Saturday, November 9, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१६

क्रमश:१६
                      गीता में भगवान श्री कृष्ण ने मुक्ति के तीन योग बताये हैं-यथा,ध्यान-योग,कर्म-योग और ज्ञान-योग |इन तीनों में सबसे उपयुक्त कर्म-योग को बताया है इसके कई कारण है |सबसे बड़ा कारण यह है की मनुष्य अपने जीवन में कभी भी किसी भी समय कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता | जब कर्म ही करते रहना है तो फिर इससे अलग और आसान मुक्ति का साधन कोई दूसरा हो ही नहीं सकता |अब हम मुक्ति के तीसरे साधन की वैज्ञानिक आधार पर विवेचना करेंगे |यह तीसरा उपाय है -ज्ञान योग |
                     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                             न    हि   ज्ञानेन   सदृशं    पवित्रमिह   विद्येते |
                            तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दन्ति ||गीता ४/३८||
           अर्थात्,इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है |उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग से शुद्ध अन्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है |
                        इस श्लोक में श्री कृष्ण ने तीन बाते कही है-१.ज्ञान सबसे पवित्र करने वाला है |२.ज्ञान कर्म-योग से ही पाया जा सकता है ,और ३.कर्म-योग से अन्तःकरण शुद्ध होने पर मनुष्य को ज्ञान पाने के लिए कहीं भी भटकना नहीं पड़ता है ,वह उस ज्ञान को अपनी आत्मा में ही पा लेता है |मनुष्य की ज्ञान पाने की जब छटपटाहट बढती है,तब वह उसे पाने के लिए इधर उधर भटकता है,कई प्रकार के कर्म करता है जैसे शास्त्र पढ़ना,तत्व-ज्ञानियों से सत्संग करना इत्यादि | इतने कर्म करने के बाद उसे यह आभास होता है कि इन सबसे  भी वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर पा रहा है तब वह यह भटकन छोड़ कर शांत हो जाता है |यही अन्तःकरण के शुद्ध होने की अवस्था है और इसी अवस्था में वह ज्ञान जो वह बाहर खोज रहा था उसे अपनी आत्मा में यानि स्वयं के अंदर ही मिल जाता है |भगवान बुद्ध को भी इसी प्रकार बौधित्व प्राप्त हुआ था |
                            अब इसी ज्ञान को विज्ञानं के अनुसार देखते हैं |Neocortex केवल मानव मस्तिष्क में ही होता है |इसी में ज्ञान संचित(Store) रहता है और किये गए कर्मों की दीर्घ कालीन स्मृति(L.T.M.) भी |जब व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के लिए कर्म करता है वे दीर्घ कालीन स्मृति के रूप में Neocortex में संचित होते रहते है |जब व्यक्ति थक हारकर ज्ञान पाने से सम्बंधित कर्म बंद कर देता है तब उन सब कर्मों के बारे में वह अन्तःकरण से विचार करता है |उसे महसूस होता है कि सब कुछ आत्मा में ही स्थित है और आत्मा ही परमात्मा का एक अंश है |इस अवधि में वह तात्विक-ज्ञान (Elemental knowledge)को उपलब्ध हो जाता है ,जिसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं |जब वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है तो पूर्व में किये गए कर्म जो दीर्घ कालीन स्मृति के रूप में Neocortex में अंकित हैं ,वे सभी धीरेधीरे कमजोर पड़कर समाप्त होने लगते हैं और एक दिन समस्त Neocortex कर्मों की स्मृति से मुक्त हो जाता है और मात्र ज्ञान ही वहाँ रह जाता है |इस स्थिति में अगर वह व्यक्ति कोई कर्म  करता है तो वे सभी अकर्म हो जाते हैं |यह ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है |मृत्यु के बाद आत्मा के साथ जाने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता,ऐसे में पुनर्जन्म का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है और और आत्मा का परमात्मा के साथ योग हो जाता है |इसी का नाम मुक्ति है |
                ज्ञान और कर्मों के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में भी यही बात कहते हैं-
                            न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |
                           इति मां  योSभिजानाति  कर्मभिर्न  स  बध्यते ||गीता ४/१४||
अर्थात्, कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (आसक्ति) नहीं है;अतः मेरे को कर्म लिप्त नहीं करते - इसी प्रकार जो मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है अर्थात् मुझे तत्व से जान लेता है ,वह भी कर्मों से नहीं बंधता(No attachment with acts) है यानि उसकी भी कर्मों में आसक्ति नहीं रहती है |
क्रमश:
                    || हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment