जीवो जीवस्य जीवनम् -16
प्रकृति के इस हथियार से बचाव का उपाय
क्या है ? इसका टीका नहीं है और न ही यह कोई जीव है, जो इसके शरीर को समाप्त किया जा
सके | इससे बचने के लिए हमें हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की ओर पुनः लौटना होगा
| चाहे कोई कितनी ही आलोचना करे कि हम दकियानूसी हैं, हम अन्धविश्वासी है परन्तु विश्वास
करें, हम उपरोक्त दोनों ही नहीं हैं | हमने प्रकृति को जितनी गंभीरता से समझा है
उतना किसी ने नहीं | जहाँ हमारी संस्कृति सूरज, चंद्रमा, नदियों, वायु, अग्नि आदि
को सहस्राब्दियों से पूजती चली आ रही है, उसमें कोई न कोई तो विशेष बात होगी | हम
प्रकृति के रक्षक हैं, हम प्रकृति को पूजते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि प्रकृति
ही हमारा जीवन है | हम आपस में एक प्राणी दूसरे प्राणी को उन्नत करते हैं उनका विनाश
नहीं करते |
हमारी संस्कृति में रोग को फैलने से
रोकने के लिए “शुचिता” को महत्त्व दिया है | शुचिता का अर्थ है, शुद्धि, बाहर और
भीतर दोनों की शुद्धि | बाहर की शुद्धि में, निवास स्थान की पवित्रता बनाये रखना, घर
में कचरा व गन्दगी न फैलाना, मल-मूत्र त्यागने के पश्चात् हाथों और पैरों को अच्छी
प्रकार धोना, घर में प्रवेश करते ही साफ जल से हाथ, मुंह और पैरों का धोना, भोजन
से पूर्व हाथों को अच्छी प्रकार से साफ करना, प्रतिदिन स्नान करना, अभिवादन हाथ जोड़कर
करना, एक दूसरे से निश्चित दूरी पर बैठना, भोजन करते समय मौन रहना, खांसी लेते
अथवा छींकते समय हाथ नाक और मुंह को कपड़े से ढकना आदि | आज चिकित्सक कोरोना के
फैलाव को रोकने के लिए इन्हीं सुझावों को दे रहे हैं | निष्कर्ष यही निकलता है कि आज
हमारी समस्या हमारी संस्कृति के परित्याग के कारण से है | आज हम सोच रहे हैं कि
क्यों हमने अपनी संस्कृति को भूला दिया ? इसलिए महामारी से बचाव का यही एक रास्ता
है कि हम अपने संस्कारों की और लौटें | आंतरिक शुद्धि एक विस्तृत विषय है, जिस पर फिर
कभी आगे विचार करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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