जीवो जीवस्य जीवनम्-2
भागवत के 1/13/46 श्लोक के अर्थ को देखें तो एक ही निष्कर्ष निकल कर सामने आता है-
“जीवो जीवस्य भोजनम्” | प्रायः हम सभी जानते हैं कि जीव ही जीव का भोजन है | अगर
वेदव्यासजी महाराज का केवल जीव को जीव का भोजन बताने का ही तात्पर्य होता तो वे श्लोक
के अंतिम भाग में “जीवो जीवस्य भोजनम्” ही लिख सकते थे परन्तु नहीं, उन्होंने लिखा
है,”जीवो जीवस्य जीवनम्” | हाँ, यह सत्य अवश्य है कि मुख्य रूप से आहार पर ही जीव
का जीवन निर्भर करता है परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि जीव का जीवन केवल मात्र आहार
पर ही निर्भर नहीं करता है | आहार के अतिरिक्त अन्य कई कारणों पर भी जीवन निर्भर
करता है | इसी कारण से इस श्लोक में “जीवो जीवस्य भोजनम्” न लिखकर जीवो जीवस्य
जीवनम्” लिखा गया है | उन्हीं कारणों को जानने के लिए हम मुख्य विषय “जीवो जीवस्य
जीवम्” पर आगे बढ़ते हैं |
एक जीव का जीवन दूसरे जीव के लिए
जीवन किस प्रकार से है ? लेख के प्रारम्भ में मैंने एक बात कही थी कि चेतन होना और
चेतन में ही चर होना क्यों आवश्यक है ? चर का अर्थ है अपनी इच्छा से इधर-उधर गमन
करना | चर जीव गमन करता है- आहार के लिए, शरीर की सुरक्षा के लिए और संतानोत्पति
के लिए | संतानोत्पति के मूल में सदैव ही जीव के भीतर पल रहा भय होता है | जिस
प्राणी में जितना अधिक भय, उसकी संतान उत्पन्न करने की क्षमता उतनी ही अधिक | अचर
जीव (जैसे पेड़-पौधे) के लिए इन तीनों कार्यों में प्रकृति सहायक होती है क्योंकि उनका
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना असंभव है | प्रत्येक जीव का जीवन दूसरे जीवों के जीवन
पर मुख्यतः इन्हीं तीन कारणों पर निर्भर करता है | क्रमशः तीनों कारणों पर हम विचार
करेंगे | सबसे पहले चर जीवों के जीवन की चर्चा करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
Interesting.
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