शरीर-1
हम अपने शरीर के प्रति सदैव ही मोहग्रस्त
रहते हैं | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज प्रायः कहा करते थे कि साधक
को मानना चाहिए कि शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं
है | पहुंचे हुए संत थे, उनसे गलत तो नहीं कहा गया होगा | ऐसे में यह प्रश्न उठता
है कि जब शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और मेरे लिए नहीं है तो फिर यह शरीर
है किस लिए ? हम प्रायः अपने स्थूल शरीर को देखकर, इसकी सुन्दरता और सौष्ठवता को
देखकर अभिमान से संसार में घूम रहे हैं | हमें अपने उस शरीर पर गर्व हो रहा है, जो
कल रहेगा अथवा नहीं, इसका कोई विश्वास नहीं है | ऐसे में स्वामी जी का कहना
तर्कसंगत है क्योंकि जिसका होना अथवा न
होना निश्चित नहीं है, वह उसका कैसे हो सकता है, जो सदैव है |
हम सदैव के लिए हैं, अगर अपना स्वरूप
पहचान लें | अगर शरीर को ही ‘मैं’ होना मानते रहे तो फिर संसार के आवागमन चक्र से
मुक्त नहीं हुआ जा सकता | इस शरीर की पाँच अवस्थाएं होती हैं – जन्म, वृद्धि,
विकास, जरा और मृत्यु | मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ, मैं वृद्ध हो गया हूँ इन
तीनों कथन में एक ‘मैं’ ही केवल वैसे का वैसा ही है परन्तु शरीर की अवस्थाएं
परिवर्तित हो गई हैं | हम शरीर को अपना मानने लगे हैं इसलिए शरीर की प्रत्येक
अवस्था के साथ “मैं” को जोड़ देते हैं | इससे यह सिद्ध होता है कि ‘मैं’ कम से कम शरीर
तो नहीं है | शरीर क्यों है, किसके लिए है, कैसे-कैसे और कितने हैं ? इन सभी
प्रश्नों के उत्तर जान लेने पर ‘मैं’ कौन है और ‘शरीर’ से इस ‘मैं’ को कैसे मुक्त
किया जा सकता है आदि प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाएंगे |
“शरीर” के बारे में बहुत कुछ कहा
गया है, इस शरीर को कई भागों और कोषों में बांटा गया है | बहुत प्रयास हुए हैं
हमारे पूर्वजों द्वारा, इस “शरीर” के रहस्यों को खोलने के | जिस प्रकार हमारे
ग्रंथों में ‘शरीर’ का वर्णन किया गया है, वह हमारी थाती है, जिस पर हमें गर्व
होना चाहिए |
आइये हम इस “शरीर” को जानने का प्रयास
करते हैं, जिसको हम अपना और अपने लिए तो मानते
आ ही रहे हैं और ऐसा मानना हमारे भीतर इतनी अधिक गहराई तक पैठ गया है कि स्वयं को
ही शरीर मान बैठे हैं |
प्रस्तुति-
डॉ. प्रकाश काछवाल
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हरिः शरणम् ||
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