Saturday, November 30, 2013

प्रारब्ध के पञ्च-संयोग -करण (Instruments to perform act )

          करण
        (Instruments to perform Act)
                 अधिष्ठान और कर्ता के बाद कर्मों की सिद्धि के लिए महत्वपूर्ण भूमिका करण की होती है |करण उन साधनों को कहते हैं जिसका उपयोग कर्ता कर्म करने के लिए करता है |मनुष्य जीवन में ईश्वर ने पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और बुद्धि प्रदान की है |अब यह सब कर्ता पर निर्भर करता है कि इन साधनों का सदुपयोग किस तरह से करे कि कर्मों से सिद्धि प्राप्त की जा सके |सभी मनुष्यों में उपरोक्त सभी करण अर्थात साधन समान रूप से विद्यमान है ,फिर भी कोई मनुष्य सफलता के शिखर को छू रहा होता है और कोई अभी भी सफलता के लिए संघर्षरत है |यह सब शेष बचे चार संयोगों पर भी निर्भर करता है |
                  इन साधनों के अतिरिक्त अन्य साधन व्यक्ति को संसार से प्राप्त करने होते हैं |जिसके लिए मनुष्य को अपने स्तर पर प्रयास करना होता है |बिना प्रयास के ये साधन किसी को भी उपलब्ध नहीं हो सकते |एक साधन प्रायः दूसरे साधन को प्राप्त करने के लिए एक आधार का कार्य करता है |जैसे आपको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए बस,रेल अथवा वायुयान से यात्रा करने की आवश्यकता होती है |यह साधन सुलभ हो इसके लिए धन की आवश्यकता होती है |यहाँ धन आधार है यात्रा का साधन उपलब्ध कराने के लिए |इस प्रकार सभी साधनों की एक लम्बी श्रंखला बनती जाती है जिसमे प्रत्येक साधन यानि करण की अपनी अपनी भूमिका होती है और इनकी भूमिका समान रूप से महत्वपूर्ण होती है |

                      इस प्रकार हम देखते हैं कि करण दो प्रकार के होते हैं –प्रथम जो हमें अपने शरीर के साथ उपलब्ध होते है और दूसरे वो जिनको प्राप्त करने के लिए इन्हीं करण या साधनों की भूमिका होती है |अब यह सब कर्ता पर निर्भर करता है कि वो उपलब्ध करण का सदुपयोग करते हुए अपना उत्थान कैसे करे |जन्म के साथ उपलब्ध करण का सम्बन्ध तो पूर्वजन्म के कर्मों के कारण बने प्रारब्ध से होता है |परन्तु इन करण का सदुपयोग करते हुए अन्य आवश्यक करण प्राप्त करना कर्ता के क्षेत्र एवं क्षमता के अंतर्गत होता है |केवल साधनों के अभाव का रोना रोकर आप अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकते | आज संसार में ऐसे कई उदाहरण हैं |यहाँ दुर्घटनावश हुए विकलांग ने संसार की सबसे ऊँची छोटी एवरेस्ट पर विजय प्राप्त की है |जन्मांध व्यक्ति ने प्रतियोगी परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है |करण से ज्यादा महत्वपूर्ण कर्ता है |वह उनका उपयोग कैसे करता है,यह उसके विवेक पर निर्भर करता है |
                || हरिः शरणम् ||

Thursday, November 28, 2013

प्रारब्ध के पञ्च-संयोग -कर्ता(Five factors of destiny-One who act)

                             
कर्ता(DOER)
प्रारब्ध के निर्माण और कर्मों की सिद्धि के लिए जो पञ्च-संयोग गीता में बतलाये गए हैं उनमे सबसे महत्वपूर्ण है –कर्ता |अनुकूल अधिष्ठान का प्राप्त होना आप के पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर बने प्रारब्ध पर निर्भर करता है,जबकि कर्ता आप स्वयं है |आप कर्ता के रूप में स्वतन्त्र है ,कोई भी कर्म करने के लिए |यह स्वतंत्रता केवल मनुष्य को ही प्रदान की गयी है |मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीव कर्म अवश्य करते हैं लेकिन उनके द्वारा किये जा रहे कर्मों का नियंत्रण उनके पूर्व में मानव जीवन में किये गए कर्मों के प्रारब्ध के पास होता है |ये प्राणी अपनी इच्छा अथवा बुद्धि को कार्य में लेते हुए कर्म करने को स्वतन्त्र नहीं है |
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कर्ता भी तीन प्रकार के बताये हैं –सात्विक,राजसिक और तामसिक |सात्विक कर्ता दोष रहित,अहंकार के वचन न बोलने वाला,धैर्य और उत्साह से युक्त,कार्य के सिद्ध या असिद्ध होने पर हर्ष या शोक से दूर और अन्य किसी भी विकार से रहित होता है |राजसिक कर्ता आसक्ति से युक्त,कर्मों के फलों को चाहनेवाला,लोभी,दूसरों को कष्ट देनेवाला,अशुद्धाचारी तथा हर्ष-शोक से लिप्त होता है |जबकि तामसिक कर्ता अयुक्त,शिक्षा से रहित,घमंडी,धूर्त,दूसरों की जीविका का नाश करनेवाला,आलसी,और दीर्घसूत्री अर्थात प्रत्येक कार्य को आगे के लिए टालने वाला होता है |
आप किस प्रकार के कर्ता हैं यह कुछ हद तक आपको प्रारब्ध के अनुसार मिले अधिष्ठान पर निर्भर करता है |परन्तु आप अपने बुद्धि और विवेक को काम में लेते हुए अपने कर्ता  होने का प्रकार भी बदल सकते हैं |यह अधिकार आपको इसलिए प्रदान किया गया है जिससे आप जन्म दर जन्म निरंतर सुधार करते हुए उच्चत्तम स्थिति को उपलब्ध हों |  एक कर्ता के रूप में आप अपने भाग्य या प्रारब्ध को दोष नहीं दे सकते |कर्ता के रूप में कर्म करते हुए आप असंभव सी प्रतीत होने वाली उपलब्धियां भी प्राप्त कर सकते हैं |

                     || हरिः शरणम् ||  













Wednesday, November 27, 2013

प्रारब्ध के पञ्च-संयोग-अधिष्ठान (Five factors of destiny-Platform)

                           किसी भी व्यक्ति के जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए उपयुक्त अधिष्ठान(Proper Platform) का उपलब्ध(Available) होना बहुत ही आवश्यक होता है |आज जितने भी सफल व्यक्ति इस संसार में दृष्टिगोचर हो रहे हैं,उनको सफलता इसी कारण से मिली है कि जिंदगी की शुरुआत में ही उन्हें सफलता के प्रयास के लिए एक बेहतर मंच मिला |इसका सबसे अच्छा उदाहरण वर्तमान समय में अम्बानी बंधुओं का है |
                               लेकिन सफलता प्राप्ति के लिए उपयुक्त मंच भी पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होता है |यह मंच या अधिष्ठान आपके द्वारा किये जा रहे प्रयासों के लिए अत्यावश्यक है |जिस व्यक्ति को अगर ऐ़सा उपयुक्त मंच  उपलब्ध नहीं होता है ,तो फिर उसके द्वारा की जाने वाली चेष्टाएं अत्यधिक श्रमसाध्य होती है अर्थात उन्हें सफलता प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त चेष्टाएं करनी पड़ती हैं |
                             केवल यह एक हेतु(Factor) ही आपकी सफलता की गारंटी नहीं है |स्वर्गीय धीरूभाई अम्बानी को ऐसा कोई मंच नहीं मिला जैसा उनके पुत्रों को मिला |फिर भी उन्होंने सफलता प्राप्त की |लेकिन कर्ता और चेष्टा ,इन दो संयोगों तथा अंतिम हेतु दैव से सफलता प्राप्त की |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते भी हैं कि मानव जन्म में किये गए कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति का पुनर्जन्म निर्धारित होता है ,उसी अनुसार ही उसे भावी जन्म में परिवार के रूप में मंच या अधिष्ठान उपलब्ध होता है |उस परिवार में रहते हुए उसे अपनी कामनाओं को पूरा करने हेतु उपयुक्त वातावरण उपलब्ध होता है |इसी को अधिष्ठान कहते हैं |इसीकी सफलता प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका होती है |
                               || हरिः शरणम् || 

Tuesday, November 26, 2013

प्रारब्ध के पञ्च-संयोग (Five factors of destiny)

                                    प्रत्येक व्यक्ति की मानव जीवन में तीन कामनाएं ही प्रमुख होती हैं-प्रसिद्धि,धन-प्राप्ति और प्रतिष्ठित पद |लेकिन प्रत्येक को अपनी इच्छानुसार सभी मिल जाये ,यह आवश्यक नहीं है |यहाँ जो भी मिलता है,सब कुछ प्रारब्ध के अनुसार ही मिलता है |रामचरित मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
                                      सुनहु भरत भावी प्रबल,बिलखि कहेऊ मुनि नाथ |
                                      हानि लाभ जीवन मरण ,जस अपजस विधि हाथ ||
           यहाँ मानस में दशरथ की मृत्यु हो जाने के बाद जब भरत ननिहाल से अयोध्या पहुंचते हैं और अपने पिता के शव को देखकर विलाप करते है तथा अपनी माँ केकैयी को भला-बुरा कहते हैं ,तब मुनि वशिष्ठ उन्हें समझाते हैं कि जीवन-मृत्यु,हानि-लाभ और यश-अपयश मनुष्य के हाथ में न होकर विधाता के हाथ में हैं |यहाँ जो जो जब जब होना है वह होता ही है ,इसको टाला नहीं जा सकता |भावी बड़ी प्रबल(Powerful) है |
              इसी तरह एक अन्य जगह तुलसी कहते हैं-
                                         पहिले  तो प्रारब्ध रचा, पिछे रचा शरीर |
                                         तुलसी चिंता छोडि के,भजले श्री रघुवीर ||
                             प्रसिद्धि,धन प्राप्ति और प्रतिष्ठित पद प्राप्त करना भी मनुष्य के हाथ में नहीं है |यह सब विधि या प्रारब्ध के अनुसार ही प्राप्त होता है |प्रारब्ध के बनाने में पञ्च-संयोग या पांच कारण (Five factors)  गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अन्तिम अध्याय में अर्जुन को बतलाये हैं-
                                          पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
                                          सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ||गीता १८/१३||
अर्थात्',हे महाबाहो!सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पांच हेतु सांख्यशास्त्र मे कहे गए हैं,उनको तू मुझसे भलीभांति जान |
                                          अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च  पृथग्विधम् |
                                           विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् || गीता १८/१४ ||
अर्थात्,इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान(जिनके आश्रय कर्म किये जाएँ ),कर्ता,करण(साधन , जिनके द्वारा कर्म किये जाते हैं ),नाना प्रकार की चेष्टाएं और पांचवा संयोग दैव है |(पूर्व मे किये गए शुभाशुभ कर्मों के  संस्कार ) |
                             किसी भी कर्म को सिद्ध करने अर्थात उनसे मनोवांछित फल प्राप्त करने के लिए अधिष्ठान(Platform),कर्ता(Person who acts),करण(Instruments by which act will be done),चेष्टाएं((Activities for act) एवं दैव(Result of acts done in last life) ही प्रारब्ध के पञ्च-संयोग हैं |
                                 || हरिः शरणम् ||

Monday, November 25, 2013

SUMMARY OF SHRIMADBHAGWATGEETA

              गीता-सार
           कृष्णम् वंदे जगदगुरुं
(१)मानव को जीवन की मुख्य धारा में सम(Balanced)रहते हुए,सम का आचरण करते हुए पलायनवादी(Escapist)और वर्चस्ववादी(Dominant)दोनों प्रकार के मनोविज्ञान (Psychology)को त्याग देना चाहिए|लेकिन यदि परिस्थितियां विषम(Adverse) हो तो उन्हें सम(Balance)करने के लिए स्वयं को भी विषमता(Adversity)के मार्ग अपनाने में धरमभीरु बनकर संकोच(Hesitation)नहीं करना चाहिए|
            जहाँ अस्तित्व(Existence)पर संकट आ जाये वहाँ संघर्ष(Struggle) करना चाहिए तथा जहाँ अस्तित्व बन जाये वहाँ सहअस्तित्व(Coexistence) को ध्यान में रखकर सभी के अस्तित्व की रक्षा करनी चाहिए|
(२)जब अस्तित्व बन जाये तब उसे स्वकल्याण(Self-realization) हेतु प्रयास करना चाहिए|स्वकल्याण का मार्ग है,कर्म के प्रति भी सम(Balanced in act)रहना|
(३)जीवन में हम जिस बात को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं,जिसके लिए दौड़ते हैं वह है प्रसिद्धि(Popularity),धन की उपलब्द्धि(Sound economy) और प्रतिष्ठित पद(Reputation)|इन तीनो में से किसी को कुछ नहीं मिलता,कुछ को एक,कुछ को दो और कुछ को तीनों उपलब्धियां प्राप्त हो जाती है|इन तीनों से भाग्य एवं सफलता का आंकलन(Analysis)किया जाता है|इसको प्रारब्ध कहा गया है|यह प्रारब्ध पञ्च-संयोग(Five factors)से बनता है|अतः यह व्यक्ति की स्वयं की उपलब्धि नहीं है|प्रारब्ध का निर्माण एक संयोग(Co incidence) मात्र होता है|अतः यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि जिसके लिए सत्-चित-आनंद की अवहेलना कर दी जाये या प्राप्त न होने पर हीन भावनाओं से ग्रसित हुआ जाये|
(४)जीवन में उपलब्धि की जो सार्वजानिक मान्यता है,(प्रसिद्धि,धन और प्रतिष्ठित पद)  उससे हटकर अपने आंतरिक व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए|इसी को स्वकल्याण कहा गया है|
           व्यक्तित्व को प्रभावित करने में सबसे बड़ी भूमिका होती है इस शरीर रुपी यंत्र की|जोकि तीन प्रकृतियों द्वारा संचलित है|शरीर की ये प्रकृतियाँ भोजन एवं दैनिकचर्या से संचालित है,जोकि आपकी पहुँच में होता है|अतः जो कार्य आपकी पहुँच में है,जो कार्य हम कर सकते हैं वही कार्य करना चाहिए|नित्य जीवन पर अंकुश लगाये बिना सिद्धांत एवं धर्म की बातें मिथ्या आदर्श बन कर रह जाती है|
(५)जीवन में हम जो भी करते हैं वह धर्म पर आरूढ़ होकर करना चाहिए|सिद्धांतों पर चलते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना ही धर्म है|लेकिन सिद्धांतों को प्रकृति के सिद्धांतों के सन्दर्भ में समझना चाहिए|मानव निर्मित रूढियांऔर स्वनिर्मित सिद्धांत नहीं होने चाहिए
                    ___________________________________________________________
             
                   पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुद्च्यते |
                   पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ||
                                                    ___________

                           हरिः शरणम्
                                                    __________
  

      

Sunday, November 24, 2013

कर्म का अर्थ (What do you mean by karma?)

                        कर्म -आप क्या सोचते हैं?

     क्या कर्म का आशय "कारण और प्रभाव" से नहीं है?प्रत्येक कारण(cause ) एक निश्चित प्रभाव(effect )पैदा करता है|किसी परिस्थितिवश कोई कर्म किया जाता है तो वह फिर से कोई परिणाम देता है|अतः यह समझा जा सकता है की कर्म का आशय कारण और प्रभाव से ही है|क्या कारण और प्रभाव हमेशा स्थिर या निश्चित होतें है?क्या कभी प्रभाव किसी का कारण नहीं हो सकता?इसका अर्थ यह हुआ क़ि न तो कारण (cause )कभी निश्चित(fix ) हो सकता और न ही प्रभाव(effect) | आज(Today ) बीते हुए कल(yesterday) का परिणाम(result or effect ) है,और आज आने वाले कल(tomorrow)का कारण(cause) है|चाहे आप इसे मानसिक तौर से देखें चाहे गणितीय गणना से|इससे यह प्रमाणित हुआ क़ि'कारण'(cause)कभी भी' प्रभाव'(effect ) हो सकता है और' प्रभाव' कभी भी 'कारण' में परिवर्तित हो सकता है|यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है|अतः कारण और प्रभाव कभी भी निश्चित यानि शाश्वत नहीं हो सकते हैं|अगर ऐसा कभी किसी प्रजाति के लिए  हो सकता है तो इसका मतलब एक ही होता है--उस प्रजाति का अंत | मानव प्रजाति की यही विशेषता है क़ि इसमें कारण और प्रभाव कभी भी निश्चित नहीं होते है वे तकनिकी तौर पर समान जरूर हो सकतें है परन्तु बनावट(structure )में भिन्न होंगे | अतः मानव प्रजाति कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो सकती क्योंकि उसमे समय समय पर अपने आप को बदलने क़ि सम्भावना है|जब तक हम कारण(cause) को महत्वपूर्ण मानते रहेंगें,अपनी पृष्ठभूमि का आदर करते रहेंगे,कारण से पैदा होने वाले प्रभाव से सम्बन्ध रखेंगें,तब तब स्वयं के विचारों(thoughts )और पृष्ठभूमि में  टकराव (conflict ) पैदा होगा|अतः  यह समस्या  ज्यादा जटिल हो जाती है ,जब हम सोचते है की पुनर्जन्म  को माने या न  माने? अब प्रश्न  यह नहीं है की पुनर्जन्म में विश्वास करें या कर्म में|प्रश्न है-कर्म कैसे करें? (How to act ?)
                       || हरिः शरणम् ||

Saturday, November 23, 2013

कारण (Cause)और प्रभाव (Effect)

                                     समय और स्थान के बाद सबसे महत्वपूर्ण है -कारण |प्रत्येक घटनाक्रम या व्यवस्था या ऐसी ही कोई अन्य कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है |जबी भी आप कोई कर्म करते हैं ,उस कर्म के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है |एक विद्यार्थी परिक्षा की तैयारी इसलिए करता है कि वह उत्तीर्ण हो |आप अपने बच्चे का पालन पोषण इसलिए करते हैं कि बड़ा होकर वृद्धावस्था में वह आपका सहारा बने |आप आज अर्थार्जन इसलिए करते हैं कि आप अपना जीवन सुखपूर्वक  जी सकें |अगर कोई भी कारण न हो तो मनुष्य कर्म से विमुख हो जाता है ,और हो सकता है इस संसार चक्र  का चलना ही दुर्भर हो जाये |बिना कारण के आप कोई भी कार्य करने को विवश ही नहीं होंगे |इसी लिए गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                          न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
                          कार्यते   ह्यवशः  कर्म  सर्वः   प्रकृतिजैर्गुणैः || गीता ३/५ ||
अर्थात्,निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है;क्योंकि सारा मनुष्य-समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |
                   यहाँ स्पष्ट है कि कर्म करने के पीछे प्रकृति द्वारा पैदा हुए गुण ही कारण होते हैं |ये गुण इन्द्रियों के विषय ,कोई कामना,इच्छा आदि होते हैं |इन्ही के कारण मनुष्य कर्म करने को विवश होता है |
                         प्रत्येक कारण(Cause) एक अपना प्रभाव(Effect) भी पैदा करता है और यह प्रभाव फिर से किसी अन्य के लिए कारण बन जाता है |इस प्रकार यह कारण और प्रभाव का एक ऐसा चक्र या वर्तुल (Cycle) बन जाता है जिसे तोडना साधारण व्यक्ति के वश में नहीं होता है |कारण-प्रभाव-कारण के चक्र को इस प्रकार भी अभिव्यक्त कर सकते हैं -- कर्म( कारण) से पुनर्जन्म (प्रभाव)और पुनर्जन्म (कारण) से फिर कर्म(प्रभाव) |यही वर्तुल अनवरत चलता रहता है |इस चक्र को तोडने के लिए कर्म का ज्ञान आवश्यक हो जाता है |कर्म ही आपको पुनर्जन्म की ओर ले जाते हैं और कर्म ही आपको मुक्त करते हैं |यही सत्य है |
                               || हरिः शरणम् ||

Thursday, November 21, 2013

स्थान (Space)

                              प्रारंभ में हमने तीन कारकों (Factors) की चर्चा की थी,जो प्रत्येक के जीवन को प्रभावित करते हैं |ये तीन करक हैं-समय(Time),स्थान (Space) और कारण(Cause) | समय के बारे में हम अल्प चर्चा कर चुके हैं ,अब थोडा सा स्थान के बारे में भी जान ले | स्थान केवल मात्र रिक्त जगह को ही नहीं कहते हैं |स्थान को अगर एक दार्शनिक के तरीके से देखा जाय तो उसका अर्थ अलग होता है |आपके घर में कोई मेहमान आता है और आप उसे बैठने के लिए स्थान ग्रहण करने को कहते हैं |परन्तु अगर आप यह सब औपचारिकतावश करते हैं और आपके ह्रदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं है तो आप चाहे उसे सोने के सिंहासन पर बैठा दें,उसके लिए सब व्यर्थ है |
                   आपके ह्रदय में प्रत्येक प्राणिमात्र के लिए सम्मान होना चाहिए |प्रत्येक व्यक्ति की भावनाओं के लिए आपके ह्रदय में स्थान होना चाहिए | इसी स्थान की महत्ता है |यह स्थान प्रत्येक व्यक्ति के पास उपलब्ध नहीं होता |एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही इस ऊंचाई तक पहुँच सकता है |उसी के ह्रदय में प्रत्येक के लिए स्थान होता है |ह्रदय की विशालता ही स्थान का प्रतिनिधित्व करती है |
                 प्रत्येक व्यक्ति के अपने अपने विचार होते है |उसको अपने विचार अभिव्यक्त करने का पूर्ण अधिकार है |उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए |यह तभी संभव है जब उसे आप विचार अभिव्यक्त करने के लिए स्थान उपलब्ध कराएँ |आप चाहे उससे असहमत ही हों |यह स्थान उसके विचारों की अभिव्यक्ति के लिए आपके ह्रदय में होना चाहिए |
                                      || हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 20, 2013

समय, विचार और भय (Time, thought and fear)

                                  समय ही एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा उद्वेलित करती है | समय के कारण ही व्यक्ति के मस्तिष्क में विचार पैदा होते है |समय दो अनुभवों के बीच का माप है |समय मुख्य रूप से तीन में विभाजित किया जाता है-बीता हुआ कल या भूत ,आज या वर्तमान और आनेवाला कल या भविष्य |आज 'वर्तमान'में कौन जीता है |सभी भूतकाल या भविष्य में जीए जा  रहे हैं |आज हम यही विचार करते हैं कि कल हमने क्या खोया या क्या नहीं कर पाएऔर हमें कल क्या पाना है या कल के लिए क्या करना है ?इसी दुविधा में आज बीत जाता है और हम 'वर्तमान' में जी नहीं पाते |यही सबसे बड़ी विडम्बना है |
                                 यह समय और विचार दोनों मिलकर मन में एक भय पैदा करते हैं |इस भय के कारण व्यक्ति आज यानि 'वर्तमान' को अच्छी तरह जी नहीं पाता |उसे बीते हुए कल का भय सताता है जैसे कल पडौसी ने मेरा कैसा अपमान किया,कल बॉस ने मेरे को कार्यालय में मेरी फजीहत की आदि आदि|भविष्य का भय यह होता है कि क्या बच्चा पास हो पायेगा,मेरी नौकरी तो नहीं चली जायेगी,कहीं आयकर वालों की नज़र तो मुझ पर तो नहीं है आदि आदि|
                                  इनसे हम समझ सकते हैं कि विचार और भय पैदा करने में समय की बहुत बड़ी भूमिका है |इसी प्रकार धीरे धीरे मृत्यु का भय पैदा हो जाता है और मृत्यु की आशंका के बीच व्यक्ति भय के वातावरण में जीता रहता है |इस तरह जीने को मैं जीना नहीं कहूँगा |अगर समय नहीं हो तो विचार भी नहीं पैदा होंगे और न ही भय | इसलिए हमें समय से अपने आप को अलग करना होगा,समय के बंधन को तोडना होगा तभी हम 'सच्चिदानंद' को पा सकेंगे |समय से अलग होजाने या समय से ऊपर उठ जाने को ही समयातीत या कालातीत होना कहते हैं |
                                 अब प्रश्न यह उठता है कि कालातीत या समय से ऊपर उठने के लिए क्या किया जाये ?समय से अलग होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि समय से दूर भागा जाये |पहली बात तो यह समझने की है कि समय और विचार दो अलग अलग नहीं है ,दोनों एक ही है |बिना समय के विचार का अस्तित्व नहीं हो सकता और बिना विचार के समय का कोई मूल्य नहीं है |इन दोनों से दूर जाने की आवश्यकता नहीं है |आवश्यकता है दोनों को गहराई से देखने की,समझने की और परखने की |दोनों को समझते ही भय अपने आप दूर हो जायेगा |इसी को समयातीत या कालातीत होना कहते हैं |
                                || हरिः शरणम् || 

Tuesday, November 19, 2013

समय(Time)

                                समय या काल दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं |समय एक ऐसी माप है जो दो अनुभवों के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है |समय कितना तेजी से गुजरता है या कितनी धीमी गति से,यह व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है |समय मानव की बनाई हुई एक व्यवस्था है,इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं|समय से ऊपर निकल जाना ही सबसे बड़ी उपलब्धि होती है |आज जब हम इस पृथ्वी पर रहते हैं ,तब इस पृथ्वी के अपने अक्ष एक घूर्णन के पूरा करने को एक दिन या २४ घंटे कहा जा सकता है |इसी तरह जब पृथ्वी सूर्य के चारों और एक चक्कर सम्पूर्ण कर लेती है ,तब हम कहते हैं कि एक वर्ष पूरा हो गया |यह सब यहाँ रह रहे व्यक्तियों की दिनचर्या एवं कार्य प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने के लिए की गयी एक मानव व्यवस्था है |
                         अब आप कुछ समय के लिए एक कल्पना कीजिये |आप एक अंतरिक्ष यान में बैठ कर अंतरिक्ष का भ्रमण कर रहे हैं ,और अचानक पृथ्वी से आपका संपर्क कट जाता है |यान की विद्युत व्यवस्था भी समाप्त हो जाती है ,जिससे सारे उपकरण कार्य करना बंद कर देते हैं |केवल आपका यान एक उपग्रह की तरह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहा है |क्या आप ऐसी स्थिति में अनुमान लगा सकते हैं कि कितना समय बीत गया ?नहीं,बिलकुल भी नहीं|क्योंकि आपके लिए सूर्य कभी अस्त हुआ ही नहीं|अचानक एक दिन आपका पृथ्वी से संपर्क स्थापित हो जाता है और सब उपकरण और विद्युत व्यवस्था पूर्ववत कार्य करने लग जाती है |आप सबसे पहले संपर्ककर्ता से यही पूछेंगे कि आज कौन सा दिन है ?आप आश्चर्य करेंगे कि आपको पता भी नहीं चला कि कितना समय आपका बीत गया?
                       यहाँ इतना उल्लेख करने का एक मात्र कारण यही है कि समय एक सांसारिक माप है |और इस माप से परमात्मा को मापा नहीं जा सकता |क्योंकि परमात्मा कोई अनुभव नहीं है जिसे समय से मापा जा सके |इसी लिए परमात्मा को समयातीत या कालातीत कहा गया है |परमात्मा और आत्मा में कोई भेद नहीं है |लेकिन आत्मा मन और इन्द्रियों के विषयों का संग कर लेती है तब वह भी समय के बंधन में अपने आप को बांध कर जन्म-मृत्यु के चक्र में फंस जाती है | इसी कारण से शरीर दर शरीर उसे भटकना पड़ता है |यही पुनर्जन्म का सबसे बड़ा कारण है |इस लिए मुक्ति के लिए आत्मा को कालातीत होना ही होगा |अर्थात् समय के बंधन से मुक्त होना होगा |
                                  || हरिः शरणम् ||

Monday, November 18, 2013

गुणातीत (Far from all properties.)

                          गुणातीत व्यक्ति के लक्षण ---कैसे होते हैं ? कैसे पहचाने ?
     गुणातीत महापुरुष ---
                            १.बालवत होते हैं  --एकदम बच्चे की तरह |केवल वर्तमान में जीते हैं |न भूतकाल पर विचार और न ही भविष्य की चिन्ता |सम स्थिति |बाहर से सक्रीय |भीतर से एकदम शांत |
                            २.उन्मत्वत होते हैं --एकदम पागलों की तरह |आज की स्थिति में बात करेंगे तो लगेंगे ,जैसे पागल हो |बातें करेंगे जैसे-संसार एक सपना है ,माया ने हमें बांध रखा है,अगर कामना ही करनी है तो मोक्ष/मुक्ति की करो,आदि आदि |बिल्कुल पागलों का सा व्यवहार,परन्तु पागल नहीं होते |
                           ३.पैशाचवत होते हैं -- पिशाचों की तरह |एकांत में रहना |भीड़ पर निर्भर न होना |
                           ४.उदासीनवत होते हैं -- प्रत्येक कार्य के लिए भीतर से उदासीन |परन्तु बाहर से सक्रिय |सुख-दुःख ,प्रिय-अप्रिय सभी स्थिति में सम |
                                         ऐसे व्यक्तियों को समाज चाहे किसी भी रूप में ले,परन्तु वास्तविकता यही है कि परमात्मा के निकट यही होते हैं और एक दिन परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं |
                                     || हरिः शरणम् ||                               

Sunday, November 17, 2013

त्रिगुणी व्यवस्था |

                              पुनर्जन्म के अध्ययन के दौरान हमने मानव में स्थित तीन गुणों की चर्चा की थी|इन तीनों गुणों से ही प्रत्येक व्यक्ति युक्त होता है |जिस व्यक्ति में जिस गुण की प्रधानता होती है ,वह व्यक्ति उसी प्रकृति का माना जाता है |आज हम संक्षेप में उन गुणों की प्रकृति जानेंगे |
                            सात्विक गुण --(जाग्रत अवस्था)--प्रकाशमान |सदैव सम स्थिति में रहना |भीतर ज्ञान होना |बाहर से बिलकुल शान्त |
                            राजसिक गुण --(स्वप्न अवस्था )--कर्मठता |सदैव कार्यरत रहना |सदैव सक्रिय रहना | सम्पूर्ण समय केवल भाग-दौड |बाहर और भीतर ,दोनों तरफ से अशांत |
                            तामसिक गुण -- (सुषुप्तावस्था )--आलस्य | प्रमाद |सदैव निद्रा में रहना |भीतर केवल अज्ञान |बाहर से बिलकुल शान्त,आलस्य धारण किये हुए |
                                सात्विक गुणों से युक्त व्यक्ति का उत्थान |राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति की मध्यम गति,अर्थात् उत्थान और पतन दोनों ही संभव |तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति का केवल पतन |
                            तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति बाहर से शान्त नज़र आने के कारण कभी कभी सतोगुणी होने का भ्रम पैदा करता है |तामसिक गुणी व्यक्ति भीतर से अज्ञानी रहता है जबकि सतोगुणी व्यक्ति ज्ञानरुपी प्रकाश से प्रकाशमान |
                             सभी जीव भूतों में ये गुण ही कर्ता हैं |इन गुणों से ऊपर उठकर जो व्यक्ति परमात्मा को देखता है ,वही व्यक्ति गुणातीत कहलाता है |वही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त होता है |
                               || हरिः शरणम् ||  

Saturday, November 16, 2013

श्रीमद्भागवतगीता का आज के समय में औचित्य |

                              महाभारतकाल में विषम परिस्थितियों में भी ज्ञान की गंगाएं बही थी|यह ज्ञान आज हमें तीन सनातन धर्म ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है |ये तीन ग्रन्थ है-
                                   १.भीष्म नीति |
                                   २. विदुर नीति |
                                   ३. श्रीमद्भागवतगीता |
           "भीष्म-नीति"ग्रन्थ में वह ज्ञान संकलित है ,जो ज्ञान भीष्म पितामह द्वारा युद्धिष्ठिर को दिया गया था | युद्धिष्ठिर एक सतोगुणी व्यक्ति थे |आप जानते ही हैं कि सत् गुणों से युक्त व्यक्ति ज्ञान से भी युक्त होता है |उसे वैसे भी ज्ञान प्राप्त करने की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती |आज के युग में ऐसे लोगों का नितांत ही अभाव है,अतः इस ग्रन्थ का आज ज्यादा औचित्य नहीं है ,और न ही यह ग्रन्थ ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त कर सका |
           "विदुर-नीति" ग्रन्थ में वह ज्ञान संकलित है ,जो महात्मा विदुर द्वारा महाराज धृतराष्ट्र को दिया गया था| धृतराष्ट्र एक तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति था |तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने की स्थिति में होता ही नहीं है,और अगर उसे ज्ञान दिया जाये तो वह उसके एकदम विपरीत उसको समझता है |इसी कारण से आज संसार में तामसिक व्यक्तियों के होते हुए भी इस ग्रन्थ का औचित्य नहीं रहा |
          "श्रीमद्भागवतगीता" ग्रन्थ में वह ज्ञान संकलित है जो भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को युद्ध के मैदान में दिया गया था |श्रीमद्भागवतगीता ही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमे भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है,विवाद नहीं|संवाद में एक व्यक्ति बोलता है तो उस समय दूसरा उसे सुनता है,जबकि विवाद में दोनों ही किसी की भी सुनते नहीं है ,दोनों केवल बोलते ही हैं |यहाँ अर्जुन राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति है और आज के युग में रजोगुणी व्यक्तियों का ही बाहुल्य है |इसी कारण से इस इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि और महता है|अतः आज के समय में यह ग्रन्थ युवाओं के लिए एक अच्छा मार्गदर्शक है |
                                       || हरिः शरणम् ||

Friday, November 15, 2013

आध्यात्मिकता |

                            भौतिक शरीर के बारे में कभी भी कोई दावा नहीं कर सकता कि कल यह रहेगा या नहीं?परन्तु आत्मिक शरीर कल भी था ,आज भी है और कल भी रहेगा |अतः आध्यात्मिक बनें न कि भौतिकता वादी |
                            जन्म-मरण , बुढ़ापा और बीमारी ,यह सब भौतिक शरीर को प्रभावित करते हैं,आत्मिक शरीर को नहीं |आत्मिक शरीर को मज़बूत बनाये रखें,तभी भौतिक शरीर से जीवन के आनंद (सच्चिदानंद) को प्राप्त कर सकेंगे |
                            अध्यात्म यह नहीं है कि ईश्वर की पूजा एवं आराधना के नाम पर तरह तरह के पाखंड किये जाएँ |यह तो अपने आप को सरासर धोखा देना हुआ |अध्यात्म तो मात्र "स्व" को (अपने आप को ) जानने का नाम है |
                           केवल घर-बार छोड़कर दर दर भटकने से परमात्मा थोड़े ही उपलब्ध होता है |परमात्मा के दर्शन तो स्वयं के भीतर झांकने एवं स्वयं को पहचानने से होते हैं|घर से दूर होना तो केवल मात्र आपको भीतर झांकने के लिए वातावरण उपलब्ध करवाता है |अगर संसार से दूर जाकर भी आप संसार के बारे में सोचते है,तो इसका अर्थ यही है कि आप अभी भी संसार में बने हुए हैं |
                                  || हरिः शरणम् ||

Thursday, November 14, 2013

समय,स्थान और कारण|

                               इस संसार में सबसे प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति के पीछे तीन factors लागू होते हैं  --
                                             समय(Time),स्थान (Space),और कारण(Cause)
     समय (Time)--Time is an interval between two experiences.आध्यात्मिकता की तरफ बढ़ने वाले व्यक्ति के पास समय का कभी भी अभाव नहीं होता है|क्योंकि उसकी हर वस्तु और स्थिति नियंत्रित और व्यवस्थित होती है |जो व्यक्ति आध्यात्मिकता से दूर होता है ,वह हर वक्त , समय न होने या समय की कमी होने का रोना ही रोता रहता है |एक समय ऐसा आता है जब मृत्यु भी दस्तक दे देती है परन्तु कुछ करने के लिए समयाभाव का रोना तब भी रहता है |
      स्थान  (Space)--आध्यात्मिक व्यक्ति के पास स्थान का कभी भी अभाव नहीं रहता है |उसका ह्रदय विशाल होता है जो प्रत्येक जीव को स्वतंत्रता देने की तरफ इशारा करता है |जबकि आध्यात्मिकता से दूर व्यक्ति के पास स्थानाभाव सदैव रहता है |वह अपने संपर्क में आये हुए व्यक्तियों की स्वतंत्रता में कदापि भी विश्वास नहीं करता है |
    कारण(Cause) --आध्यात्मिकता की तरफ प्रगति करने वाले व्यक्ति को प्रत्येक के पीछे का कारण स्पष्ट होता है |उसे यह भी पता होता है की मानव योनि में उसके जन्म का कारण क्या है?जबकि साधारण व्यक्ति को  अपने जन्म का कारण स्पष्ट नहीं होता है |वह मानव जन्म को मात्र खाना ,पीना,सोना ,अर्थार्जन और धन संग्रह के लिए ही समझता है |इस प्रकार वह मानव जन्म को यूँ ही गवां देता है |
                                              || हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 13, 2013

सुख और दुःख |

                     
                                                  'दुःख' का सबसे बड़ा कारण 'सुख' की इच्छा रखना है| अगर हम किसी व्यक्ति से सुख की कामना न करे तो हमें दुःख होने का प्रश्न ही नहीं है| यह इस संसार का नियम है कि जिस किसी से भी हम सुख पाने की आकांक्षा रखते हैं,सबसे ज्यादा दुःख हमें उसी से ही मिलता है| इसलिए 'दुःख' किसी से न मिले ,ऐसी अगर इच्छा हो तो फिर किसी से सुख प्राप्त होने की कामना न करे |
                                              " महाभारत "में कुंती ने प्रभु से सुख प्राप्त करने की कामना की बजाय दुःख देने की प्रार्थना की थी| जिससे वह हमेशा ईश्वर को अपने पास महसूस करती रहे और सुख प्राप्त न हो पाने की स्थिति में दुखी भी न हो |
                                        || हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 12, 2013

स्वामी रामतीर्थ की नज़रों में-पुनर्जन्म और मुक्ति |

            स्वामी रामतीर्थ के अनुसार--
                 
                  1. Life is manifestation of your "Thoughts",nothing else.
                               जीवन और कुछ नहीं आपके विचारों की अभिव्यक्ति मात्र है |
                  2.Man - Desires = GOD
                                        अगर आप अपने जीवन में  आकांक्षाओं और कामनाओं से मुक्ति पा लेते हो तो फिर आप स्वयं ही परमात्मा हो जाते हो |
                  3.Birth is not by chance but by choice.
                             आपका जन्म आपकी कामनाओं और इच्छाओं का परिणाम है,न कि संयोग मात्र |   
                                  जो जीवन में आप करना चाहते हैं और कर नहीं पाते हो,जो बनना चाहते हो और बन नहीं पाते हो|अगले जन्म में उसको पूरा करने के लिए आपको वैसा ही वातावरण मिलता है|बस,जरूरत है आपको वर्तमान जीवन में सही कर्म करने की |इसीलिए यह कहा गया है कि आपका अगला जन्म आपकी पसंद के अनुसार होगा,न कि संयोगवश |

                 4."मुक्त" होने के लिए आपको "युक्त" होना जरूरी है |बिना "युक्त" हुए "मुक्ति" की कल्पना नहीं की जा सकती |गीता में भगवान श्री कृष्ण ने इसी युक्त होने को "योग"कहा है |
                                
                                                         || हरिः शरणम् ||

Monday, November 11, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१८


क्रमश:१८
            इस प्रकार हमने गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा सुझाये गए मुक्ति के तीन मार्गों को विज्ञानं के अनुसार समझने का प्रयास किया |ध्यान-योग(Meditation) में केवल विचारों(Thoughts) पर अंकुश लगाते हुए मन को नियंत्रण में लेना होता है जबकि कर्म योग में निष्काम भाव (Act without attachments)से कर्म अथवा ईश्वर के लिए कर्म करना(Act of and for God) या फिर कर्मफल  का त्याग(Detachment from the result of act) करना होता है जिससे दीर्घ कालीन स्मृति (Long term memory)बन ही नहीं पाए |यहाँ कर्म-योग में मन पर नियंत्रण आधा-अधूरा होता है जिसके कारण व्यक्ति कभी भी अपनी स्थिति से गिर सकता है (Degradation)और कभी भी अपनी स्थिति में सुधार(Up gradation) भी कर सकता है |ज्ञान -योग में व्यक्ति अपने स्वयं के और परमात्मा के बारे में समस्त ज्ञान(Thorough knowledge) को उपलब्ध होता है और वह शरीर,मन और इन्द्रियों के सभी क्रिया-कलापों की वैज्ञानिक जानकारी(Scientific knowledge) रखता है |छोटी से छोटी बात को भी वह आसानी से समझ लेता है,जिसके कारण वह मन को बहुत भी अच्छे तरीके से और स्थाई रूप से नियंत्रित रखने में सक्षम हो जाता है |
            ध्यान -योग में व्यक्ति को विचारों को नियंत्रण में रखने के लिए सांसारिक गतिविधियों से कटना पड़ता है जबकि कर्म-योग और ज्ञान-योग में संसार में रहते हुए भी मुक्ति संभव है |कर्म-योग में व्यक्ति संसार में रहते हुए उसके विकारों जैसे काम,क्रोध,लोभ,मोह,तृष्णा आदि में कभी कभार लिप्त हो सकता है जबकि ज्ञान-योग में ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के सामने ऐसी कोई भी परिस्थिति कभी भी नहीं आ सकती |
             ध्यान-योग और कर्म-योग में व्यक्ति पूजा-पाठ या अन्य ऐसी विधियाँ(Rituals) अपनाता है जो कि उसने कहीं पढ़ी,सुनी या देखी हो |जबकि ज्ञानी व्यक्ति को ऐसी किसी भी गतिविधियों में न तो कोई रुचि होती है और न ही वह इनमे भाग लेता है |परन्तु अगर कोई अन्य भी ऐसी विधि अपनाता और करता है तो वह उसकी आलोचना भी नहीं करता है |
              ध्यान-योग में एकाग्रता(Concentration) की बहुत ही बड़ी भूमिका होती है जबकि कर्म-योग में एकाग्रता की आवश्यकता जरूर होती है परन्तु ध्यान - योग जितनी नहीं |ज्ञान-योग में एकाग्रता की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होती |व्यक्ति में उपस्थित ज्ञान ही उसे ध्यान की अवस्था की स्थिति में सदैव स्थिर रखता है |
                 कर्म-योग को साधना सबसे सरल और सुगम(Easy and applicable) है |जबकि ध्यान-योग सबसे कठिन |ध्यान में जाने के लिए पहले ज्ञान -योग साधना आवश्यक है |बिना ज्ञान को उपलब्ध हुए ध्यान में जाना असंभव है |इसी लिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- 
                         श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्येते |
                        ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || गीता १२/१२ ||
               अर्थात्, मर्म को न जानकर किया गये अभ्यास(Rituals) से ज्ञान (Knowledge)श्रेष्ठ है,ज्ञान से विशेष ध्यान (Meditation)है और ध्यान से भी श्रेष्ठ सब कर्मों के फलों का त्याग((Detachment from the results of acts) है ;क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति(Peace forever) उपलब्ध होती है |
                   उपरोक्त श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान से ध्यान को विशेष बताया है ,श्रेष्ठ नहीं |ज्ञान तो कई व्यक्तियों को प्राप्त हो सकता है परन्तु उस ज्ञान का सही उपयोग तभी हो सकता है जब उस ज्ञान का पूर्णरूप से ध्यान रखा जाये |कई बार व्यक्क्ति को सम्पूर्ण ज्ञान होने के बाद भी सही समय पर वह ज्ञान ,ध्यान में नहीं आता |अतः केवल ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि ज्ञान का प्रत्येक समय ध्यान होना आवश्यक है |इसीलिए गीता में भगवान ने ध्यान को ज्ञान से विशेष बताया है |
                      ध्यान और कर्म-योग में से ध्यान - योग में अहंकार का नितांत अभाव होता है जबकि कर्म-योग में कभी कभी अज्ञानवश ऐसा हो सकता है |परन्तु ज्ञान-योग में व्यक्ति प्रायः अहंकारयुक्त हो जाता है |ऐसी स्थिति में ज्ञान प्राप्त करना अज्ञान की स्थिति से भी अधिक खतरनाक हो जाता है |इसीलिए ज्ञान का हर समय ध्यान में रहना आवश्यक है, जिससे व्यक्ति निरंतर अपनी स्थिति में सुधार करता रहे|
                                       || हरिः शरणम् ||

Sunday, November 10, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार|-१७

क्रमश:१७
                   गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
                                 ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || गीता ४/३७ ||
अर्थात्,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है,वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है |
                        गीता में भगवान ने ज्ञान को भी अग्नि कहा है |विज्ञानं की दृष्टि में भी ज्ञान एक उर्जा ही है |ज्ञान मस्तिष्क के Neocortex में चुम्बकीय उर्जा(Magnetic energy) के रूप में संचित (Store)रहता है |इसीलिए ज्ञान कभी भी समाप्त नहीं होता और न ही कोई इसको कोई चुरा कर ले जा सकता |ज्ञान ही संसार में मात्र ऐसा है जिसे व्यक्ति कितना ही बांटे,बढता ही है,कम नहीं होता है |ज्ञान रुपी अग्नि से कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं?विज्ञानं के अनुसार जब आपके Neocortex में ज्ञान की चुम्बकीय उर्जा अपना स्थान घेरना शुरू करती है ,तब वहां संचित अन्य सूचनाओं के महत्व(Importance) का आकलन (Analysis)व्यक्ति करने लग जाता है |जो भी सूचनाएं उसे अनुचित लगती है उसके बारे में वह विस्तृत रूप से आकलन करता है |जो भी गलत कर्म उसके द्वारा किये गए है,उनको वह या तो सही करने की कोशश करता है या उन गलत कर्मों के परिमार्जन(Correction) के लिए वह प्रायश्चित करने की राह पकड़ता है |उसे कोई भी संकोच नहीं होता कि वह गलत किये गए कार्य को स्वीकार क्यों कर रहा है?किसी के साथ अपने द्वारा किये गए गलत व्यवहार के लिए वह क्षमा मांगने को भी निःसंकोच तैयार रहता है |इसी प्रकार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके प्रति किये गए अनुचित व्यवहार के लिए उसे तुरंत क्षमा भी कर देता है |
                      इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ज्ञानयुक्त व्यक्ति के व्यवहार में आश्चर्यचकित कर देने वाला परिवर्तन  आ जाता है |यहाँ तक कि उसे अपने ज्ञानी होने का अहसास भी नहीं रहता,अहंकार होने की बात तो सम्भावना से परे की बात है |
                      जब मस्तिष्क के Neocortex में ज्ञान की उर्जा अपना विस्तार पा लेती है,तब अन्य स्मृतियों के अंकित होने और संचित रहने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है |ऐसे में मृत्यु के समय किसी भी प्रकार के संकेत आत्मा के साथ जाने  को उपलब्ध नहीं रहते हैं |यह ज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है |इसी  लिए ज्ञान को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में समस्त कर्मों को भस्ममय करने की क्षमता वाला बताया है |कर्म-योग से ज्ञान-योग को श्रेष्ठ ज्ञान की इसी क्षमता के कारण बताया है | ज्ञान को उपलब्ध होने का प्रयास बड़ा ही दुष्कर है ,ज्ञान को उपलब्ध होना तो दूर की  कौड़ी  ही समझी जानी चाहिए |इसी बात को ध्यान में रखते हुए साधारण व्यक्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान के स्थान पर कर्म-योग के साधन को सुगम और सरल बताया है |
                                  ज्ञान के कारण Neocortex किसी भी कार्य के लिए ऐसे संकेत Hypothalamus को भेजता भी नहीं है ,जिन्हें वह आगे प्रेषित (Transmit)कर इन्द्रियों(Organs of senses) द्वारा  कोई गलत कर्म करवा सके |इसी प्रकार Synapses,Nerves और Neurons जो भी सुचनाये(Sensory signals) Hippocampus को भेजे जाते है ,ज्ञान के कारण उसकी प्रतिक्रिया (Reaction)में मस्तिष्क द्वारा ऐसे कोई भी  कार्यिक संकेत (Motor signals)वापिस nerves तथा Synapses को भेजे नहीं जाते जिसके कारण कर्मेन्द्रिया (Organs for act)कोई अनुचित कर्म करे|यही कारण है किज्ञानी द्वारा कभी भी ऐसे कर्म किये ही नहीं जाते जो अकर्म में न बदले |साथ ही ज्ञानी व्यक्ति का मन भी इतना निर्मल हो जाता है कि आत्मा को वह इन्द्रियों के विषयों का संग (Attachment with properties of senses)) करने ही नहीं देता | जैसा कि  हम जानते हैं कि मन ही बंधन(Tie, Attachment) के लिए उत्तरदायी है और मन ही व्यक्ति को मुक्ति(Untie, Detachment) के द्वार तक ले जाता है |तभी कबीर ने कहा है -
   पुनर्जन्म के लिए-
                            मन मरा न ममता मरी,मर मर गया शरीर |
                             आशा तृष्णा ना मरी, कह गया दास कबीर ||
और मन का मुक्ति से सम्बन्ध कैसा है ,इस बारे में कहा है-
                            मन ऐसा निर्मल भया , जैसे गंगा नीर |
                            पाछे पाछे हरि फिरे , कहत कबीर कबीर ||
       यही ज्ञानी व्यक्ति की पहचान है |ज्ञानी व्यक्ति मन पर इतना नियंत्रण कर लेता है कि इन्द्रियों के बहकावे में आ ही नहीं सकता |पुनर्जन्म से मुक्ति का विज्ञानं मात्र यही है यानि मन ( Limbic system of the brain -Hypothalamus and Hippocampus specially)) पर नियंत्रण |और यह सब ज्ञान को उपलब्ध होने पर ही संभव है |
क्रमश:
                         || हरिः शरणम् ||

Saturday, November 9, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१६

क्रमश:१६
                      गीता में भगवान श्री कृष्ण ने मुक्ति के तीन योग बताये हैं-यथा,ध्यान-योग,कर्म-योग और ज्ञान-योग |इन तीनों में सबसे उपयुक्त कर्म-योग को बताया है इसके कई कारण है |सबसे बड़ा कारण यह है की मनुष्य अपने जीवन में कभी भी किसी भी समय कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता | जब कर्म ही करते रहना है तो फिर इससे अलग और आसान मुक्ति का साधन कोई दूसरा हो ही नहीं सकता |अब हम मुक्ति के तीसरे साधन की वैज्ञानिक आधार पर विवेचना करेंगे |यह तीसरा उपाय है -ज्ञान योग |
                     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                             न    हि   ज्ञानेन   सदृशं    पवित्रमिह   विद्येते |
                            तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दन्ति ||गीता ४/३८||
           अर्थात्,इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है |उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग से शुद्ध अन्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है |
                        इस श्लोक में श्री कृष्ण ने तीन बाते कही है-१.ज्ञान सबसे पवित्र करने वाला है |२.ज्ञान कर्म-योग से ही पाया जा सकता है ,और ३.कर्म-योग से अन्तःकरण शुद्ध होने पर मनुष्य को ज्ञान पाने के लिए कहीं भी भटकना नहीं पड़ता है ,वह उस ज्ञान को अपनी आत्मा में ही पा लेता है |मनुष्य की ज्ञान पाने की जब छटपटाहट बढती है,तब वह उसे पाने के लिए इधर उधर भटकता है,कई प्रकार के कर्म करता है जैसे शास्त्र पढ़ना,तत्व-ज्ञानियों से सत्संग करना इत्यादि | इतने कर्म करने के बाद उसे यह आभास होता है कि इन सबसे  भी वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर पा रहा है तब वह यह भटकन छोड़ कर शांत हो जाता है |यही अन्तःकरण के शुद्ध होने की अवस्था है और इसी अवस्था में वह ज्ञान जो वह बाहर खोज रहा था उसे अपनी आत्मा में यानि स्वयं के अंदर ही मिल जाता है |भगवान बुद्ध को भी इसी प्रकार बौधित्व प्राप्त हुआ था |
                            अब इसी ज्ञान को विज्ञानं के अनुसार देखते हैं |Neocortex केवल मानव मस्तिष्क में ही होता है |इसी में ज्ञान संचित(Store) रहता है और किये गए कर्मों की दीर्घ कालीन स्मृति(L.T.M.) भी |जब व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के लिए कर्म करता है वे दीर्घ कालीन स्मृति के रूप में Neocortex में संचित होते रहते है |जब व्यक्ति थक हारकर ज्ञान पाने से सम्बंधित कर्म बंद कर देता है तब उन सब कर्मों के बारे में वह अन्तःकरण से विचार करता है |उसे महसूस होता है कि सब कुछ आत्मा में ही स्थित है और आत्मा ही परमात्मा का एक अंश है |इस अवधि में वह तात्विक-ज्ञान (Elemental knowledge)को उपलब्ध हो जाता है ,जिसका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं |जब वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है तो पूर्व में किये गए कर्म जो दीर्घ कालीन स्मृति के रूप में Neocortex में अंकित हैं ,वे सभी धीरेधीरे कमजोर पड़कर समाप्त होने लगते हैं और एक दिन समस्त Neocortex कर्मों की स्मृति से मुक्त हो जाता है और मात्र ज्ञान ही वहाँ रह जाता है |इस स्थिति में अगर वह व्यक्ति कोई कर्म  करता है तो वे सभी अकर्म हो जाते हैं |यह ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है |मृत्यु के बाद आत्मा के साथ जाने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता,ऐसे में पुनर्जन्म का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है और और आत्मा का परमात्मा के साथ योग हो जाता है |इसी का नाम मुक्ति है |
                ज्ञान और कर्मों के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में भी यही बात कहते हैं-
                            न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |
                           इति मां  योSभिजानाति  कर्मभिर्न  स  बध्यते ||गीता ४/१४||
अर्थात्, कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (आसक्ति) नहीं है;अतः मेरे को कर्म लिप्त नहीं करते - इसी प्रकार जो मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है अर्थात् मुझे तत्व से जान लेता है ,वह भी कर्मों से नहीं बंधता(No attachment with acts) है यानि उसकी भी कर्मों में आसक्ति नहीं रहती है |
क्रमश:
                    || हरिः शरणम् ||

Friday, November 8, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१५

क्रमश:१५
                  गीता में कर्म तीन प्रकार के बतलाये गए हैं -कर्म,विकर्म और अकर्म|कर्म को आप सकाम कर्म भी कह सकते हैं ,जो की किसी निश्चित उद्देश्य को ध्यान में रख कर किये जाते हैं|                
                             जब सकाम कर्म किये जाते हैं और उनसे उद्देश्य (Target)पूरा नहीं हो पाता तब ये कर्म लघु अवधि स्मृति(S.T.M.) के रूप में  Hippocampus में जमा(Collect) हो जाते हैं और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए Hypothalamus द्वारा पुनः कर्म करने के आदेश कर्मेन्द्रियों(Senses of act) को दिए जाते है |यह क्रम न टूटने वाले चक्र(Vicious cycle) में परिवर्तित हो जाता है और बार बार यही प्रक्रिया दोहराती(Repetition) जाती है |अंत में या तो उद्देश्य पूरा हो जाता है अथवा नहीं |नहीं की स्थिति में मृत्यु बाद पुनर्जन्म इन अधूरे उद्देश्य यानि कामनाओं को पूरा करने के लिए अवश्यम्भावी है|उद्देश्य पूर्ण हो जाने की स्थिति में व्यक्ति को कर्म के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है या फिर उद्देश्य और विशाल हो जाता है |ऐसे में व्यक्ति फिर से सकाम कर्म के चक्र से नहीं निकल पाता,ऐसे में पुनर्जन्म से मुक्ति कैसे संभव हो सकती है ?
                          विकर्म तो ऐसे कर्म है जो सकाम कर्म के बिलकुल ही उल्ट(Opposite) होते हैं |ऐसे कर्म जो दूसरे को हानि (Loss) पहुँचाने के उद्देश्य से किये जाते हों ,वे समस्त कर्म विकर्म कहलाते हैं |ये कर्म क्रोध,घृणा,अहंकार और भय के कारण किये जाते हैं |इन कर्मों में पीयूष ग्रंथि (Pitutary gland)के द्वारा Hormones का श्राव होता है जो Adrenal ग्रंथि (Supra renal gland)से Adrenaline hormone का श्राव (Secretion)कराती है जो ऐसे कर्म करवाते हैं जो क्रोधवश,घृणास्पद ,अहंकारयुक्त और भयवश किये जाते हैं |इन कर्मों के लिए पीयूष ग्रंथि(Pitutary gland) को  आदेश Hypothalamus से मिलते हैं और कर्म हो जाने पर सीधे Hippocampus द्वारा दीर्घ कालीन स्मृति(L.T.M.) में बदलकर Neocortex में संचित(Store) कर दिए जाते हैं |मृत्यु के समय ये सब चुम्बकीय तरंगों के (Magnetic waves)रूप में (चित्त )आत्मा के साथ शून्य (Space)में चले जाते हैं |विकर्म का फल बड़ा ही भयावह होता है |आत्मा उनका विश्लेषण(Analysis) कर नीच योनी के शरीर कर्मफल भोगने हेतु उपलब्ध करवाती है |
                            गीता में तीसरे प्रकार के जो कर्म बताये गए हैं ,वे कर्म ,सम्पादित होने के बाद कर्म(Act) से अकर्म(No act)) में बदल जाते हैं |जो कर्म,अकर्म(Act to in-act) में बदल जाते हैं वे है -निष्काम कर्म (Act without any target)अर्थात् ऐसे कर्म जो बिना किसी कामना के किये जाते हों जैसे समाज सेवा,असहाय की सहायता ,बीमार की सेवा सुश्रुसा आदि|दूसरे कर्म जो अकर्म बन जाते हैं वे हैं ऐसे कर्म जो ईश्वर को समर्पित होकर ईश्वर के लिए (Act for God)ही किये जाते हैं |ये कर्म होते तो सकाम कर्म है(Targeted act) अर्थात् किसी उद्देश्य को लेकर किये जाते हैं परन्तु ईश्वर का कार्य(Act of God) मान कर किये जाते हैं |इसके उदहारण है -वृद्ध माता-पिता की सेवा करना,संतान का लालन-पालन करना,गौ-पालन और उसकी सेवा करना आदि|ये कर्म भी अकर्म में परिवर्तित हो जाते हैं |तीसरे प्रकार के कर्म जो कि बाद में अकर्म हो जाते हैं वे भी होते तो सकाम कर्म ही है ,किसी निश्चित कामना के लिए होते हैं और स्वयं के लिए होते हैं परन्तु कर्मफल ईश्वर को दे दिया जाता है अर्थात् कर्म-फल त्याग(Detachment from the result of act) दिया जाता है |इसके उदाहरण है व्यापार करना परन्तु उसका फल यानि लाभ या हानि (Profit or loss) ईश्वर को समर्पित करते हुए त्याग देना,चिकित्सक द्वारा स्वयं के लाभ के लिए चिकित्सा भले ही करना परन्तु उपचार का परिणाम(Result of treatment) त्याग कर ईश्वर को समर्पित कर देना(Doctor treats,God cures) ,किसी भी विद्यार्थी द्वारा परिक्षा की तैयारी सफल होने के उद्देश्य से करना परन्तु जो भी परिणाम आये उसे ईश्वर को समर्पित करते हुए त्याग देना आदि|उपरोक्त तीनो ही प्रकार के कर्म,बाद में अकर्म में परिवर्तित हो जाते है और उनका प्रभाव नए जन्म (Reincarnation)पर बिलकुल भी नहीं होगा |
                       कर्म-योग में मुक्ति का जो वैज्ञानिक आधार है उसमे कर्म के प्रति या कर्मफल के प्रति आसक्ति (Attachment with act or result of act ) का न होना ही है |जब कर्म किसी उद्देश्य को लेकर किये जाते हैं तब उसे सकाम कर्म कहा जाता है |परन्तु जब कर्म बिना किसी उद्देश्य के ,केवल ईश्वर के कर्म समझ कर किये जाते हैं तब वे निष्काम कर्म कहलाते हैं |ऐसे कर्म फिर अकर्म हो जाते हैं |अर्थात ऐसे कर्मों को करने के लिए Hippocampus द्वारा जो आदेश पीयूष ग्रंथि(Pitutary gland) के माध्यम से या मस्तिष्क के अन्य भागों के माध्यम से कर्मेन्द्रियों (Senses of act)को दिए जाते हैं उनसे कर्म तो कर लिए जाते हैं परन्तु उन कर्मों के उपरांत वापिस Hippocampus को कोई भी ऐसी संवेदी सूचनाएं(Sensory information in form of sensory signals) नहीं मिल पाती जिन्हें कि Hippocampus को स्मृति  में बदलना पड़े |ऐसे कर्मों का अंकन(Recording) जब Hippocampus द्वारा स्मृति(Memory) के रूप में नहीं किया जायेगा तो Neocortex को भी कोई सूचना नहीं मिल पायेगी और मृत्यु के समय आत्मा के साथ इनकी चुम्बकीय तरंगे(Magnetic waves) नहीं जाएँगी|फिर आत्मा को किसी नए शरीर की तलाश भी नहीं करेगी और चुम्बकीय तरंगों रुपी आत्मा पुनः अपने मूल श्रोत परम चुम्बकीय क्षेत्र(Para magnetic field) अर्थात परम ब्रह्म परमात्मा में जाकर उसके आत्मसात हो जायेगी|
                        गीता में  कर्म-योग में तीन प्रकार से मुक्ति के उपाय बताये गए हैं-निष्काम कर्म,ईश्वर के लिए कर्म और कर्मफल का त्याग |तीनों ही के अंतर्गत किये  गए कर्मों का वैज्ञानिक रूप से Hippocampus के द्वारा Neocortex में स्मृति के रूप में अंकन (Record as memory)संभव नहीं है |इस प्रकार ऐसे कर्म मुक्ति के द्वार(Entrance gate for freedom) हैं |
क्रमश:
                              || हरिः शरणम् ||
                          

Thursday, November 7, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१४


क्रमश:१४
                         मुक्ति(Freedom from Reincarnation) के लिए मन(Mind) पर नियंत्रण(Control) बहुत ही आवश्यक है |इच्छाएं और कामनाएं(Desires) कभी भी बुरी नहीं होती है ,बल्कि उनके पीछे भागना,किसी भी हालत में उन्हें पूरी करना और इच्छा पूरी होने के बाद भी और अधिक की इच्छा करना बुरा है | एक इच्छा को पूरी करने के लिए आसक्त होकर कर्म करना उस इच्छा की स्मृति को बनाये रखता है |जिसके फलस्वरूप अल्प अवधि स्मृति(S.T.M.) ,दीर्घ अवधि स्मृति(L.T.M.) में बदलकर भावी जीवन(Next life) को प्रभावित करती है |अतः पुनर्जीवन से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि स्मृति(Memory) के आधार पर जो विचार(Thoughts) मन में उत्पन्न हो ,वे शुद्ध और सात्विक हों
                       विचार(Thoughts) एक ऐसी प्रक्रिया है जो बिना स्मृति के संभव नहीं है |आज हमारे मन में जो भी विचार पैदा हो रहे हैं ,उनका सम्बन्ध किसी न किसी पूर्व स्मृति से जरूर है | मानव मस्तिष्क (Brain) और सुषुम्ना नाडी(Spinal cord) से जो सन्देश (Signals)प्रसारित (Send)और प्राप्त (Receive)किये जाते हैं ,इस कार्य में  Neurons की भूमिका होती है |इन Neurons  के कारण ही स्मृति बनती है और स्मृति से विचार |Neurons कभी भी बढ़ते नहीं है जैसे कि शरीर की अन्य कोशिकाएं बढती हैं|एक बार अगर कोई एक Neuron समाप्त (Dead)हो जाता है तो फिर उस स्थान पर नया Neuron नहीं बनेगा | Neurons को नुकसान पहुँचने पर व्यक्ति की स्मृति और विचार में भी परिवर्तन आ जाता है |यही स्थिति Synapses की होती है |
                           इसी लिए भारतीय मनीषियों ने ध्यान(Meditation) पद्धति में विचारों पर अंकुश लगाने(Control on thoughts) की प्रकिया पर ही बल दिया है |निर्विचार(Thoughtlessness) हो जाना ही ध्यान की अवस्था है |विचार आखिर हैं क्या?-केवल पूर्व में प्राप्त अनुभव (Experiences)और ज्ञान(Knowledge) जो स्मृतियों के रूप में मस्तिष्क में इक्कठ्ठा (Stored in brain)हो जाता है |विचारों के मस्तिष्क से अलग होते ही स्मृतियाँ (Memories)भी स्थाई नहीं रह पायेगी }ऐसी स्थिति आने पर Hippocampus और Hypothalamus में सभी क्रियाएँ नियंत्रण में रहेगी और कर्म भी | ऐसी स्थिति में यही स्मृतियाँ ,इच्छाओं और कामनाओं को बढ़ने से रोक देती है और उनको पूरा करने के लिए किये जा रहे कर्मों को भी |जिसके कारण मानव जीवन में अभूतपूर्व सुधार आना शुरू हो जायेगा |यही एकमात्र पुनर्जन्म से मुक्ति(Freedom from Reincarnation) की वैज्ञानिक प्रक्रिया है |
                             पुनर्जन्म से मुक्ति के लिए जो भी वैज्ञानिक प्रक्रिया है वह केवल ध्यान योग ही है,जबकि भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवतगीता में ध्यान के अतिरिक्त मुख्यरूप से दो अन्य पद्धतियाँ भी बतलाई है |वे है -कर्म-योग तथा ज्ञान योग |ध्यान,कर्म और ज्ञान योग के बारे में आध्यात्मिकता की दृष्टि से हम पूर्व में विस्तृत रूप से विचार कर चुके हैं |ध्यान योग में साधारण सी दिखाई देने वाली प्रक्रिया है परन्तु उसको साधना बड़ा ही कठिन है |जिस दिन व्यक्ति विचारों की दुनियां से निकलकर निर्विचार की स्थिति प्राप्त कर लेगा उसी दिन वह इस जीवन में ही मुक्त हो जायेगा,पुनर्जन्म का तो प्रश्न ही नहीं है |
क्रमश:
              || हरिः शरणम् ||    

Wednesday, November 6, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१३

क्रमश:१३
                 सनातन धर्म-शास्त्र  गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
                                 मनसस्तु  परा  बुद्धिर्यो  बुद्धेः  परतस्तु सः ||गीता ३/४२||
                  अर्थात्,इन्द्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ,बलवान और सूक्ष्म कहते हैं;इन इन्द्रियों से पर यानि श्रेष्ठ   और सूक्ष्म मन है,मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी पर या श्रेष्ठ और सूक्ष्म है वह आत्मा है |
               आइये अब इसी गीत्ता में कही गयी बात की तुलना करे आधुनिक विज्ञानं के कहने से-
                   शरीर(Physical body) से पर यानि सूक्ष्म और श्रेष्ठ इन्द्रियां (Sense organs)है,इन्द्रियों से सूक्ष्म व श्रेष्ठ इन्द्रियों का नियंत्रणकर्ता(Pitutary gland) है,इन्द्रियों के नियंत्रणकर्ता से सूक्ष्म Limbic system of brain(मन) है और Limbic system (मन) से सूक्ष्म Neocortex (बुद्धि) है |और Neocortex (बुद्धि) का नियंत्रणकर्ता उसकी विद्युत-चुम्बकीय उर्जा(Electro magnetic energy) है |
                     विज्ञानं इस उर्जा को अभी तक कोई शब्द नहीं दे पाया है |जबकि हजारों वर्ष पहले गीता में इस उर्जा को आत्मा का नाम दे दिया गया था |विज्ञानं अभी भी यह समझा नहीं पाया है कि मृत्यु होने पर यह उर्जा कहाँ चली जाती है ? और जन्म के समय यही उर्जा सक्रिय कैसे होती है ?
                     गीता और विज्ञानं द्वारा कही गयी बातों की तुलना के बाद स्पष्ट हो चूका है कि दोनों में मात्र शब्दों का ही अंतर है,प्रक्रिया में नहीं |जब दीर्घ कालीन स्मृतियाँ (L.T.M.)Cerebrum में एकत्रित हो जाती है ,तब धीरे धीरे व्यक्ति के संस्कार बन जाती है |ये संस्कार व्यक्ति का स्वाभाव बनाते है |उसी स्वभाव के अनुरूप व्यक्ति का आचरण होता है और उसी उनुरूप उसके कर्म |जब व्यक्ति के मन कोई इच्छा उत्पन्न होती है तो वह उन्हें पूरी करने के लिए कर्म करता  है |जब कर्म करते रहने के बाद भी उसकी इच्छा पूरी नहीं होती तो वे इच्छाएं दीर्घ कालीन स्मृति (L.T.M.)के रूप में Cerebrum में संचित(Collect) होती है |मृत्यु के समय ये अधूरी कामनाएं और किये गए कर्मCerebrum के Neocortex से चुम्बकीय तरंगों(Magnetic waves) के रूप मेंHippocampus द्वारा पुनः सक्रिय (Retrieve)की जाती है |सक्रिय होकर ये तरंगों के रूप में ही Hypothalamus को स्थान्तरित की जाती है ,यहाँ से यह तरंगे चित्त के रूप में आत्मा (Soul) के साथ शरीर छोड़ देती हैं | मृत्यु होने के अतिरिक्त सामान्य दशा में उपरोक्त कामनाएं चुम्बकीय तरंगों(Magnetic waves) के स्थान पर विद्युत तरंगों(Electric waves) के रूप में सक्रिय होती है और Hypothalamus  द्वारा चित्त के रूप में आत्मा के साथ भेजने के स्थान पर शरीर के अन्य हिस्सों को प्रेषित(Transfer) की जाती है जिससे कार्य(Act) सम्पादित किया जा सके |शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा शून्य(Space) में इन चुम्बकीय तरंगों (चित्त) का आकलन(Analysis) कर अधूरी इच्छाओं को पूरी करने हेतु और किये गए कर्मों के फल प्रदान करने के लिए नए शरीर की तलाश कर इस चुम्बकीय उर्जा(Magnetic Energy) को नए शरीर में अपने साथ प्रवेश कराती है |इस क्रिया को पूर्ण होने में कुछ क्षणों से लेकर कई वर्षों तक का समय लग सकता है |यह तो पुनर्जन्म की वैज्ञानिक प्रक्रिया हुई |
                                     पुनर्जन्म से मुक्ति अर्थात् मोक्ष के लिए इन्हीं कामनाओं पर नियंत्रण रखना आवश्यक होगा |कामनाएं मन में पैदा होती है और मन को नियंत्रण में रखना आसान नहीं है|मुक्ति तभी संभव है जब कामनाएं पैदा ही न हो | कामनाएं कभी भी और किसी की भी कभी समाप्त नहीं हो पाती है क्योंकि जब एक कामना पूरी होती है तभी या तो वही कामना पुनः पैदा हो जाती है या फिर और अधिक की कामना पैदा हो जाती है |सनातन शास्त्रों में इसे" आत्मा का इन्द्रियों के विषयों का संग" करना कहते हैं|यही संग उसे नए शरीर में जाने को बाध्य करता है |
क्रमश:
               || हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 5, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१२

क्रमश:१२
                      मस्तिष्क में कई न्यूरोंस(Neurons) होते हैं ,उसी प्रकार Nerves में भी Synapses होते हैं |जैसा  कि आप जानते ही है कि ये दो प्रकार के होते है-विद्युतीय(Electrical) और रासायनिक(Chemical) |किसी भी संवेदी संकेतों(Sensory signals) को ये Synapses विद्युत और रासायनिक संकेतों(Electro chemical signals) के माध्यम से स्थानांतरित (Transfer)करते हुए Hypothalamus और Hippocampus तक पहुंचाते हैं |यहाँ Hippocampus को बार बार मिलते इन संकेतों से एक स्मृति (Memory)बनती जाती है |जो प्रारंभ में लघु स्मृति (Short term memory)के रूप में अंकित होती जाती है |उदाहरणार्थ आप एक स्थान पर अपनी गाड़ी पार्क करते हैं ,यह संकेत आपके मस्तिष्क में स्थित Hippocampus को Synapses ,Neurons  और Nerves के माध्यम से मिल जाती है |यहाँ यह लघु स्मृति(S.T.M.) के रूप में अंकित हो जाती है |जब आप कार्य निबटा कर वापिस लौटते हैं तो तत्काल यह Hippocampus आपकी स्मृति (Memory)को सक्रिय(Active) कर देता है जिससे आप स्वतः ही उस दिशा की ओर चल देते हैं जिधर आपने गाड़ी पार्क की थी|यह लघु स्मृति(S.T.M.) हुई|अगर अगली बार जब आप उसी स्थान पर कई वर्षों बाद जायेंगे तो आप यह विस्मृत कर चुके होंगे कि पूर्व में जब आप यहाँ आये थे तब गाड़ी कहाँ पार्क की थी?
                     परन्तु अगर आपकी गाड़ी वहाँ से पहली बार में ही चुरा ली जाती है तो प्रत्येक दिन आपको वह स्थान याद आता रहेगा जहाँ आपने गाड़ी पार्क की थी | Hippocampus को जब यही सूचना(Information) Neurons के माध्यम से बार बार मिलती है,तो यही लघु काल स्मृति(S.T.M.),दीर्घ काल स्मृति(Long term memory)  में परिवर्तित हो जाती है |अब Hippocampus इस स्मृति को ज्यादा समय तक अपने पास नहीं रखेगा और इस दीर्घ काल स्मृति(L.T.M.) को Neocortex में स्थानांतरित कर संचित (Store)कर देगा |लंबे समय बाद आप गाड़ी चोरी की घटना को लगभग भूल जायेंगे |अचानक एक दिन जब आपको पुनः उसी जगह गाड़ी लेकर जाने का विचार भी करेंगे तो तत्काल आपकी यह दीर्घ कालीन स्मृति(L.T.M.) पुनः सक्रिय(Reactive) हो जायेगी|यह कार्य आपके मस्तिष्क(Brain) में स्थित इसी Hippocampus के कारण होता है |इस बार अगर आप उस स्थान पर जाते भी हैं तो गाड़ी उस स्थान पर भूल कर भी खड़ी नहीं करेंगे जहाँ से पूर्व में चोरी हुई थी|अगर उस स्थान पर खड़ी भी कर दी तो आप उस तरफ अपनी नज़र जरुर रखेंगे,जिससे उस घटना को दुबारा(Repeat) न होने दे|
                             यह सब संवेदी सुचनाये (Sensory information)मस्तिष्क(Brain) के Hippocampus में जाती है |इन संवेदी सूचनाओं की प्रतिक्रिया(Counter action) में कार्यिक सूचनाएं(Motor information) संकेतों (Signals)के रूप में Neocortex से चलकर Hypothalamus में आते है |Hypothalamus इनका आकलन (Analysis)कर संकेतों(Signals) को सम्बंधित अंगों(Related organs) तक Neurons, Nerves और Synapses के माध्यम से लक्ष्य (Target)तक पहुंचाता हैं और उसी अनुसार(Accordingly) कार्य सम्पादित(Completion of act) होता हैं |जब कार्य Hypothalamus के अनुसार पूर्ण नहीं (Incomplete)हो पाता है तो ये कार्मिक संकेत(Motor signals) बार बार सम्बंधित कार्य को पूर्ण करने हेतु भेजे जाते हैं |ये सब संकेत Hippocampus में पहले तो लघु कालिक स्मृति(S.T.M.) के रूप में अंकित होते हैं|पुनरावृति (Repetition)के कारण कर्म करने हेतु भेजे गए संकेत दीर्घ कालिक स्मृति(L.T.M.) में परिवर्तित होकर Neocortex को स्थानांतरित(Transfer) कर दिए जाते हैं |Neocortex में यह स्मृति सुरक्षित(Store) रहती है और आवश्यकता पड़ने पर Hippocampus इसको पुनः सक्रिय कर देता है |
                   इसको एक उदहारण से स्पष्ट करते हैं|अगर किसी व्यक्ति को यह विचार आता है की सौ मीटर की दौड में उसको रिकॉर्ड(Record in 100 meter race) तोडना है |तो वह इसके लिए लगातार कर्म (Act)करता रहता है |बार बार कर्म करते रहने से उसके यह कार्यिक संकेत (Motor signals)Hippocampus में पहले लघु कालिक स्मृति(S.T.M.) और फिर दीर्घ कालिक स्मृति (L.T.M.)के रूप में परिवर्तित(Change) होकर Neocortex में स्थानांतरित(Transfer) हो जाते हैं |यह स्मृति तब तक वहाँ रहती है जब तक कि वह व्यक्ति अपने मिशन में सफल नहीं हो जाता |अगर वह व्यक्ति अपने जीवन में सफल नहीं हो पाता तो इस स्मृति के संकेत मृत्यु के समय आत्मा के साथ अगली यात्रा पर निकल जाते हैं और नए शरीर प्राप्त करने का आधार बनते हैं |
क्रमश:
                         || हरिः शरणम् ||

Saturday, November 2, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-११

क्रमश:११
                      स्मृतियों और कर्मों के अंकन(Recording of memories and acts) को मस्तिष्क कैसे क्रियान्वित करता है,उसका आधारभूत ज्ञान(Basic knowledge) हम प्राप्त कर चुके है |इस वैज्ञानिक ज्ञान(Scientific knowledge) के आधार पर पुनर्जन्म और उससे मुक्ति को समझना आसान होगा |जितनी भी स्मृतियाँ है जब वे दीर्घ कालीन स्मृतियों में बदल जाती है तब वे व्यक्ति के संस्कार बन जाती है |ये संस्कार व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते है |उन्ही के आधार पर पुरुष के गुण निर्धारित होते हैं-यथा,सद् गुण,रज गुण तथा तम गुण| व्यक्ति के कर्म और व्यवहार इन्ही गुणों के अनुसार होते हैं| इनको परिवर्तित करना एकदम आसान नहीं होता है |इसके लिए अत्यधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है|यह परिवर्तन तभी आ सकता है जब सम्बंधित व्यक्ति को मानव जीवन के उद्देश्य का स्पष्ट ज्ञान हो|अन्यथा सारा परिश्रम एक झटके के साथ व्यर्थ हो सकता है|  इसको स्पष्ट करने के लिए  एक कहानी याद आती है |
                       एक राजा के दरबार में एक विदूषक(Foreigner) आया |उसने आते ही राजा का अभिवादन(Respect,salute) किया |राजा ने उससे पूछा कि आप किस स्थान से पधारें है ?विदूषक ने स्पष्ट कोई उत्तर नहीं दिया |बल्कि राजा के अन्य प्रश्नों का भी जवाब हर बार अलग अलग भाषा(Languages) में देता रहा |साथ ही कहता रहा कि आपके दरबार में इतने ज्ञानवान (Intelligent)और सुशिक्षित(Well educated) महानुभाव (Personalities)बैठे हैं,आप पहचानिये (Identify)कि मैं किस क्षेत्र(Region) से आया हूँ |राजा ने अपने दरबारियों की तरफ उत्तर जानने हेतु दृष्टि डाली|सभी ने न जानने के कारण अपना अपना सिर नीचे कर लिए |राजा समझ गया |उसने कुछ समय के लिए उसे शाही मेहमान(Guest of the state) बनने का निमंत्रण(Invitation) दिया |उसने सहर्ष स्वीकार(Happily accepted) कर लिया |
                      अब प्रत्येक दिन राजा के दरबार में वह उपस्थित रहता और बार बार अपनी भाषा बदलकर बात करता रहता|राजा की परेशानी बढती जा रही थी |उसने अपने पूरे राज्य में घोषणा करवाई कि जो भी इस विदूषक का मूल निवास स्थान बता देगा उसे शाही दरबार में उचित स्थान प्रदान किया जायेगा| एक युवक एक दिन राजा के पास पहुंचा और उनसे प्रार्थना की कि उसे विदूषक के साथ रहने कि अनुमति प्रदान करे|तभी वह उसके मूल निवास का पता कर सकेगा |राजा ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी |
                     अब वह युवक और विदूषक दोनों साथ साथ रहने लगे|कुछ ही दिनों में  उनकी साथ साथ रहने की यात्रा ,प्रगाढ़ मित्रता(Friendship) में बदल गयी|परन्तु विदूषक इतना होशियार था कि युवक को ऐसा कोई भी संकेत नहीं दिया जिससे वह उसके मूल राज्य का पता कर सके |थक-हार कर अंतिम उपाय जानने के लिए युवक अपने गुरु के पास गया |गुरु ने उसे कुछ समझाया|युवक के चहरे पर अब निराशा के स्थान पर मुस्कान थी |वह राज भवन लौटा |रातभर विदूषक के साथ रहा |सुबह शाही दरबार शुरू हुआ,लेकिन युवक किसी न किसी बहाने से विदूषक को वहाँ जाने से रोकता रहा |आखिर दोनों ने देरी से दरबार में प्रवेश किया|प्रवेश करते ही युवक ने विदूषक को पीछे से जोरदार धक्का दिया |धक्के के कारण विदूषक दरबार के मध्य में औंधे मुंह गिरा |गुस्से में उठकर वह युवक को असभ्य शब्द कहने लगा |युवक तुरंत ही राजा की ओर देख कर बोला-"क्षमा कीजिये महाराज,मैंने आपके अतिथि का अपमान किया है |परन्तु इस विदूषक के मूल निवास स्थान को जानने के लिए यह आवश्यक था|मेरे गुरु ने मुझे कहा था कि व्यक्ति कितना ही चालबाज़ हो,अपने संस्कारों से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता |ज्यों ही मैंने इनको जमीन पर गिराया ,इन्हे क्रोध आ गया|क्रोध में इन्होने अपनी मूल भाषा में मुझे असभ्य शब्द कहे |इसी आधार पर मैंने इनके मूल निवास का पता कर लिया|" इतना कहकर युवक ने राजा को उस विदूषक के मूल राज्य का नाम बता दिया |जिसे विदूषक ने भी स्वीकार किया |
             इस कहानी के बताने का उद्देश्य यह है कि दीर्घ कालीन स्मृति(Long term memory) को चाहे कितना ही विस्मृत करने का प्रयास करें उसके नष्ट होने की सम्भावना(Possibility) नगण्य(Negligible) होती है |केवल मात्र तात्विक ज्ञान ही आपकी इस स्मृति को धीरे-धीरे क्षीण कर सकता है|अन्यथा यही स्मृतियाँ आपको पुनर्जन्म के लिए नए शरीर में ले जाएँगी|
क्रमश:
                 || हरिः शरणम् ||
                      

Friday, November 1, 2013

मुक्ति का वैज्ञानिक आधार |-१०

क्रमश:१०
            इतनी सारी कवायद के बाद समझ में आ रहा है की मन एक बहुत ही जटिल सिस्टम है|इसको आसानी से समझने के लिए हमें मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम(Limbic system) को समझना होगा |यह लिम्बिक सिस्टम ही वास्तव में अपना मन है |इसको समझ लेने पर ही हम जान पाएंगे कि मानव शरीर मन पर कितना निर्भर है |बिना मन के मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है |इसके अध्ययन से यह भी जाना जा सकेगा कि मन में स्मृतियां कैसे संचित(Collection of memories in the Mind) होकर आत्मा(Soul) को पुनर्जन्म के लिए बाध्य(Forced to reincarnate) करती है?

LIMBIC SYSTEM-

     1.Amygdala-यह एक बादाम की आकृति लिए हुए होता है|इसका सम्बन्ध व्यक्ति की भावनाओं को प्रदर्शित करना,स्मृति बनाये रखना और कुछ हार्मोन्स का स्राव(Secretion of hormones) करना होता है |
     2. Cingulate Gyrus-यह मस्तिष्क का भाग तह किया हुआ (Folded)होता है |यह भाग भावुकता (Emotions)और आक्रामकता(Aggression) के प्रवाह के लिए उत्तरदायी होता है |
     3.Fornix-यह एक धनुष की आकृति(Arch shaped) लिए हुए तंतुओं(Fibers) का बना होता है जो Hippocampusको Hypothalamus से जोड़ता है |
     4.Hippocampus-यह मस्तिष्क का बहुत ही छोटा सा भाग है जो स्मृति सूचिका(Memory indexer) का कार्य करता है |यह दीर्घ अवधि की स्मृति(Long term memory) को Cerebral hemisphere में संचित(For long term storage) करने के लिए भेजता है और आवश्यकता पड़ने पर उस स्मृति को पुनः जागृत (Retrieve)करता है |
     5.Hypothalamus-यह मस्तिष्क का महत्त्वपूर्ण भाग है|इसमे कई केन्द्रक (Nuclei)होते हैं जो शरीर द्वारा किये जाने वाले विभिन्न कार्यों(Various acts) के लिए उत्तरदायी (Responsible)होते है |मानव मन के निर्माण में इस भाग की ही सबसे बड़ी हिस्सेदारी होती है|एक प्रकार से इसी भाग को मन कहा जा सकता है |
     6.Olfactory cortex-यह सभी गंधों को पहचानने की क्षमता रखता है |Capacity to identify different types of smells.
     7.Thalamus-यह भाग संवेदी संकेतों(Sensory signals) को रिले (Relay)करने का कार्य करता है जो उसे सुषुम्ना नाडी(Spinal cord) या Cerebral cortex से प्राप्त होते हैं|यह एक से प्राप्त संकेतों को दूसरे तक और दूसरे से प्राप्त संकेतों को पहले तक पहुँचाने का कार्य करता है अर्थात इसकी भूमिका एक प्रसारण केन्द्र(Relay center) की होती है|
          इस प्रकार हम समझ सकते है की लिम्बिक सिस्टम(Limbic system) का कार्य भावनाओं (Emotions)और आक्रामकता(Aggression) के प्रवाह (Flow)को नियत्रण करना तथा गंध को पहचानना होता है | इसके साथ साथ वह स्मृति का संचय(Storage of memory) और हार्मोन्स (Hormones)के भी प्रवाह पर नियंत्रण रखता है| यह लिम्बिक सिस्टम संवेदना(Sensory) यानि ज्ञानेन्द्रियों के कार्य और कर्मिकता(Motor) यानि कर्मेन्द्रियों के कार्य अर्थात् कर्म के लिए भी उत्तरदायी(Responsible) होता है |एक प्रकार से कहा जा सकता है कि यह सिस्टम (Limbic system)शरीर के लगभग सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है |
क्रमश:
                || हरिः शरणम् ||