क्रमश:१८
इस प्रकार हमने गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा सुझाये गए मुक्ति के तीन मार्गों को विज्ञानं के अनुसार समझने का प्रयास किया |ध्यान-योग(Meditation) में केवल विचारों(Thoughts) पर अंकुश लगाते हुए मन को नियंत्रण में लेना होता है जबकि कर्म योग में निष्काम भाव (Act without attachments)से कर्म अथवा ईश्वर के लिए कर्म करना(Act of and for God) या फिर कर्मफल का त्याग(Detachment from the result of act) करना होता है जिससे दीर्घ कालीन स्मृति (Long term memory)बन ही नहीं पाए |यहाँ कर्म-योग में मन पर नियंत्रण आधा-अधूरा होता है जिसके कारण व्यक्ति कभी भी अपनी स्थिति से गिर सकता है (Degradation)और कभी भी अपनी स्थिति में सुधार(Up gradation) भी कर सकता है |ज्ञान -योग में व्यक्ति अपने स्वयं के और परमात्मा के बारे में समस्त ज्ञान(Thorough knowledge) को उपलब्ध होता है और वह शरीर,मन और इन्द्रियों के सभी क्रिया-कलापों की वैज्ञानिक जानकारी(Scientific knowledge) रखता है |छोटी से छोटी बात को भी वह आसानी से समझ लेता है,जिसके कारण वह मन को बहुत भी अच्छे तरीके से और स्थाई रूप से नियंत्रित रखने में सक्षम हो जाता है |
ध्यान -योग में व्यक्ति को विचारों को नियंत्रण में रखने के लिए सांसारिक गतिविधियों से कटना पड़ता है जबकि कर्म-योग और ज्ञान-योग में संसार में रहते हुए भी मुक्ति संभव है |कर्म-योग में व्यक्ति संसार में रहते हुए उसके विकारों जैसे काम,क्रोध,लोभ,मोह,तृष्णा आदि में कभी कभार लिप्त हो सकता है जबकि ज्ञान-योग में ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के सामने ऐसी कोई भी परिस्थिति कभी भी नहीं आ सकती |
ध्यान-योग और कर्म-योग में व्यक्ति पूजा-पाठ या अन्य ऐसी विधियाँ(Rituals) अपनाता है जो कि उसने कहीं पढ़ी,सुनी या देखी हो |जबकि ज्ञानी व्यक्ति को ऐसी किसी भी गतिविधियों में न तो कोई रुचि होती है और न ही वह इनमे भाग लेता है |परन्तु अगर कोई अन्य भी ऐसी विधि अपनाता और करता है तो वह उसकी आलोचना भी नहीं करता है |
ध्यान-योग में एकाग्रता(Concentration) की बहुत ही बड़ी भूमिका होती है जबकि कर्म-योग में एकाग्रता की आवश्यकता जरूर होती है परन्तु ध्यान - योग जितनी नहीं |ज्ञान-योग में एकाग्रता की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती |व्यक्ति में उपस्थित ज्ञान ही उसे ध्यान की अवस्था की स्थिति में सदैव स्थिर रखता है |
कर्म-योग को साधना सबसे सरल और सुगम(Easy and applicable) है |जबकि ध्यान-योग सबसे कठिन |ध्यान में जाने के लिए पहले ज्ञान -योग साधना आवश्यक है |बिना ज्ञान को उपलब्ध हुए ध्यान में जाना असंभव है |इसी लिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्येते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || गीता १२/१२ ||
अर्थात्, मर्म को न जानकर किया गये अभ्यास(Rituals) से ज्ञान (Knowledge)श्रेष्ठ है,ज्ञान से विशेष ध्यान (Meditation)है और ध्यान से भी श्रेष्ठ सब कर्मों के फलों का त्याग((Detachment from the results of acts) है ;क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति(Peace forever) उपलब्ध होती है |
उपरोक्त श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान से ध्यान को विशेष बताया है ,श्रेष्ठ नहीं |ज्ञान तो कई व्यक्तियों को प्राप्त हो सकता है परन्तु उस ज्ञान का सही उपयोग तभी हो सकता है जब उस ज्ञान का पूर्णरूप से ध्यान रखा जाये |कई बार व्यक्क्ति को सम्पूर्ण ज्ञान होने के बाद भी सही समय पर वह ज्ञान ,ध्यान में नहीं आता |अतः केवल ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि ज्ञान का प्रत्येक समय ध्यान होना आवश्यक है |इसीलिए गीता में भगवान ने ध्यान को ज्ञान से विशेष बताया है |
ध्यान और कर्म-योग में से ध्यान - योग में अहंकार का नितांत अभाव होता है जबकि कर्म-योग में कभी कभी अज्ञानवश ऐसा हो सकता है |परन्तु ज्ञान-योग में व्यक्ति प्रायः अहंकारयुक्त हो जाता है |ऐसी स्थिति में ज्ञान प्राप्त करना अज्ञान की स्थिति से भी अधिक खतरनाक हो जाता है |इसीलिए ज्ञान का हर समय ध्यान में रहना आवश्यक है, जिससे व्यक्ति निरंतर अपनी स्थिति में सुधार करता रहे|
|| हरिः शरणम् ||
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