करमा का मन एक दम निर्मल था और निर्मल मन ही अव्यक्त को व्यक्त और व्यक्त को अव्यक्त कर देने की क्षमता रखता है ।
मन ऐसा निर्मल करो,जैसे गंगा नीर ।
पाछे पाछे हरि फिरे ,कहत कबीर कबीर ॥
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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