Saturday, April 18, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-13


जीवो जीवस्य जीवनम्-13  
          स्व-चेतन मनुष्य व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को अधिक महत्त्व देता है | व्यष्टि से समष्टि महत्वपूर्ण है और सत्य भी | समष्टि कहती है कि सभी व्यष्टियां (Individuals) एक दूसरे से सम्बंधित है और सम्बंधित होने के नाते एक दूसरे से समान रूप से प्रभावित होती हैं | इससे सिद्ध होता है कि व्यष्टि और समष्टि का स्वरूप एक है, तभी तो किसी बात का दोनों पर प्रभाव एक समान होता है | दोनों में भिन्नता किसी प्रकार की नहीं है केवल व्यक्तिगत चेतन को हम व्यष्टि चेतन कह देते हैं और सामूहिक रूप से समस्त व्यष्टि चेतन को समष्टि चेतन |
                जब समष्टि और व्यष्टि चेतन एक ही है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस ब्रह्मांड में आनुपातिक रूप से फिर न कोई छोटा है और न ही कोई बड़ा, न कोई किसी को देता है और न कोई किसी से लेता ही है | न तो कोई किसी को सुख देता है और न ही दुःख | न कोई दाता है न कोई भिखारी | सब एक समान है, बराबर है | इसीलिए अध्यात्मिक व्यक्ति सुख-दुःख, मान-अपमान और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित नहीं होता | आध्यात्मिक व्यक्ति का ऐसा मानना ही उसे समता में और सहज रहना सीखा देता है | गीता में सहज रहने और समता पूर्वक व्यवहार करने को महत्वपूर्ण बताया गया है | ऐसे व्यक्ति को भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है |
             समष्टि चेतन के भाव को स्वीकार कर लेने से किसी भी जीव को पीड़ा में देखकर व्यक्ति स्वयं का पीड़ित होना मानता है और इस प्रकार वह किसी को दुःख दे ही नहीं सकता | समष्टि चेतन का अर्थ ही है कि हम सभी एक दूसरे से सम्बंधित है | सारी सृष्टि चाहे वह चेतन हो अथवा अचेतन, आपस में सम्बंधित है | इसीलिए निश्चित है कि वे सब एक दूसरे पर प्रभाव भी डालती है | हमारी संस्कृति इसीलिए पत्थर को भी पूजती है, ग्रहों की चाल को भी समझती है और चेतन-अचेतन को तो समझती है ही | यही कारण है कि हमारे यहाँ मनुष्य के आहार में जीव हिंसा का कोई स्थान नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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