Monday, November 25, 2013

SUMMARY OF SHRIMADBHAGWATGEETA

              गीता-सार
           कृष्णम् वंदे जगदगुरुं
(१)मानव को जीवन की मुख्य धारा में सम(Balanced)रहते हुए,सम का आचरण करते हुए पलायनवादी(Escapist)और वर्चस्ववादी(Dominant)दोनों प्रकार के मनोविज्ञान (Psychology)को त्याग देना चाहिए|लेकिन यदि परिस्थितियां विषम(Adverse) हो तो उन्हें सम(Balance)करने के लिए स्वयं को भी विषमता(Adversity)के मार्ग अपनाने में धरमभीरु बनकर संकोच(Hesitation)नहीं करना चाहिए|
            जहाँ अस्तित्व(Existence)पर संकट आ जाये वहाँ संघर्ष(Struggle) करना चाहिए तथा जहाँ अस्तित्व बन जाये वहाँ सहअस्तित्व(Coexistence) को ध्यान में रखकर सभी के अस्तित्व की रक्षा करनी चाहिए|
(२)जब अस्तित्व बन जाये तब उसे स्वकल्याण(Self-realization) हेतु प्रयास करना चाहिए|स्वकल्याण का मार्ग है,कर्म के प्रति भी सम(Balanced in act)रहना|
(३)जीवन में हम जिस बात को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं,जिसके लिए दौड़ते हैं वह है प्रसिद्धि(Popularity),धन की उपलब्द्धि(Sound economy) और प्रतिष्ठित पद(Reputation)|इन तीनो में से किसी को कुछ नहीं मिलता,कुछ को एक,कुछ को दो और कुछ को तीनों उपलब्धियां प्राप्त हो जाती है|इन तीनों से भाग्य एवं सफलता का आंकलन(Analysis)किया जाता है|इसको प्रारब्ध कहा गया है|यह प्रारब्ध पञ्च-संयोग(Five factors)से बनता है|अतः यह व्यक्ति की स्वयं की उपलब्धि नहीं है|प्रारब्ध का निर्माण एक संयोग(Co incidence) मात्र होता है|अतः यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि जिसके लिए सत्-चित-आनंद की अवहेलना कर दी जाये या प्राप्त न होने पर हीन भावनाओं से ग्रसित हुआ जाये|
(४)जीवन में उपलब्धि की जो सार्वजानिक मान्यता है,(प्रसिद्धि,धन और प्रतिष्ठित पद)  उससे हटकर अपने आंतरिक व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए|इसी को स्वकल्याण कहा गया है|
           व्यक्तित्व को प्रभावित करने में सबसे बड़ी भूमिका होती है इस शरीर रुपी यंत्र की|जोकि तीन प्रकृतियों द्वारा संचलित है|शरीर की ये प्रकृतियाँ भोजन एवं दैनिकचर्या से संचालित है,जोकि आपकी पहुँच में होता है|अतः जो कार्य आपकी पहुँच में है,जो कार्य हम कर सकते हैं वही कार्य करना चाहिए|नित्य जीवन पर अंकुश लगाये बिना सिद्धांत एवं धर्म की बातें मिथ्या आदर्श बन कर रह जाती है|
(५)जीवन में हम जो भी करते हैं वह धर्म पर आरूढ़ होकर करना चाहिए|सिद्धांतों पर चलते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना ही धर्म है|लेकिन सिद्धांतों को प्रकृति के सिद्धांतों के सन्दर्भ में समझना चाहिए|मानव निर्मित रूढियांऔर स्वनिर्मित सिद्धांत नहीं होने चाहिए
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                   पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुद्च्यते |
                   पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ||
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                           हरिः शरणम्
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