शरीर-2
परमात्मा ने जब इस संसार की रचना की तब यहां
पर सर्वप्रथम मूल सृष्टि का निर्माण किया | इस सृष्टि में चेतन और अचेतन का निर्माण
हुआ जिन्हें क्रमशः सजीव और निर्जीव कहा जाता है | भौतिक दृष्टि से देखने पर हमें
सभी सजीव-निर्जीव के शरीर भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं | निर्जीव तो
भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं परन्तु जीवित प्राणियों के शरीर भिन्न-भिन्न
क्यों होते हैं जबकि सब में एक ही चेतन शक्ति निवास करती हैं ? एक कोशिकीय जीव से लेकर मनुष्य तक जीवों की
लाखों प्रजातियां है, कोई भी एक दूसरे से मेल नहीं खाती | भिन्न-भिन्न प्रजातियों
की तो बात ही क्या करें, एक प्रजाति के प्राणी भी आपस में शारीरिक बनावट के आधार
पर एक दूसरे से नहीं मिलते है |
मैंने सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज,
बीकानेर से चिकित्सा विज्ञान की स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की है | प्रथम वर्ष
में हमें शरीर-रचना विज्ञान (Anatomy) की शिक्षा दी जाती है, जिसमें मानव शरीर की
स्थूल रचना को विस्तृत रूप से जाना जाता है | सात-आठ विद्यार्थियों के मध्य एक मृत
मानव शरीर रखा जाता था जिसका विच्छेदन (Dissection) कर हम उसके सभी अंगों को देखते
और समझते थे | उस समय भी मेरे मस्तिष्क में एक बात ही चलती रहती थी कि इस शरीर में
मन कहाँ होता है, आत्मा कहाँ रहती है आदि ? यह पारिवारिक पृष्ठभूमि का ही प्रभाव था
कि मेरी अध्यात्म और सनातन धर्म-शास्त्रों के प्रति रुचि बाल्यकाल से ही थी | उस
समय तो मुझे मेरे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पाया किन्तु आज जब जीवन के इस मोड़
पर आकर आध्यात्मिक क्षेत्र के मार्ग पर चलना प्रारम्भ किया है तो आज से पैंतालीस
वर्ष पूर्व किये गए उस अध्ययन का बरबस ही स्मरण हो आया है |
शरीर केवल स्थूल ही होता तो स्वामी जी
को शरीर के बारे में इतना कुछ नहीं कहना पड़ता | मनुष्य अनंत जन्मों की यात्रा करते
हुए सबसे अंत में इस देह को पाता है | अन्य प्राणियों की तरह ही क्या मनुष्य भी आहार,
निद्रा, भय और संतानोत्पत्ति में ही रत रहकर यह जीवन गँवा देना चाहता है ? नहीं,
मनुष्य को यह शरीर इनके अतिरिक्त किसी और उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी मिला है और
वह उद्देश्य है, अपने सभी प्रकार के शरीरों से मुक्त होना |
क्रमशः
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
||
हरिः शरणम् ||
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