जीवो जीवस्य जीवनम्-3
“जीवो जीवस्य जीवनम्” को हम दो प्रकार से
स्पष्ट कर सकते हैं, एक तो वैज्ञानिक दृष्टि से और दूसरा दार्शनिक दृष्टि से | इस
विषय पर सर्वप्रथम वैज्ञानिक पक्ष को देखेंगे |
विज्ञान की दृष्टि -
जीव ही जीव का आहार
है –(जीवो जीवस्य भोजनम्)-
श्रीमद्भागवत् महापुराण के प्रथम
स्कंध के तेरहवें अध्याय का 46 वां श्लोक कहता है कि हाथ वाले जीवों का आहार बिना
हाथ वाले जीव हैं, चार पैरों वाले जीवों का आहार बिना पैर वाले जीव (अचर, तृणादि)
हैं तथा इन चार पैरों वाले जीवों में भी बड़े जीवों के छोटे जीव आहार हैं | हम सब
इस बात को जानते हैं कि आहार के बिना किसी भी जीव के शरीर का चलना असंभव है | आहार
प्रत्येक जीव की प्राथमिक आवश्यकता है | चार पैरों वाले जीवों में सभी पशु आ जाते
हैं | सभी पशु चेतन होते हुए भी केवल आहार और संतानोत्पति के लिए जीने वाले जीवों
की श्रेणी में आते हैं | उनको यह ज्ञान नहीं होता कि जिसका वे शिकार कर रहें है,
वह भी उसी की तरह कोई जीव है | हिंसक पशु दूसरे चार पैरों वाले पशुओं का शिकार करते
हैं | जैसे एक शेर हिरण का शिकार कर अपना जीवन चलाता है | चार पैरों वाले अन्य जीव
जो हिंसक नहीं है, वे वनस्पतियों को अपना आहार बनाते हैं | इस प्रकार एक जीव के
जीवन का आधार दूसरे जीव का जीवन बन जाता है | इतना होते हुए भी कोई भी हिंसक पशु
बिना भूख के किसी अन्य जीव का जीवन तब तक नहीं लेता जब तक कि उसके जीवन को ही कोई
खतरा उपस्थित न हो गया हो | अगर एक मांसाहारी पशु बिना किसी उद्देश्य के सभी छोटे
जानवरों को मारता रहे, तो ऐसा करना उसके द्वारा स्वयं के जीवन को ही खतरे में डालना
होगा | इसलिए हिंसक पशु प्रायः अपने आहार के लिए जितना आवश्यक होता है, उतना ही
शिकार करता है | एक बार जब शेर किसी अन्य चौपाये पशु का शिकार कर लेता है, तो उस
समय अन्य छोटे पशु भी निर्भय होकर चरने लगते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शेर कम
से कम इस समय तो उन्हें अपना शिकार नहीं बनाएगा | यह प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने
का सर्वोत्तम उदाहरण है | पशुओं के इस व्यवहार से मनुष्य को भी बहुत कुछ सीखने की
आवश्यकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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