Thursday, April 23, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-18-समापन कड़ी-


जीवो जीवस्य जीवनम्-18-समापन कड़ी-
          “जीवो जीवस्य जीवनम्” विषय पर हुई अल्प चर्चा से यह निष्कर्ष निकल कर आया है कि इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है | एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर करता है | धनी व्यक्ति का अस्तित्व तभी तक है, जब तक कोई गरीब है | गरीब के समाप्त होते ही धनी का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा | इसी प्रकार जंगल हैं तो मनुष्य है, प्राकृतिक रूप से विचरण करने वाले जानवरों के अस्तित्व पर ही मानव जाति का अस्तित्व टिका हुआ है | इस धरती पर एक छोटा सा कण भी किसी कारण से प्रभावित होता है तो यह निश्चित है कि उसका प्रभाव सबसे बड़े जीव, ब्लू व्हेल तक जायेगा क्योंकि जो एक कण में है, वह विराट में भी है | इसीलिए हमारे शास्त्र कहते हैं कि छोटे से कण की भी भूलकर कभी उपेक्षा न करें | हम सभी का जीवन और अपने होने का अस्तित्व एक दूसरे के जीवन पर निर्भर है | ऐसे में हमें परमात्मा की इस सृष्टि को क्षति पहुँचाने का प्रयास कभी भी नहीं करना चाहिए | हम एक दूसरे के रक्षक बनें भक्षक नहीं, तभी हम सब सुरक्षित रह पाएंगे |   
        महावीर स्वामी का भी यही सन्देश है- “जीवो और जीने दो” क्योंकि “जीवो जीवस्य जीवनम्” ही सत्य है | “अहिंसा परमो धर्मः” अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है | हमारा परम धर्म है, किसी भी जीव की हत्या न करें | जीव-हत्या धर्म की हानि करना हुआ | धर्म की हानि करने से समय आने पर धर्म क्यों कर हमारी रक्षा करेगा ? मनुस्मृति  कहती है -
     “धर्म एव हतो हन्ति  धर्मो रक्षति रक्षितः|
     तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नौ धर्मो हतोSवधीत् ||“ ||मनुस्मृति-8/15||
          अर्थात मारा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है | इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए इस डर से कि मारा हुआ धर्म कहीं हमको न मार डाले |
सम्पूर्ण विवेचन का सार यही है कि -
               तदिदं भगवान् राजन्नेकं आत्माSSत्मानां स्वद्रिक् |
            अन्तरोSन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधो || भागवत-1/13/47||
           अर्थात समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयं प्रकाशवान भगवान, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से हो रहे हैं | आप सभी में केवल उन्हीं भगवान को देखो | 
            इस प्रकार सर्वत्र परमात्मा को देखने से कोई किसी को कैसे मार सकता है ? हमारे सनातन शास्त्र, यूँ ही नहीं कह रहे हैं कि जीव ही जीव का जीवन है | इसलिए किसी भी जीव का जीवन न लें, यही शाश्वत धर्म है |
        आप सभी का साथ बने रहने पर आभार | कल से हम एक नए और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे | साथ बने रहें | 
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment