क्रमश:१७
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता ४/३७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है,वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |
गीता में भगवान ने ज्ञान को भी अग्नि कहा है |विज्ञानं की दृष्टि में भी ज्ञान एक उर्जा ही है |ज्ञान मस्तिष्क के Neocortex में चुम्बकीय उर्जा(Magnetic energy) के रूप में संचित (Store)रहता है |इसीलिए ज्ञान कभी भी समाप्त नहीं होता और न ही कोई इसको कोई चुरा कर ले जा सकता |ज्ञान ही संसार में मात्र ऐसा है जिसे व्यक्ति कितना ही बांटे,बढता ही है,कम नहीं होता है |ज्ञान रुपी अग्नि से कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं?विज्ञानं के अनुसार जब आपके Neocortex में ज्ञान की चुम्बकीय उर्जा अपना स्थान घेरना शुरू करती है ,तब वहां संचित अन्य सूचनाओं के महत्व(Importance) का आकलन (Analysis)व्यक्ति करने लग जाता है |जो भी सूचनाएं उसे अनुचित लगती है उसके बारे में वह विस्तृत रूप से आकलन करता है |जो भी गलत कर्म उसके द्वारा किये गए है,उनको वह या तो सही करने की कोशश करता है या उन गलत कर्मों के परिमार्जन(Correction) के लिए वह प्रायश्चित करने की राह पकड़ता है |उसे कोई भी संकोच नहीं होता कि वह गलत किये गए कार्य को स्वीकार क्यों कर रहा है?किसी के साथ अपने द्वारा किये गए गलत व्यवहार के लिए वह क्षमा मांगने को भी निःसंकोच तैयार रहता है |इसी प्रकार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके प्रति किये गए अनुचित व्यवहार के लिए उसे तुरंत क्षमा भी कर देता है |
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ज्ञानयुक्त व्यक्ति के व्यवहार में आश्चर्यचकित कर देने वाला परिवर्तन आ जाता है |यहाँ तक कि उसे अपने ज्ञानी होने का अहसास भी नहीं रहता,अहंकार होने की बात तो सम्भावना से परे की बात है |
जब मस्तिष्क के Neocortex में ज्ञान की उर्जा अपना विस्तार पा लेती है,तब अन्य स्मृतियों के अंकित होने और संचित रहने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है |ऐसे में मृत्यु के समय किसी भी प्रकार के संकेत आत्मा के साथ जाने को उपलब्ध नहीं रहते हैं |यह ज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है |इसी लिए ज्ञान को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में समस्त कर्मों को भस्ममय करने की क्षमता वाला बताया है |कर्म-योग से ज्ञान-योग को श्रेष्ठ ज्ञान की इसी क्षमता के कारण बताया है | ज्ञान को उपलब्ध होने का प्रयास बड़ा ही दुष्कर है ,ज्ञान को उपलब्ध होना तो दूर की कौड़ी ही समझी जानी चाहिए |इसी बात को ध्यान में रखते हुए साधारण व्यक्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान के स्थान पर कर्म-योग के साधन को सुगम और सरल बताया है |
ज्ञान के कारण Neocortex किसी भी कार्य के लिए ऐसे संकेत Hypothalamus को भेजता भी नहीं है ,जिन्हें वह आगे प्रेषित (Transmit)कर इन्द्रियों(Organs of senses) द्वारा कोई गलत कर्म करवा सके |इसी प्रकार Synapses,Nerves और Neurons जो भी सुचनाये(Sensory signals) Hippocampus को भेजे जाते है ,ज्ञान के कारण उसकी प्रतिक्रिया (Reaction)में मस्तिष्क द्वारा ऐसे कोई भी कार्यिक संकेत (Motor signals)वापिस nerves तथा Synapses को भेजे नहीं जाते जिसके कारण कर्मेन्द्रिया (Organs for act)कोई अनुचित कर्म करे|यही कारण है किज्ञानी द्वारा कभी भी ऐसे कर्म किये ही नहीं जाते जो अकर्म में न बदले |साथ ही ज्ञानी व्यक्ति का मन भी इतना निर्मल हो जाता है कि आत्मा को वह इन्द्रियों के विषयों का संग (Attachment with properties of senses)) करने ही नहीं देता | जैसा कि हम जानते हैं कि मन ही बंधन(Tie, Attachment) के लिए उत्तरदायी है और मन ही व्यक्ति को मुक्ति(Untie, Detachment) के द्वार तक ले जाता है |तभी कबीर ने कहा है -
पुनर्जन्म के लिए-
मन मरा न ममता मरी,मर मर गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मरी, कह गया दास कबीर ||
और मन का मुक्ति से सम्बन्ध कैसा है ,इस बारे में कहा है-
मन ऐसा निर्मल भया , जैसे गंगा नीर |
पाछे पाछे हरि फिरे , कहत कबीर कबीर ||
यही ज्ञानी व्यक्ति की पहचान है |ज्ञानी व्यक्ति मन पर इतना नियंत्रण कर लेता है कि इन्द्रियों के बहकावे में आ ही नहीं सकता |पुनर्जन्म से मुक्ति का विज्ञानं मात्र यही है यानि मन ( Limbic system of the brain -Hypothalamus and Hippocampus specially)) पर नियंत्रण |और यह सब ज्ञान को उपलब्ध होने पर ही संभव है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता ४/३७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है,वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |
गीता में भगवान ने ज्ञान को भी अग्नि कहा है |विज्ञानं की दृष्टि में भी ज्ञान एक उर्जा ही है |ज्ञान मस्तिष्क के Neocortex में चुम्बकीय उर्जा(Magnetic energy) के रूप में संचित (Store)रहता है |इसीलिए ज्ञान कभी भी समाप्त नहीं होता और न ही कोई इसको कोई चुरा कर ले जा सकता |ज्ञान ही संसार में मात्र ऐसा है जिसे व्यक्ति कितना ही बांटे,बढता ही है,कम नहीं होता है |ज्ञान रुपी अग्नि से कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं?विज्ञानं के अनुसार जब आपके Neocortex में ज्ञान की चुम्बकीय उर्जा अपना स्थान घेरना शुरू करती है ,तब वहां संचित अन्य सूचनाओं के महत्व(Importance) का आकलन (Analysis)व्यक्ति करने लग जाता है |जो भी सूचनाएं उसे अनुचित लगती है उसके बारे में वह विस्तृत रूप से आकलन करता है |जो भी गलत कर्म उसके द्वारा किये गए है,उनको वह या तो सही करने की कोशश करता है या उन गलत कर्मों के परिमार्जन(Correction) के लिए वह प्रायश्चित करने की राह पकड़ता है |उसे कोई भी संकोच नहीं होता कि वह गलत किये गए कार्य को स्वीकार क्यों कर रहा है?किसी के साथ अपने द्वारा किये गए गलत व्यवहार के लिए वह क्षमा मांगने को भी निःसंकोच तैयार रहता है |इसी प्रकार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके प्रति किये गए अनुचित व्यवहार के लिए उसे तुरंत क्षमा भी कर देता है |
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ज्ञानयुक्त व्यक्ति के व्यवहार में आश्चर्यचकित कर देने वाला परिवर्तन आ जाता है |यहाँ तक कि उसे अपने ज्ञानी होने का अहसास भी नहीं रहता,अहंकार होने की बात तो सम्भावना से परे की बात है |
जब मस्तिष्क के Neocortex में ज्ञान की उर्जा अपना विस्तार पा लेती है,तब अन्य स्मृतियों के अंकित होने और संचित रहने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है |ऐसे में मृत्यु के समय किसी भी प्रकार के संकेत आत्मा के साथ जाने को उपलब्ध नहीं रहते हैं |यह ज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है |इसी लिए ज्ञान को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में समस्त कर्मों को भस्ममय करने की क्षमता वाला बताया है |कर्म-योग से ज्ञान-योग को श्रेष्ठ ज्ञान की इसी क्षमता के कारण बताया है | ज्ञान को उपलब्ध होने का प्रयास बड़ा ही दुष्कर है ,ज्ञान को उपलब्ध होना तो दूर की कौड़ी ही समझी जानी चाहिए |इसी बात को ध्यान में रखते हुए साधारण व्यक्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान के स्थान पर कर्म-योग के साधन को सुगम और सरल बताया है |
ज्ञान के कारण Neocortex किसी भी कार्य के लिए ऐसे संकेत Hypothalamus को भेजता भी नहीं है ,जिन्हें वह आगे प्रेषित (Transmit)कर इन्द्रियों(Organs of senses) द्वारा कोई गलत कर्म करवा सके |इसी प्रकार Synapses,Nerves और Neurons जो भी सुचनाये(Sensory signals) Hippocampus को भेजे जाते है ,ज्ञान के कारण उसकी प्रतिक्रिया (Reaction)में मस्तिष्क द्वारा ऐसे कोई भी कार्यिक संकेत (Motor signals)वापिस nerves तथा Synapses को भेजे नहीं जाते जिसके कारण कर्मेन्द्रिया (Organs for act)कोई अनुचित कर्म करे|यही कारण है किज्ञानी द्वारा कभी भी ऐसे कर्म किये ही नहीं जाते जो अकर्म में न बदले |साथ ही ज्ञानी व्यक्ति का मन भी इतना निर्मल हो जाता है कि आत्मा को वह इन्द्रियों के विषयों का संग (Attachment with properties of senses)) करने ही नहीं देता | जैसा कि हम जानते हैं कि मन ही बंधन(Tie, Attachment) के लिए उत्तरदायी है और मन ही व्यक्ति को मुक्ति(Untie, Detachment) के द्वार तक ले जाता है |तभी कबीर ने कहा है -
पुनर्जन्म के लिए-
मन मरा न ममता मरी,मर मर गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मरी, कह गया दास कबीर ||
और मन का मुक्ति से सम्बन्ध कैसा है ,इस बारे में कहा है-
मन ऐसा निर्मल भया , जैसे गंगा नीर |
पाछे पाछे हरि फिरे , कहत कबीर कबीर ||
यही ज्ञानी व्यक्ति की पहचान है |ज्ञानी व्यक्ति मन पर इतना नियंत्रण कर लेता है कि इन्द्रियों के बहकावे में आ ही नहीं सकता |पुनर्जन्म से मुक्ति का विज्ञानं मात्र यही है यानि मन ( Limbic system of the brain -Hypothalamus and Hippocampus specially)) पर नियंत्रण |और यह सब ज्ञान को उपलब्ध होने पर ही संभव है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
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