जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है ।
यह पवित्र ग्रन्थ वेद की एक उक्ति है । संसार के समस्त धर्म-ग्रंथो और साहित्य को खंगाल भी लिया जाय तो इतनी सुन्दर और सत्यता से परिपूर्ण कोई भी उक्ति कहीं भी नहीं मिलेगी । यही उक्ति अव्यक्त को व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होने का अहसास कराती है । वास्तविकता में हम सभी व्यक्त को अधिक महत्त्व देते आये है परन्तु महत्त्व तो अव्यक्त का अधिक है ।बिना अव्यक्त के कुछ भी व्यक्त नहीं हो सकता । ऐसे में महत्वता अव्यक्त की व्यक्त से अधिक हुई है ।व्यक्त को मनुष्य जन्म से जोड़ता है और मृत्यु होने को अव्यक्त हो जाने से । परन्तु यह व्यक्त-अव्यक्त केवल इतने से शब्द मात्र ही नहीं है । ये शब्द बड़े ही सारगर्भित है । इसको समझने के लिए इन शब्दों की गहराई में उतरना पड़ेगा ।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अव्य्क्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना ॥ गीता २/२८|॥
अर्थात,हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ,केवल बीच में ही प्रकट होते हैं;;फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
गीता में भगवान श्री कृष्ण केवल बीच में ही अव्यक्त से व्यक्त होना बताते हैं । यह जन्म से पहले,जन्म के बाद और बीच क्या है ? इसका उत्तर जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि जन्म क्या है ? जन्म को जानने पर ही हम जन्म से पहले या जन्म के बाद या बीच के काल अर्थात समय को परिभाषित कर सकते है ।आम बोलचाल के अनुसार जन्म वह सीढ़ी है जब प्राणी इस संसार में भौतिक शरीर के साथ अपना प्रथम कदम रखता है और मृत्यु इस जीवन का अंतिम सोपान है जहाँ से उसका इस संसार से उसके भौतिक शरीर का नाता समाप्त हो जाता है । परन्तु क्या वास्तव में जन्म और मृत्यु को सिर्फ इतने से ही परिभाषित किया जा सकता है ? साधारण व्यक्ति के अनुसार जन्म-मृत्यु मात्र इतना ही है परन्तु वास्तव में ऐसा इस सोच से कहीं बहुत अधिक है ।
इस ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव होने को ,इस ब्रह्माण्ड के निर्मित होने से पूर्व को हम जन्म से पहले और ब्रह्माण्ड की समाप्ति होने के बाद को हम मृत्यु के बाद होना कह सकते हैं । इस ब्रह्माण्ड के बने रहने को हम बीच का काल कह सकते हैं । इस बीच के काल में ही प्राणी अव्यक्त से व्यक्त होते हैं । भौतिक शरीर को धारण करना और उस शरीर को त्याग देना तो एक प्रकार से व्यक्त की ही विभिन्न अवस्थाएं है । एक शरीर को त्याग कर पुनः नया शरीर धारण कर लेना तो व्यक्त अवस्था में चल रही विभिन्न अवस्थाओं का एक हिस्सा मात्र है । जैसे इस भौतिक शरीर की बाल्यावस्था,युवावस्था और वृद्धावस्था होती है उसी प्रकार इस स्थूल शरीर की मृत्यु होकर नया शरीर प्राप्त कर लेना भी व्यक्त की ही एक अवस्था है । अतः स्थूल शरीर धारण करना और स्थूल शरीर को त्याग देना मात्र ही जीवन-मृत्यु नहीं है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
यह पवित्र ग्रन्थ वेद की एक उक्ति है । संसार के समस्त धर्म-ग्रंथो और साहित्य को खंगाल भी लिया जाय तो इतनी सुन्दर और सत्यता से परिपूर्ण कोई भी उक्ति कहीं भी नहीं मिलेगी । यही उक्ति अव्यक्त को व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होने का अहसास कराती है । वास्तविकता में हम सभी व्यक्त को अधिक महत्त्व देते आये है परन्तु महत्त्व तो अव्यक्त का अधिक है ।बिना अव्यक्त के कुछ भी व्यक्त नहीं हो सकता । ऐसे में महत्वता अव्यक्त की व्यक्त से अधिक हुई है ।व्यक्त को मनुष्य जन्म से जोड़ता है और मृत्यु होने को अव्यक्त हो जाने से । परन्तु यह व्यक्त-अव्यक्त केवल इतने से शब्द मात्र ही नहीं है । ये शब्द बड़े ही सारगर्भित है । इसको समझने के लिए इन शब्दों की गहराई में उतरना पड़ेगा ।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अव्य्क्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना ॥ गीता २/२८|॥
अर्थात,हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ,केवल बीच में ही प्रकट होते हैं;;फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
गीता में भगवान श्री कृष्ण केवल बीच में ही अव्यक्त से व्यक्त होना बताते हैं । यह जन्म से पहले,जन्म के बाद और बीच क्या है ? इसका उत्तर जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि जन्म क्या है ? जन्म को जानने पर ही हम जन्म से पहले या जन्म के बाद या बीच के काल अर्थात समय को परिभाषित कर सकते है ।आम बोलचाल के अनुसार जन्म वह सीढ़ी है जब प्राणी इस संसार में भौतिक शरीर के साथ अपना प्रथम कदम रखता है और मृत्यु इस जीवन का अंतिम सोपान है जहाँ से उसका इस संसार से उसके भौतिक शरीर का नाता समाप्त हो जाता है । परन्तु क्या वास्तव में जन्म और मृत्यु को सिर्फ इतने से ही परिभाषित किया जा सकता है ? साधारण व्यक्ति के अनुसार जन्म-मृत्यु मात्र इतना ही है परन्तु वास्तव में ऐसा इस सोच से कहीं बहुत अधिक है ।
इस ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव होने को ,इस ब्रह्माण्ड के निर्मित होने से पूर्व को हम जन्म से पहले और ब्रह्माण्ड की समाप्ति होने के बाद को हम मृत्यु के बाद होना कह सकते हैं । इस ब्रह्माण्ड के बने रहने को हम बीच का काल कह सकते हैं । इस बीच के काल में ही प्राणी अव्यक्त से व्यक्त होते हैं । भौतिक शरीर को धारण करना और उस शरीर को त्याग देना तो एक प्रकार से व्यक्त की ही विभिन्न अवस्थाएं है । एक शरीर को त्याग कर पुनः नया शरीर धारण कर लेना तो व्यक्त अवस्था में चल रही विभिन्न अवस्थाओं का एक हिस्सा मात्र है । जैसे इस भौतिक शरीर की बाल्यावस्था,युवावस्था और वृद्धावस्था होती है उसी प्रकार इस स्थूल शरीर की मृत्यु होकर नया शरीर प्राप्त कर लेना भी व्यक्त की ही एक अवस्था है । अतः स्थूल शरीर धारण करना और स्थूल शरीर को त्याग देना मात्र ही जीवन-मृत्यु नहीं है ।
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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