जीवो जीवस्य जीवनम्-12
दार्शनिक पक्ष –
लेख के प्रारम्भ में मैंने चेतन और
अचेतन सृष्टि की बात की थी | अचेतन तो सभी पदार्थ हैं और चेतन, चेतन वह शक्ति है जिसको
पाते ही पदार्थ सक्रिय हो जाता है | पदार्थ की इस सक्रियता को जीवन कहा जाता है | चेतन
एक व्यापक शब्द है क्योंकि चेतना सर्वव्यापी है | परन्तु किन्हीं कारणों से चेतन को
व्यक्ति सर्वव्यापी न मानकर व्यक्तिगत भी मानने लगा है | यह सब परमपिता की ही माया
है, जिसने चेतना को भी बाँट दिया है | समझने की दृष्टि से चेतन (conscious) को दो
भागों में बांटा जा सकता है – समष्टि चेतन (Whole conscious) और व्यष्टि चेतन
(Individual conscious) | समष्टि का अर्थ है सामूहिकता और व्यष्टि का अर्थ है
व्यक्तिगत | सामूहिक चेतना का अर्थ है कि जिस शक्ति से कोई एक जीव चैतन्य अवस्था
को उपलब्ध हुआ है, वही शक्ति मुझे भी चैतन्य कर रही है | केवल मुझे ही नहीं, सभी
जीवों में वही चेतनता प्रकाशित हो रही है | इस प्रकार समष्टि चेतन का अर्थ हुआ सभी
में एक ही प्रकार की चेतना, कहीं कोई भिन्नता नहीं | व्यष्टि चेतन का अर्थ है, मैं
चेतन हूँ एक प्रकार की चेतना से और दूसरा मेरे जैसा अथवा मेरे से अलग संरचना वाला
जीव अलग प्रकार की चेतना से चैतन्य हो रहा है | चेतन में इस प्रकार की भिन्नता (Difference)
केवल शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर तो हो सकती है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर
नहीं | यही कारण है कि एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही चेतना के उच्चतम स्तर को प्राप्त
कर सकता है | फिर उसकी सोच व्यष्टि चेतन से ऊपर उठकर समष्टि चेतन के स्तर की हो
जाती है | इस स्तर तक पहुंचा व्यक्ति ही परमात्मा को पा सकता है |
व्यष्टि चेतन भी दो प्रकार का होता है – स्व-अवचेतन
(Self-subconscious) और स्व-चेतन (Self-conscious) | यहाँ अवचेतन का अर्थ चेतना के
अभाव (Non-consciousness) से नहीं है बल्कि चेतना की सुषुप्ति (subconsciousness)
अवस्था से है | अवचेतन का अर्थ है, वह है तो चेतन परन्तु वह
चेतना भीतर कहीं गहराई में दबी हुई है, बेहोशी अथवा सुषुप्ति की अवस्था में है और
प्रयास करने से उसे होश में लाया जा सकता है, पूर्ण रूप से चेतन किया जा सकता है |
यह बात मनुष्य के सन्दर्भ में ही कही गयी है, अन्य सभी प्राणी स्व-अवचेतन अवश्य है
परन्तु उनको प्रयास करके भी स्व-चेतन अवस्था में नहीं लाया जा सकता |
चेतना होना और ज्ञानपूर्वक जीना दोनों
अलग-अलग बातें हैं | चेतन होते हुए भी मनुष्य बेहोशी का जीवन जी सकता है, जैसे
अन्य प्राणी जीते हैं | वे सदैव ही स्व-अवचेतन की अवस्था में बने रहते हैं | स्व-अवचेतन
का अर्थ हुआ अज्ञान में जीना अर्थात बेहोशी का जीवन और स्व-चेतन का अर्थ हुआ ज्ञान
पूर्वक जीना अर्थात होश पूर्ण जीवन | केवल मात्र मनुष्य ही स्व-चेतन का अधिकारी है
जबकि अन्य जीव स्व-अवचेतन अवस्था में ही बने रहते हैं | कई मनुष्य जो होश पूर्वक जीवन नहीं
जीते उन्हें भी स्व-अवचेतन की श्रेणी में रखा जा सकता है | जिसके कारण उनके जीवन
को पशुवत जीवन भी कहा जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ.
प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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