Thursday, July 31, 2014

संसार -८

                                 रामचरितमानस,तुलसी की एक अमर कृति है । इस ग्रन्थ में राम-कथा भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती को सुनाते हैं । तुलसी के काल तक,उनके जीवन काल में भी सनातन धर्म में दो बड़े धड़े  थे-शैव और वैष्णव । दोनों ही सम्प्रदाय आपस में झगड़ते रहते थे । शैव सम्प्रदाय वाले शिव के उपासक होते हैं जबकि वैष्णव संप्रदाय के लोग भगवान विष्णु की पूजा करते हैं । संत स्वामी तुलसी दास को  उन दोनों संप्रदायों के बीच का लड़ना-झगड़ना  अच्छा नहीं लगता था । उन्होंने यह संकल्प किया कि किसी भी तरह इन दोनों सम्प्रदायों के बीच का झगडा मिटाया जाना चाहिए,समाप्त हो जाना चाहिए । उस समय में किसी को समझाना बुझाना बड़ा ही खतरनाक होता था । एक को कुछ कहो तो वह आपको दुसरे पक्ष का जान कर आपसे ही झगड पड़ता था । तुलसी ने अपना  विवेक काम में  लेते हुए इस रामचरितमानस की रचना की । इस ग्रन्थ में राम (विष्णु ) की कथा को शिव के मुख से सुनाया गया है । इस ग्रन्थ में स्थान स्थान पर कभी शिव,राम (विष्णु) की प्रशंसा करते हैं और कहीं राम (विष्णु) शिव की प्रशंसा करते हैं । प्रारम्भ में  लोगों ने इस ग्रन्थ को हल्के रूप में लिया परन्तु जब इसका गहराई से लोगों ने अध्ययन किया तो सबकी भ्रान्तिया दूर हो गई  । अंत में दोनों ही  सम्प्रदायों के लोग इसे पढ़कर संतुष्ट हो गए ।
                          मैंने यह बात आपके समक्ष इसलिए रखी है क्योंकि संसार निर्माण में अनुभव तभी  काम आता है जब इतिहास में हुई कमियों को,गलतियों को सुधारकर दूर किया जाय । तुलसी ने उन गलतियों को सुधारकर दोनों सम्प्रदायों के बीच भाईचारा बढ़ाते हुए दीर्घकाल से चले आ रहे वैमनस्य को समाप्त किया । विवेकशील पुरुष केवल मात्र इतिहास को दोहराते नहीं है बल्कि "आज" में जीते हुए नया इतिहास बनाते हैं । तुलसी ने  इतिहास को पीछे छोड़ते हुए  "आज" को जिया और निर्विचार होकर जिया तभी तो हमें इतना अच्छा ग्रन्थ मिला । इस ग्रन्थ के अस्तित्व में आने के बाद दोनों ही सम्प्रदायों के मध्य आज तक किसी प्रकार का कोई झगडा नहीं हुआ ।
                 आने वाल कल भी एक संसार का निर्माण करता  है । यह संसार बीते हुए कल के द्वारा निर्मित संसार की तुलना में सत्य  के अधिक नजदीक है । ऐसा तभी होता है  जब भविष्य की योजनायें परमार्थ के लिए हो । अगर आनेवाले कल से संसार आप अपने स्वार्थ से बना रहे हो,तो फिर दोनों ही संसार निरर्थक है । जितने भी महान व्यक्ति इस संसार में हुए है,सभी ने आनेवाले कल को ध्यान में रखते हुए ,परमार्थ हेतु अपने संसार का निर्माण किया है और ऐसा संसार निंदनीय हो ही नहीं सकता । उन्होंने "आज" को परमार्थ के लिए जीया  है,जिससे आनेवाले कल को बेहतर बनाया जा सके ।भविष्य का संसार उन्होंने वर्तमान में बनाया, न कि बीते हुए कल को ही स्मृतियों में रख कर । ऐसा संसार निर्माण अनुकरणीय है ।
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥    

Wednesday, July 30, 2014

संसार-७

              इस संसार को आप चाहे कितना ही निन्दित करें,संसार किसी भी सूरत में इस निंदा का अधिकारी नहीं है ।  हम अपना संसार स्वयं ही निर्मित करते हैं और दोष भी अपने ही बनाये हुए को देते हैं ,यह कैसा व्यवहार है हमारा ? हमें यह संसार अच्छा इसीलिए नहीं लगता क्योंकि हमने आपना संसार सदैव ही बीते हुए कल से बनाया है और वह भी आने वाले कल के लिए । "आज" को जीने के लिए हम कुछ भी नहीं करते हैं ।अच्छा ,वास्तविक और सुन्दर संसार तो सदैव ही आज के लिए होता है ,"आज" से विलग संसार तो सिर्फ काल्पनिक होता है ,असत्य होता है , मात्र एक सपना होता है । इस सृष्टि में केवल "आज" ही सत्य है शेष सभी सपना है । सभी धर्मशास्त्र हमें "आज" में जीने का कहते हैं । आप न तो बीते हुए कल में जीकर आनंदित हो सकते हैं और न ही आने वाले कल में जीने की  योजनायें बनाकर ।
                    भविष्य के कल का संसार सदैव ही बीते हुए कल के  इतिहास से बनता है । चाहे यह भविष्य का संसार हम आज बना रहें हो,परन्तु उसका आधार सदैव ही बीता हुआ कल ही होता है । बीते हुए कल का कार्य आज हम अगर करते हैं अर्थात इतिहास की पुनरावृति अगर हम करते हैं तो उसकी न तो "आज" के सन्दर्भ में कोई उपयोगिता है और न ही भविष्य में कोई उपयोगिता होगी । इसी लिए मैंने कहा है की इतिहास का अनुभव काम में लेने का कोई औचित्य नहीं है । हाँ, इतिहास का अनुभव तभी काम में आता है जब उस समय की हुई गलतियों को हम दोहराए नहीं और अच्छी बातों को आत्मसात करते हुए आज उसी कार्य को एक नए तरीके से करें । 
                  बीता हुआ कल वापिस लौट कर नहीं आने वाला और आने वाले कल को किसी ने आज देखा नहीं है ,यह  एक सार्वभौमिक सत्य है । इस सत्य को स्वीकार और आत्मसात करते ही हम "आज"को जीना सीख जायेंगे । आज में जीना प्रारम्भ करते ही यह संसार ,जिसकी आप आज तक निंदा करते हुए आ रहे है ,बड़ा ही सुन्दर और आनंददायक प्रतीत होने लगेगा । यह मेरा "आज"का अनुभव है और इस अनुभव का उपयोग केवल "आज"ही किया जा सकता है । भविष्य के कल को यह अनुभव बेमानी हो जायेगा । "आज" में जीने पर व्यक्ति को संसार नज़र ही नहीं आता ,क्योंकि" आज" को निर्विचार होकर ही जिया जा सकता है ।  विचार तो मस्तिष्क में या तो भूतकाल पैदा करता है या आने वाला भविष्य । "आज" का कुछ भी ,किसी प्रकार का विचार नहीं होता है । क्योंकि "आज" एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में मस्तिष्क में बनी स्मृतियाँ विचारों के रूप में परिवर्तित होकर बह ही नहीं सकती । उनको विचार बनकर बहने के लिए या तो बीता हुआ कल चाहिए या आनेवाले कल की कोई योजना । दोनों ही "आज"में जीने वाले के मस्तिष्क के लिए करना संभव ही नहीं है ।
क्रमशः
                                          ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, July 29, 2014

संसार-६

                 मैं यह कभी भी नहीं कहूँगा कि बीते हुए कल की कोई उपयोगिता नहीं है , बीता हुआ कल बेशक  महत्वपूर्ण है । लेकिन बीते हुए कल को मात्र अपनी स्मृतियों में संजोये रखना अनुचित है । यह आपके मस्तिष्क में एक ताना-बाना बुनता है और इसी ताने - बाने को हम अपना संसार बना लेते हैं । बीते हुए  कल की स्मृतियाँ  ही सदैव आपके विचारों को प्रभावित करती है और मस्तिष्क में उठ रहे विचार ही आपका संसार निर्मित करते हैं । विचार सदैव ही स्मृतियों पर आधारित होते हैं और स्मृतियाँ केवल बीते हुए कल की ही हो सकती है ,"आज" की नहीं । "आज" को जीने के लिए आपका निर्विचार होना आवश्यक है । निर्विचार होना ही आपको "आज"आनंदित कर सकता है। मस्तिष्क में उठ रहे विभिन्न विचार आपको "आज" में रहने ही नहीं देंगे और इस प्रकार यह "आज"भी समाप्त होकर कुछ समय पश्चात् बीते हुए कल में परिवर्तित हो जायेगा । फिर प्रातः उठकर आप पुनः यही विचार करेंगे कि बीते हुए कल में तो हम कुछ भी नहीं कर पाए । इसी प्रकार धीरे धीरे समस्त "आज"मुठ्ठी में भरी रेत की तरह फिसलकर बीते हुए कल में बदल जायेंगे । जीवन भर आप बीते हुए कल को याद कर जीते रहेंगे और आप जानते ही हैं कि इतिहास में जीना कोई जीना नहीं होता है ।
                                  मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि आपका इतिहास चाहे कितना ही स्वर्णिम रहा हो या कलुषित ,"आज" उस इतिहास को याद करते रहने की कोई कीमत नहीं है । इतिहास को याद करते हुए वही लोग जीते हैं ,जो "आज" को जीने का हौसला नहीं रखते । आपका संसार बीता हुआ कल ही क्यों हो ?आप "आज " बेहतर तरीके  से जी कर इतिहास क्यों नहीं बना सकते ?बीते हुए कल की कमियों में सुधार कर लेने वाला ही बीते हुए कल का सही उपयोगकर्ता है । बीते हुए कल की स्मृतियां आपके मस्तिष्क में विचार पैदा कर उसे बोझिल बनाती है जबकि उस कल की कमियों को सुधार कर,गलतियों को न दोहराकर आप अपने "आज"को आनंद पूर्वक जीने की क्षमता पैदा कर लेते हैं । बीते हुए कल की उपयोगिता उस समय के अनुभव से लाभ उठाने तक ही सीमित है ,उस अनुभव की पुनरावृति करते रहने से कोई लाभ नहीं होने वाला । भले ही राम ने रावण से और पांडवों ने कौरवों से युद्ध तीर-कमानों और गदाओं से किये होंगे परन्तु आज इनका उपयोग कर कोई भी सेना युद्ध नहीं जीत सकती । वह अनुभव ,वैसा कौशल आज काम नहीं आएगा । आज अगर युद्ध जीतना है तो परमाणु-हथियार काम में लेने ही होंगे ।
                                 आज अगर हम अपने संसार को बीते हुए कल से बनाते रहेंगे तो फिर किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाएंगे । इतिहास को याद करके कोई भी महान नहीं बना है । जितने भी व्यक्ति महान बने है-चाहे आदि गुरु शंकराचार्य हों,स्वामी दयानंद सरस्वती हो या स्वामी विवेकानंद ,सभी "आज"में जीकर ही महान बने है । उन्होंने बीते हुए कल की कमियों को दूर किया और "आज" को नयी सोच और नए संसार में ढालकर एक नया मार्ग बनाया । इसी कारण वे महान बने और एक स्वर्णिम इतिहास बने । "आज" हम उनकी महानता को याद करके मात्र ही जी नहीं सकते ,बल्कि उनके मार्ग की विशेषताओं को आत्मसात कर ही बेहतर जींदगी जी सकते हैं । हमारा संसार उन महान व्यक्तियों के जैसा ही नहीं होना चाहिए बल्कि उनके विचारों और सोच को अपने अनुरूप अपने जीवन में ढालते हुए ही होना चाहिए ।
क्रमशः
                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, July 28, 2014

संसार-५

                                       बीता हुआ कल कभी भी लौटकर नहीं आता फिर भी न जाने क्यों लोग उसकी चर्चा करते रहते हैं ? मै जानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति सवेरे उठते ही सबसे पहले बीते हुए कल को ही याद करता है और इसके तुरंत बाद वह आने वाले कल के बारे में सोचने लगता है । जबकि इस सृष्टि में सिर्फ "आज"का महत्त्व है ,किसी भी "कल" का नहीं । बीता हुआ कल या तो स्वर्णिम रहा होगा या निराशाजनक । स्वर्णिम भी रहा होगा तो आज उसकी क्या उपयोगिता है ? आज़ादी से पूर्व कई राजा-महाराजा रहे होंगे परन्तु आज वे सब साधारण नागरिक है । फिर भी वे सब अपने आपको "घणी खम्मा"और ठाकुर साहेब कहलाना पसंद करते हैं । क्या कहलाने और कह देने मात्र से ही वो राजा या ठाकुर साहेब हो सकते हैं ? नहीं ना । फिर तो उस स्वर्णिम इतिहास की , बीते हुए कल की कीमत दो कौड़ी की ही नहीं हुई ।
                                     उस बीते हुए कल में जीते रहना ही आपके संसार का निर्माण कर रहा है । "आज" कहाँ है  आपके जीवन में ?आपके जीवन में तो केवल "कल" ही भरा हुआ है ।बीते हुए कल की मुश्किलों को याद करते हुए ही नहीं जीयें ,उस कल में मिले सुख को ही याद करते न रहे.। हाँ,बीते हुए कल की गलतियों से सीख लें परन्तु उन गलतियों को सदैव के लिए भूल जाएँ । अगर आपको मात्र गलतियाँ ही याद आती रहेगी तो फिर आप उन गलतियों को दोहरा भी सकते हैं । यह मानव का प्राकृतिक स्वभाव है । आप की गाड़ी जहाँ भी दुर्घटना ग्रस्त हुई है उस दुर्घटना को याद करते रहने से  फिर आप दुर्घटना के शिकार हो सकते हैं । परन्तु आप इस दुर्घटना का कारण  ढूंढे कि किस गलती के कारण यह दुर्घटना  हुई थी और भविष्य में उस गलती की पुनरावृति न हो, वहीँ तक इस बीते हुए कल की सार्थकता है । प्रायः आपने बड़े राष्ट्रीय उच्च मार्गों पर कई जगहों पर विशाल बोर्ड लगे देखे होंगे-"दुर्घटना संभावित क्षेत्र"। ऐसे बोर्ड लगाने का कोई औचित्य नहीं है । बोर्ड लगाने के बावजूद भी दुर्घटनाएं अक्सर वहीँ पर होती है । बोर्ड लगे होने के बावजूद क्यों ? उसका कारण है मनुष्य का  स्वभाव । वह अति सावधानी से गाड़ी चलाने लगता है और इस अतिरिक्त सावधानी में वह गलती कर बैठता है और दुर्घटना हो जाती है । जबकि प्रशासन को दुर्घटना के कारण जानकर उन कमियों में सुधार करना चाहिए न कि मात्र बोर्ड लगाकर वाहन चालकों को मात्र बीते हुए कल की सूचना देकर उसे याद दिलाते रहें । यह बोर्ड पढ़कर ही चालक बीते हुए कल के आधार पर संभावित दुर्घटना का एक काल्पनिक संसार रच बैठता है और इसी काल्पनिक संसार में उलझ कर वह कोई गलती कर बैठता है जो कि दुर्घटना का कारण बनती है ।
                           ये उदाहरण तो मैंने सबकी जिंदगी से जुड़े हुए दिए हैं । अगर आप चाहे तो ऐसे सैंकड़ों उदाहरण अपनी निजी जिंदगी से भी ढूंढ सकते हैं जो आप  के बीते हुए कल से आपके सपनों का संसार निर्मित कर रहे हैं । चाहे वह आपके बेटे का जन्म हो,बिटिया की विदाई हो,दोस्तों से हुआ झगड़ा हो,यात्रा के अनुभव हो -सभी आपके संसार का निर्माण कर रहे हैं । आप जरा बीते हुए कल को छोड़ दे,उसके बारे में बिलकुल ही सोचना बंद कर दें और फिर जरा ढूंढें कि आपका यह संसार कहाँ है ?
क्रमशः
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥

Sunday, July 27, 2014

संसार-४

                                 जिस दिन व्यक्ति को अपने जीवनकाल में प्रतिदिन आनंद  आने लगेगा,वह जीते जी ही इस संसार सागर को पार कर लेगा । संसार का निर्माण स्वतः ही रूक जाता है,जब आप "आज"में जीना शुरू कर देते हैं । संसार तो "बीते हुए कल"और "आने वाले कल" का ही तो नाम है  । जिसको यह पता है अर्थात जो यह जानता है कि "बिता हुआ कल"कभी भी लौट कर वापिस नहीं आने वाला और "आने वाले कल" में मैं रहूँगा या नहीं ,केवल मात्र वही व्यक्ति "आज" में जी सकता है और आनंद भी प्राप्त कर सकता है । हम सब कुछ जानते हैं फिर भी अनजान बने रहना चाहते हैं । संत महापुरुषों ने बार बार हमें अनेकों बार समझाया है और हमारे  सनातन शास्त्र भी यही कहते हैं कि किसी भी कल की मत सोचो ,केवल "आज" पर ध्यान दो परन्तु यह मनुष्य विवेकशील होते हुए भी इस बात की उपेक्षा कर रहा है ।
                             सबसे पहले हम बात करते हैं उस "बीते हुए कल "की । हमारा इतिहास कितने ही शूरमाओं की गाथा कहता होगा परन्तु जरा विचार कीजिये -क्या हम सब  आज भी उन शूरमाओं के वंशज लगते हैं ?हमारा इतिहास सनातन धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वाले ऋषि दधिची को तो याद करता है परन्तु आज कितने दधिची यहाँ है ?महाराणा प्रताप को  धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना पड़ा था । उस युद्ध को संचालित करने के लिए मेवाड़ के धनाढ्य व्यक्ति भामाशाह ने अपनी समस्त सम्पति राणा को समर्पित कर दी थी । आज कितने यहाँ भामाशाह है यह आपसे और मुझसे छुपा हुआ  नहीं है?हमारे सनातन धर्म की रक्षा का भाव जिन्दा रहना चाहिए था ,वह तो हम कभी के मार चुके हैं और अपने इतिहास अर्थात "बीते हुए कल"को लिए बैठे हैं । मैं कहता हूँ और स्पष्टतः कहता हूँ कि दधिची या भामाशाह की पुनरावृति नहीं हो सकती क्योंकि वह "बीता हुआ कल"है । हमने अपने उस गौरवशाली इतिहास से "आज"को नहीं जी  सकते । हाँ,उनकी जो सनातन धर्म के प्रति आस्था थी ,भावना थी ,उस आस्था और भाव  को आत्मसात करके "आज"को जी सकते हैं और आनंदित हो सकते हैं । इस भाव के साथ जीना इतिहास में जीना नहीं है । अगर हम उस भाव के साथ आज तक जी रहे होते तो सनातन धर्म की सीमायें ईरान से लेकर जापान तक विशाल भू भाग तक फैली हुई थी, से सिकुड़ कर भारतवर्ष के एक छोटे से हिस्से तक नहीं सिमट जाती । जम्मू-कश्मीर में हमारी अमरनाथ यात्रा संगीनों के साये में संपन्न नहीं होती और न ही हमें हमारे नेताओं के रहमोकरम पर  हमारे प्रार्थना स्थलों पर पूजा करने के लिए इजाजत लेने की आवश्यकता होती ।
                                इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हम लोगों ने अपना संसार "बीते हुए कल"से निर्मित किया है । आज भी हमें दुष्टों और दानवों से संघर्ष करने के लिए राम  या कृष्ण के अवतार लेने का इंतजार है । परन्तु ऐसा कभी होगा नहीं । जिस प्रकार दधिची और भामाशाह बार बार पैदा नहीं होते उसी प्रकार राम और कृष्ण भी पैदा नहीं होंगे । हमारे बीच में से ही कोई दधिची या भामाशाह  होगा ,हमारे बीच ही राम या कृष्ण पैदा होगा । कल वाले ये चरित्र आज नहीं आयेंगे और भविष्य में कभी आयेंगे या नहीं,यह देखने के लिए हम होंगे नहीं। तो फिर पुराने और आने वाले कल की क्यों सोचें,यह तो हमारे संसार का निर्माण ही करेगा । जो करना है आज ही करें -उसी आस्था और उसी भाव के अनुसार और फिर परिवर्तन देखें। यह संसार कहाँ ठहरेगा आपके आगे?
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, July 26, 2014

संसार-३

                                   सृष्टि के प्रारंभ में ही इसी सृष्टि में एक शरीर के रूप में आपका प्रादुर्भाव होता है और सृष्टि के अंत में आप ऐसे ही किसी शरीर को त्याग कर इस संसार से पार हो जाते हैं। परन्तु सृष्टि के प्रारंभ से लेकर सृष्टि के अंत होने तक आपके कई शरीर बदलते रहते हैं और आप का संसार यथावत बना रहता है । केवल मात्र शरीर बदल जाने से संसार नहीं बदल सकता । आप एक शरीर, जो कि एक मनुष्य का है ,के साथ इस संसार में है । मनुष्य शरीर के रूप में आपने अपने संसार का निर्माण कर रखा है । जब यह मनुष्य की देह असहाय होने लगती है तब आप इस देह को त्याग कर अपने संसार में उसी प्रकार बने रहने के लिए पुनः एक नए शरीर के साथ आ जाते हैं । यह शरीर आपके द्वारा किये गए संसार निर्माण के अनुसार ही आपको प्राप्त होता है । इसमे कुछ भी विसंगति नहीं हो सकती । अतः यह कहना एकदम उचित है कि एक शरीर की मृत्यु हो जाना  यानि एक शरीर को त्याग देना मात्र ही संसार सागर से पार हो जाना नहीं है । हो सकता है नए शरीर के प्राप्त हो जाने पर आपका परिवेश बदल जाये,वातावरण बदल जाये परन्तु आपके द्वारा बनाया हुआ संसार कभी भी बदल नहीं सकता । इसका कारण क्या है ?
                            संसार चूँकि आपकी सोच का ही पैदा किया हुआ है अतः आपको जो नया शरीर मिलेगा वह आपकी सोच के द्वारा निर्मित किये हुए संसार के अनुसार और उसी परिवेश में मिलेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि आप चाहे कितना ही चीखते चिल्लाते रहें कि आपको संसार सागर के पार जाना है,आप पार हो ही नहीं सकते । आप अपनी सोच को तो रत्ती भर भी परिवर्तित नहीं करना चाहते और पार उतरने की खोखली बातें करते हैं । इससे तो अच्छा है कि आप अपने इस संसार में रहते हुए इसीका आनंद लें ,आनंद तो क्या खाक लेंगे क्योंकि इस सोच से निर्मित आपका संसार आपके इर्द गिर्द ऐसा ताना बाना बुनता है कि आप "आज" में कभी बने ही नहीं रहते । इस संसार में बने रहने के लिए व्यक्ति अपनी सोच से बाहर कभी निकल ही नहीं पाता । और सोच कभी भी "आज" को जीने की नहीं होती । सोच या तो आने वाले कल के लिए होती है या फिर बीते हुए कल की । "आज "को जीने के लिए किसी सोच की,किसी विचार की आवश्यकता नहीं होती है । सोच में जीने वाला,विचारों में जीने वाला व्यक्ति कभी भी "आज" में नहीं जी सकता और जो "आज" को नहीं जी सकता वह सदैव ही आनन्द से महरूम ही रहता है,वह आनंद कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
क्रमशः
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, July 24, 2014

संसार -२

                    इस प्रकार मैंने अपने लगभग सभी मित्रों से संसार के बारे में उनके विचार जानने चाहे और सबने उनके उत्तर तत्काल दे भी दिए । क्या ऐसा ही यह  संसार है जैसा कि वे समझते हैं?सभी मित्रों के उत्तर में एक समानता  थी जो आपने भी महसूस की होगी । सबने इस संसार को अपनी नज़रों से ही देखा है । हाँ,एक दम सही सोचा और अनुभव किया आपने । संसार को सबने अपने विवेकानुसार ही देखा है । संसार कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ता और  निंदा इस संसार की करते हैं । संसार कुछ भी नहीं है,कहीं भी नहीं है ,सिर्फ आपकी अभिव्यक्ति मात्र ही यह संसार है । जैसे आप दर्पण के सामने खड़े होकर अपना प्रतिबिम्ब देखते हो और उस प्रतिबिम्ब में स्वयं का होना देखते हो उसी प्रकार आपके विचार,आपकी मानसिकता ,आपकी सोच एक दूसरे के प्रति आदि बातें ही आपके इस संसार का निर्माण करती है । संसार को समझ लेना ही संसार से पार हो जाना है । संसार को समझे बिना ,उसको निन्दित करना और परमात्मा से उससे पार करने की प्रार्थना करना केवल किताबी बातें है ।
                               संसार सागर अथाह है अर्थात इसकी कोई थाह नहीं ले सकता । बहुत ही गहराई और विशालता लिए हुए है यह संसार । और हम इसी संसार सागर से पार होने की बात करते हैं ,अपने दम पर इसे जीत लेने का प्रयास करते हैं । क्या इसे पार कर जाना ,इससे जीत पाना इतना आसान है ? हाँ,इसे पार करने का प्रयास प्रायः सभी करते हैं परन्तु यह सभी प्रयास इसकी विशालता को देखते हुए बौने ही साबित होते हैं । इसे पार करने के लिए गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता होती है । किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु किया गया गंभीर प्रयास आपकी सफलता की आधारशिला है । आखिर इस संसार सागर को पार करने से क्या अभिप्राय है ? क्यों हम इस संसार सागर में रहना नहीं चाहते ? जब तक हम इस संसार को समझ नहीं लेते तब तक ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे ।
                   सबसे पहले हमें यह जानना और समझना होगा कि संसार सागर में आना और इसे पार कर लेना क्या है ?प्रायः हम इस संसार में शारीरिक रूप से प्रकट होने को ,अर्थात जन्म लेने को संसार में आना और शरीर को त्याग देना ,शरीर की मृत्यु हो जाने को ही संसार सागर से पार उतर जाना कह देते हैं । इस संसार में सृष्टि के प्रारंभ में प्रथम बार शरीर धारण कर जन्म लेना अवश्य ही इस संसार सागर में आना है परन्तु उस शरीर को त्याग देना,मृत्यु को प्राप्त हो जाना ही संसार सागर से पार चले जाना नहीं है । इस संसार सागर में सृष्टि के प्रादुर्भाव के साथ ही प्रथम बार शरीर के साथ आना अवश्य ही आपकी मर्जी से नहीं हुआ है परन्तु इसको पार कर जाना अवश्य ही आपकी मर्जी पर निर्भर है । हाँ,यह आपका अभी का शरीर ,आपका यह जन्म आपकी मर्जी से अवश्य मिला है परन्तु इस शरीर से मुक्ति के लिए और आगे भविष्य में और नए शरीर न मिले उसके लिए भी आपको प्रयास करने होंगे और वही वास्तव में इस संसार सागर के पार चले जाना होगा ।
क्रमशः
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Wednesday, July 23, 2014

संसार -१

                              संसार यहाँ पर सबसे ज्यदा निन्दित है । क्यों?अगर संसार इतना गलत है तो फिर परमात्मा ने मनुष्य को इस संसार में भेजा ही क्यों?सुबह से शाम तक हम इस संसार में  घूमते रहते हैं,इसी संसार में रहकर आजीविका चलाते हैं ,यहीं पर सब कुछ कार्य संपन्न करते है और अंत में इसी संसार की निंदा भी करते हैं । संसार की निंदा करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि आखिर यह संसार है क्या ? किसी बात को जाने पहचाने और समझे बिना उसकी प्रशंसा अथवा निन्दा करना सर्वथा अनुचित है । हममे से कितने ऐसे व्यक्ति हैं जो यह दावा कर सकते हैं कि हमने जान लिया है कि संसार क्या है ?यह प्रश्न जब मैंने अपने मित्रों से किया और उनके उत्तर जाने ,उन्हें आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ । मैं यह नहीं कह सकता कि उनके उत्तर सही हैं या गलत ? मैं सब कुछ आपके विवेक पर निर्भर करता है कि आप उनके उत्तर को किस प्रकार लेते हैं ।
               मेरे एक मित्र हैं जो व्यवसाय करते हैं । उनके अनुसार संसार एक दुकान की तरह है जहाँ खुलने पर खाते में रोकड़ जमां कितने हैं और रात को दुकान बंद हो जाने पर, रोकड़ लिखने के बाद जमां शेष कितने बचते हैं उसी अनुसार दुसरे दिन का व्यापार तय होता है । संसार में दुकान आपका मनुष्य जन्म है,दिन आपका जीवन काल है और लेनदेन आपके बुरे और अच्छे कर्म है । मृत्यु शाम को दुकान का बंद होना है और दूसरे दिन दुकान का खुलना पुनः मानव जन्म होना हैं । उसी अनुसार आपका भविष्य तय होता है । दुसरे मित्र  पैसे से एक वकील हैं । उनके अनुसार संसार एक न्यायिक व्यवस्था है । यहाँ पर जज आपकी आत्मा है,मनुष्य शरीर या किसी अन्य प्राणी के शरीर के रूप में जन्म लेना आपके मुक्कद्दमे का निर्णय है । मनुष्य जन्म में किये गए पाप कर्म आपके अपराध है ,पुण्य कर्म आपका अच्छा चाल चलन है जिसके आधार पर आपकी पाप कर्मों की सजा कम हो सकती है ।
                      मेरे तीसरे मित्र एक दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति हैं और शिक्षा के क्षेत्र में विशेषज्ञ भी । उनके अनुसार संसार है ही नहीं । जो कुछ भी यहाँ पर आपको दृष्टिगत होता है या अदृश्य है वह सब परमात्मा ही है । जो 'है' वह नहीं है और जो 'नहीं है' वह वास्तव में है । जो दृष्टिगत है अर्थात जिसे हम संसार कहते हैं  वह पाठशाला की तरह है ,इस पाठशाला में मनुष्य एक विद्यार्थी है और शिक्षक परमात्मा है । विद्यार्थी जब शिक्षा ग्रहण करते हुए सफलता अर्जित करते है तो शिक्षक उन्हें आगे की कक्षा में क्रमोन्नत कर देते हैं उसी प्रकार मानव जन्म में व्यक्ति लगातार या तो क्रमोन्नत हो सकता है या फिर उसी स्तर पर बना रह सकता है ।  जैसे ज्यादा उद्दंडता करने पर शिक्षक उस विद्यार्थी को कक्षा से निकाल बाहर करते हैं उसी प्रकार परमात्मा भी मनुष्य को बाहर करते हुए किसी अन्य प्राणी के रूप में उसे व्यक्त कर देते हैं ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, July 22, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-१२ -समापन किश्त

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                        स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज कहा करते थे-
                                    'है' सो सुन्दर है सदा,'नहीं' सो सुन्दर नाहीं ।
                                     'नहीं' को प्रकट देखिये,' है' सो दिखे नाहीं ॥
               जो यह भौतिक  संसार है,वह व्यक्त है और उस अव्यक्त के कारण है तथा इस कारण से ही यह सुन्दर नज़र आ रहा है । जिसकी यह रचना अर्थात संसार जिसकी रचना है जो हमें इतना सुन्दर और अर्थपूर्ण नज़र आ रहा है तो फिर क्षण भर के लिए कल्पना कीजिये कि इस संसार का,इस रचना का ,रचनाकार कितना अधिक सुन्दर और अर्थपूर्ण होगा । लेकिन इस संसार की भौतिक चकाचौंध ने हमारी दृष्टि ही खो दी है और हम इस संसार से आगे कुछ भी नहीं देख पा रहे हैं । यह चकाचौंध हमने ही पैदा की है,अपने मोह के वशीभूत होकर,अपनी तृष्णा को बरक़रार रखते हुए,अपनी कभी भी पूरी न होने वाली इच्छाओं को पालकर । ये सभी बंधन कारक हैं और यह चकाचौंध इन बंधनों के कारण ही है । बंधन चाहे हाथ पैरों का हो , चाहे दृष्टि का ,व्यक्ति असहाय होकर रह जाता है । परमात्मा का लाख लाख शुक्र है कि अभी भी कोई बंधन मस्तिष्क की क्षमता पर लग नहीं पाया है । जिस दिन व्यक्ति के मस्तिष्क पर बंधन लग जायेगा,समझ लेना मानव का विकास रूक चूका है और यह संसार और समस्त सृष्टि नष्ट होने के नजदीक है ।
                    मानव मस्तिष्क बंधन मुक्त है और इसी कारण से उसकी वैचारिक क्षमता प्रभावशाली है । कम से कम वह यह तो विचार कर ही सकता है कि उस अव्यक्त की यह व्यक्त रचना जब इतनी सुन्दर प्रतीत हो रही है तो हमें यह जानने का प्रयास तो करना चाहिए कि उस रचनाकार अव्यक्त की सुन्दरता कितनी अधिक होगी ।जब आपके पास कुछ देने के लिए होगा तभी तो आप किसी को कुछ दे पाएंगे । और आप फिर भी सब कुछ नहीं देंगे,जितना देंगे उससे कही अधिक अपने पास भी रखेंगे । ऐसा ही कुछ कुछ  वह अव्यक्त भी करता है । वह सारा अर्थ,सारी सुन्दरता इस संसार को ही नहीं दे देता ,इस व्यक्त में ही नहीं डाल देता  बल्कि उससे कहीं अधिक अपने पास रख लेता है । इसी लिए वह अव्यक्त,इस व्यक्त से कहीं अधिक सुन्दर और अर्थपूर्ण बना रहता है । 
                     स्वामीजी इसी लिए कहते हैं कि  यहाँ पर जो दिखाई देता है अर्थात व्यक्त है,वह सुन्दर नहीं है बल्कि जो दिखाई नहीं देता यानि जो  अव्यक्त है वही सुन्दर है । जो सुन्दर "है" वह अव्यक्त है और जो "नहीं" है वह व्यक्त है । यही सोच ,यही विचार जब मस्तिष्क में पैदा हो जायेगा उसी दिन आप अर्थपूर्ण से अधिक अर्थपूर्ण की यात्रा प्रारम्भ कर देंगे और पाएंगे की वास्तव में उस व्यक्त से यह अव्यक्त अधिक अर्थपूर्ण व सुन्दर है ।
                                ॥ हरिः शरणम् ॥

Monday, July 21, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-११

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                             मैं यह नहीं कहता कि बंधन सदैव ही अनुचित है बल्कि वह भी अर्थपूर्ण है । परन्तु मानव रुपी यंत्र का उद्देश्य किसी कम पर आकर अटक जाना नहीं है । जब हमें अधिक अर्थपूर्ण नज़र आ रहा है तो उस तरफ जाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए । मैंने ३-४ दिन पहले कहा था कि मंदिर जाना अर्थपूर्ण तो है परन्तु मंदिर जाकर वहां से न लौटना  अधिक अर्थपूर्ण है । नियमित रूप से मंदिर जाना इस सन्दर्भ में अर्थपूर्ण है कि आप इस बात में विश्वास करते हैं कि कोई शक्ति जिसका नाम आप कुछ भी ले सकते हैं ,वह शक्ति है और उसको याद करते हुए आप मंदिर जाते हैं । मंदिर जाने का रास्ता संसार से विमुख होने का रास्ता है । मंदिर जाकर वापिस संसार में लौट कर पूर्ववत सभी कार्यों और भौतिकतावाद में सलग्न हो जाना आपके मंदिर जाने के महत्त्व को ही कम कर देता है। मंदिर से आप वापिस संसार में व्यक्त के रूप में प्रदर्शित होते हैं और सांसारिक क्रियाकलापों में रत होकर व्यक्त ही बने रह जाते हैं । जबकि होना यह चाहिए कि मंदिर जाकर आप संसार में वापिस भौतिक रूप से तो व्यक्त होकर लौटें परन्तु आत्मिक तौर पर संसार से अव्यक्त हो जाएँ,तभी मंदिर जाने की सार्थकता है ।
                        इस सम्बन्ध में मुझे एक कहानी याद आ रही है । एक व्यवसायी नियमित रूप से मंदिर जाता था और वापिस लौटने पर पाता कि उसका लड़का दूकान के लिए जा चूका है । व्यापारी अपने दैनिक कार्य से निवृत होकर दुकान जाता और लड़के को कहता कि यहाँ आने से पहले तूँ भी मंदिर होकर आया कर । लड़का हंस कर टाल देता और कहता कि मैं अभी मंदिर नहीं जाऊंगा और कभी अगर गया भी तो वापिस नहीं लौटूंगा । इस प्रकार कई साल बीत गए । प्रतिदिन व्यापारी अपने पुत्र को मंदिर जाने की कहता और पुत्र भी सदैव एक ही जवाब देता कि मैं जिस दिन मंदिर जाऊंगा,वापिस लौटूंगा नहीं ।
                       एक दिन जब व्यापारी मंदिर से घर पर लौटा तो देखता है कि आज उसका पुत्र दूकान नहीं गया है । उसने पुत्र से इसका कारण पूछा । पुत्र ने उत्तर दिया कि वह आज मंदिर जायेगा और वापिस नहीं लौटेगा । व्यापारी हंस दिया । उसने सोचा कि यह मजाक कर रहा है । व्यापारी पुत्र नहाकर तैयार हुआ और घर के सभी बड़ों को प्रणाम कर घर से मंदिर जाने के लिए निकल पड़ा । व्यापारी ने भी चाबियाँ हाथ में ली और दूकान के लिए निकल पड़ा । दो घंटे बाद व्यापारी के पास एक व्यक्ति आता है और बताता है कि आपका पुत्र तो मंदिर में देह त्याग चूका है । व्यापारी परेशान सा मंदिर की तरफ दौड़ा । मंदिर में वह देखता है कि उसका पुत्र परमात्मा की मूर्ति के समक्ष दण्डवत हुए लेटा हुआ  है और प्राण उसमे नहीं है । अब व्यापारी के समझ मे आया कि उसने मंदिर से न लौटने का सत्य ही कहा था ।
                      व्यापारी का मंदिर जाकर वापिस लौटना मंदिर जाने की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह था और उसके पुत्र का मंदिर जाना सार्थक था । मंदिर जाना इस लिए अर्थपूर्ण है क्योंकि आप परमात्मा में विश्वास रखते है । मंदिर जाकर वहां से लौटना अधिक अर्थपूर्ण है क्योंकि आप परमात्मा में ही लीन होना चाहते हैं । परमात्मा अव्यक्त है इसलिए अधिक सुन्दर और अर्थपूर्ण है ।
क्रमशः
                                              ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, July 20, 2014

व्यक्त-अव्यक्त | -१०

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                 मन में मोह को प्रायः हम समझ नहीं  पाते ,इस कारण से हम संसार से मुक्त होने का रास्ता  भी ढूंढ  नहीं पाते हैं । मन कभी भी नहीं चाहेगा कि आप नशा करने की लत को छोड़ दें । वह  नहीं चाहता कि जिस  में आपकी आसक्ति है आप उससे दूर होने का प्रयास  करें । इसीलिए संतजनों ने प्रत्येक स्थिति में मन  पर नियंत्रण करना आवश्यक बताया है । मन पर नियंत्रण रखना बहुत ही मुश्किल भी है और आसान भी । मुश्किल तो इस हिसाब से कि बिना इच्छाओं पर नियंत्रण स्थापित किये मन पर काबू नहीं पाया जा सकता और इच्छाओं पर नियंत्रण कोई विरला ही पा सकता है । आसान इस हिसाब से कह सकता हूँ कि जो मन मांगे आप उसके ठीक उलट चलें । इच्छाएं कभी भी और किसी की भी पूर्ण नहीं हुई है ,यह हर समय ध्यान रखें ,मन पर नियंत्रण अपने आप हो जायेगा ।
                   धन से मोह के बारे में हम पहले काफी बात कर चुके हैं । धन को भोगा जा सकता है ,दान किया जा सकता है और अगर दोनों तरह से इसका उपयोग नहीं किया जाये तो धन  का नाश होना अवश्यम्भावी है ।  जब धन की  यही गति होनी है ,तो फिर धन में मोह रखना किस काम का ? यह जब किसी भी व्यक्ति की समझ में मजबूती के साथ आकर आत्मसात हो जायेगा तभी धन से बंधन भी टूट जायेगा । एक एक करके बंधनों के टूटने की शुरुआत ही मुक्ति के मार्ग पर ,व्यक्त से अव्यक्त होने की राह पर प्रथम कदम रखना होगा । धन से विमोह होना ही प्रथमतः आवश्यक है ।
                     जन से मोह छूटना सबसे अधिक मुश्किल होता है । व्यक्ति इस संसार में अपने परिवार के साथ जब बरसों गुजार देता है तब परिवार के सदस्यों के साथ लगाव पैदा हो जाना स्वाभाविक है ।इस लगाव को हम गलत ढंग से ले लेते हैं । जैसे  बच्चे के साथ माँ ,दादा,दादी,पिता आदि निकट के रिश्तेदारों का लगाव होता है और  वे सब समझाते हैं कि बच्चे का लगाव हमारे साथ हैं । जबकि बच्चे का लगाव तात्कालिक होता है जबकि बड़ों का स्थाई । इस स्थाई लगाव को ही मोह कहा जाता है । मेरे पास गाँव से एक बुजुर्ग अपने पोते को कभी कभी ईलाज दिलाने लाते थे । मैं हर बार देखता कि बच्चा अपने दादा के कंधे पर सवार हुआ आता , जब कि बच्चे की उम्र करीब ५-६ साल थी । मैं उस बुजुर्ग को पूछा करता कि आप इसको कंधे पर उठाये क्यों आते हैं?उनका जवाब होता कि इस बच्चे का मेरे  प्रति बहुत अधिक लगाव है । यह मेरे पास ही सोता ,रहता और खाता है । मेरे बिना यह एक पल भी नहीं रह सकता । इसलिए यह यहाँ आने पर कंधे पर उठाने की जिद्द करता है और मैं उसके लगाव को देखते हए ऐसा करता हूँ । मैंने पूछा कि जिस दिन आप नहीं रहेंगे उस दिन इस बच्चे का क्या होगा ? वे बड़े ही देशी अंदाज़ में कहते कि तब यह रो रोकर पागल हो जायेगा । मैं उन्हें समझाता  कि ऐसा कदापि नहीं होगा परन्तु वे इसे मानने को तैयार ही नहीं थे । अचानक एक दिन वही बच्चा अपने पिता की अंगुली पकडे,पैदल चलते हुए मेरे पास ईलाज हेतु आया । उसके पिता के सिर पर केश नहीं थे । मैं समझ गया कि इस बच्चे  के दादा का निधन हो चूका है । मैंने उससे पूछा  कि इसके दादा कब  गुजरे ? उसने कहा २० दिन हो गए । मैंने कहा कि उनकी मृत्यु के बाद बच्चे का बुरा हाल हुआ होगा?उन्होंने इंकार किया और कहा कि दादा के जाते ही यह तो अपनी मां के पास रहने लगा । इस बच्चे पर तो दादा के जाने का असर ही नहीं हुआ ।
                     इस घटना से यह पता चलता है कि हम मोह ग्रस्त होते हैं ,न कि बच्चे । बंधे हुए हम हैं ,अपने बच्चों के साथ ,न कि बच्चे हमारे साथ। इसी कारण से हमारे बुढ़ापे में जब बच्चे हमारी तरफ ध्यान नहीं दे पाते तो हमें उनका व्यवहार उपेक्षा का महसूस होता है । इसका कारण एक मात्र यही है कि हम उनके साथ बंधे हुए अभी भी है जबकि वे हमसे बंधे हुए नहीं है ,और यह बंधन हमें  ही तोड़ना होगा । बधन हमें परमात्मा से दूर रखता है ।  बंधन से मुक्त होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप अपने  प्रिय से लड़ झगड़ कर सम्बन्ध ही समाप्त कर लें । बंधन मुक्त होने का अर्थ है उस सम्बन्ध में आसक्ति न रखें । बंधन का सम्बन्ध तो अर्थपूर्ण ही है परन्तु जब आप बंधन से मुक्त हो जायेंगे तब वह आपको बंधन से अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर लगेगा । और जो अधिक अर्थपूर्ण है वह महत्वपूर्ण तो होगा ही ।
क्रमशः
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥        

Friday, July 18, 2014

व्यक्त-अव्यक्त | -९

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

           "  यह संसार हमें अपने में से बाहर निकलने ही नहीं देता । "यह प्रायः आम व्यक्ति का कहना होता है । मुझे तो यह कहना तर्कसंगत बिलकुल भी नहीं लगता । मैं अगर आपके यहाँ आज आता हूँ तो क्या आप मुझे वापिस जाने का कहते हैं या मैं स्वयं ही आपको कहता हूँ कि अब मुझे वापिस जाना है । मैं स्वयं ही कहता हूँ ना । इसका कारण है कि हो सकता है कि आपने मुझे अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया हो,परन्तु आपके यहाँ आना हुआ तो मेरी इच्छा से ही । जब मैं आया अपनी मर्जी से हूँ तो फिर मैं अपनी इच्छा होते ही चला जाऊंगा ,आप मुझे अधिक समय तक रोक भी नहीं सकते । मेरे पास कई व्यक्ति आते है और कहते है कि साहब, मेरा पान  मसाला खाना छुड़वा दो । मैं हमेशा सबको एक ही जवाब देता हूँ कि क्या पान मसाला खाना मैंने शुरू करवाया था ?अरे,जिसने पान मसाला खाना पकड़ा था वही तो उसे खाना छोड़ेगा । मेरी भूमिका  एक प्रेरक की हो सकती है । मैं उसे लाख कहूँ कि पान मसाला खाना छोड़ दे,वह बिलकुल भी नहीं छोड़ेगा अगर उसकी आंतरिक इच्छा नहीं होगी । इसी प्रकार संसार में हम अपनी मर्जी से आये हैं और हम अपनी इच्छा से ही उसे छोड़ सकते है । कोई अन्य मात्र एक प्रेरक हो सकता है संसार को छुटाने वाला नहीं ।
                         मोह  ही संसार को त्यागने में सबसे बड़ा बाधक है । मोह  आपका किसी में भी हो सकता है । धन,जन और मन को मोहकारक कहा जाता है । मन में भी मोह? यह कैसे हो सकता है ? धन और जन में तो मोह हो जाना समझ में आता है । मन आत्मा को शरीर के साथ जोड़ने की एक कड़ी है और इस मन में पैदा हुआ मोह ही व्यक्ति को संसार से मुक्त नहीं होने देता । आप मन की सुनते हो, यही आपका मन के प्रति मोह प्रदर्शित करता है । तभी कबीर को भी कहना पड़ता है -
                                       मन के मते न चालिए ,मन के मते अनेक ।
                                      जो मन पर असवार हो,वो  साधु कोई एक ॥
                    मन की अधीनता आपको अर्थपूर्ण लगती है । इस मन में मोह होने कारण आप यहाँ अव्यक्त की ओर  दृष्टि ही नहीं डालते हैं । इसी कारण आप इस व्यक्त संसार को ही अर्थपूर्ण मान बैठते हैं ,जबकि जो अव्यक्त है वह इस व्यक्त से भी अधिक  सुन्दर है ।
क्रमशः
                               ॥ हरिः शरणम् ॥   

Thursday, July 17, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-८

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

               भौतिकता के इन्हीं बंधनों में एक बंधन है परिवार का मोह । हम चाहे कितना भी कहते हों कि परिवार और उसके सदस्यों से किसी भी प्रकार का मोह नहीं है परन्तु सब असत्य है । अगर आपका मोह परिवार के साथ नहीं है तो फिर हर समय मस्तिष्क में उसी का ख्याल क्यों बना रहता है ? मोह इतना अधिक होता है कि  वह एक दिन बंधन बन जाता है । यह बंधन ही व्यक्ति के व्यक्त से अव्यक्त होने में बहुत बड़ी बाधा है। परिवार से प्रेम करना कदापि अनुचित नहीं है ,प्रेम तो साक्षात परमात्मा है । परन्तु दुर्भाग्य है हमारा कि हम प्रेम और मोह में अंतर नहीं कर पा रहे हैं । हम अपने मोह को प्रेम का नाम दे देते हैं । जबकि प्रेम और मोह में बड़ा भारी अंतर है । मोह एक बंधन है जबकि प्रेम मुक्ति । मोह आपको किसी से बांधता है जबकि प्रेम आपको मुक्त करता है । मोह सांसारिकता का लक्षण है और प्रेम आध्यात्मिकता का । मोह आपको सदैव ही और प्रत्येक स्थान पर व्यक्त करता है जबकि प्रेम कभी भी दिखाई नहीं देता बल्कि अनुभव किया जाता है । प्रेम सदैव ही अव्यक्त होता है उसे कभी भी व्यक्त नहीं किया जा सकता । अगर कोई आपसे कहता है कि वह आपसे प्रेम करता या करती है तो वहां प्रेम की बात नहीं है,किसी और को ही प्रेम के नाम से व्यक्त किया जा रहा है । प्रेम तो सदैव ही अव्यक्त है और इसी कारण से प्रेम को परमात्मा कहा गया है ।
                              मोह,व्यक्त है इस लिए अर्थपूर्ण भी है । मोह के चक्रव्यूह से जरा बाहर निकल कर प्रेम मार्ग पर अग्रसर हों । आपको प्रेम ,मोह से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर महसूस होगा । इसीलिए वेद की यह उक्ति एकदम सटीक है । हम उसे ख़ारिज नहीं कर सकते । हम सांसारिकता को ही केवल अर्थपूर्ण समझे बैठे हैं । आध्यात्मिकता,सांसारिकता से भी अधिक अर्थपूर्ण और सुन्दर है । हम संसार में रहते हुए इसमें  इतने  अधिक आसक्त  हो चुके हैं कि हमें यहाँ से दूर हटना भी अप्रिय लगता है । किसी बंद कोठरी में सूर्य की किरणे जब प्रवेश करती है तो बाहर किसी सुन्दर वातावरण होने का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है । परन्तु इस सुन्दर वातावरण को आत्मसात करने के लिए इस संसार रुपी  कोठरी से बाहर आने की यात्रा तो स्वयं को ही प्रारम्भ करनी होती है ।एक बार बाहर आ गये तो फिर उस कोठरी में लौटने का विचार भी आपके मस्तिष्क में जन्म नहीं लेगा । अगर आप सूर्य किरणों को कोठरी में बैठे हुए ही निहारते रहोगे तो आपके लिए वह कोठरी ही अर्थपूर्ण बनी रह जाएगी ।क्योंकि वही आपके लिए व्यक्त और अर्थपूर्ण है ।
क्रमशः
                                     ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, July 16, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-७

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

          भगवान श्रीराम मानस में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
                  निर्मल मन जान सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
अर्थात जिसका मन निर्मल होगा वही मुझे प्राप्त कर सकेगा ,मुझे संसार के छल,कपट और धोखा देना कदापि स्वीकार्य नहीं है । इस संसार में बिना निर्मल मन का व्यक्ति एक मशीन के समान है जिसका कार्य मात्र एक ही होता है ,जिसके लिए उसे बनाया गया है । परन्तु मानव तो उस मशीन से भी निम्न  दर्जे का यंत्र होता जा रहा है जिसे यह भी पता नहीं है कि उसे यह मनुष्य शरीर रुपी यंत्र किसलिए मिला है ?
                                       व्यक्ति अपने जीवन को यंत्रवत बना डालने के लिए स्वयं ही जिम्मेदार  है । यह उसका यंत्रवत व्यवहार भौतिक संसार के लिए तो आवश्यक है परन्तु आध्यात्मिकता में इस तरह के व्यवहार की दो कौड़ी की कीमत भी नहीं है । अगर  भौतिक संसार में यंत्रवत कोई कार्य नहीं हो तो यहाँ की व्यवस्था  पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है । जैसे यातायात और सड़क पर चलने के नियम  है । हम उन  नियमों की यंत्रवत ही पालना करते हैं । अगर हम इन नियमों की पालना नहीं करें तो किसी भी भयंकर दुर्घटना के कभी भी शिकार हो सकते हैं । हम इन नियमों को इतना आत्मसात कर चुके हैं कि हम सदैव अपनी गाड़ी को सड़क के बांयी ओर ही चलाते है । दूर से ही चौराहे की लाल बत्ती देखकर गाड़ी की गति को धीरे करते हुए वहां पर रोक लेते हैं । यह सब एक प्रकार का यंत्रवत व्यवहार ही है । इसी प्रकार ट्रेन के समयानुसार ही हम रेल्वे  स्टेशन पहुंचते हैं । हम जानते हैं कि जरा सी देर ही हमें अपनी यात्रा से वंचित कर सकती है । ऐसी स्थिति में हमें यंत्रवत होना ही पड़ता  है । भौतिक संसार को सुगमता से चलने के लिए कुछ नियम कायदे आवश्यक होते है और उन नियम कायदों को अपने जीवन में ढाल लेना ही व्यक्ति को यंत्रवत बना देता है । यह सब व्यक्त की महिमा ही है । नियमानुसार चलने पर ही यह  व्यक्त संसार हमें अर्थपूर्ण लगता है । ज्यों ही हम कोई भी नियम तोड़ते हैं यह संसार अर्थहीन हो जाता है ।
                                 आध्यात्मिकता में किसी भी प्रकार का कोई नियम लागू नहीं होता । इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यवहार भी कभी भी यंत्रवत नहीं हो सकता ।  आध्यात्मिक व्यक्ति न तो संसार के कोई नियम तोड़ता है और न ही किसी के द्वारा तोड़े जाने पर उसे दुःख होता है । वह अपने आप में ही इतना मस्त रहता है कि कोई भी बंधन उसे बांध ही नहीं सकता । जो व्यक्ति भौतिकता में रमे हुए हैंउनके लिए सब कुछ बंधन है और उनके लिए ये बंधन अर्थपूर्ण और स्वीकार्य भी है । बंधता व्यक्ति स्वयं है ,कोई अन्य उसे बांध ही नहीं सकता । और जब व्यक्ति इतने सरे बंधनो में जकड जाता है तब उसे ये बंधन एक दिन असह्य हो जाते हैं । प्रायः लोग इन बंधनों में बंधे रहना ही पसंद करते है और असह्य होने के बाद भी उन्हें ढोते रहते हैं । परन्तु कोई व्यक्ति जब इन बन्धनों से ऊपर उठकर,इनको एक सिरे से नकारते हुए , इनकी जकड से छूटने का प्रयास प्रारम्भ करता है ,तभी आध्यात्मिकताका जन्म होता है । यहीं से व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा भी प्रारम्भ होती है ।
क्रमशः
                                 ॥ हरिः शरणम् ॥
                          

Tuesday, July 15, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-६

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                      करमा की कहानी को ही आगे लिए चलते हैं । कल्पना करें कि जब करमा का बापू वापिस लौटा होगा तो क्या हुआ होगा ? कुछ यह कहानी इस प्रकार आगे बढती है कि करमा का बापू उसे पूछता है कि क्या उसने भगवान को भोजन कराया था ? करमा ने कहा-"हाँ । और बापू तुम्हारा भगवान तो बड़ा ही भूखा निकला । मैं जितना उसके लिए बनाती उसे तुरंत ही खा डालता । अगली बार जब मैं उसके लिए और अधिक पकाती,फिर भी वह जूठा कुछ भी नहीं छोड़ता । "उसके बापू को बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है ? उसने अपने सामान घर को देखा । वास्तव में खाने पीने का सामान कम हो चला था । उसने सोचा ऐसा कैसे हुआ ?वह यह मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि मैं इतने दिनों से भगवान को भोजन दे रहा हूँ,आज तक उसने उसे चखा तक नहीं ,फिर वह करमा के हाथ का भोजन कैसे कर लेता है? उसने वास्तविकता जानने के लिए एक बार उसने करमा को फिर से कहा कि वह कुछ समय के लिए बाहर जा रहा है । भगवान को दोपहर का भोग लगा देना । शाम तक वह वापिस लौट आएगा ।
              करमा का तो फिर वही अंदाज़ । दो व्यक्तियों का भोजन पकाया और भगवान के हिस्से का भोजन मूर्ति के सामने परोस कर रख दिया । आज उसने बाजरे का खिचड़ा बनाया था । बापू ने तो बाहर जाने का बहाना किया था । वह तो दीवार की ओट से सबकुछ देख रहा था । करमा ने उसी अंदाज़ में सांवरे को बुलाया और जल्दी से भोजन करने को कहा । भगवान कृष्ण रूप में व्यक्त हुए और भोजन कर अव्यक्त हो गए । बापू की आँखों से आंसू छलक पड़े । उसको महसूस हुआ कि वह जिसको भक्ति समझ रहा था, वह तो मात्र एक ढकोसला थी । भक्ति तो करमा की थी जो उसने अपने बापू तक को परमात्मा के दर्शन करा दिए । और करमा की भक्ति भी ऐसी भक्ति जिसके बारे में करमा को एहसास भर भी नहीं था ।
                        अगर देखा जाये तो करमा ने कोई कर्मकांड नहीं किया अपनी जिन्दगी में,परमात्मा के प्रति । लेकिन उसका निर्मल मन,भोलापन ही उसे परमात्मा तक ले गया । आप कहेंगे कि मैं कर्मकांड का इतना विरोध क्यों करता हूँ ?  मैं किसी भी कर्मकांड का विरोधी कतई  नहीं हूँ । मैं प्रत्येक उस भावना का विरोधी हूँ जिसको ध्यान में रखकर कर्मकांड किये जाते हैं । कर्मकांड के पीछे छुपी भावना ही उसे आपकी आदत बना देती है । और भगवान की  आराधना को आप निश्चित समय और स्थान पर बांध नहीं सकते । जब पूजा एक बंधन बन जाती है तब व्यक्ति भगवान से दूर होता  जाता है । पूजा बंधनमय होते ही कर्मकांड बन जातीु है । कर्मा के लिए परमात्मा को भोग लगाना कर्मकांड के रूप में एक बंधन नहीं था बल्कि उसकी ,परमात्मा की आराधना थी और इसी लिए परमात्मा ने करमा की पूजा स्वीकार की न कि उसके बापू द्वारा किये जा रहे कर्मकांड को ।
क्रमशः
                                  ॥ हरिः शरणम् ॥
             

Monday, July 14, 2014

व्यक्त-अव्यक्त - ५ |

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

              केवल मात्र तीर्थ यात्रायें या माला फेरना अथवा नित्य पूजा करना मात्र ही आपको व्यक्त से अव्यक्त कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है । यह सब कार्य तो आप आज के आधुनिक यंत्रों से भी कर सकते हैं । आप किसी भी तीर्थ को नेट पर जाकर देख सकते है । व्यावसायिक व्यक्तियों ने तो आजकल ओंन लाइन पूजा जिसे इ-पूजा कहते हैं कि सुविधा भी उपलब्ध करा दी है । इसी प्रकार आप एक सीडी चलाकर भी भगवान को स्मरण करने का आधुनिक तरीका काम में ले सकते हैं । यह सब क्रियाकलाप उन लोगों को कुछ संतुष्टि अवश्य ही प्रदान करते है जिनका पूजा करना और माला फिराना एक नियमित कर्म बन गया है । परन्तु क्या इस  संतुष्टि को आप आत्म संतुष्टि कह सकते हैं । नहीं न । क्योंकि यह संतुष्टि आपको दिग्भ्रमित कर सकती है परन्तु वास्तविक संतुष्टि नहीं दे सकती । प्रातःकाल लोग  प्रायः मंदिर जाने की परम्परा का निर्वाह करते हैं । परन्तु क्या ऐसे लोग वास्तव में  मंदिर जाते हैं ? मेरा मानना है कि मंदिर जाना जिंदगी में सिर्फ एक बार होता है क्योंकि एक बार जो मंदिर चला गया उसका वापिस संसार में लौटना असंभव है । और जो एक बार मंदिर से लौट आता है वह प्रत्येक बार मंदिर से लौटेगा ही । उसका मंदिर जाना कभी भी सार्थक नहीं होगा ।
                     राजस्थान का ही एक दृष्टान्त देना चाहूँगा । यहाँ एक महिला भक्त करमा बाई बड़ी प्रसिद्ध  है । करमा बाई के पिताजी नियमित रूप से भगवान को भोजन अर्पित करके ही भोजन ग्रहण किया करते थे । एक बार किसी आवश्यक कार्यवश उन्हें किसी दूसरे गाँव जाना पड़ा । समस्या यह पैदा हुई कि उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोजन कौन देगा ?करमा बड़ी ही सीधी साधी और भोली भाली कन्या थी । परिवार में उसके अलावा कोई अन्य सदस्य भी नहीं था जिसे उसका बापू भगवान को भोग लगाने की जिम्मेदारी देता । उसने करमा को यह जिम्मेदारी दी और गाँव चला गया । करमा ने अपने लिए भोजन बनाया और भगवान् के लिए भी । उसने भोजन करने से पहले भगवान की मूर्ति के सामने भोजन की थाली रख दी और उनके द्वारा भोजन ग्रहण किये जाने का इंतजार करने लगी । थोड़ी थोड़ी देर में देख लेती परन्तु भोजन तो जस का तस पड़ा था । उसने भी जिद्द करली कि जब तक भगवान भोजन नहीं करेंगे तब तक वह भी भूखी बैठी रहेगी । अचानक उसे स्मरण हुआ कि बापू भगवान् के आगे पर्दा लगाते थे । उसको और कुछ सुझा नहीं अपने लहंगे का ही पर्दा कर दिया । ऐसी जिद्द देखकर उस अव्यक्त परमात्मा को भी व्यक्त होना पड़ा, उन्हें शरीर रूप में आना ही पड़ा और करमा के हाथ का भोजन खाना पड़ा ।
                  सुनने वाले के लिए यह एक कहानी मात्र हो सकती है परन्तु इसमे भी एक सन्देश छुपा है । करमा का मन एक दम निर्मल था और निर्मल मन ही अव्यक्त को व्यक्त और  व्यक्त को अव्यक्त कर देने की क्षमता रखता है ।
                      मन ऐसा निर्मल करो,जैसे गंगा नीर ।
                     पाछे पाछे हरि  फिरे ,कहत कबीर कबीर ॥
क्रमशः
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, July 13, 2014

व्यक्त-अव्यक्त - ४ |

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 

                                    जब व्यक्ति भौतिकता से ऊपर उठ जाता है तभी वह इस उक्ति का निहितार्थ समझ पाता है । परमात्मा आपके निकट से भी अति निकट है और आपकी सोच से जितना दूर है उससे भी अधिक दूर है । यह सब कुछ आपकी सोच पर निर्भर  करता है कि आप परमात्मा को अपने कितना पास या आपसे  कितना दूर समझते हैं । भौतिकता में आसक्त व्यक्ति से वह अत्यधिक दूर है और आध्यात्मिक व्यक्ति के अति निकट । भौतिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा व्यक्त से अव्यक्त होने की ही एक यात्रा है । आप कहीं पर उपस्थित रहते हैं तो इस भौतिक संसार के लिए आप व्यक्त हैं परन्तु आप उस स्थान पर उपस्थित रहते हुए भी व्यक्त होते हुए भी सभी के लिए अव्यक्त हो सकते हैं । आप जिस समय उस वातावरण से मानसिक रूप से अपने आपको अलग कर लेते हैं तभी आप स्वयं के लिए भी उस वातावरण,उस स्थान से अव्यक्त हो जाते हैं । आप भौतिक रूप से अगर उस वातावरण से अलग हो जाते हैं और फिर भी अगर आपका मन उस वातावरण को याद करता है,उस स्थान के बारे में ही सोचता रहता है तो फिर आप उस स्थान से अव्यक्त होते हुए भी उस स्थान पर व्यक्त हैं ।
                                हो सकता है कि आप इस बात को थोडा कम समझ पाए हों।,इसलिए इसे थोडा और स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ । सनातन धर्म ही नहीं संसार के प्रायः सभी धर्मों में तीर्थ यात्रा का बड़ा  महत्त्व है । तीर्थ यात्रा  करना व्यक्त से अव्यक्त की यात्रा है, चाहे यह आंशिक रूप से ही हो । मैंने सनातन धर्मानुसार कई तीर्थ यात्रायें की है और प्रतिवर्ष करता ही रहता हूँ । प्रायः मेरी ये यात्रायें एकाकी यात्रायें होती है ,परन्तु कभी कभी समूह में भी जाना होता है और कभी कभी तीर्थ स्थान पर पहुँच कर सामूहिक चर्चाएँ हो  जाती है । मैंने वहां देखा है कि प्रायः लोग फोन पर वहीँ से अपना व्यवसाय संचालित करते रहते हैं और महिलाएं ज्यादातर बैठकर अपने परिवार की बातें करती रहती हैं । यह व्यक्त से अव्यक्त होने की यात्रा नहीं हो सकती । आप तीर्थ स्थान पर भौतिक रूप से उपस्थित होते हुए भी अपने व्यवसाय या परिवार के साथ मानसिक रूप से व्यक्त है । फिर ऐसी तीर्थ यात्रा का महत्त्व क्या रहा ? इससे तो अच्छा यह रहता कि आप व्यावसायिक स्थल पर रहते हुए बेहतर तरीके से व्यवसाय संचालित करते या महिलाएं घर-परिवार के  साथ बैठकर अपनी व्यथाऐं कहती,परिवार को संभालती या बच्चों की देखभाल करती । यही कारण है कि आजकल जिस प्रकार लोग तीर्थ  यात्रायें करते हैं वे सब अर्थहीन होती जा रही है । व्यक्ति तीर्थ स्थान पर जाकर भी संसार  से विमुख होकर अपने भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है । फिर ऐसी तीर्थ यात्रा का औचित्य भी क्या है?
क्रमशः
                                      ॥ हरिः शरणम् ॥
                             

Friday, July 11, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-३

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 
                                 
                                                  अव्यक्त जब व्यक्त होता है तब क्या कारण है कि वह कम अर्थपूर्ण हो जाता है ?अव्यक्त सदैव ही अधिक सुन्दर और अर्थपूर्ण होता ही है । एक सफ़ेद कोरे कागज को देखिये , जिस पर कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। अब उस कागज पर पेंसिल से कुछ भी लिख डालिए;चाहे एक पतली सी लकीर ही खींच डालिए और देखिये कि कागज पहले अधिक सुन्दर लग रहा था या अब । निःसंदेह पहले वाले कोरे कागज में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं थी,वह सुन्दर भी था और अर्थपूर्ण भी । एक पतली रेखा खींचते ही वह अर्थपूर्ण तो हो गया लेकिन एक निश्चित अर्थ के साथ, एक निश्चित सीमा तक और साथ ही पहले कोरे कागज की तरह सुन्दर भी नहीं रहा । यही कारण है कि व्यक्त है वह तो अर्थपूर्ण है ही परन्तु जो अव्यक्त है वह उससे भी अधिक सुन्दर और अधिक अर्थपूर्ण है ।
                          आपके मन में क्या है,जब तक अव्यक्त है तब तक वह सुन्दर और अर्थपूर्ण है । प्रत्येक व्यक्ति आपके मन के विचार जानने को उत्सुक रहता है । उसके दिमाग में आपके अव्यक्त विचारों के बारे में बड़ी ही सुन्दर कल्पनाएँ होती है । वह सोचता है कि आपके अव्यक्त विचार न जाने कितने अर्थपूर्ण होंगे । अव्यक्त विचार जब तक व्यक्त नहीं हो जाते तब तक अर्थपूर्ण और अधिक सुन्दर बने रहते हैं । परन्तु जब एक बार आपके यही विचार व्यक्त हो जाते हैं तब उन्हें सुनने वाले श्रोता अपने अपने अनुसार उनका विश्लेषण करते है जिस कारण से उनकी सुन्दरता और उनका अर्थ बदल जाते हैं । व्यक्त विचारों के अर्थ अव्यक्त विचारों की तुलना में कम सुन्दर हो जाते हैं ।
                            यह सब हम भौतिकता के दायरे में रहते हुए व्यक्त और अव्यक्त की व्याख्या कर रहे हैं ।लेकिन चाहे भौतिकता में व्यक्त-अव्यक्त पर चर्चा करें या आध्यात्मिकता के दायरे में आकर इसकी व्याख्या करें ,दोनों की व्याख्या में रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ने वाला । इस ब्रह्माण्ड का एक सिद्धांत है कि यहाँ जो कुछ भी है ,सब कुछ समान है । जो कुछ एक अणु में है वही सब कुछ विराट में भी है । अतः चाहे व्यक्त-अव्यक्त भौतिक रूप से हो या आध्यात्मिक रूप से ,वेद की यह उक्ति सब स्थान पर एक जैसी ही चरितार्थ होती है । भौतिक दायरे में रहते हुए इसलिए चर्चा पहले करनी पड़ी क्योंकि हमारी समझ भौतिकता की ही गुलाम है । जब हम संसार से परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं तब यही समझ व्यक्त-अव्यक्त के बारे में अधिक प्रगाढ़ होती जाएगी ।
क्रमशः
                               ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, July 9, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-२

जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो  अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है ,वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है । 
                                           व्यक्त का अर्थ है प्रकट होना और अव्यक्त का अर्थ है अदृश्य हो जाना । मनुष्य को व्यक्ति शब्द मिला ही इसी लिए है कि वह प्रकट है,वह व्यक्त है । मनुष्य व्यक्त होने से पहले अव्यक्त था अर्थात  वह इस संसार में दृश्यमान नहीं था । तो जब वह व्यक्त नहीं था तो क्या वह अव्यक्त था ? इस प्रश्न का जवाब मिलते ही यह व्यक्त-अव्यक्त की पहेली सुलझ जाएगी ।
                         इस प्रश्न का उत्तर हमें अपने से बाहर जाकर खोजने से नहीं मिलेगा बल्कि स्वयं के अंदर प्रवेश करने पर मिल जायेगा । अपने से बाहर सिर्फ यह भौतिक संसार है और भौतिकता केवल व्यक्त से सम्बंधित होती है । अव्यक्त से उसका दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता है । भौतिकता के अनुसार प्राणी का जन्म मात्र ही उसका व्यक्त स्वरुप है और शरीर की मृत्यु होना उस प्राणी का अव्यक्त हो जाना है । संसार में जितनी भी निर्जीव वस्तुएँ है ,क्या वे प्रकट या व्यक्त नहीं है ? नहीं,वे भी व्यक्त ही है  ।जब  एक पहाड़ को तोडा जाता है तब भी वह पत्थर के रूप में व्यक्त है और जब उसी पत्थर को पीसा जाता है तब वह मिट्टी के रूप में व्यक्त है । उस मिट्टी से जब मकान बनाया जाता है तब वह उस मकान के रूप में  व्यक्त है । ठीक इसी प्रकार जब मनुष्य के स्थूल शरीर की मृत्यु होती है तो वह किसी अन्य प्राणी या पुनः मनुष्य के रूप में सदैव ही व्यक्त ही रहता है ।  इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अव्यक्त होने या व्यक्त होने का सम्बन्ध कम से कम इस स्थूल शरीर की जन्म-मृत्यु से तो नहीं है ।
                        अब प्रश्न यह उठता है कि जब व्यक्त-अव्यक्त का सम्बन्ध इस शरीर के जन्म-मृत्यु से नहीं है तो फिर गीता में भगवान श्री कृष्ण ने ऐसे कैसे कह दिया कि सभी मनुष्य जन्म से पहले भी अव्यक्त थे और मृत्यु के बाद भी अव्यक्त हो जाने वाले हैं केवल बीच में ही प्रकट या व्यक्त होते हैं ,अतः हे अर्जुन ! तुम्हे इस बारे में किसी भी प्रकार के शोक करने की आवश्यकता नहीं है । इसके दो कारण  है । पहला कारण तो यह कि ऐसा गीता के प्रारम्भ में ही कहा गया है जब अर्जुन की मनोदशा अपने सगे -सम्बन्धियों की युद्ध के दौरान होने वाली संभावित मृत्यु को सोचकर ख़राब हो रही थी । उस कारण से भगवान को इस भौतिक शरीर की मृत्यु और जन्म का उदाहरण देकर ही समझाना पड़ा क्योंकि अर्जुन की बुद्धि इसी लायक थी । हालाँकि भगवान ने जन्म -मृत्यु के लिए शरीर का नाम नहीं लिया परन्तु श्री कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन इस शरीर की मृत्यु और जन्म के बारे में ही समझेगा । दूसरा कारण यह कि अर्जुन शुरुआत में चाहे इसको इस स्थूल शरीर के जन्म-मृत्यु के बारे में समझे परन्तु जब उसकी मनोदशा सही हो जाएगी  तब वह इस बात की गूढता को समझ लेगा । इसी प्रकार इस श्लोक की गूढता को भी वही व्यक्ति भली भांति समझ पाया है जिसकी मनोदशा इस भौतिक संसार के दायरे से बाहर निकल कर स्वयं के भीतर प्रवेश कर गई हो । जब भीतर जाकर स्वयं को जानने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी ,इस श्लोक का गूढ़ार्थ प्रकट होने लगेगा अन्यथा इसका भावार्थ भी सदैव अव्यक्त ही रहेगा ।
क्रमशः
                                                      ॥ हरिः शरणम् ॥   

Tuesday, July 8, 2014

व्यक्त-अव्यक्त |-१

 जो कुछ भी व्यक्त है,वह तो अर्थपूर्ण है ही;परन्तु जो अव्यक्त है वह उससे भी अधिकसुन्दर और अर्थपूर्ण है 
                                यह पवित्र ग्रन्थ वेद की एक उक्ति है । संसार के समस्त धर्म-ग्रंथो और साहित्य को खंगाल भी लिया जाय तो इतनी सुन्दर और सत्यता से परिपूर्ण कोई भी उक्ति कहीं भी नहीं मिलेगी । यही उक्ति अव्यक्त को व्यक्त से अधिक महत्वपूर्ण होने का अहसास कराती है । वास्तविकता में हम सभी व्यक्त को अधिक महत्त्व देते आये है परन्तु महत्त्व तो अव्यक्त का अधिक है ।बिना अव्यक्त के कुछ भी व्यक्त नहीं हो सकता । ऐसे में महत्वता अव्यक्त की व्यक्त से अधिक हुई है ।व्यक्त को मनुष्य जन्म से जोड़ता है और मृत्यु होने को अव्यक्त हो जाने से । परन्तु यह व्यक्त-अव्यक्त केवल इतने से शब्द मात्र ही नहीं है । ये शब्द बड़े  ही सारगर्भित है । इसको समझने के लिए इन शब्दों की गहराई में उतरना पड़ेगा ।
                             गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                       अव्य्क्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
                                        अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना ॥ गीता २/२८|॥
अर्थात,हे अर्जुन ! सम्पूर्ण  प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं ,केवल बीच में ही प्रकट होते हैं;;फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
                              गीता में भगवान श्री कृष्ण केवल बीच में ही अव्यक्त से व्यक्त होना बताते हैं । यह जन्म से पहले,जन्म के बाद और बीच क्या है ? इसका उत्तर जानने के लिए हमें यह जानना होगा कि जन्म क्या है ? जन्म को जानने पर ही हम जन्म से पहले या जन्म के बाद या बीच के काल अर्थात समय को परिभाषित कर सकते है ।आम बोलचाल के अनुसार जन्म वह सीढ़ी है जब प्राणी इस संसार में भौतिक शरीर के साथ अपना प्रथम कदम रखता है और मृत्यु इस जीवन का अंतिम सोपान है जहाँ से उसका इस संसार से उसके भौतिक शरीर का नाता समाप्त हो जाता है । परन्तु क्या वास्तव में जन्म और मृत्यु को सिर्फ इतने से ही परिभाषित किया जा सकता है ? साधारण व्यक्ति के अनुसार जन्म-मृत्यु मात्र इतना ही है परन्तु वास्तव में ऐसा इस सोच से कहीं बहुत अधिक है ।
                             इस ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव होने को ,इस ब्रह्माण्ड के निर्मित होने से पूर्व को हम जन्म से पहले और ब्रह्माण्ड की समाप्ति होने के बाद को हम मृत्यु के बाद होना कह सकते हैं । इस ब्रह्माण्ड के बने रहने को हम बीच का काल कह सकते हैं । इस बीच के काल में ही प्राणी अव्यक्त से व्यक्त होते हैं । भौतिक शरीर को धारण करना और उस शरीर को त्याग देना तो एक प्रकार से व्यक्त की ही विभिन्न अवस्थाएं है । एक शरीर को त्याग कर पुनः नया शरीर धारण कर लेना तो व्यक्त अवस्था में चल रही विभिन्न अवस्थाओं का एक हिस्सा मात्र है । जैसे इस भौतिक शरीर की बाल्यावस्था,युवावस्था और वृद्धावस्था होती है उसी प्रकार इस स्थूल शरीर की मृत्यु होकर नया शरीर प्राप्त कर लेना भी व्यक्त की ही एक अवस्था है । अतः स्थूल शरीर धारण करना और स्थूल शरीर को त्याग देना मात्र ही जीवन-मृत्यु नहीं है ।
क्रमशः
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥     

Monday, July 7, 2014

यक्ष-युधिष्ठिर संवाद |

यक्ष ने प्रश्न किया -मनुष्य का साथ कौन देता है?
                  युधिष्ठिर -धैर्य ही मनुष्य का साथ देता है ।
यक्ष-यश लाभ का एकमात्र उपाय क्या है ?
                  युधिष्ठिर-दान ।
यक्ष-हवा से तेज कौन चलता है ?
                  युधिष्ठिर- मन ।
यक्ष- विदेश जाने वाले का साथी कौन होता है ?
                   युधिष्ठिर- विद्या ।
यक्ष - किसे त्याग कर मनुष्य प्रिय हो जाता है ?
                   युधिष्ठिर - अहंकार और गर्व  को ।
यक्ष - किस  चीज के खो जाने पर दुःख नहीं होता ?
                   युधिष्ठिर - क्रोध को ।
यक्ष - किस चीज को गंवाकर मनुष्य धनी हो जाता है ?
                   युधिष्ठिर - लोभ को ।
यक्ष - ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर है ? जन्म,कर्म,विद्या या शीतल स्वभाव पर ?
                  युधिष्ठिर - शीतल स्वभाव पर ।
यक्ष - कौन सा एकमात्र उपाय है ,जिससे जीवन सुखी हो जाता है ?
                  युधिष्ठिर - अच्छा स्वभाव ही सुखी होने का एकमात्र उपाय है ।
यक्ष - सर्वोत्तम लाभ क्या है ?
                 युधिष्ठिर - आरोग्य ।
यक्ष - धर्म से बढ़कर संसार में क्या है ?
                 युधिष्ठिर - दया ।
यक्ष - कैसे व्यक्ति के साथ की गई मित्रता पुरानी नहीं पड़ती ?
                 युधिष्ठिर - सज्जनों के साथ ।
यक्ष - इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?
                 युधिष्ठिर - प्रतिदिन लाखों लोग मरते हैं ,फिर भी सभी को अनंत काल तक जीते रहने की                                                ईच्छा होती है ;इससे बड़ा आश्चर्य और कोई हो ही नहीं सकता ।

                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, July 6, 2014

समर्पण - २ |

                                    समर्पण का अर्थ है-सब कुछ त्याग देना या किसी पर या किसी के लिए छोड़ देना। यह त्याग करते ही व्यक्ति शांति को उपलब्ध हो जाता है । मन एकदम निर्भाव हो जाता है और न तो कोई कामना और न ही कोई ईच्छा शेष रहती है । जो कुछ भी उपलब्ध सुगमता के साथ हो जाता है ,व्यक्ति उसी में संतुष्ट रहता है । परन्तु समर्पण इतना आसान नहीं है । इसके लिए व्यक्ति को अपनी मानसिक स्थिति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है । बिना मानसिक स्थिति परिवर्तित हुए समर्पण असंभव है ।
                                 व्यक्ति की मानसिक स्थिति दो तरह से परिवर्तित हो सकती है । पहले तरीके में व्यक्ति की मानसिक स्थिति स्वतः ही मजबूरी वश परिवर्तित हो जाती है । लगातार बढ़ते जा रहे मानसिक दबाव को सहन न कर पाने के कारण वह समर्पण कर बैठता है । पर यह समर्पण परमात्मा के समक्ष न होकर किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख ही होता है । ऐसे समर्पण के लिए व्यक्ति की परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती है । इन परिस्थितियों के दबाव के कारण योग्य व्यक्ति अगर विवेकशील हो तो वह किसी भी अन्य व्यक्ति के समक्ष आत्मसमर्पण करने के स्थान पर अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देता है । ऐसे समर्पण से परमात्मा उसे विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । किसी व्यक्ति के समक्ष किये गए समर्पण में वह व्यक्ति उसकी मजबूरी में सहायता करते हुए कुछ आकांक्षा भी रखेगा जबकि परमात्मा किसी की भी मजबूरी का कोई फायदा नहीं लेता बल्कि निर्विकार भाव से सहयोग करता है ।
                      दूसरी प्रकार का समर्पण स्वेच्छिक होता है और वह समर्पण केवल परमात्मा के लिए और सम्पूर्ण रूप से होता है । इस समर्पण में व्यक्ति को असीम और अनंत शांति का अनुभव होता है । इस समर्पण के बाद व्यक्ति व्यथित नहीं होता बल्कि प्रसन्नता का अनुभव करता है । यही वास्तविक समर्पण है । परमात्मा को समर्पण व्यक्ति की उच्चत्तम आध्यात्मिक अवस्था है और इस समर्पण के बाद संसार में रहते हुए भी वह संसार में लिप्त नहीं होता ।
                               इस प्रकार हम देखते हैं कि समर्पण दो प्रकार से होता है -प्रथम अनिवार्य समर्पण ,जिसमे व्यक्ति को अपनी विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का कोई अन्य रास्ता नज़र नहीं आता और समर्पण करना उसकी मज़बूरी बन जाती है । इस समर्पण में परिस्थतियों के अनुकूल होते ही व्यक्ति समर्पण भाव से बाहर निकल जाता है । दूसरा समर्पण है स्वेच्छिक समर्पण ,जिसमे व्यक्ति आंतरिक रूप से मज़बूत होकर समर्पित  होता  है और यह समर्पण भाव स्थाई होता है चाहे समर्पण की अवधि में परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हो जाये  । सब कुछ  परमात्मा पर छोड़ देना ही वास्तविक समर्पण है ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥                   

Thursday, July 3, 2014

समर्पण |-१

                               किसी भी वस्तु को किसी अन्य को दे देना या किसी के लिये त्याग देना,उस पर अपना अधिकार छोड देना उस वस्तु का अर्पण कहलाता है । तन,मन और धन को किसी के लिए त्याग देना ,किसी को भेंट कर देना इनका अर्पण कहलाता है । जब तन,मन और धन को परमात्मा को अर्पित कर दिया जाता है तब आपका अधिकार उपरोक्त तीनों पर से समाप्त हो जाता है । तन,मन और धन को अर्पित कर देना ही "सर्वस्व अर्पण" की श्रेणी में नहीं आता । अभी भी व्यक्ति के पास और कुछ भी शेष बच जाता है जिसका अर्पण अभी भी नहीं हुआ है । तन,मन और धन के अर्पण से परमात्मा के पास तक पहुंचा तो जा सकता है परन्तु उसे पाया नहीं जा सकता । अभी भी आप और परमात्मा दो अलग अलग हैं । जब तक दो हैं तब तक परमात्मा केवल दृष्टिगत है ,दिखाई दे रहे हैं परन्तु प्राप्त होने की अवस्था से अभी भी कोसों दूर है ।
                               ऐसी स्थिति में व्यक्ति को क्या करना चाहिए,जिसे वह परमात्मा को पा ले ? आपके पास तन,मन और धन के अतिरिक्त कुछ और भी है जिसे आप अभी तक समझ ही नहीं पाए हैं । परमात्मा को उसका अर्पण करदें आप परमात्मा में विलीन हो जायेंगे ,आप स्वयं ही परमात्मा हो जायेंगे । जब नदी बहती हुई समुद्र में जाकर मिल जाती है तब नदी स्वयं ही समुद्र हो जाती है । संसार कहता है कि नदी का अस्तित्व समुद्र में मिलकर समाप्त हो जाता है । मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से । मैं कहता हूँ कि नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता बल्कि वह विशालता ग्रहण कर समुद्र हो जाती है । जब तक उसका अस्तित्व एक धारा के रूप में था तब तक वह नदी ही कहलाती रही । जब इसी धारा ने विशाल आकार ले लिया, अपने आप को समाहित करके,तभी वह समुद्र हो गई । बरसात में पड़ रही पानी की छोटी छोटो बूंदे जब समुद्र में गिरती है तब वे भी समुद्र हो जाती है । एक एक बूंद में समुद्र का अस्तित्व छुपा हुआ है परन्तु उसे अपने विशाल अस्तित्व का तब तक ज्ञान नहीं होता जब तक वह अपने क्षुद्र अस्तित्व का त्याग नहीं करती । इस अस्तित्व त्याग को,इस बूंद के समुद्र में समाहित हो जाने को,समर्पण  कहते हैं ।
                         इसी प्रकार व्यक्ति भी एक तन,एक मन के अतिरिक्त कुछ ओर भी है जिसे हम उसका "मैं" होना कह सकते है ,उसमे आत्मा का होना कह सकते है ,उसे उसके कारण शरीर का नाम दे सकते है । नाम चाहे कुछ भी दें,कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । अपने इसी "मैं" को परमात्मा को तन,मन और धन के साथ ही अर्पित कर दें । अब यही अर्पण आपका समर्पण बन जायेगा । समर्पण ही आपको परमत्मा में विलीन कर सकता है । समर्पण के साथ ही आप भी परमात्मा हो जायेंगे । एक बार परमात्मा हो जाने पर न कोई ईच्छा रहेगी,न कोई लालसा । सारा संसार ही परमात्मामय हो जायेगा । ऐसा हो जाना ही वास्तविक समर्पण है ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥  

Wednesday, July 2, 2014

अर्पण |

                               पिछले एक माह से हम परमात्मा को तन,मन और धन अर्पण करने पर चर्चा कर रहे थे । हम यंत्रवत कोई भी कार्य करते हैं तो वह एक प्रकार की बेहोशी में किया गया कार्य होता है । जिस प्रकार प्री-रिकार्डेड केसेट या सीडी उसी आरती को प्रतिदिन हमें सुना सकती है ,ठीक उसी प्रकार हम प्रतिदिन परमात्मा की आरती अपने मुंह से उच्चारित करते हैं । इस प्रकार बेहोशी में की गई प्रार्थना से आज तक किसी का भी कल्याण नहीं हुआ है । अगर कल्याण ही होता तो फिर उस टेप रिकार्डर या सीडी का तो कभी का हो चूका होता । वह तो हमसे भी अधिक उच्च स्वर में और कर्णप्रिय आवाज़ में आरती गा सकती है । हमें यह मानना चाहिए कि जब तक हम होशपूर्वक कोई प्रार्थना नहीं करते तब तक हमारे और उस टेप रिकार्डर में कोई अंतर नहीं होगा । अतः आवश्यकता है कि हम कम से कम परमात्मा से प्रार्थना तो होशपूर्वक करें ।
                          जब प्रार्थना होश पूर्वक होगी तो उस प्रार्थना के शब्द हमारे भीतर से प्रस्फुटित होंगे । यही शब्द परमात्मा तक पहुंचेंगे । आपके पास तन भी है ,मन भी है और धन भी है । आप कहते हैं कि " हे परम पिता परमात्मा ! ये तीनों आपके ही दिए हुए है और मैं इनको आपको ही अर्पित कर रहा हूँ । मेरा इनसे और इनके द्वारा किये गए कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है ।" यह उच्च कोटि की प्रार्थना है । इस प्रार्थना में आप सब कुछ ईश्वरीय प्रसाद ही मानते हैं और जो कुछ भी तन,मन और धन का उपयोग आप कर सकते हो ,वह सब कुछ परमात्मा के द्वारा करना और  उसी के लिए करते हुए उसी को ही अर्पित कर रहे हो । यह आपको कर्तापनके भाव से मुक्त करता है ।  मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह कर्तापन के भाव से अपने आप को कभी मुक्त नहीं होने देता ।जब कोई काम अच्छा कर देता है तो श्रेय स्वयं लेता है और उल्टा हो जाने पर परमात्मा को दोष देता है ।
                           होश पूर्वक की गई प्रार्थना में आप भीतर से परमात्मा से जो कुछ भी मिला है उसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करते हो । जो कुछ भी आपके तन,मन और धन से हुआ हैऔर आपके माध्यम से हुआ है , वह सब कुछ परमात्मा को अर्पित कर देते हो । यह त्याग ही आपको असीम शांति प्रदान करता है ।इस अर्पण से आपके अहंकार को बढ़ावा नहीं मिल पाता और मन की भटकन पर भी रोक लगती है । मन पर आपका नियंत्रण स्थापित होता है । मन पर नियंत्रण स्थापित कर लेना ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । यही मुक्ति का मार्ग है । मन पर नियंत्रण से ही तन,मन और धन का परमात्मा को अर्पण किया जा सकता है । अर्पण वह प्रक्रिया है जिसमे आपके अधिकार की पूर्णतया समाप्ति हो जाती है और अर्पित किये जानेवाले का स्वामित्व स्थापित हो जाता है । तन,मन और धन पर व्यक्ति का स्वामित्व कभी भी नहीं था , अतः इसका परमात्मा को अर्पण कर देना ही मुक्ति का सही मार्ग है ।
                                                        ॥ हरिः शरणम् ॥             

Tuesday, July 1, 2014

धन | -१०

                                      धन के विसर्जन का अंतिम रास्ता है-उसका नाश । जो व्यक्ति अपने जीवन में धन का उपयोग दान देने में नहीं करता या उसको स्वयं के भोग के लिए या परिवार की सुख सुविधा अथवा बच्चों के विकास के लिए व्यय नहीं करता तो धन तीसरी गति को प्राप्त होता है । यह तीसरी गति है-धन का नाश हो जाना । मरते दम तक व्यक्ति अगर इसका सही उपयोग नहीं करता तो वह धन उसके उत्तराधिकारियों में बंट जाता है । जिसने अपने जीवन में धन का उपार्जन नहीं किया उसे उसकी वास्तविक कीमत का पता नहीं होता । इस कारण से उस व्यक्ति के उत्तराधिकारी इन पैसो को आमोद प्रमोद में तेजी के साथ खर्च कर डालते है ।इस प्रकार यह धन का नाश होना ही हुआ ।
                      कई व्यक्ति अपने जीवनकाल में सृजित धन को जमीन में गाड़ देते है । उसकी मृत्यु के उपरांत किसी भी पारिवारिक सदस्य को यह पाता नहीं होता कि उसका धन कहाँ है ?इस प्रकार यह धन किसी के भी उपयोग में नहीं आ पाता । इस प्रकार यह उपार्जित और सृजित धन का एक प्रकार से नाश होना ही हुआ । इसी प्रकार सृजित धन को अगर व्यक्ति किसी अयोग्य व्यक्ति के पास देखभाल के लिए रख देता है या कर्ज के रूप में दे देता है तो उसके पुनः लौटकर आने की कोई सम्भावना नहीं रहती । यह भी धन का नाश होना हुआ ।सृजित धन पर हर समय चोर उच्चक्कों की निगाहें रहती है । मौका मिलते ही धन चुराने में उन्हें किसी भी प्रकार का संकोच नहीं होता । आपके धन को चुरा लिया जाना आपके लिए धन का नाश ही हो जाना है ।
                         इस प्रकार हम देखते हैं कि धन का विसर्जन एक शाश्वत सत्य है । सब कुछ व्यक्ति के नियंत्रण में है कि वह यह समझे कि अपने धन का किस प्रकार विसर्जन करे । सबसे उपयुक्त तरीका धन को दान करना है और उसके बाद उसे भोगना है । धन को आपके पास टिकना तो है नहीं। आप उसे स्वयं के काम में लेते हुए उसे भोगेंगे नहीं या उसे परमार्थ के लिए दान नहीं करेंगे तो उस धन का एक दिन नाश होना निश्चित है । अतः अपने धन पर कुंडली मारकर बैठे नहीं| समय रहते उसके विसर्जन का तरीका निश्चित करलें और उसी प्रकार उसे समयबद्ध तरीके से विसर्जित करते रहें । फिर अनुभव करें कि आपका जीवन कितना सुखमय हो गया है । धन को परमार्थ निमित काम में लेना ही धन का परमात्मा को अर्पण है ।

                                           ॥ हरिः शरणम् ॥