Thursday, April 30, 2020

शरीर - 7


शरीर-7 
     गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि-
                   पुरुषः प्रकृतिस्थो भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् |
                   कारणं गुणसंगोSस्य सदसद्योनिजन्मसु ||
अर्थात त्रिगुणी प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के पुनर्जन्म का कारण है |
                सूक्ष्म शरीर से ही पुनर्जन्म होता है क्योंकि प्रकृति के गुणों के संग से मनुष्य के मन और मन से उसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है | मन से सूक्ष्म शरीर और फिर स्वभाव से प्रकृति के गुणों में परिवर्तन होता है | प्रकृति के इन तीनों गुणों में परिवर्तन हो जाने से ही कारण शरीर बनता है | कारण शरीर से फिर जीवात्मा को एक नया स्थूल शरीर मिलता है |
     सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर जब तक साथ रहेंगे,  तब तक पुनर्जन्म होता रहेगा | जब मोक्ष हो जायेगा तब तीनों ही शरीर छूट जायेंगे | अगर किसी कारण से मोक्ष नहीं हुआ और पहले ही आ गई प्रलय (Holocaust), तो प्रलय में भी तीनों शरीर छूट जाएंगे | स्थूल शरीर तो वैसे ही थोड़े-थोड़े दिनों में छूटते रहते हैं | प्रलय में सूक्ष्म शरीर भी टूट-फूट कर नष्ट हो जायेगा और कारण शरीर में अपने आपको विलीन कर देगा | इस प्रकार प्रलय में अंततः केवल कारण शरीर रुपी प्रकृति ही बची रहेगी | कहने का अर्थ है कि प्रलय में सूक्ष्म शरीर भी नहीं बचता बल्कि वह कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है | यह ऐसे ही होता है जैसे हमने स्वर्ण का एक टुकड़ा लिया और उससे कंगन बनवा लिए | फिर कंगन टूट कर खराब होने लगा अथवा उससे मन उचट गया तो उसको तोड़ कर फिर से सोना बना लिया | अब यह वापिस बना सोना कारण शरीर बन गया | इस स्वर्ण को गलाकर फिर नया आभूषण जैसे गले का हार बना लिया | ऐसे ही यह प्रक्रिया बार-बार दीर्घ अवधि (Long term) तक चल सकती है, परन्तु स्वर्ण (कारण शरीर) से कभी मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक कि स्वर्ण से मोह अर्थात आसक्ति को हटा न लिया जाये |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 29, 2020

शरीर-6


शरीर-6 
      जो संबंध कुर्ता,  धागा और रूई का आपस में है, वैसा ही संबंध इन तीनों शरीर का आपस में है | क्या रूई के बिना धागा बन जायेगा ? क्या धागे के बिना कुर्ता बन सकेगा ? नहीं, नहीं बन सकता | इसी प्रकार कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर भी नहीं बनेगा और फिर आगे सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर भी नहीं बनेगा | कहा गया है - ’कारण शरीर प्रकृति सत्त्वरजसतमः’। प्रकृति के इन्हीं तीनों गुणों, सत्त्व, रजस और तमस से कुल अठारह पदार्थ बने | उन पदार्थों का मिलकर नाम है- सूक्ष्म शरीर |
         इन तीन गुणों से सूक्ष्म शरीर को बनाने वाले प्रकृति के 18 पदार्थ हैं- पाँच प्राण, पाँच सूक्ष्म महाभूत (तन्मात्रा), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन, एक बुद्धि और एक अहंकार | कई विद्वान पाँच प्राणों के स्थान पर पाँच कर्मेन्द्रियों को लेते हैं |
               सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की तो कारण शरीर प्रकृति से अठारह पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बुद्धि,  अहंकार,  मन,  पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,  पाँच कर्मेन्द्रियाँ और  पाँच तन्मात्रा। इन सबका नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृति से ही बनते हैं | शब्द,  स्पर्श,  रूप,  रस,  गंध;  इन पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बनते हैं | इन पाँच महाभूतों के नाम क्रमशः हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी | इन्हीं पाँच पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर है | जो आपको आँख से दिखता है,  वो है स्थूल रूप | इस प्रकार से इन तीनों शरीरों का आपस में एक निश्चित संबंध है |
      जब तक जीवात्मा (Soul) पुनर्जन्म (Rebirth) लेकर नया शरीर धारण करेगा अर्थात एक शरीर छोड़ दिया,  दूसरा शरीर धारण कर लिया,  तो पहले स्थूल शरीर का साथ छूट जायेगा | अतः स्थूल शरीर की मृत्यु होने पर यह एक स्थूल शरीर छूट जायेगा | शेष रहे सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर | ये दोनों आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे | पुनर्जन्म हुआ और फिर नया स्थूल शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर एक और स्थूल शरीर | इस प्रकार शरीर पर शरीर मिलते रहते हैं | जब तक मुक्ति नहीं होगी, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर का साथ बना रहेगा केवल स्थूल शरीर बदलते रहेंगे | जब मुक्ति हो जायेगी तब तीनों शरीर ही एक साथ छूट जायेंगे | मेरे कहने का अर्थ है कि साधारण अवस्था में धागा (Thread) तो सदैव वही रहता है,  केवल कुर्ता (Cloth) बदलता रहता हैं | जब प्रलय होगी तब धागा रूई में समाहित हो जायेगा और जब पुनः सृष्टि का निर्माण होगा तो इसी रूई से धागा बनकर कुर्ता बन जायेगा | मोक्ष होने पर धागे का अस्तित्व तो समाप्त होगा ही, साथ ही रूई भी विलीन हो जाएगी |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 28, 2020

शरीर-5


शरीर-5 
             इन सभी पांचों कोषों अर्थात तीनों शरीरों के भीतर आत्मा (Spirit) रहती है | वह एक शरीर से दूसरे शरीर के मध्य सदैव भ्रमण करती रहती है | हमारे शरीर के भीतर निवास करने वाली आत्मा ही वास्तव में परमात्मा है | यही आत्मा जब कारण शरीर को ही स्वयं का होना मान लेती है तब कारण शरीर को अनुभव होने वाला सुख-दुःख उसे अपने में अनुभव होना लगता है |  सुख-दुःख का यह अनुभव मनुष्य में राग-द्वेष उत्पन्न करता है, जो उसके विभिन्न योनियों में भटकने का मुख्य कारण बनता है | ऐसा केवल मनुज शरीर के साथ ही होना सम्भव होता है अन्य जीवों के साथ नहीं | इसीलिए मनुष्य को इस कारण शरीर (Causal body) के कारण ही विभिन्न प्राणी शरीरों में जन्म लेते हुए अनन्त काल तक भटकना पड़ता है |
                                            स्थूल शरीर के बारे में तो हम जानते हैं कि यह पञ्च भौतिक देह है | यह शरीर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, इन पाँच भौतिक तत्वों से बना है | अब प्रश्न उठता है कि ये ’कारण-शरीर’ और ’सूक्ष्म-शरीर’ कैसे बनते हैं और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है ?
       पूर्व में स्पष्ट किया जा चूका है कि कारण शरीर ”प्रकृति” का ही नाम है | प्रकृति त्रिगुणी होती है। सत्त्व गुण, रजोगुण और तमोगुण,  इन तीनों के समुदाय का नाम ही प्रकृति है | इन तीनों गुणों के माध्यम से ही परमात्मा और प्रकृति अपना खेल खेलते हैं | कहने का अर्थ है कि इस त्रिगुणी प्रकृति (Trident nature) का नाम ही ‘कारण-शरीर’ है |
       उस प्रकृति रुपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है | आपने शरीर पर कुर्ता/कपड़ा (Cloth) पहन रखा है | इसका कारण है धागा (Thread) और धागे का कारण है- रूई (Cotton) | इस प्रकार स्थूल रुप से देखें तो रूई, धागा और कुर्ता कुल मिलकर ये तीन वस्तु हो गयी | कुर्ता,  धागा और रूई की तरह ऐसे ही हमारे ये तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर,  सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर | स्थूल शरीर है कुर्ता,  सूक्ष्म शरीर है धागा और कारण शरीर है- रूई |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, April 27, 2020

शरीर-4


शरीर-4
           आधुनिक शरीर विज्ञान तो भौतिक शरीर का बाहर और भीतर से अवलोकन करके बता देता है कि बाहरी त्वचा (Skin) से लेकर भीतर अस्थि (Bone) पर्यंत ही शरीर है | इस शरीर में कई अंग है, जो इसको सुचारु रूप से अपना कार्य करते हुए जीवित रखे हुए है | शरीर की मृत्यु हो जाने के साथ ही शरीर समाप्त हो जाता है | यह शरीर अपना कार्य सही प्रकार से करता रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि इसके प्रत्येक अंग की उचित देखभाल की जाये और जहाँ पर इसकी प्रणाली में कोई दोष दिखलाई पड़े, रसायनों (Chemicals-Drugs) अथवा शल्यक्रिया (Surgery) द्वारा इसको सुधार (Repair) दिया जाये | विज्ञान भी भौतिक शरीर (Physical body) को एक मशीन ही मानता है, उससे आगे भी शरीर के भीतर भी अन्य कई शरीर हो सकते हैं, इसका ज्ञान अभी विज्ञान को नहीं है | इस शरीर की विस्तृत व्याख्या हमारे दर्शन-शास्त्रों में जो वर्णित है, वह विलक्षण है |  
          हमारे पूर्वज इस शरीर के एक भाग को भौतिक यंत्र अवश्य मानते थे, जिसे वे स्थूल शरीर कहा करते थे | इस शरीर के भीतर उन्होंने उस समय भी झांकने का प्रयास किया था | भारतीय दर्शन शास्त्रियों ने सभी प्राणियों के शरीर को पांच भागों में बांटा है | इन को पांच कोष कहा जाता है | कहने का अर्थ है कि प्रत्येक प्राणी का शरीर पंच कोशिय होता है | बाहर से भीतर की ओर अवस्थित ये पांच कोष निम्न प्रकार से हैं-
            सबसे बाहर प्रथम कोष अन्नमय कोष (Grainful sheath) होता है | यह कोष पांच भौतिक तत्वों से मिलकर बना हुआ है | ये पांच भौतिक तत्व हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश | अन्नमय कोष को स्थूल शरीर (Gross body) भी कहा जाता है | इस कोष के अन्दर दूसरा कोष होता है, प्राणमय कोष (Breathful Sheath), जिससे स्थूल शरीर को सुचारु रुप से संचालन के लिए शक्ति मिलती है | प्राणमय कोष के अन्दर की ओर होता है, तीसरा मनोमय कोष (Mindful sheath) | हमारा मन इसी कोष के अन्तर्गत आता है | मनोमय कोष के अन्दर चौथा कोष होता है, विज्ञानमय कोष (Scienceful sheath)| इस कोष में हमारी बुद्धि निवास करती है |  प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोष मिलकर सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं। सूक्ष्म शरीर को लिंग शरीर (subtle body) भी कहा जाता है | विज्ञानमय कोष के भीतर अर्थात शरीर के सबसे भीतर अंतिम और पांचवां कोष होता है,  आनंदमय कोष (Blissful sheath) | यह कोष ही प्रकृति है और ईश्वर भी | साथ ही साथ यह हमारा कारण शरीर (Causal body) भी है। शरीर के इस कोष से प्राणी को सुख-दुःख की अनुभूति होती है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, April 26, 2020

शरीर-3

शरीर-3
           हमारा शरीर क्या है ? यह प्रश्न जब किसी से भी पूछा जाता है, तो स्पष्ट और सही उत्तर देने वाला कोई विरला ही मिलेगा | हाँ, स्थूल शरीर (Gross body) के बारे में हम चिकित्सक अवश्य ही सब कुछ जानते हैं | हम प्रायः स्थूल शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है | यह शरीर, जो हमें दिखलाई पड रहा है, जिसके सुन्दर और सौष्ठव रूप को बनाये रखने में हम अपने मानव जीवन का बहुमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं, वह मात्र एक यंत्र, एक मशीन से अधिक कुछ भी नहीं है | जैसे एक यंत्र विभिन्न प्रकार के पदार्थों से मिलकर बनता है वैसे ही यह शरीर भी कई प्रकार के पदार्थों से मिलकर बना है | अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्राणी का शरीर भी मात्र एक पदार्थ है | परमात्मा ने इस यंत्र को हमें अपने जीवन में सदुपयोग करने के लिए दिया है, न कि केवल इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाने के लिए | हमारा अस्तित्व केवल इस शरीर के कारण नहीं है और न ही हम मात्र इस शरीर के पालन-पोषण के लिए ही हैं बल्कि इससे कहीं अधिक हैं हम | सत्य को हम आज तक समझ नहीं पाए हैं, सत्य तो यह है कि यह शरीर हमारे कारण से ही हमें मिला है | परन्तु याद रखें, जीवन भर इसका केवल पालन-पोषण ही करते रहें, इसके लिए भी यह शरीर नहीं मिला है |
        कहा जाता है कि हम स्वयं हमारे जीवन के लिए उत्तरदायी हैं | जो हमें आज मनुष्य शरीर मिला है, जैसा भी मिला है और जहाँ पर भी मिला है, उसके मूल में हम स्वयं है, हमारे कर्म हैं, हमारी कामनाएं हैं | मनुष्य शरीर मिलने में परमात्मा की कृपा की भूमिका भी रहती है क्योंकि यह मानव-जीवन सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि जहाँ अन्य प्राणियों को कर्म करने की स्वतंत्रता नहीं होती वहां इस देह में वह स्वतंत्रता मिली हुई है | अब यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह इस स्वतंत्रता का सदुपयोग करता है अथवा दुरुपयोग |
         इतना जान लेने के बाद भी अभी भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि शरीर क्या है ? आइये इस शरीर को जानने और समझने के लिए इसके भीतर प्रवेश करते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 25, 2020

शरीर-2


शरीर-2
     परमात्मा ने जब इस संसार की रचना की तब यहां पर सर्वप्रथम मूल सृष्टि का निर्माण किया | इस सृष्टि में चेतन और अचेतन का निर्माण हुआ जिन्हें क्रमशः सजीव और निर्जीव कहा जाता है | भौतिक दृष्टि से देखने पर हमें सभी सजीव-निर्जीव के शरीर भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं | निर्जीव तो भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं परन्तु जीवित प्राणियों के शरीर भिन्न-भिन्न क्यों होते हैं जबकि सब में एक ही चेतन शक्ति निवास करती हैं ? एक कोशिकीय जीव से लेकर मनुष्य तक जीवों की लाखों प्रजातियां है, कोई भी एक दूसरे से मेल नहीं खाती | भिन्न-भिन्न प्रजातियों की तो बात ही क्या करें, एक प्रजाति के प्राणी भी आपस में शारीरिक बनावट के आधार पर एक दूसरे से नहीं मिलते है |
                       मैंने सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज, बीकानेर से चिकित्सा विज्ञान की स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की है | प्रथम वर्ष में हमें शरीर-रचना विज्ञान (Anatomy) की शिक्षा दी जाती है, जिसमें मानव शरीर की स्थूल रचना को विस्तृत रूप से जाना जाता है | सात-आठ विद्यार्थियों के मध्य एक मृत मानव शरीर रखा जाता था जिसका विच्छेदन (Dissection) कर हम उसके सभी अंगों को देखते और समझते थे | उस समय भी मेरे मस्तिष्क में एक बात ही चलती रहती थी कि इस शरीर में मन कहाँ होता है, आत्मा कहाँ रहती है आदि ? यह पारिवारिक पृष्ठभूमि का ही प्रभाव था कि मेरी अध्यात्म और सनातन धर्म-शास्त्रों के प्रति रुचि बाल्यकाल से ही थी | उस समय तो मुझे मेरे इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पाया किन्तु आज जब जीवन के इस मोड़ पर आकर आध्यात्मिक क्षेत्र के मार्ग पर चलना प्रारम्भ किया है तो आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व किये गए उस अध्ययन का बरबस ही स्मरण हो आया है |
             शरीर केवल स्थूल ही होता तो स्वामी जी को शरीर के बारे में इतना कुछ नहीं कहना पड़ता | मनुष्य अनंत जन्मों की यात्रा करते हुए सबसे अंत में इस देह को पाता है | अन्य प्राणियों की तरह ही क्या मनुष्य भी आहार, निद्रा, भय और संतानोत्पत्ति में ही रत रहकर यह जीवन गँवा देना चाहता है ? नहीं, मनुष्य को यह शरीर इनके अतिरिक्त किसी और उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी मिला है और वह उद्देश्य है, अपने सभी प्रकार के शरीरों से मुक्त होना |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, April 24, 2020

शरीर -1


शरीर-1  
           हम अपने शरीर के प्रति सदैव ही मोहग्रस्त रहते हैं | ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज प्रायः कहा करते थे कि साधक को मानना चाहिए कि शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिए नहीं है | पहुंचे हुए संत थे, उनसे गलत तो नहीं कहा गया होगा | ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि जब शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और मेरे लिए नहीं है तो फिर यह शरीर है किस लिए ? हम प्रायः अपने स्थूल शरीर को देखकर, इसकी सुन्दरता और सौष्ठवता को देखकर अभिमान से संसार में घूम रहे हैं | हमें अपने उस शरीर पर गर्व हो रहा है, जो कल रहेगा अथवा नहीं, इसका कोई विश्वास नहीं है | ऐसे में स्वामी जी का कहना तर्कसंगत है क्योंकि जिसका  होना अथवा न होना निश्चित नहीं है, वह उसका कैसे हो सकता है, जो सदैव है |
            हम सदैव के लिए हैं, अगर अपना स्वरूप पहचान लें | अगर शरीर को ही ‘मैं’ होना मानते रहे तो फिर संसार के आवागमन चक्र से मुक्त नहीं हुआ जा सकता | इस शरीर की पाँच अवस्थाएं होती हैं – जन्म, वृद्धि, विकास, जरा और मृत्यु | मैं बालक हूँ, मैं युवा हूँ, मैं वृद्ध हो गया हूँ इन तीनों कथन में एक ‘मैं’ ही केवल वैसे का वैसा ही है परन्तु शरीर की अवस्थाएं परिवर्तित हो गई हैं | हम शरीर को अपना मानने लगे हैं इसलिए शरीर की प्रत्येक अवस्था के साथ “मैं” को जोड़ देते हैं | इससे यह सिद्ध होता है कि ‘मैं’ कम से कम शरीर तो नहीं है | शरीर क्यों है, किसके लिए है, कैसे-कैसे और कितने हैं ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर जान लेने पर ‘मैं’ कौन है और ‘शरीर’ से इस ‘मैं’ को कैसे मुक्त किया जा सकता है आदि प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाएंगे |
             “शरीर” के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, इस शरीर को कई भागों और कोषों में बांटा गया है | बहुत प्रयास हुए हैं हमारे पूर्वजों द्वारा, इस “शरीर” के रहस्यों को खोलने के | जिस प्रकार हमारे ग्रंथों में ‘शरीर’ का वर्णन किया गया है, वह हमारी थाती है, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए |  
           आइये हम इस “शरीर” को जानने का प्रयास करते हैं, जिसको हम अपना और अपने लिए तो  मानते आ ही रहे हैं और ऐसा मानना हमारे भीतर इतनी अधिक गहराई तक पैठ गया है कि स्वयं को ही शरीर मान बैठे हैं |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||   

Thursday, April 23, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-18-समापन कड़ी-


जीवो जीवस्य जीवनम्-18-समापन कड़ी-
          “जीवो जीवस्य जीवनम्” विषय पर हुई अल्प चर्चा से यह निष्कर्ष निकल कर आया है कि इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति आपस में एक दूसरे से सम्बंधित है | एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर करता है | धनी व्यक्ति का अस्तित्व तभी तक है, जब तक कोई गरीब है | गरीब के समाप्त होते ही धनी का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा | इसी प्रकार जंगल हैं तो मनुष्य है, प्राकृतिक रूप से विचरण करने वाले जानवरों के अस्तित्व पर ही मानव जाति का अस्तित्व टिका हुआ है | इस धरती पर एक छोटा सा कण भी किसी कारण से प्रभावित होता है तो यह निश्चित है कि उसका प्रभाव सबसे बड़े जीव, ब्लू व्हेल तक जायेगा क्योंकि जो एक कण में है, वह विराट में भी है | इसीलिए हमारे शास्त्र कहते हैं कि छोटे से कण की भी भूलकर कभी उपेक्षा न करें | हम सभी का जीवन और अपने होने का अस्तित्व एक दूसरे के जीवन पर निर्भर है | ऐसे में हमें परमात्मा की इस सृष्टि को क्षति पहुँचाने का प्रयास कभी भी नहीं करना चाहिए | हम एक दूसरे के रक्षक बनें भक्षक नहीं, तभी हम सब सुरक्षित रह पाएंगे |   
        महावीर स्वामी का भी यही सन्देश है- “जीवो और जीने दो” क्योंकि “जीवो जीवस्य जीवनम्” ही सत्य है | “अहिंसा परमो धर्मः” अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है | हमारा परम धर्म है, किसी भी जीव की हत्या न करें | जीव-हत्या धर्म की हानि करना हुआ | धर्म की हानि करने से समय आने पर धर्म क्यों कर हमारी रक्षा करेगा ? मनुस्मृति  कहती है -
     “धर्म एव हतो हन्ति  धर्मो रक्षति रक्षितः|
     तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नौ धर्मो हतोSवधीत् ||“ ||मनुस्मृति-8/15||
          अर्थात मारा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है | इसलिए धर्म का हनन कभी नहीं करना चाहिए इस डर से कि मारा हुआ धर्म कहीं हमको न मार डाले |
सम्पूर्ण विवेचन का सार यही है कि -
               तदिदं भगवान् राजन्नेकं आत्माSSत्मानां स्वद्रिक् |
            अन्तरोSन्तरो भाति पश्य तं माययोरुधो || भागवत-1/13/47||
           अर्थात समस्त रूपों में जीवों के बाहर और भीतर वही एक स्वयं प्रकाशवान भगवान, जो सम्पूर्ण आत्माओं के आत्मा हैं, माया के द्वारा अनेकों प्रकार से हो रहे हैं | आप सभी में केवल उन्हीं भगवान को देखो | 
            इस प्रकार सर्वत्र परमात्मा को देखने से कोई किसी को कैसे मार सकता है ? हमारे सनातन शास्त्र, यूँ ही नहीं कह रहे हैं कि जीव ही जीव का जीवन है | इसलिए किसी भी जीव का जीवन न लें, यही शाश्वत धर्म है |
        आप सभी का साथ बने रहने पर आभार | कल से हम एक नए और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे | साथ बने रहें | 
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 22, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-17


जीवो जीवस्य जीवनम् -17   
            आधुनिक समय में तथाकथित विकसित देशों ने प्राकृतिक संतुलन को इतनी अधिक क्षति पहुंचाई है कि प्रकृति ने स्वयं को बचाने के लिए कोरोना को ही युद्ध मैदान में उतार दिया है | आप स्वयं ही देख लीजिये, जिसने भी आधुनिक शैली को अपनाया है, जिन्होंने मानवता को पीड़ित किया है, वे ही प्रकृति के इस कोप के सर्वाधिक भाजन बन रहे हैं | आज विकसित देश आहार के लिए जीवों की हत्याएं कर रहे है | अपनी सुख-सुविधाओं के लिए मूक जानवरों का वध कर उनसे विभिन्न पदार्थ बनाये जा रहे हैं | भूख बढाने के लिए, स्वादिष्ट भोजन बनाने में, सौन्दर्य प्रसाधन के लिए, यौन क्षमता बढाने के लिए आदि कई क्षेत्र हैं जिनमें मूक प्राणियों के चमड़े से लेकर अस्थियाँ तक उपयोग में ली जा रही हैं |
        यह तो मूक जानवरों के प्रत्यक्ष वध के उदाहरण है | अप्रत्यक्ष रूप से भी कई प्राणियों का जीवन संकट में पड़ता जा रहा है | वनों को काटा जा रहा है, जिससे जीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं, पृथ्वी के गर्भ को खरोंचा जा रहा है, नदियों को कारखानों के रसायनों से प्रदूषित कर दिया गया है जिससे जलचरों का जीवन संकट में हैं आदि | अपने द्वारा सृजित जीवों पर आया यह संकट प्रकृति कैसे सहन करती ? यदि यह प्राकृतिक संतुलन और अधिक विचलित हो जायेगा तो प्रलय की स्थिति बन सकती है | इसलिए प्रकृति ने स्वयं और जीवों की सुरक्षा हेतु अपने कारक कोरोना को संतुलन बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है | इतना सब कुछ प्रकृति मनुष्य सहित सभी प्राणियों के भले के लिए कर रही है | आज हमें कोरोना से हुई मौतें तकलीफ दे रही है परन्तु यह सब कुछ तो प्रकृति को क्षति पहुँचाने से पहले सोचना चाहिए था | इस त्रासदी से मनुष्य को ही सीख लेने की आवश्यकता है |
           प्रश्न उठता है कि कोरोना महामारी का “जीवो जीवस्य जीवनम्” से क्या सम्बन्ध है ? सम्बन्ध है, प्रत्यक्ष नहीं बल्कि परोक्ष रूप से सम्बन्ध है | आधुनिक जीवन शैली ने अनेकों जीवों के जीवन को संकट में डाल दिया है | उन जीवों के जीवन को बचाने के लिए ही परमात्मा ने अपनी प्रकृति के माध्यम से कोरोना को युद्ध मैदान में उतारा गया है | इस महामारी से भी अगर मनुष्य नहीं सम्हला तो उस परम के तरकश में और भी कई तीर है | कोरोना महामारी मनुष्य जाति के लिए एक सबक है | आज गंगा, यमुना आदि नदियाँ दो-चार सप्ताह में ही प्रदूषण से उबरने लग गयी है | उनके जल में साँस ले रहे जीव भी शायद प्रकृति को धन्यवाद देते हुए आभार व्यक्त कर रहे हैं | वायु और ध्वनि प्रदूषण में कमी आई है | मनुष्य की असली परीक्षा तो इस महामारी से मुक्त होने के बाद होगी कि वह प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने के लिए भविष्य में अपना योगदान किस प्रकार देगा ?
कल अंतिम कड़ी  
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 21, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-16


जीवो जीवस्य जीवनम् -16
           प्रकृति के इस हथियार से बचाव का उपाय क्या है ? इसका टीका नहीं है और न ही यह कोई जीव है, जो इसके शरीर को समाप्त किया जा सके | इससे बचने के लिए हमें हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति की ओर पुनः लौटना होगा | चाहे कोई कितनी ही आलोचना करे कि हम दकियानूसी हैं, हम अन्धविश्वासी है परन्तु विश्वास करें, हम उपरोक्त दोनों ही नहीं हैं | हमने प्रकृति को जितनी गंभीरता से समझा है उतना किसी ने नहीं | जहाँ हमारी संस्कृति सूरज, चंद्रमा, नदियों, वायु, अग्नि आदि को सहस्राब्दियों से पूजती चली आ रही है, उसमें कोई न कोई तो विशेष बात होगी | हम प्रकृति के रक्षक हैं, हम प्रकृति को पूजते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि प्रकृति ही हमारा जीवन है | हम आपस में एक प्राणी दूसरे प्राणी को उन्नत करते हैं उनका विनाश नहीं करते |
             हमारी संस्कृति में रोग को फैलने से रोकने के लिए “शुचिता” को महत्त्व दिया है | शुचिता का अर्थ है, शुद्धि, बाहर और भीतर दोनों की शुद्धि | बाहर की शुद्धि में, निवास स्थान की पवित्रता बनाये रखना, घर में कचरा व गन्दगी न फैलाना, मल-मूत्र त्यागने के पश्चात् हाथों और पैरों को अच्छी प्रकार धोना, घर में प्रवेश करते ही साफ जल से हाथ, मुंह और पैरों का धोना, भोजन से पूर्व हाथों को अच्छी प्रकार से साफ करना, प्रतिदिन स्नान करना, अभिवादन हाथ जोड़कर करना, एक दूसरे से निश्चित दूरी पर बैठना, भोजन करते समय मौन रहना, खांसी लेते अथवा छींकते समय हाथ नाक और मुंह को कपड़े से ढकना आदि | आज चिकित्सक कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए इन्हीं सुझावों को दे रहे हैं | निष्कर्ष यही निकलता है कि आज हमारी समस्या हमारी संस्कृति के परित्याग के कारण से है | आज हम सोच रहे हैं कि क्यों हमने अपनी संस्कृति को भूला दिया ? इसलिए महामारी से बचाव का यही एक रास्ता है कि हम अपने संस्कारों की और लौटें | आंतरिक शुद्धि एक विस्तृत विषय है, जिस पर फिर कभी आगे विचार करेंगे |  
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, April 20, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-15


जीवो जीवस्य जीवनम्-15
              अभी कोरोना महामारी से वही क्षेत्र कम प्रभावित हुआ है जहाँ पर मच्छर के काटने से मलेरिया रोग होता है | यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि मच्छर का काटकर मलेरिया फैलाना आपको कोरोना जैसे जानलेवा रोग से मुक्त भी रख सकता है | हालाँकि यह  मनुष्य की कोरोना से रक्षा होने में मलेरिया का अप्रत्यक्ष योगदान है | हो सकता है आपको मेरा ऐसा कहना अतिशयोक्ति पूर्ण प्रतीत हो परन्तु आप इस बात पर अवश्य गौर करें कि संयुक्त राज्य अमेरिका मच्छर नियन्त्रित और मलेरिया मुक्त देश है और वहां कोरोना महामारी अपने उग्र रूप का प्रदर्शन कर रही है | हमारे प्रधानमंत्री जी से वहां के राष्ट्रपति ने मलेरिया की दवाइयां भेजने का आग्रह किया है क्योंकि वहां मलेरिया रोधी दवा (HCQ) का निर्माण तक नहीं होता है | अतीत में अमेरिका द्वारा अतिरेक में लिया गे यह निर्णय उसे आज इस मोड़ पर ले आया है | अतः हमें सदैव याद रखना है कि प्रत्येक जीव का जीवन प्रत्यक्ष (Direct) अथवा परोक्ष (Indirect) रूप से किसी अन्य जीव के लिए जीवन होता है |
                   प्रश्न यही उठता है कि अमेरिका जैसा विकसित देश क्यों कोरोना महामारी से सर्वाधिक त्रस्त देश बनने जा रहा है ? जिस देश ने अपने सामरिक हथियारों के बल से विश्व के प्रायः सभी देशों को अपने संकेतों पर नचाया हो और अभी भी नचा रहा है, वह कोरोना जैसे छोटे से विषाणु के सामने पस्त कैसे हो रहा है ? वास्तव में यह विचारणीय विषय है | प्रश्न अगर संसाधनों का हो तो भी जैसे उच्च स्तर के संसाधन अमेरिका के पास है वैसे संसाधन तो किसी अन्य देश के पास नहीं है | उसके पास संसार की सर्वोत्तम चिकित्सा सेवा है, चिकित्सा के काम आने वाले बेहतरीन उपकरण है, संसार के चुने हुए सिद्ध चिकित्सक हैं, फिर भी आज वह इस महामारी के सामने घुटने क्यों टेक रहा है ?
             इन सभी प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं मिल सकते, केवल सनातन दर्शन ही उन प्रश्नों का उत्तर दे सकता है | याद है न आपको 6 और 9 अगस्त 1945, जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगर | क्या गलती थी, वहां के निरीह प्राणियों की | क्यों किया गया वहां आणविक हमला ? केवल दूसरे विश्वयुद्ध में अपना वर्चस्व स्थापित करने का उद्देश्य था अमेरिका का | उस समय जापान ने तत्काल घुटने टेक दिए, अमेरिका के सामने | आज, आज अमेरिका प्रकृति के सामने घुटने टेक रहा है | सोचिये ! ऐसे में अमेरिका बड़ा हुआ या परमात्मा की प्रकृति ?
 क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, April 19, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-14


जीवो जीवस्य जीवनम्-14  
       केवल स्व-चेतन जीव मनुष्य का ही “जीवो जीवस्य जीवनम्” से सम्बन्ध है अन्यथा स्व-अवचेतन जीव तो केवल “जीवो जीवस्य भोजनम्” को ही मूल मन्त्र समझते हैं | तो हम स्व-चेतन मनुष्य की बात पर आते हैं | ऐसे मनुष्य का आहार (Food), व्यवहार (Behave), विचार (Thoughts) आदि सभी स्व-अवचेतन मनुष्य से भिन्न होते हैं क्योंकि वह ज्ञानपूर्वक जीवन जीता है | वह आहार करते समय यह ध्यान रखता है कि किसी जीव को इससे हानि न पहुंचे | आज जब मनुष्य अहिंसा को छोड़ आहार के लिए हिंसक हो गया है, तभी तो प्रकृति क्रंदन (Bawling/Weeping) कर रही है | आहार (Food) और अर्थ व्यवस्था (Finance) के लिए हिंसा को प्रश्रय (Patronage) दिया जा रहा है जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है | इस संतुलन को पुनर्स्थापित (Restore) करने का प्रयास प्रकृति द्वारा किया जा रहा है | ताज़ा उदाहरण कोरोना महामारी के रूप में हमारे समक्ष है |
       हम भयग्रस्त होकर जी रहे हैं | यही कारण है कि हम स्वार्थ के कारण अपने जीवन को बचाने के लिए जीव हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं | हम भयग्रस्त हैं तभी तो जंगल काटकर जीवों का आश्रय (Shelter) छीन रहे हैं | जंगली जानवरों को हम अपना जीवन बचाने की आड़ में मार रहे हैं | याद रखिए, समष्टि में एक का जीवन दूसरे के जीवन पर निर्भर रहता है, दूसरे की मृत्यु पर नहीं | सभी जीव मुक्त जीवन जीयेंगे तभी मनुष्य मुक्त रहकर जी सकेगा |
         आप सांप के स्वाभाविक आहार नहीं है, फिर सांप को देखते ही उसे मारने को क्यों दौड़ पड़ते हो ? क्या उसे अपना प्राकृतिक जीवन जीने का अधिकार नहीं है ? आप उसे मारने का प्रयास करोगे तो वह अपना जीवन बचाने के लिए आपको डसेगा ही | मच्छर आपको काटता है क्योंकि आपका खून उसका स्वाभाविक भोजन है | वह स्व-अवचेतन है, वह नहीं समझता कि उसके द्वारा काटे जाने से आप बीमार पड़ सकते हैं | वह तो स्व-अवचेतन है परन्तु आप तो स्व-चेतन हैं, आप उस छोटे से मच्छर की जान के पीछे क्यों पड़े हो ? आप उसे मारकर अपने जीवन को बचाने का प्रयास न करें बल्कि उसके द्वारा काटे जाने से बचने का प्रयास करें क्योंकि आप स्व-चेतन हैं, स्व-अवचेतन नहीं |
               स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (National malaria eradication programme, NMEP) चलाया गया था, जिसका नारा (Slogan) था, “मच्छर नहीं तो मलेरिया नहीं |” उस समय मच्छरों को समाप्त करने के लिए घर-घर DDT का छिडकाव किया जाता था | मच्छरों ने कुछ ही वर्षों में DDT के प्रभाव के विरुद्ध शक्ति विकसित कर ली | इसमें प्रकृति का योगदान था | कई वर्ष यह कार्यक्रम चला परंतु मलेरिया के रोगी घटने के स्थान पर बढ़ते चले गए | सरकार समझ गयी थी कि मच्छरों को समूल नष्ट करना संभव नहीं है | थक हार कर सरकार ने इस कार्यक्रम को मलेरिया उन्मूलन के स्थान पर मलेरिया नियंत्रण में परिवर्तित कर दिया | इस कार्यक्रम का नाम रखा- राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (National malaria control programme, NMCP) और इसका नारा (Slogan) है, “मच्छर रहेगा पर मलेरिया नहीं |” यह कार्यक्रम भी दम तोड़ चूका है | प्रकृति के आगे किसी का वश नहीं, आज मच्छर भी है और मलेरिया भी |
              मेरे कहने का अर्थ है कि प्रत्येक प्राणी की रक्षा प्रकृति स्वयं करती है क्योंकि प्रत्येक जीव का जीवन सब जीवों के जीवन के साथ बंधा हुआ है | 
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 18, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम्-13


जीवो जीवस्य जीवनम्-13  
          स्व-चेतन मनुष्य व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को अधिक महत्त्व देता है | व्यष्टि से समष्टि महत्वपूर्ण है और सत्य भी | समष्टि कहती है कि सभी व्यष्टियां (Individuals) एक दूसरे से सम्बंधित है और सम्बंधित होने के नाते एक दूसरे से समान रूप से प्रभावित होती हैं | इससे सिद्ध होता है कि व्यष्टि और समष्टि का स्वरूप एक है, तभी तो किसी बात का दोनों पर प्रभाव एक समान होता है | दोनों में भिन्नता किसी प्रकार की नहीं है केवल व्यक्तिगत चेतन को हम व्यष्टि चेतन कह देते हैं और सामूहिक रूप से समस्त व्यष्टि चेतन को समष्टि चेतन |
                जब समष्टि और व्यष्टि चेतन एक ही है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस ब्रह्मांड में आनुपातिक रूप से फिर न कोई छोटा है और न ही कोई बड़ा, न कोई किसी को देता है और न कोई किसी से लेता ही है | न तो कोई किसी को सुख देता है और न ही दुःख | न कोई दाता है न कोई भिखारी | सब एक समान है, बराबर है | इसीलिए अध्यात्मिक व्यक्ति सुख-दुःख, मान-अपमान और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित नहीं होता | आध्यात्मिक व्यक्ति का ऐसा मानना ही उसे समता में और सहज रहना सीखा देता है | गीता में सहज रहने और समता पूर्वक व्यवहार करने को महत्वपूर्ण बताया गया है | ऐसे व्यक्ति को भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है |
             समष्टि चेतन के भाव को स्वीकार कर लेने से किसी भी जीव को पीड़ा में देखकर व्यक्ति स्वयं का पीड़ित होना मानता है और इस प्रकार वह किसी को दुःख दे ही नहीं सकता | समष्टि चेतन का अर्थ ही है कि हम सभी एक दूसरे से सम्बंधित है | सारी सृष्टि चाहे वह चेतन हो अथवा अचेतन, आपस में सम्बंधित है | इसीलिए निश्चित है कि वे सब एक दूसरे पर प्रभाव भी डालती है | हमारी संस्कृति इसीलिए पत्थर को भी पूजती है, ग्रहों की चाल को भी समझती है और चेतन-अचेतन को तो समझती है ही | यही कारण है कि हमारे यहाँ मनुष्य के आहार में जीव हिंसा का कोई स्थान नहीं है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, April 17, 2020

जीवो जीवस्य जीवनम् -12


जीवो जीवस्य जीवनम्-12   
दार्शनिक पक्ष –
            लेख के प्रारम्भ में मैंने चेतन और अचेतन सृष्टि की बात की थी | अचेतन तो सभी पदार्थ हैं और चेतन, चेतन वह शक्ति है जिसको पाते ही पदार्थ सक्रिय हो जाता है | पदार्थ की इस सक्रियता को जीवन कहा जाता है | चेतन एक व्यापक शब्द है क्योंकि चेतना सर्वव्यापी है | परन्तु किन्हीं कारणों से चेतन को व्यक्ति सर्वव्यापी न मानकर व्यक्तिगत भी मानने लगा है | यह सब परमपिता की ही माया है, जिसने चेतना को भी बाँट दिया है | समझने की दृष्टि से चेतन (conscious) को दो भागों में बांटा जा सकता है – समष्टि चेतन (Whole conscious) और व्यष्टि चेतन (Individual conscious) | समष्टि का अर्थ है सामूहिकता और व्यष्टि का अर्थ है व्यक्तिगत | सामूहिक चेतना का अर्थ है कि जिस शक्ति से कोई एक जीव चैतन्य अवस्था को उपलब्ध हुआ है, वही शक्ति मुझे भी चैतन्य कर रही है | केवल मुझे ही नहीं, सभी जीवों में वही चेतनता प्रकाशित हो रही है | इस प्रकार समष्टि चेतन का अर्थ हुआ सभी में एक ही प्रकार की चेतना, कहीं कोई भिन्नता नहीं | व्यष्टि चेतन का अर्थ है, मैं चेतन हूँ एक प्रकार की चेतना से और दूसरा मेरे जैसा अथवा मेरे से अलग संरचना वाला जीव अलग प्रकार की चेतना से चैतन्य हो रहा है | चेतन में इस प्रकार की भिन्नता (Difference) केवल शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर तो हो सकती है परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर नहीं | यही कारण है कि एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही चेतना के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर सकता है | फिर उसकी सोच व्यष्टि चेतन से ऊपर उठकर समष्टि चेतन के स्तर की हो जाती है | इस स्तर तक पहुंचा व्यक्ति ही परमात्मा को पा सकता है |
              व्यष्टि चेतन भी दो प्रकार का होता है – स्व-अवचेतन (Self-subconscious) और स्व-चेतन (Self-conscious) | यहाँ अवचेतन का अर्थ चेतना के अभाव (Non-consciousness) से नहीं है बल्कि चेतना की सुषुप्ति (subconsciousness) अवस्था से है | अवचेतन का अर्थ है, वह है तो चेतन परन्तु वह चेतना भीतर कहीं गहराई में दबी हुई है, बेहोशी अथवा सुषुप्ति की अवस्था में है और प्रयास करने से उसे होश में लाया जा सकता है, पूर्ण रूप से चेतन किया जा सकता है | यह बात मनुष्य के सन्दर्भ में ही कही गयी है, अन्य सभी प्राणी स्व-अवचेतन अवश्य है परन्तु उनको प्रयास करके भी स्व-चेतन अवस्था में नहीं लाया जा सकता |
        चेतना होना और ज्ञानपूर्वक जीना दोनों अलग-अलग बातें हैं | चेतन होते हुए भी मनुष्य बेहोशी का जीवन जी सकता है, जैसे अन्य प्राणी जीते हैं | वे सदैव ही स्व-अवचेतन की अवस्था में बने रहते हैं | स्व-अवचेतन का अर्थ हुआ अज्ञान में जीना अर्थात बेहोशी का जीवन और स्व-चेतन का अर्थ हुआ ज्ञान पूर्वक जीना अर्थात होश पूर्ण जीवन | केवल मात्र मनुष्य ही स्व-चेतन का अधिकारी है जबकि अन्य जीव स्व-अवचेतन अवस्था में ही बने  रहते हैं | कई मनुष्य जो होश पूर्वक जीवन नहीं जीते उन्हें भी स्व-अवचेतन की श्रेणी में रखा जा सकता है | जिसके कारण उनके जीवन को पशुवत जीवन भी कहा जा सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||