Friday, November 30, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-6

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा-6
छठा बिंदू -
Please don't refer to our temples as prayer halls. Temples are "devalaya" (abode of god) and not "prarthanalaya" (Prayer halls).
परमात्मा से प्रार्थना कहाँ की जाती है ? सनातन दर्शन में परमात्मा की उपस्थिति प्रत्येक स्थान पर होना स्वीकार की गई है।इसलिए प्रार्थना के लिए कोई विशेष स्थान नियत नहीं है,परमात्मा की प्रार्थना सभी स्थानों पर की जा सकती है।चर्च,गुरुद्वारा, मस्जिद तथा मंदिर को प्रार्थना स्थल कहा अवश्य जाता है परंतु केवल इन्हीं स्थानों पर ही परमात्मा से की गई प्रार्थना स्वीकार  होती हो,ऐसी बात नहीं है। मंदिर को देवालय कहें अथवा और कुछ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। हाँ, जिस मंदिर में देवता की प्रतिमा स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा की गयी हो, उस स्थान का महत्व अन्य स्थान की तुलना में अवश्य ही अधिक हो जाता है। ऐसे स्थान पर परमात्मा के विग्रह के कारण हमारी मानसिकता में परिवर्तन आ जाता है। सनातन धर्म का अनुगामी चोर भी अगर उस मंदिर में प्रवेश करता है, तो उसके भीतर का चौर्य भाव विग्रह को देखकर ही समाप्त हो जाता है। व्यभिचारी भी मंदिर में व्यभिचार करने से कतराता है।
आजकल मंदिरों की मर्यादा भी तार तार होती देख रहे हैं।इसका कारण है कि लोग विग्रह को भगवान न मानकर मात्र पत्थर ही मानने लगे हैं। मेरी बात को अन्यथा न लें, यह आज की वास्तविकता है कि विग्रह की प्रतिदिन सेवा-पूजा करने वाले व्यक्ति को भी उस मूर्ति में भगवान के होने पर विश्वास नहीं है। परमात्मा तो बहुत बड़ी बात है, मैं तो यहां तक कहता हूँ कि यह भौतिक संसार भी विश्वास पर टिका है।ऐसे में मूर्ति में भगवान होने के विश्वास को खंडित होते देखकर मन में ग्लानि अवश्य होती है। फिर भी कुछ स्थानों को अपवाद स्वरूप छोड़ दे तो अभी भी इस देश में मंदिरों के प्रति लोगों की आस्था बनी हुई है।
अनुचित कर्म करने के लिए प्रायः मंदिर का उपयोग नहीं किया जाता। मंदिर में पाप कर्म करने से बचने की सोच ही इसको प्रार्थना स्थल अथवा सभागार से कुछ अलग स्थान प्रदान करती है। जिस प्रकार चोर चोरी किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में नहीं करता, अपराधी भी अपराध छुपकर करता है किसी अन्य के सामने नही करता, उसी प्रकार देवालय में भगवान की उपस्थिति मानकर कोई भी वहां अशुभ कर्म नहीं करना चाहता।मूर्ति की उपस्थिति मंदिर में परमात्मा के वहां होने का अहसास कराती है। इसलिए मंदिर को मात्र प्रार्थना स्थल न कहकर देवालय कहना अधिक उपयुक्त होगा।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, November 29, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा -5-

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-5
पंचम बिंदु-
Please don't refer to Ganesh and Hanuman as "Elephant god" and "Monkey god" respectively. You can simply write Shree Ganesh and Shree Hanuman.
भगवान को कोई क्या कहता है उससे क्या फर्क पड़ता है ? हमारी आस्था कहाँ पर स्थिर है, यह बात मुख्य है। जो यह नहीं जानते कि गणेश के हाथी का मुंह क्यों लगा, वे ही ऐसा कहते हैं।गणेश भगवान है चाहे उनका सिर हाथी का ही क्यों न हो। हम हाथी में भी भगवान देखते हैं और मनुष्य में भी। गणेश में दोनों उपस्थित है परंतु देखा जाए तो दोनों अलग अलग नहीं है। यही बात हम हनुमानजी के बारे में कह सकते हैं, वानर में भी तो वही ईश्वर विराजमान है, जो आप में और हम में है। क्षणिक हमें यह आभास हो सकता है कि गणेश को elephant god अथवा हनुमान को monkey goad क्यों कहा दिया ? अंग्रजी भाषा में प्रत्येक नाम को उसी रूप में लिखा जाता है, जैसा कि उसका उच्चारण किया जाता है जैसे कि मेरा नाम प्रकाश है तो यह Prakash ही लिखा जाएगा light नहीं।
     अंग्रेजी का अधूरा ज्ञान रखने वाला ही गणेश को elephant god लिख सकता है अथवा वह लिखेगा जो हमारे धर्म को हीन समझकर उसका मजाक बनाना चाहता हो। हनुमान वानर थे, जो काम वानर कर सकता है, मनुष्य नहीं कर सकता। बंदर की छलांग देखी है न, वैसी छलांग लगाने वाला ही भारत भूमि से लंका जा सकता है। बच्चे की चंचलता देखकर हम उसे बंदर कह देते हैं, इससे वह बंदर नही हो जाता।
      आज गणेशजी का  हाथी का मुंह देखकर लोग हंस सकते हैं, परंतु शीघ्र ही विज्ञान head transplant करने में सफल होने जा रहा है,तब ऐसे लोगों को हमारी पुरातन शल्य चिकित्सा पद्धति का लोहा मानना होगा।अतः ऐसी बातों और इस प्रकार के अनुचित लेखन पर ध्यान न दें।साथ ही हम सभी सनातन धर्मावलंबियों का कर्तव्य बनता है कि कम से कम हम स्वयं तो अपने देवताओं का न तो उपहास करें और न ही किसी को करने दें।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, November 28, 2018

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा -4

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा -4
चतुर्थ बिंदु -
Please don't be apologetic about idol worship and say “Oh, that's just symbolic". All religions have idolatry in kinds or forms - cross, words, letters (calligraphy) or direction.
Also let's stop using the words the words 'idols', 'statues' or 'images' when we refer to the sculptures of our Gods.
Use the terms 'Moorthi' or 'Vigraha'. If words like Karma, Yoga, Guru and Mantra can be in the mainstream, why not Moorthi or Vigraha?
सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का बड़ा महत्व है।मूर्ति पूजा का कई व्यक्ति विरोध करते हैं। मैं कहता हूं कि आप मूर्ति पूजा में विश्वास रखते हैं अथवा नहीं, यह बात आपके विचारों की है परन्तु इसका विरोध कदापि न करें। मूर्ति पूजा में विश्वास न रखना और मूर्ति पूजा का विरोध करना, दोनों अलग अलग बातें हैं।ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहते थे कि किसी भी बात का खंडन मंडन कभी भी नहीं करना चाहिए।सभी बातें न तो पूर्णतया सत्य होती है और न ही असत्य। सत्य केवल परमात्मा हैं। आप मूर्ति अथवा विग्रह में परमात्मा देख पा रहे हैं तो फिर मूरत/विग्रह सत्य है।उसकी पूजा करना भी सही है। मूर्ति उसी के लिए परमात्मा है, जो उसमें पत्थर न देखकर परमात्मा को देखता है।हम मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा इसीलिए कराते हैं जिससे हमें यह विश्वास हो जाये कि इसमें अथवा यह अब पत्थर न होकर भगवान है।
सनातन धर्म कण कण में भगवान को मानता है।ऐसे में कहा जा सकता है कि प्रत्येक स्थान,वस्तु और व्यक्ति में ईश्वर है।ऐसे में मूर्ति को प्रतीक कहना उचित नहीं है और न ही मूर्ति पूजा केवल प्रतीक मात्र ही है।मूर्ति और उसकी पूजा केवल उनके लिए प्रतीक भर हो सकती है जिनको मूर्ति में भी भगवान होने का विश्वास न हो।अतः मूर्ति को विग्रह कहना अधिक उपयुक्त है न कि प्रतीक ।  पूजा भी मन लगाकर की जाए तो भगवान भी प्रकट है अन्यथा पूजा भी मात्र औपचारिकता बन कर रह जाती हूं। सब कुछ आपके मनोभाव पर निर्भर करता है। मन मे भाव अच्छे हो तो प्रत्येक स्थान पर भगवान की पूजा की जा सकती है क्योंकि वह सब जगह उपस्थित है।क्या मुझे कोई बात सकता है कि वह कहां नहीं है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, November 27, 2018

सनातन धर्म-हिंदी/अंग्रेजी भाषा-3

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेजी भाषा -3
तीसरा बिंदु-
Please don't use the word "Mythology" for our historic epics (Ithihaas) Ramayana and Mahabharata.  Rama and Krishna are historical heroes, not just mythical characters.
      भगवान श्री राम के इस धरा पर अवतरण की कथा उनके समकालीन महर्षि वाल्मिकी ने रामायण में वर्णित की है।इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण की जीवन गाथा उनके समकालीन वेद व्यासजी ने महाभारत नामक ग्रंथ में लिखी है। इस आधार पर हम इन ग्रंथों को ऐतिहासिक ग्रंथ तो कह सकते हैं परंतु काल्पनिक नहीं। अंग्रेजी में इन धर्मग्रंथों को mythology कहा जाता है अर्थात इनमें वर्णित कथाएं केवल मिथक है।मिथक कहने का अर्थ है कि इन कथाओं और पात्रों का वास्तविकता से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो महाभारत काल और श्री कृष्ण के होने के प्रमाण तो पुरातत्व विभाग को मिल ही चुके हैं।अतः श्री कृष्ण को तो मिथक नहीं कहा जा सकता। भगवान श्री राम के द्वारा निर्मित सेतु, जो कि भारत की भूमि को श्री लंका से कभी जोड़ता था, NASA ने अंतरिक्ष से उसका अवलोकन कर सिद्ध किया है कि इस सेतु की रचना मनुष्यों द्वारा की गई है अर्थात यह सेतु मानव निर्मित है।इसी प्रकार वन प्रवास की अवधि में श्री राम ने जिस मार्ग से अयोध्या से श्रीलंका की यात्रा की थी, रास्ते में जहां जहां वे रुके थे, उनसे संबंधित वे सभी स्थान आज भी मौजूद है।
पश्चिमी विद्वानों ने इन सब पात्रों और उनके जीवन को मनुष्य के मन की कोरी कल्पना मात्र बताया है, जो कि सत्यता से परे है। हमें उनकी बातों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। हमें अपने रामायण, महाभारत आदि धर्मग्रंथों पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हुए ऐसी समस्त भ्रांतियों का विरोध करते हुए युवाओं का मार्गदर्शन करना चाहिए । आज सनातन धर्म का मखौल उड़ाना एक फ़ैशन बन गया है, जिसका मुख्य कारण हम स्वयं है, जो अपने धर्म के प्रति उदासीनता रखते हैं । सर्वप्रथम तो हमें हमारे ईश्वर पर श्रद्धा रखनी चाहिए और फैलाये जा रहे असत्य को नंगा कर सत्य को प्रचारित करने जा प्रयास करना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, November 26, 2018

सनातन धर्म -हिंदी/अंग्रेज़ी भाषा-2

सनातन दर्शन - हिंदी/अंग्रेजी भाषा-2
द्वितीय बिंदु -
Please do not use the meaningless term "RIP" when someone dies. Use "Om Shanti", "Sadhgati" or "I wish this atma attains moksha/sadhgati /Uthama lokas".  Hinduism neither has the concept of "soul" nor its "resting". The terms "Atma" and "Jeeva" are, in a way, antonyms for the word "soul".(to be understood in detail)
लेख का दूसरा बिंदु कहता है कि किसी की मृत्यु होने पर आजकल RIP कहने का प्रचलन है।RIP अर्थात rest in peace शांति में विश्राम।यह कहना कहाँ तक उचित है?हम भी अपनी भाषा में कह देते हैं कि 'परमात्मा उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे '।
ऐसा कहना भी उचित नहीं है। आत्मा का स्वभाव ही शांत है, अशांति उसमें हो ही नहीं सकती। अशांति रहती है, मन में। सब मन के खेल है।मन से बनता है जीव।इस जीव के साथ जब परमात्मा का अंश आ मिलता है, तभी जीवन प्रारम्भ होता है। शांति जीव को चाहिए न कि आत्मा को। इसलिए मृत व्यक्ति के जीव की शांति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए न कि आत्मा की शांति के लिए। जीवात्मा के मुक्त होने की कामना करें । जीव से आत्मा के मुक्त हो जाने का नाम ही मोक्ष है। जीव से आत्मा तभी मुक्त होगी जब जीव को शांति मिलेगी।अतः जीव की शांति और आत्मा के मुक्त होकर परमात्मा में मिलने की प्रार्थना करनी चाहिए न कि आत्मा की शांति के लिए।
    एक बात और, RIP उन मृत व्यक्तियों के लिए कहा जाता है जो ऐसे समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं जिसमें मोक्ष की धारणा को स्वीकार नहीं किया है अर्थात जो मोक्ष होने में विश्वास नहीं करते । न ही वे पुनर्जन्म ने विश्वास करते हैं।वे मानते हैं कि शरीर की मृत्यु के उपरांत जीव स्वर्ग में जाकर शांति को प्राप्त होता है और पुनः संसार के नए सृजन के साथ उसका इस धरा पर पदार्पण होता है। ऐसा मानने वाले अगर मृत व्यक्ति के लिए RIP की प्रार्थना करते हैं, तो उनके लिए ऐसा कहना उचित है।
      सनातन दर्शन मोक्ष में विश्वास करता है। हम पुनर्जन्म होना मानते हैं। हम परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं।मन को संसार में  आवागमन का कारण मानते हैं। आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप हैं अतः हमारा स्वरूप भी वही है। इसलिए शरीर की मृत्यु हो जाने पर हमें आत्मा के मन से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाने की कामना करनी चाहिए ।ॐ शांति, सद्गति अथवा स्वर्ग को प्राप्त हो, यह कामना भी की जा सकती है,परंतु सर्वोच्च कामना है- मोक्ष होकर परमात्मा में विलीन होने की।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, November 25, 2018

सनातन धर्म - हिंदी/अंग्रेजी भाषा -1

सनातन दर्शन-हिंदी/अंग्रेजी भाषा -1
भाई अशोकजी ने कल एक अंग्रेज विद्वान का एक लेख भेजा है, जिसमें मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि सनातन धर्म के अंतर्गत उपयोग में लिए जाने वाले कुछ शब्दों का रूपांतरण जब अंग्रेजी भाषा में किया जाता है तो उनका अर्थ हिंदी शब्दों के अनुकूल नहीं होता है। जिसके कारण कई बार बड़ी विसंगतियां उत्पन्न हो जाती है। अशोकजी ने मेरे से आग्रह किया है कि मैं उस लेख में वर्णित तथ्यों को स्पष्ट करते हुए आपके समक्ष रखूं।वास्तव में देखा जाए तो उस लेख में वर्णित बिंदुओं का आध्यामिकता से सीधा संबंध नहीं है फिर भी यह एक वास्तविकता है कि पर्याप्त जानकारी के अभाव में हम अपने धर्म और संस्कृति को सही रूप से नहीं समझ पा रहे हैं।इसके कारण हमारा व्यवहार भी संस्कृति के विपरीत होता प्रतीत होता है। इस लेख में दस बिंदु है, जिनको एक एक कर स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ।
प्रथम बिंदु -
Please stop using the term "God fearing" - Hindus never ever fear God. For us, God is everywhere and we are also part of God. God is not a separate entity to fear.
It is integral.
अंग्रेजी में कहते हैं, 'god fearing' और हिंदी में इसे कहते हैं,'ईश्वर से डरो'।हम कई कार्य भगवान के डर से करते हैं जबकि भगवान से डरने की कोई बात नहीं है।ईश्वर से डरना ही नहीं बल्कि किसी से भी भयग्रस्त होना हमारी दार्शनिकता में कभी भी नहीं रहा है।आध्यात्मिकता का अर्थ है, स्वयं को जानना। स्वयं को जानने का अर्थ है, परमात्मा को जान लेना।हमारे और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है।परमात्मा से हम अभिन्न हैं ऐसे में स्वयं से वही डर सकता है जिसको स्वयं कौन है, इस बात का ज्ञान नहीं है। परमात्मा को जानने अर्थात आत्म-ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला कभी भी भयग्रस्त नहीं हो सकता।भयमुक्त रहकर मुक्त व्यवहार करना ही  हमारी जीवन शैली में सदैव से है क्योंकि हम परमात्मा के होने में विश्वास करते हैं । परमात्मा से डरना अर्थात उसमें विश्वास न करना अतः 'परमात्मा से डरो' कहने का अर्थ है जैसे ईश्वर हमें दंडित करेगा। ईश्वर दंड नहीं देते, दंड देते हैं हमारे बुरे कर्म। अगर डरना ही है,तो फिर ईश्वर से नहीं कर्मों से डरो।बुरे कर्म नहीं करोगे तो भय भी नहीं रहेगा।परमात्मा ने तो एक व्यवस्था प्रकृति के माध्यम से हमें दे दी है।उस प्रकृति के कई नियम है। उन नियमों का उल्लंघन करना ही हमें दंडित करता है।नियम का पालन करने वाला कभी भी दंडित नहीं हो सकता। परमात्मा में विश्वास करने वाला कभी भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करता ।यही कारण है कि वह अपने जीवन में कभी भी भय से पीड़ित नहीं होता। अतः कहा जा सकता है कि god fearing अथवा परमात्मा से डरो कहना उपयुक्त नहीं है।
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, November 24, 2018

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति .....कल से आगे -

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति...कल से आगे-
     परीसा भागवत और कमला अपने जीवन में कहां संतुष्ट थे ? संतुष्ट होते तो पारस पत्थर को सिर पर उठाए न फिरते। असंतुष्टि के कारण ही तो नामदेव द्वारा पारस को नदी में फैंके जाने पर परीसा व्यथित हो गया था, मन में संतोष रहता तो उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। नामदेव जीवन में संतुष्ट थे परंतु राजाई नहीं थी। राजाई नामदेव की पत्नी, विवाह उपरांत इतने वर्षों तक सदैव नामदेव के साथ रही, वह भी उनकी निष्काम भक्ति को समझ नहीं सकी तो केवल परीसा ही क्यूँ, आप और मैं भी भला कैसे समझ सकेंगे ? दैवी से परीसा ने पारस पत्थर मांगा, कमला ने उससे स्वर्ण बनाया, फिर कमला ने वही पारस राजाई को दिया, 8न सब के मध्य सकाम भाव ही प्रवाहित होता रहा, निष्काम भाव कहीं पर भी नहीं था। परंतु जब नामदेव ने नदी में गोता लगाकर कई पारस पत्थर परीसा के सामने ला फैंके थे तब उनके मन में रत्ती भर भी सकाम भाव नहीं था।सकाम भाव की अनुपस्थिति ही निष्काम भाव है, यहां तक कि मन मे किसी विशेष प्रयोजन के लिए कुछ करने के भाव का न होना अर्थात कुछ करने के भाव का अभाव। निष्काम भाव ही निष्काम भक्ति की ओर ले जाता है।
       परीसा भागवत का सकाम भाव निष्काम भाव में तभी परिवर्तित हुआ जब उसको अपनी सकाम भक्ति नामदेव की निष्काम भक्ति के सामने बौनी प्रतीत हुई । इधर वह सामने पड़े असंख्य पारस पत्थरों को देख रहा था और उधर नामदेव को निर्विकार भाव से परमात्मा का ध्यान करते।वह समझ गया था कि सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति तक की यात्रा में अटकाव कहीं पर भी नहीं होना चाहिए। वह तत्काल ही सकाम भाव से मुक्त होकर निष्काम भक्ति की ओर अग्रसर हो गया और नामदेव के चरणों में गिर पड़ा।
           सारांश यह निकलता है भक्ति के अभाव से सकाम भक्ति अच्छी है। भक्ति का प्रारम्भ ही कामना पूर्ति से होता है । अतः सकाम भक्ति करना कहीं से भी अनुचित नहीं है। अनुचित है, सकाम भक्ति पर ही बने रहना अथवा वहीं पर अटक जाना । परमात्मा की कृपा हो तो संतों का सानिध्य पाकर नास्तिक भी आस्तिक हो सकता है और सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर भी अग्रसर हुआ जा सकता है। इसीलिए संत मिलन को ही संसार का सर्वोत्तम सुख कहा गया है ।
प्रस्तुति -डॉ.प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, November 23, 2018

सकाम भक्ति/निष्काम भक्ति

सकाम भक्ति/ निष्काम भक्ति 
मलूकदास और नामदेव, दोनों ही प्रसंग से स्पष्ट होता है कि मनुष्य के जीवन में भक्ति के होने का बड़ा महत्व है। भक्ति में भी निष्काम भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। मलूकदास को परमात्मा में विश्वास नहीं था।वे नास्तिक थे । नास्तिक से आस्तिक होने में देर कितनी लगी ? एक दिन मात्र ही तो लगा इसमें। सत्संग से उपजी श्रद्धा के कारण मलूकदास के मन में परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परीक्षा लेने का आग्रह हुआ। उस परीक्षा के अनुभव ने परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ साथ उनके प्रति विश्वास पैदा किया और श्रद्धा को मजबूत किया। मलूकदास तत्काल ही निष्काम भक्ति की ओर चल पड़े। लेकिन एक सांसारिक व्यक्ति के लिए प्रारम्भ से ही निष्काम भक्ति के लिए प्रेरित होना संभव नहीं हो सकता। परीसा भागवत भी तो प्रारम्भ से ही सकाम भक्ति में ही लीन था।
सकाम भक्ति को व्यर्थ न समझें।निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है परंतु उस भक्ति को स्वीकार करना एक सांसारिक व्यक्ति के लिए लगभग असंभव है।"भूखे भजन न होय गोपाला।ये ले अपनी कंठी माला।।" कहने का अर्थ यह है कि सकाम भक्ति में हमारी कामनाओं से हम परमात्मा को अवगत कराते हैं।परमात्मा दयावान है, वे भूखा किसी को भी नहीं सोने देते । आपकी आवश्यकता वे पूरी करेंगे ही, इस भावना के साथ ही सकाम भक्ति निष्काम भक्ति बनने की ओर अग्रसर होती है। परंतु यह मनुष्य नाम का प्राणी है न, यह पेट भरकर, अपनी आवश्यकताएँ पूरी हो जाने पर भी संतुष्ट नहीं होता।उसकीआवश्यकता जब विलासिता में परिवर्तित हो जाती है, तब उसकी भक्ति भी केवल कामना पूर्ति के साधन बनकर रह जाती है।सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर तो केवल वही व्यक्ति अग्रसर हो सकता है जो अपनी आवश्यकताओं के पूरा हो जाने पर संतुष्ट हो जाता है। संतुष्टि के अभाव में सकाम भक्ति पर अटक जाने का खतरा है । यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति की ओर वही जा सकता है, जो जीवन में संतुष्टि धारण कर ले ।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, November 22, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -5

प्रेरक प्रसंग के संदेश -5
नामदेव पारस पत्थर कभी के छोड़ चुके थे।नदी में से निकले सभी पत्थर उनकी दृष्टि में एक समान थे, न कोई पारस न कोई पत्थर,सब के सब पत्थर, जिनका मनुष्य के जीवन के लिए कोई अर्थ नहीं है। "ओ पारीसा, ढूंढ ले अपना पारस पत्थर।हे मेरे पाण्डुरंग ! कहाँ फंसा दिया रे मुझको।" और इधर पारीसा, जिस पत्थर को उठाकर देखे वही पारस, लोहे से छुआते ही सोना। नदी किनारे स्वर्ण का पहाड़ खड़ा हो गया।उधर नामदेव का ध्यान केवल परमात्मा पर। पारीसा दौड़ा और नामदेव के चरणों में गिर पड़ा।
भूल गया परीसा भागवत भी, पारस को।अरे! जिसके भक्त के स्पर्श मात्र से ही साधारण पत्थर भी पारस बन गए हो, उस भक्त के तो पाण्डुरंग ही महान हुए। फिर ऐसे पारस का महत्व ही क्या,जो संसार के बंधन में डाल दे।भक्ति से मिले तो फिर पाण्डुरंग को ही मांगो। वही असली पारस। सच है, जिसने सब कुछ छोड़ा, उसी ने पूरा पाया। आधा छोड़ने वाले का सब कुछ ही छूट जाता है।
      सकाम भक्त आधा छोड़ता है, उसे सिवाय पारस के कुछ भी नहीं मिलता।पारस की भी क्या कीमत,कुछ नहीं।जीवन में परमात्मा नहीं तो सब कुछ होकर भी कुछ भी नहीं है। केवल सांसारिक अभाव की पूर्ति करते रहना, आत्मा को खोखला कर देता है। रिक्त आत्मा का क्या तो होना और क्या न होना। जीवन आत्मसंतुष्टि का दूसरा नाम है और यह भी सत्य है कि आत्मसंतुष्टि जीवन में हज़ारों पारस मिल जाये तो भी नहीं आ सकती। भक्ति ही करनी है तो फिर निष्काम भक्ति ही की जाए। मिला हुआ स्वर्ण मिट्टी समान, दोनों में कोई अंतर नहीं। नामदेव शताब्दियों में कोई एक पैदा होता है, अन्यथा पारीसा भागवत जैसे तो इस संसार में करोड़ों व्यक्ति अपना जीवन व्यर्थ ही गँवा रहे हैं।न जाने हमारे जैसे करोड़ों पारीसाओं को नामदेव कब मिलेंगे जो हमारी आंखें खोल दे।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, November 21, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -4

प्रेरक प्रसंग के संदेश -4
   नामदेव तो भक्त थे। कई दिनों बाद सत्संग कर लौटे तो अपने घर की दशा देखकर विस्मित रह गए। खाली पड़े खाद्यान्न भंडार ठसाठस भरे हुए थे। टूटी फूटी झोंपड़ी भी सुधार दी गई थी। ऐसा कैसे हुआ राजाई?राजाई की बातों को सुनकर बड़ा दुःख हुआ, नामदेव को। हे पाण्डुरंग, यह क्या हुआ ? क्यों राजाई, मुझको समझ नहीं सकी?
      परमात्मा जैसे अमूल्य हीरे के रहते यह पारस पत्थर भी तुच्छ है।भला,पत्थर के बदले हीरा कैसे फैंका जा सकता है? अभाव हैं तो परमात्मा से निकटता है, अभाव दूर हुए कि परमात्मा से विस्मरण हुआ। परीसा भागवत बनना सरल है, नामदेव बनना बड़ा मुश्किल।नामदेव जानते थे कि असली पारस तो परमात्मा है,  स्वर्ण बनाने वाला पारस पत्थर तो छद्म है, नकली है। पारस पत्थर तो संसार मे उलझाने का काम करता है।इस पत्थर को तो जितनी शीघ्रता से त्याग दिया जाए,वही उत्तम है। पाण्डुरंग याद आये, नामदेव को।हम होते तो पाण्डुरंग को भूला देते,केवल पारस पत्थर को याद रखते।नामदेव ने पारस को उठाया और नदी में फेंक दिया और पुनः लग गए, पाण्डुरंग को भजने।
      नामदेव पारस छोड़ सकता है परंतु परीसा भागवत भला कैसे छोड़ दे उसको। नामदेव अनन्य भक्त हैं भगवान के, उनको कैसे कुछ अनुचित कह दे।स्वयं परीसा अपने ही बाल नोचने लगा। हम भी तो ऐसा ही करते हैं, जब मिली हुई भोग की वस्तु हमसे कोई छीन कर ऐसी जगह फैंक देता है,जहां से उसे वापिस पाना असंभव लगने लगे।जब बात कुछ अधिक ही बढ़ गई तो पाण्डुरंग की कृपा नामदेव पर हुई। नदी में गोता लगाकर मुट्ठी में भरकर सैंकड़ो पारस पत्थर ला फैंके, परीसा भागवत के सामने। कितना खूबसूरत दृश्य रहा होगा उस समय, जब चारों और पारस पत्थर बिखरे पड़े हों और नामदेव की दृष्टि केवल परमात्मा पर ही टिकी हो और वे निर्विकार भाव से पाण्डुरंग को भज रहे हो।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम् ।।

Tuesday, November 20, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश 3

प्रेरक प्रसंग के संदेश - 3
"असली पारस" प्रसंग में जो संदेश छिपा है वह एकदम स्पष्ट है है। भक्ति क्या है और कौन सी भक्ति श्रेष्ठ है, इस प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है।परमात्मा की भक्ति दो प्रकार की होती है-सकाम भक्ति और निष्काम भक्ति।सकाम भक्ति के द्वारा व्यक्ति परमात्मा से सांसारिक वस्तुएं मांगता है जबकि निष्काम भक्ति में भक्त की कोई मांग नहीं होती।
 पारस पत्थर से छूने वाला लोहा भी सोना बन जाता है। सोने से दैनिक आवश्यकताएं तो पूरी ही सकती है परंतु परमात्मा से दूरी बनी रहती है। भक्ति परीसा ने भी की थी और नामदेव ने भी।परीसा की दैवी उपासना से प्रसन्न हुई देवी से आखिर पसीजा ने मांगा तो क्या मांगा ? परीसा भागवत के स्थान पर उसकी पत्नी कमला होती अथवा आप और हम होते तो भी क्या मांगते ? वही जो परीसा भागवत ने मांगा-पारस पत्थर। परमात्मा चाहिए भी किसको ? हमें विश्वास ही नहीं है, उसके होने पर भी। हम तो केवल उसकी भक्ति करने का नाटक भर कर रहे हैं। उस नाटक से प्रसन्न होकर कभी ईश्वर ने हमें भी वर मांगने का कह दे, तो हम भी क्या मांगेंगे-उस परमपिता को नहीं बल्कि उस पत्थर को जिसके छूने भर से लोहा सोना बन जाता है।हम नामदेव बनना ही नहीं चाहते। प्रशंसा करेंगे, नामदेव की भक्ति की और स्वयं भक्ति के बदले मांगेंगे पारस।यही वास्तविकता है, हमारी भक्ति की और हमारे जीवन की भी।
अभावों में नामदेव भी जी रहे थे और परीसा भागवत भी। शारीरिक भूख नामदेव और परीसा, दोनों की एक समान थी परंतु आत्मज्ञान की भूख केवल नामदेव को थी। जो व्यक्ति शारीरिक भूख के समक्ष समर्पण कर देता है वह परमात्मा के प्रति समर्पित हो ही नहीं सकता । शारीरिक भूख के सामने समर्पण करने वाले पर परमात्मा दया करते हैं, यह बात निश्चित है परंतु उसकी  दया के परिणाम स्वरूप मिलेगी सांसारिक वस्तुएं, जो आपकी शारीरिक भूख कुछ समय के लिए शांत कर सकती है परंतु फिर लोभ को बढ़ा देती है। परीसा भागवत की पत्नी कमला के साथ भी तो यही हुआ था। पारस पत्थर मिलने पर उसने टनों स्वर्ण बना लिया था, फिर भी भूख ऐसी थी कि शांत होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही थी। जैसा कि नारी का स्वभाव होता है कि वह तकलीफ में किसी को देख नहीं सकती।उसका हृदय कोमल होता है। ऐसे ही कमला भी अपनी सहेली राजाई की गरीबी नहीं देख सकी। उसने द्रवित होकर पारस पत्थर से स्वर्ण बनाने के लिए कुछ समय के लिए राजाई को दे दिया, जिससे वह अपने अभाव दूर कर सके।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, November 19, 2018

प्रेरक प्रसंग के संदेश -2

प्रेरक प्रसंग के सन्देश-2
'अजगर करे न चाकरी' प्रसंग से दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं-प्रथम, सत्संग से ही जीवन परिवर्तित होता है और दूसरा बिना ईश्वरीय कृपा के सत्संग नहीं मिलता ।मनुष्य एवं अन्य जीवों में मूलभूत यही अंतर है कि अन्य जीव सत्संग से लाभ नहीं उठा सकते। आप ने देखा होगा कि सत्संग के समय उस क्षेत्र में कई प्राणी आकर बैठ जाते हैं परंतु वे उसका लाभ नहीं ले सकते।सत्संग विवेक को जाग्रत करता है और मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्राणी में यह क्षमता नहीं है।हमारे धर्म शास्त्रों में लिखा है कि अल्प समय के लिए मिला सत्संग भी जीवन की धारा को मोड़ने के लिए पर्याप्त होता है।
         एक चोर चोरी करने के लिए दिन के समय ही एक घर में घुस गया।घर किसी प्रभावशाली व्यक्ति का था। घर के किसी व्यक्ति ने  चोर को चोरी करते हुए देख लिया। चोर के जितना माल हाथ लगा उसे लेकर वहां से भाग छूटा। रसूखदार ने तुरंत पुलिस को फोन किया। मामला vip का था,तो पुलिस को सक्रिय होना ही था।अब चोर माल सहित आगे आगे और पुलिस उसके पीछे पीछे। चोर को छिपने का स्थान तक नहीं मिल रहा था। तभी उसे एक घर में सत्संग होता दिखाई दिया। उसे छिपने के लिए वह स्थान उपयुक्त लगा।वह सत्संग हो रहे स्थान पर प्रवेश कर छिपने के लिए श्रोताओं के मध्य जाकर बैठ गया।चोरी के माल की गठरी को पास में ही रखकर प्रवचन को सुनने का नाटक लगा। संत कह रहे थे -"इस संसार में जिस व्यक्ति को एक क्षण के लिए भी सत्संग मिल जाता है,उसके समस्त पाप कट जाते हैं,उसका कल्याण हो जाता है। समय निकालकर सत्संग करना अन्य सांसारिक कार्यों से ज्यादा जरूरी है।"
उसी समय पुलिस का उस पांडाल में प्रवेश होता है। पुलिस उड़ती नज़रें पांडाल में बैठे श्रोताओं पर डालती है और यह सोचकर वहां से निकल जाती है कि भला,चोर यहां पर क्यों कर आएगा ? इस प्रकार चोर पकड़े जाने से बच जाता है। चोर को बड़ा आश्चर्य होता है । उसे संत की कही वाणी पर विश्वास हो जाता है और मन ही मन में भविष्य में चोरी न करने का संकल्प कर लेता है। सत्संग समाप्ति के बाद वह चोरी का माल वहीँ छोड़कर चल देता है। रास्ते में वह सोचता है कि "संत सही कह रहे थे । सत्संग तो अल्प समय के लिए भी मिले तो जीवन परिवर्तित हो जाता है। आज मैंने कुछ देर ही सत्संग किया और पकड़े जाने से बच गया, अगर  नित्य सत्संग करूँ तो निश्चित ही मेरा कल्याण हो सकता है।"
       चोर को सत्संग मिला,ईश्वर कृपा से।अगर वह उस राह पर ही नहीं आता जहां सत्संग हो रहा था,तो वह या तो कहीं अन्य स्थान पर छिप जाता अथवा पकड़ा जाता।दोनों ही परिस्थितियों में उसकी चोरी करने की आदत नहीं छूटती। परमात्मा की कृपा होने से ही उसको वही राह भागने को मिली,जिस राह पर सत्संग हो रहा था। सत्संग में एक ही बात ने उसको प्रभावित किया कि अल्प समय के लिए मिला सत्संग भी कल्याणकारी होता  है। इस बात का उस पर प्रभाव तभी पड़ा,जब वह पकड़े जाने से बच गया। बच जाने से ही उसका जीवन परिवर्तित हुआ, जो पकड़े जाने पर संभव नहीं था। यह है, सत्संग का प्रभाव। अतः मनुष्य को सत्संग कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए और कुसंग से सदैव बचना चाहिए।मलूकदास का तो एक सत्संग से ही कल्याण हो गया और इसी प्रकार चोर का भी।परंतु यह कल्याण हुआ,सत्संग में सुनी हुई बातों को आत्मसात करने से। सत्संग में प्रवचन सुनने मात्र से कल्याण नहीं होता बल्कि उस ज्ञान को जीवन मे अपनाने से होता है ।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, November 18, 2018

प्रेरक प्रसंग के सन्देश - 1

प्रेरक प्रसंग के संदेश - 1
पिछले दो दिनों में हमने दो प्रेरक प्रसंग पढ़े।पढ़ने और सुनने में दोनों ही प्रसंग हृदय स्पर्शी हैं। पहले प्रसंग में मलूक दास अपने जीवन के प्रारम्भ में परमात्मा में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते थे अर्थात नास्तिक थे परंतु सत्संग के प्रभाव से उनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। उनके जीवन मे यह परिवर्तन यूँही नहीं आ गया। घोर नास्तिक की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह बिना सबूत के, बिना आजमाए किसी बात को आसानी से स्वीकार नहीं करता ।ऐसा व्यक्ति भगवान ही क्या, किसी पर भी विश्वास नहीं करता। संतों के सानिध्य से, राम-कथा का लगातार श्रवण करते रहने से उनके मन में परमात्मा के प्रति, उसे जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।मलूकदास ने इससे पूर्व जीवन मे कभी शायद ही सोचा होगा कि संसार का पालनहार भी मनुष्य के अतिरिक्त कोई अन्य भी हो सकता है।उन्होंने इसी बात को संतों के द्वारा कही गई बात की सत्यता परखने का आधार बनाया। इस परीक्षा से वह बड़ी सरलता से समझ सकता था कि ईश्वर का अस्तित्व है अथवा नहीं।
जीवन में सभी परिस्थितियां अचानक ही नहीं बनती।उनके बनने के पीछे भी परमात्मा की ही कृपा होती है। मलूकदास ने परीक्षा लेने से पहले सोचा भी नहीं होगा कि 24 घंटे के अंदर ही घनघोर जंगल में परिस्थिति इतनी तेज गति से परिवर्तित हो जाएगी।शेर, अपने स्वभावानुसार शिकार की तलाश में जंगल में सदैव घूमता ही रहता है।दहाड़ लगाना भी उसकी एक आदत है। परंतु राज कर्मचारियों का आना,फिर शेर की दहाड़ सुनकर पहले घोड़ों के और फिर सभी का भोजन वहीं छोड़कर भाग जाना क्या अपने आप हो सकता है ? सब कुछ पूर्वलिखित एक पटकथा सी लगती है। प्रसंग अपनी पराकाष्ठा को तब छूता है, जब डाकू स्वयं भोजन करने से पहले पेड़ पर बैठे मलूकदास को अपने हाथों से भोजन कराते हैं। अंततः मलूकदास के साथ साथ डाकुओं का भी हृदय परिवर्तन हो जाता है।
रामचरितमानस में महर्षि वाल्मिकी जी भगवान श्री राम को कहते हैं कि हे राम!आपको वही जान सकता है, जिसको आप जनाना चाहते हैं। इस प्रसंग से यह बात शतप्रतिशत सत्य सिद्ध होती है। सत्संग भी उसी को मिलता है जिस पर परमात्मा की कृपा होती है।मलूकदास के गांव में भी इस राम-कथा से पहले भी कई संत आये होंगे। परंतु जब मलूकदास जी पर परमात्मा की कृपा दृष्टि पड़ी तभी सत्संग में केवल एक प्रसंग सुनकर और परख कर ही वे नास्तिक से आस्तिक हो गए और स्वयं के जीवन को परिवर्तित करने के साथ साथ डाकुओं का जीवन भी परिवर्तित कर दिया। ऐसी होती है, परमात्मा की कृपा और सत्संग का प्रभाव।
गोस्वामीजी मानस में इसी सम्बन्ध में कहते हैं-
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाहि।।2/3/127।।
बिनु सतसंग बिबेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।1/3/7।।
होइ विवेकु मोह भ्रम भागा।तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।2/93/5।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, November 17, 2018

असली पारस

असली पारस
संत नामदेव की पत्नी का नाम राजाई था और परीसा भागवत की पत्नी का नाम था कमला। कमला और राजाई शादी के पहले सहेलियाँ थीं। 
दोनों की शादी हुई तो पड़ोस-पड़ोस में ही आ गयीं। राजाई नामदेव जी जैसे महापुरुष की पत्नी थी और कमला परीसा भागवत जैसे देवी के उपासक की पत्नी थी। 
कमला के पति ने देवी की उपासना करके देवी से पारस माँग लिया और वे बड़े धन-धान्य से सम्पन्न होकर रहने लगे।
नामदेव जी दर्जी का काम करते थे। वे भजन-कीर्तन करने जाते और दस-पन्द्रह दिन के बाद लौटते। अपना दर्जी का काम करके आटे-दाल के पैसे इकट्ठे करते और फिर चले जाते।वे अत्यन्त दरिद्रता में जीते थे लेकिन अंदर से बड़े सन्तुष्ट और खुश रहते थे।
एक दिन नामदेव जी कहीं कीर्तन-भजन के लिए गये तो कमला ने राजाई से कहा कि ‘तुम्हारी गरीबी देखकर मुझे तरस आता है। मेरा पति बाहर गया, तुम यह पारस ले लो, थोड़ा सोना बना लो और अपने घर को धन धान्य से सम्पन्न कर लो।‘
राजाई ने पारस लिया और थोड़ा सा सोना बना लिया। संतुष्ट व्यक्ति की माँग भी आवश्यकता की पूर्ति भर होती है। ऐसा नहीं कि दस टन सोना बना ले, एक दो पाव बनाया बस।
नामदेव जी ने आकर देखा तो घर में बहुत सारा सामान, धन-धान्य…. भरा-भरा घर दिखा। शक्कर, गुड़, घी आदि जो भी घर की आवश्यकता थी वह सारा सामान आ गया था।
नामदेव जी ने कहाः “इतना सारा वैभव कहाँ से आया ? “ 
राजाई ने सारी बात बता दी कि “परीसा भागवत ने देवी की उपासना की और देवी ने पारस दिया। वे लोग खूब सोना बनाते हैं और इसीलिए दान भी करते हैं, मजे से रहते हैं। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। मेरा दुःख देखकर उसको दया आ गयी।“
नामदेव जी ने कहाः “मुझे तुझ पर दया आती है कि सारे पारसों के पारस ईश्वर है, उसको छोड़कर तू एक पत्थर लेकर पगली हो रही है। चल मेरे साथ, उठा ये सामान !”
नामदेव जी बाहर गरीबों में सब सामान बाँटकर आ गये। घर जैसे पहले था वैसे ही खाली कर दिया।
नामदेव जी ने पूछाः “वह पत्थर कहाँ है ? लाओ !” राजाई पारस ले आयी। नामदेव जी ने उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया और कहने लगे ‘मेरे विट्ठल, पांडुरंग ! हमें अपनी माया से बचा। इस धन दौलत, सुख सुविधा से बचा, नहीं तो हम तेरा, अंतरात्मा का सुख भूल जायेंगे।‘ – ऐसा कहते कहते वे ध्यान मग्न हो गये।
स्त्रियों के पेट में ऐसी बड़ी बात ज्यादा देर नहीं ठहरती। राजाई ने अपनी सहेली से कहा कि ऐसा-ऐसा हो गया। अब सहेली कमला तो रोने लगी। 
इतने में परीसा भागवत आया, पूछाः “कमला ! क्या हुआ, क्या हुआ ? “
वह बोलीः “तुम मुझे मार डालोगे ऐसी बात है।“ आखिर परीसा भागवत ने सारा रहस्य समझा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया और बोलाः “कहाँ है नामदेव, कहाँ है ? कहाँ गया मेरा पारस, कहाँ गया ? “ और इधर नामदेव तो नदी के किनारे ध्यानमग्न थे।
परीसा भागवत वहाँ पहुँचाः “ओ ! ओ भगत जी ! मेरा पारस दीजिये।“
नामदेवः “पारस तो मैंने डाल दिया उधर, नदी में। परम पारस तो है अपना आत्मा। यह पारस पत्थर क्या करता है ? मोह, माया, भूत-पिशाच की योनि में भटकाता है। पारस-पारस क्या करते हो भाई ! बैठो और पांडुरंग का दर्शन करो।“
“मुझे कोई दर्शन-वर्शन नहीं करना।“
“हरि - हरि बोलो और आत्म-विश्रांति पाओ !!
“नहीं चाहिए आत्मविश्रान्ति, आप ही पाओ। मेरे जीवन में दरिद्रता है, ऐसा है वैसा है.. मुझे मेरा पारस दीजिये।“
“पारस तो नदी में डाल दिया।“
“नदी में डाल दिया ! नहीं, मुझे मेरा वह पारस दीजिये।“
“अब क्या करना है.. सच्चा पारस तो तुम्हारी आत्मा ही है। अरे, सत्य आत्मा है..“
“मैं आपको हाथ जोड़ता हूँ मेरे बाप ! मुझे मेरा पारस दो.. पारस दो..।“
“पारस मेरे पास नही है, वह तो मैंने नदी में डाल दिया।“
“कितने वर्ष साधना की, मंत्र-अनुष्ठान किये, सिद्धि आयी, अंत में सिद्धिस्वरूपा देवी ने मुझे वह पारस दिया है। देवी का दिया हुआ वह मेरा पारस..“
नामदेव जी तो संत थे, उनको तो वह मार नहीं सकता था। अपने-आपको ही कूटने लगा।
नामदेव जी बोलेः “अरे क्या पत्थर के टुकड़े के लिए आत्मा का अपमान करता है !”
‘जय पांडुरंगा !’ कहकर नामदेव जी ने नदीं में डुबकी लगायी और कई पत्थर ला के रख दिये उसके सामने।
“आपका पारस आप ही देख लो।“ 
देखा तो सभी पारस ! “इतने पारस कैसे !”
“अरे, कैसे-कैसे क्या करते हो, जैसे भी आये हों ! आप ले लो अपना पारस !” 
“ये कैसे पारस, इतने सारे !”
नामदेव जी बोलेः “अरे, आप अपना पारस पहचान लो।“ 
अब सब पारस एक जैसे, जैसे रूपये-रूपये के सिक्के सब एक जैसे। आपने मुझे एक सिक्का दिया, मैंने फेंक दिया और मैं वैसे सौ सिक्के ला के रख दूँ और बोलूँ कि आप अपना सिक्का खोज लो तो क्या आप खोज पाओगे ??
उसने एक पारस उठाकर लोहे से छुआया तो वह सोना बन गया। लोहे की जिस वस्तु को लगाये वह सोना !
“ओ मेरी पांडुरंग माऊली (माँ) ! क्या आपकी लीला है ! हम समझ रहे थे कि नामदेव दरिद्र हैं। बाप रे ! हम ही दरिद्र हैं। नामदेव तो कितने वैभवशाली हैं। नहीं चाहिए पारस, नहीं चाहिए, फेंक दो। ओ पांडुरंग !”
परीसा भागवत ने सारे-के-सारे पारस नदी में फेंक दिये और परमात्म- पारस में ध्यान मग्न हो गये।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, November 16, 2018

अजगर करै न चाकरी .....

अजगर करै न चाकरी…
शुरू में संत मलूकदास नास्तिक थे अर्थात ईश्वर के होने में उनका कतई विश्वास नहीं था। उन्हीं दिनों की बात है, उनके गांव में एक साधु आकर टिक गया। प्रतिदिन सुबह सुबह गांव वाले साधु का दर्शन करते और उनसे राम-कथा सुनते।
एक दिन मलूकदास भी पहुंचे। उस समय साधु ग्रामीणों को राम की महिमा बता रहा था- "राम दुनिया के सबसे बड़े दाता हैं। वे भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं।"
साधु की बात मलूकदास के पल्ले नहीं पड़ी। उन्होंने तर्क पेश किया, ”क्षमा करें महात्मन! यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूं, काम नहीं करूं, तब भी क्या राम भोजन देंगे?"
”अवश्य देंगे।“ साधु ने विश्वास दिलाया
”यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब भी ?“
”तब भी राम भोजन देंगे।“ साधु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।
बात मलूकदास को लग गई। पहुंच गए जंगल में और एक घने पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठ गए। चारों तरफ ऊंचे ऊंचे पेड़ थे। कंटीली झाड़ियां थीं। जंगल दूर दूर तक फैला हुआ था।
धीरे धीरे खिसकता हुआ सूर्य पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे छुप गया। चारों तरफ अंधेरा फैल गया। मगर न मलूकदास को भोजन मिला न वे पेड़ से ही उतरे। सारी रात बैठे रहे। दूसरे दिन दूसरे पहर घोर सन्नाटे में मलूकदास को घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ी। वे सतर्क बैठ गए। थोड़ी देर में चमकदार पोशाकों में कुछ राजकीय अधिकारी उधर आते हुए दिखे, वे सभी पेड़ के नीचे घोड़ों से उतर पड़े, लेकिन ठीक उसी समय, जब एक अधिकारी थैले से भोजन का डिब्बा निकाल रहा था, शेर की भयंकर दहाड़ सुनाई दी। दहाड़ का सुनना था कि घोड़े बिदक कर भाग गए। अधिकारियों ने पहले तो स्तब्ध होकर एक दूसरे को देखा फिर भोजन छोड़कर वे भी भाग गए।
 मलूकदास पेड़ से यह सब देख रहा था। वह शेर की प्रतीक्षा करने लगा। मगर दहाड़ कर शेर दूसरी तरफ चला गया।
मलूकदास को लगा, राम ने उसकी सुन ली है, अन्यथा इस घोर जंगल में भोजन कैसे पहुंचता? मगर मलूकदास तो मलूकदास ठहरे! डतरकर भला भोजन क्यों करने लगे।
तीसरे पहर के लगभग डाकुओें का एक दल उधर से गुजरा। पेड़ के नीचे चमकदार चांदी के बरतनों में विभिन्न व्यंजनों के रूप में पड़े हुए भोजन को देखकर वे ठिठक गए।
डाकुओं के सरदार ने कहा, ”भगवान की लीला देखो, हम लोग भूखे हैं और इस निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन रखा है। आओ, पहले इससे निपट लें।“
डाकू स्वभावतः शक्की होते हैं, एक साथी ने सावधान किया, ”सरदार, इस सुनसान जंगल में भोजन का मिलना मुझे तो रहस्मय लग रहा है, कहीं इसमें विष न हो।“
”तब तो भोजन लाने वाला आसपास ही कहीं छिपा होगा। पहले उसे तलाशा जाए।“ सरदार ने आदेश दिया।
डाकू इधर उधर बिखरने लगे, तब तक एक डाकू की नजर पेड़ पर बैठे मलूकदास पर पड़ गई। उसने सरदार को बताया।
सरदार ने सिर उठाकर मलूकदास को देखा तो उसकी आंखें अंगारों की तरह लाल हो गईं। उसने घुड़क कर कहा, ”अरे दुष्ट! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर बैठा है। चल नीचे उतर।“
सरदार की कड़कती आवाज सुनकर मलूकदास डर गया, मगर उतरा नहीं। वहीं से बोला, ”व्यर्थ दोष क्यों मढ़ते हो? भोजन में विष नहीं है।“
”यह झूठा है।“ सरदार के एक साथी ने कहा, ”पहले पेड़ पर चढ़कर इसे भोजन कराओ, झूठ सच का पता अभी चल जाता है।“
आनन फानन में तीन चार डाकू भोजन का डिब्बा उठाए पेड़ पर चढ़ गए और छुरा दिखाकर मलूकदास को खाने के लिए विवश कर दिया।
मलूकदास ने भोजन कर लिया। फिर नीचे उतरकर डाकुओं को पूरा किस्सा सुनाया। डाकुओें ने उन्हें छोड़ दिया। इस घटना के बाद वे ईश्वर के पक्के भक्त हो गए।
गांव पहुंचकर मलूकदास ने सर्वप्रथम जिस दोहे की रचना की, वह आज भी प्रसिद्ध है-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, November 15, 2018

धर्म की सार्थकता-3


महाभारत के वनपर्व (३१३/१२८) में कहा है-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
         मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।दूसरे शब्दों में, जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।



Wednesday, November 14, 2018

धर्म की सार्थकता-2

धर्मस्य ह्याप वर्ग्यस्य नार्थोSर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्यकामो लाभाय हि स्मृत:।।
        -भागवत-1/2/9
धर्म का फल है,मोक्ष।धर्म की सार्थकता अर्थ प्राप्ति में नहीं है।अर्थ केवल धर्म के लिए है।भोगविलास उसका फल नहीं मन गया है।
      धर्म मार्ग पर चलते हुए अर्थ प्राप्त कर उस अर्थ को धर्म के उपयोग में लगा देना ही अर्थ का समुचित उपयोग है।अर्थ को आप भोगविलास में भी लगा सकते हैं और उससे दान भी कर सकते हैं।अर्थ का दान करना, धर्म की सार्थकता सिद्ध करता है। अर्थ की तीन गतियां है- दान, भोग और नाश।अर्थ का केवल भोग ही न करें बल्कि उसे नाश होने से भी बचाएं और पात्रता रखने वाले स्थान और व्यक्तियों को दान करते रहना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्म की सार्थकता केवल अर्थ प्राप्ति में नहीं है बल्कि प्राप्त हुए अर्थ को पुनः धर्म के लिए उपयोग में लेने में है।
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, November 13, 2018

धर्म की सार्थकता-1

धर्म: स्वनुष्ठित:पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः।
नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि समृत:।।
                ।।भागवत-1/2/8।।
धर्म का ठीक ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान की लीला कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह निरा श्रम ही श्रम है।
     जैसा कि हम जानते हैं कि धर्म एक पुरुषार्थ है और उसको प्राप्त करने के लिए श्रम करना पड़ता है।अगर इस श्रम से हम अर्थ और काम प्राप्त कर केवल उनके उपभोग में ही लग जाते हैं,तो ऐसे धर्म को प्राप्त करके भी इस जीवन में कुछ भी लाभ नहीं होने वाला।धर्म परमात्मा के प्रति हमारी श्रद्धा और अनुराग पैदा करने में सहायक होता है । अगर ऐसा न हो पाता है तो फिर ऐसे धर्म को प्राप्त कर लेने से भी क्या लाभ । फिर तो यह निरा श्रम ही श्रम है अर्थात ऐसे धर्म उद्देश्यहीन होता है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, November 12, 2018

शरणागति

शरणागति
एक पुरानी सी इमारत में था वैद्यजी का मकान था। पिछले हिस्से में रहते थे और अगले हिस्से में दवाख़ाना खोल रखा था। उनकी पत्नी की आदत थी कि दवाख़ाना खोलने से पहले उस दिन के लिए आवश्यक  सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। वैद्यजी गद्दी पर बैठकर पहले भगवान का नाम लेते फिर वह चिठ्ठी खोलते। पत्नी ने जो बातें लिखी होतीं, उनके भाव देखते , फिर उनका हिसाब करते। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते कि हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता था, कोई नहीं देता था किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थे, उसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो।
            एक दिन वैद्यजी ने दवाख़ाना खोला। गद्दी पर बैठकर परमात्मा का स्मरण करके पैसे का हिसाब लगाने के लिए आवश्यक सामान वाली चिट्ठी खोली तो वह चिठ्ठी को एकटक देखते ही रह गए। एक बार तो उनका मन भटक गया। उन्हें अपनी आँखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपनी तंत्रिकाओं पर नियंत्रण पा लिया।                  आटे-दाल-चावल आदि के बाद पत्नी ने लिखा था, "बेटी का विवाह 20 तारीख़ को है, उसके दहेज का सामान।" कुछ देर सोचते रहे फिर बाकी चीजों की क़ीमत लिखने के बाद दहेज के सामने लिखा, '' यह काम परमात्मा का है, परमात्मा जाने।''
        एक-दो रोगी आए थे। उन्हें वैद्यजी दवाई दे रहे थे। इसी दौरान एक बड़ी सी कार उनके दवाखाने के सामने आकर रुकी। वैद्यजी ने कोई खास तवज्जो नहीं दी क्योंकि कई कारों वाले उनके पास आते रहते थे।
दोनों मरीज दवाई लेकर चले गए। वह सूटेड-बूटेड साहब कार से बाहर निकले और नमस्ते करके बेंच पर बैठ गए। वैद्यजी ने कहा कि अगर आपको अपने लिए दवा लेनी है तो इधर स्टूल पर आएँ ताकि आपकी नाड़ी देख लूँ और अगर किसी रोगी की दवाई लेकर जाना है तो बीमारी की स्थिति का वर्णन  करें। वह साहब कहने लगे "वैद्यजी! आपने मुझे पहचाना नहीं। मेरा नाम कृष्णलाल है लेकिन आप मुझे पहचान भी कैसे सकते हैं? क्योंकि मैं 15-16 साल बाद आपके दवाखाने पर आया हूँ। आप को पिछली मुलाकात का हाल सुनाता हूँ, फिर आपको सारी बात याद आ जाएगी। जब मैं पहली बार यहाँ आया था तो मैं खुद नहीं आया था अपितु ईश्वर मुझे आप के पास ले आया था क्योंकि ईश्वर ने मुझ पर कृपा की थी और वह मेरा घर आबाद करना चाहता था। हुआ इस तरह था कि मैं कार से अपने पैतृक घर जा रहा था। बिल्कुल आपके दवाखाने के सामने हमारी कार पंक्चर हो गई। ड्राईवर कार का पहिया उतार कर पंक्चर लगवाने चला गया। आपने देखा कि गर्मी में मैं कार के पास खड़ा था तो आप मेरे पास आए और दवाखाने की ओर इशारा किया और कहा कि इधर आकर कुर्सी पर बैठ जाएँ। अंधा क्या चाहे दो आँखें और कुर्सी पर आकर बैठ गया। ड्राइवर ने कुछ ज्यादा ही देर लगा दी थी। एक छोटी-सी बच्ची भी यहाँ आपकी मेज़ के पास खड़ी थी और बार-बार कह रही थी, '' चलो न बाबा, मुझे भूख लगी है। आप उससे कह रहे थे कि बेटी थोड़ा धीरज धरो, चलते हैं।
मैं यह सोच कर कि इतनी देर से आप के पास बैठा था और मेरे ही कारण आप खाना खाने भी नहीं जा रहे थे। मुझे कोई दवाई खरीद लेनी चाहिए ताकि आप मेरे बैठने का भार महसूस न करें। मैंने कहा वैद्यजी मैं पिछले 5-6 साल से इंग्लैंड में रहकर कारोबार कर रहा हूँ। इंग्लैंड जाने से पहले मेरी शादी हो गई थी लेकिन अब तक बच्चे के सुख से वंचित हूँ। यहाँ भी इलाज कराया और वहाँ इंग्लैंड में भी लेकिन किस्मत ने निराशा के सिवा और कुछ नहीं दिया।" आपने कहा था, "मेरे भाई! भगवान से निराश न होओ। याद रखो कि उसके कोष में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है। आस-औलाद, धन-इज्जत, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु सब कुछ उसी के हाथ में है। यह किसी वैद्य या डॉक्टर के हाथ में नहीं होता और न ही किसी दवा में  होता है। जो कुछ होना होता है वह सब भगवान के आदेश से होता है। औलाद देनी है तो उसी ने देनी है। मुझे याद है आप बातें करते जा रहे थे और साथ-साथ पुड़िया भी बनाते जा रहे थे। सभी दवा आपने दो भागों में विभाजित कर दो अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में डाली थीं और फिर मुझसे पूछकर आप ने एक लिफ़ाफ़े पर मेरा और दूसरे पर मेरी पत्नी का नाम लिखकर दवा उपयोग करने का तरीका बताया था। मैंने तब बेदिली से वह दवाई ले ली थी क्योंकि मैं सिर्फ कुछ पैसे आप को देना चाहता था। लेकिन जब दवा लेने के बाद मैंने पैसे पूछे तो आपने कहा था,  बस ठीक है। मैंने जोर डाला, तो आपने कहा कि आज का खाता बंद हो गया है। मैंने कहा मुझे आपकी बात समझ नहीं आई। इसी दौरान वहां एक और आदमी आया उसने हमारी चर्चा सुनकर मुझे बताया कि खाता बंद होने का मतलब यह है कि आज के घरेलू खर्च के लिए जितनी राशि वैद्यजी ने भगवान से माँगी थी वह ईश्वर ने उन्हें  दे दी है। अधिक पैसे वे नहीं ले सकते। मैं कुछ हैरान हुआ और कुछ दिल में लज्जित भी कि मेरे  विचार कितने निम्न थे और यह सरलचित्त वैद्य कितना महान है। मैंने जब घर जा कर पत्नी को औषधि दिखाई और सारी बात बताई तो उसके मुँह से निकला वो इंसान नहीं कोई देवता है और उसकी दी हुई दवा ही हमारे मन की मुराद पूरी करने का कारण बनेंगी। आज मेरे घर में दो फूल खिले हुए हैं। हम दोनों पति-पत्नी हर समय आपके लिए प्रार्थना करते रहते हैं। इतने साल तक कारोबार ने फ़ुरसत ही न दी कि स्वयं आकर आपसे धन्यवाद के दो शब्द ही कह जाता। इतने बरसों बाद आज भारत आया हूँ और कार केवल यहीं रोकी है।
वैद्यजी हमारा सारा परिवार इंग्लैंड में सेटल हो चुका है। केवल मेरी एक विधवा बहन अपनी बेटी के साथ भारत में रहती है। हमारी भान्जी की शादी इस महीने की 21 तारीख को होनी है। न जाने क्यों जब-जब मैं अपनी भान्जी के भात के लिए कोई सामान खरीदता था तो मेरी आँखों के सामने आपकी वह छोटी-सी बेटी भी आ जाती थी और हर सामान मैं दोहरा खरीद लेता था। मैं आपके विचारों को जानता था कि संभवतः आप वह सामान न लें किन्तु मुझे लगता था कि मेरी अपनी सगी भान्जी के साथ जो चेहरा मुझे बार-बार दिख रहा है वह भी मेरी भान्जी ही है। मुझे लगता था कि ईश्वर ने इस भान्जी के विवाह में भी मुझे भात भरने की ज़िम्मेदारी दी है।
वैद्यजी की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं और बहुत धीमी आवाज़ में बोले, '' कृष्णलाल जी, आप जो कुछ कह रहे हैं मुझे समझ नहीं आ रहा कि ईश्वर की यह क्या माया है? आप मेरी श्रीमती के हाथ की लिखी हुई यह चिठ्ठी देखिये।" और वैद्यजी ने चिट्ठी खोलकर कृष्णलाल जी को पकड़ा दी। वहाँ उपस्थित सभी यह देखकर हैरान रह गए कि ''दहेज का सामान'' के सामने लिखा हुआ था '' यह काम परमात्मा का है, परमात्मा जाने।''
काँपती-सी आवाज़ में वैद्यजी बोले, "कृष्णलाल जी, विश्वास कीजिये कि आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पत्नी ने चिठ्ठी पर आवश्यकता लिखी हो और भगवान ने उसी दिन उसकी व्यवस्था न कर दी हो। आपकी बातें सुनकर तो लगता है कि भगवान को पता होता है कि किस दिन मेरी श्रीमती क्या लिखने वाली हैं अन्यथा आपसे इतने दिन पहले ही सामान ख़रीदना आरम्भ न करवा दिया होता परमात्मा ने। वाह भगवान वाह! तू  महान है तू दयावान है। मैं हैरान हूँ कि वह कैसे अपने रंग दिखाता है।"
वैद्यजी ने आगे कहा, "जब से होश सँभाला है, एक ही पाठ पढ़ा है कि सुबह परमात्मा का आभार करो, शाम को अच्छा दिन गुज़रने का आभार करो, खाते समय उसका आभार करो, सोते समय उसका आभार करो।सदैव उसी एक की शरण में रहो।"
 प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, November 10, 2018

न चोराहार्यम् न च राजहार्यम्,
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं,
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥
भावार्थः- जिसे न चोर चुरा सकते हैं, न राजा हरण कर सकता है, न भाई बँटा सकते हैं, जो न भार स्वरुप ही है, जो नित्य खर्च करने पर भी बढ़ता है, ऐसा विद्या धन सभी धनों में प्रधान है।
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Friday, November 9, 2018

पुरुषार्थ-45-मोक्ष-5-समापन कड़ी


पुरुषार्थ-45 -मोक्ष-5-समापन कड़ी 
             सभी दर्शन और सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद स्पष्ट है कि जड़ पदार्थों में आसक्ति त्याग देने से जड़ शरीर जो कि स्वयं एक पदार्थ है, की पुनः प्राप्ति नहीं होती अर्थात पुनर्जन्म नहीं होता | भले ही कोई मुक्त होकर परमात्मा को उपलब्ध हुआ हो अथवा नहीं, परन्तु यह सत्य है कि पुनर्जन्म से मुक्ति पा लेना ही मोक्ष है | पुनर्जन्म से मुक्ति तभी मिल सकती है, जब व्यक्ति को आत्म-ज्ञान हो जाये | आत्म-ज्ञान हो जाना ही संभवतः परमात्मा से मिलन है | इस बारे में गीता का ज्ञान सबसे अधिक स्पष्ट है | गीता में एक  ही सन्देश है-परमात्मा के शरणागत हो जाने का | गीता हमें कहती है-स्थितप्रज्ञ होने से (दूसरे अध्याय में ) लेकर शरणागत (अंतिम, 18 वें अध्याय में) होने को | स्थितप्रज्ञ से शरणागत होने के मध्य में कर्म, ज्ञान, ध्यान और भक्ति आदि सभी आ जाते हैं और ये सभी आत्म-ज्ञान के मार्ग हैं और आत्म-बोध हो जाना ही संसार से मुक्त हो जाना है और यही मोक्ष है |
                    जीवन में यह कामना कभी भी नहीं करनी चाहिए कि हमें मोक्ष मिले | मोक्ष का अर्थ है, स्वयं को सुख-दुःख के भाव से पूर्णतया मुक्त कर संसार से विरक्त हो जाना | इस जीवन में लक्ष्य परमात्मा का प्रेम पाना होना चाहिए, मोक्ष प्राप्त करना नहीं | हममें में से किसी ने भी इस नश्वर शरीर की मृत्यु के बाद जीवन के होने अथवा न होने को नहीं देखा है | अतः किसी भी प्रकार के मोक्ष की कल्पना किया जाना संभव ही नहीं है | एक परम पिता का आश्रय पाकर उससे प्रेम करना और उससे प्रेम पाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए | इस प्रकार के जीवन को जीने के लिए गीता एक आधार प्रदान करती है | कहा जाता है कि गीता भगवान् श्री कृष्ण जो कि साक्षात् परम ब्रह्म थे, के श्रीमुख से निकली हुई वाणी है | अतः इस पर विश्वास कर श्रद्धा पूर्वक ईश्वर से प्रेम करना चाहिए |
                 इस श्रृंखला का समापन करते हुए मैं भी परमात्मा से गोस्वामीजी की तरह यही कहना चाहता हूँ कि हे परम पिता ! न तो मुझे अर्थ चाहिए, न काम , न धर्म और न ही मोक्ष | मुझे केवल यही वरदान दीजिये कि प्रत्येक जन्म में आपके प्रति मेरा प्रेम कभी भी कम नहीं हो |
अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहउं निरबान |
जनम जनम रति राम पद, यह वरदानु न आन ||अयोध्याकाण्ड/204||
                आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, अपने विचारों से अवगत कराएँ | “पुरुषार्थ” जैसे विषय पर लिखना और संतोषप्रद लिखना बड़ा ही मुश्किल कार्य है | इस विषय पर चाहे जितना लिख दिया जाए, संतुष्टि मिलना असंभव है | फिर भी एक क्षुद्र प्रयास किया है, आपको पसंद आया होगा | आप सभी का साथ बने रहने पर आभार |
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, November 8, 2018

पुरुषार्थ-44-मोक्ष-4


पुरुषार्थ - 44  - मोक्ष- 4
                  पूर्व मीमांसा में कर्म को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है | इसलिए कहा गया है कि दुःख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति के लिए धर्म के अनुसार कर्म करें | धर्म के अनुसार कर्म करने से मनुष्य अशांत नहीं हो सकता | व्यक्ति का शांति को उपलब्ध हो जाना ही दुःख से मुक्त हो जाना है | अद्वैत में मोक्ष की कल्पना उपनिषदों के आधार पर की गयी है | वेदांत में भक्ति और कर्म के स्थान पर ज्ञान को प्रधानता दी गयी है | आत्मा को ब्रह्म स्वरुप माना गया है | “अहं ब्रह्मास्मि” का ज्ञान हो जाना ही मोक्ष है | तब आत्मा सत, चित, आनंद से पूर्ण होकर स्वयं ही सच्चिदानंद हो जाता है | आदि गुरु शंकराचार्य इस सिद्धांत के प्रणेता है |
          विशिष्टाद्वैत में ज्ञान और कर्म पर भक्ति को प्रधानता दी गयी है | भक्ति के माध्यम से नारायण का सानिध्य प्राप्त होता है | नारायण के संरक्षण में ही पूर्ण मुक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है | नारायण अर्थात परमात्मा का सानिध्य दो साधनों से प्राप्त किया जा सकता है, भक्ति और प्रपति | प्रपति का अर्थ है ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखते हुए उनके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना अर्थात शरणागति | रामानुज ने भक्ति की तुलना में कर्म और ज्ञान को गौण माना है और उन्हें कम महत्त्व दिया है | उनके अनुसार भक्ति और शरणागति के माध्यम से मोक्ष को उपलब्ध हुआ जा सकता है |
                 इस प्रकार हमने विभिन्न वाद और दर्शन के आधार पर मोक्ष विषय पर चर्चा की | इस चर्चा का निष्कर्ष यही निकल कर सामने आता है कि मोक्ष का अर्थ है- पदार्थ से मुक्ति अर्थात जो जड़ तत्वों के प्रति हमारे भीतर आसक्ति पैदा हो जाती है, उसको समाप्त कर देना, उस आसक्ति से मुक्ति पा लेना | वर्तमान जीवन के बाद क्या होना है, आज तक किसी ने नहीं देखा है | इस जीवन के बाद क्या होता है, उसके बारे में कई परिकल्पनाएं है | परिकल्पना (Hypothesis) मैं इसलिए कहता हूँ क्योंकि जिसने संसार के जीवन के बाद सत्य के जीवन को देखा है, उनमें से कोई भी इस संसार में पुनः नहीं लौटता है और जो इस भौतिक असत संसार के जीवन में ही पुनः लौटता है उसको स्वयं के पूर्व जीवन की कोई स्मृति नहीं रहती है | गीता भी यही कहती है कि इस जड़ शरीर की मृत्यु के बाद या तो नया शरीर को पाकर पुनः इस संसार में आना होता है अथवा इस संसार के भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों से पूर्णतः मुक्ति मिल जाती है | पुनर्जन्म होने पर पूर्वजन्म की बातें स्मृति में नहीं रहती और मुक्त हुआ पुरुष इस संसार में पुनः नहीं लौटता | ऐसे में जीवन के बाद के जीवन के बारे में हमें कौन बतलाए ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, November 7, 2018

पुरुषार्थ-43-मोक्ष-3


पुरुषार्थ - 43 -मोक्ष-3  
                  जैन दर्शन के अनुसार मुक्त होने के क्रम में दो स्थितियां आती हैं | पहले नवीन कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता है, जिसे ‘संवर’ कहा जाता है | दूसरी स्थिति में पूर्व जन्म के संचित कर्मों का भी विनाश हो जाता है जिसे ‘निर्जरा’ कहा जाता है | इन दोनों के बाद की स्थिति को मोक्ष कहा जाता है | यह जीवन मुक्ति की स्थिति है | शारीरिक मृत्यु के बाद ईश्वर और ब्रह्म की सत्ता जैन धर्म में स्वीकार्य नहीं है | हाँ, जैन दर्शन में पुनर्जन्म को अवश्य माना गया है | जीवनमुक्ति की अवस्था में अनंत ज्ञान, अनंत शांति और अनंत ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है |
          सांख्य दर्शन में ‘कैवल्य’ को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है, जो मोक्ष के समकक्ष ही है | सांख्य दर्शन के अनुसार जिससे मुक्त होना होता है वह प्रकृति है और जो मुक्त होता है, वह पुरुष है | कैवल्य पुरुष का स्वभाव है परन्तु प्रकृति का संग पाकर वह अपना स्वभाव भूल जाता है | अहम् बुद्धि के कारण वह संसार को ही सत्य मान लेता है  | इस संसार से आसक्ति को दूर करने के लये अष्टांग-योग है | महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | अष्टांग योग की साधना से वह अर्थात पुरुष प्रकृति से मुक्त हो जाता है | मुक्त होने का अर्थ ब्रह्म के साथ योग होना नहीं है बल्कि संसार से वियोग होना है | इस अवस्था में व्यक्ति ‘जीवन-मुक्त’ हो जाता है | सांख्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता परन्तु योग ईश्वर प्रणिधान और भक्ति को मोक्ष का साधन मानता है किन्तु यह केवल श्रद्धालुओं और अज्ञानियों के लिए ही स्वीकृत किया गया है, जो योगादि कठिन साधना नहीं कर सकते | यहाँ अज्ञानी से अर्थ मूर्ख होने से नहीं है बल्कि उनसे है जो ज्ञान मार्ग पर चलने में असमर्थ हैं |
                न्याय और वैशेषिक दर्शन में मोक्ष को आनंददायक नहीं मानते क्योंकि सुख और दुःख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिए दोनों सत्य हैं परन्तु ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं | इसलिए वे मोक्ष की कल्पना अलग प्रकार से करते हैं | सुख दुःख से परे हो जाना ही मुक्त हो जाना है | इस प्रकार मोक्ष की स्थिति में आत्मा सुख-दुःख दोनों से ही मुक्त हो जाती है | दुःख से मुक्ति के लिए हमें सुख की आशा नहीं करनी चाहिए | दुःख तो हमारा जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता परन्तु हम तो दुःख का अतिक्रमण कर ही सकते हैं | देह मुक्ति के बाद आत्मा अपने सुख-दुःख के विशेष गुणों से भी मुक्त हो जाती है | इसमें जीवन मुक्ति को स्वीकार नहीं किया गया है बल्कि उसके स्थान पर ‘दिव्य-विभूति’ कहा जाता है, जिसकी आत्मा में उसके दोनों विशेष गुण सुख-दुःख उपस्थित रहते हैं |
आप सभी पाठक गण को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, November 6, 2018

पुरुषार्थ-42-मोक्ष-2


पुरुषार्थ-42 – मोक्ष-2  
                   नश्वर संसार से मुक्ति के लिए दो ही मार्ग हैं – ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग | ज्ञान मार्ग में आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हुआ जाता है और कर्म मार्ग में कर्म करते हुए भी कर्म न करना होता है अर्थात कर्ताभाव समाप्त करना होता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि शरीर और कर्ताभाव से मुक्त होना ही मोक्ष को उपलब्ध होना है | इससे सिद्ध है कि मोक्ष जीवन की अंतिम परिणिति है | मोक्ष को देखा नहीं गया है इसलिए इसको कई मनीषी काल्पनिक और आत्मवादी मानते हैं | इस मोक्ष के स्थान पर ‘जीवन-मुक्ति’ अथवा ‘विदेह’ शब्द अधिक उचित प्रतीत होता है क्योंकि मनुष्य अपने जीवन काल में ही सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से बाहर निकलकर इस संसार से मुक्त हो जाता है | इसमें व्यक्ति ‘तत्वमसि’ से ‘अहं ब्रह्मास्मि’  की स्थिति की और बढ़ता है | वेदांत में आत्म-साक्षात्कार को ही मोक्ष माना गया है | शरीर की मृत्यु के पश्चात् वह ब्रहम में ही विलीन हो जाता है |
              बोद्ध-दर्शन में निर्वाण की कल्पना मोक्ष के समकक्ष की गयी है |’निर्वाण’ शब्द का अर्थ है, बुझ जाना | निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर संयम रखना, जिससे व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चल सके | सदाचार जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है | निर्वाण का अर्थ है, वासनाओं से मुक्ति | मन में जितनी भी कामनाएं उठी हैं, उन सभी कामनाओं को शांत कर लेना, उन कामनाओं का बुझ जाना | जीवन का लक्ष्य ही निर्वाण है | बौद्ध दर्शन में बंधन का कारण तृष्णा, वितृष्णा और अविद्या को माना गया है | जब व्यक्ति इनसे मुक्त हो जाता है, तब वह निर्वाण को प्राप्त हो जाता है | इसके लिए तथागत (भगवान बुद्ध) ने अष्टांगिक मार्ग की व्यवस्था दी है | ये आठ मार्ग हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक  प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि | इनमें प्रथम दो ज्ञान(ज्ञान-योग), मध्य के तीन शील (कर्म-योग) और अंतिम तीन समाधि (भक्ति-योग) के अंतर्गत आते हैं |
      जैन दर्शन में जीव व अजीव (जड़) का सम्बन्ध कर्म के माध्यम से स्थापित होता है | जीव हम स्वयं है और जड़ है-संसार के पदार्थ, जिनके माध्यम से हमें सुख मिलने की आशा रहती है | कर्म के माध्यम से जीव का अजीव अर्थात जड़ के साथ बंध जाना ही बंधन है | इस प्रक्रिया को आस्राव कहा जाता है |आस्राव का निरोध होने से ही जीव अजीव के बंधन से मुक्त हो सकता है | इसके लिए त्रिविध संयम की व्यवस्था की गई है | सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन (श्रद्धा) और सम्यक चरित्र | सम्यक दर्शन (श्रद्धा), सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की पालना से मोक्ष की प्राप्ति होती है | गीता में इन तीनों को क्रमशः ज्ञान,भक्ति और कर्म योग नाम से कहा गया है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, November 5, 2018

पुरुषार्थ-41-मोक्ष-1


पुरुषार्थ – 41  – मोक्ष -1
मोक्ष (Liberation/Enlightenment) – Spiritual values
           मोक्ष का अर्थ है, पदार्थ से मुक्ति | पदार्थ है, हमारा भौतिक शरीर | हमारा शरीर प्रति जन्म बदल जाता है, तो फिर क्या यही मोक्ष है ?  नहीं, केवल शरीर बदल जाने का नाम ही मोक्ष नहीं है | भौतिक शरीर से मुक्ति का अर्थ है, पुनः शरीर लेकर इस संसार में कभी भी नहीं लौटना अर्थात इस संसार से सदैव के लिए आवागमन का मिट जाना | मोक्ष को ही समाधि कहा जाता है | यही ब्रह्मज्ञान है, यही आत्म-ज्ञान है और आत्म-बोध भी यही है | ऐसे मोक्ष में स्थित व्यक्ति को गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण स्थितप्रज्ञ  कहते हैं | मोक्ष में स्थित व्यक्ति अर्थात शरीर में रहते हुए ही शरीर से मुक्त हो जाना | इसे जीवन मुक्त होना कहा जाता है | सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार मोक्ष को उपलब्ध व्यक्ति को आत्म-बोध हो जाने से वह स्वयं ही भगवान् हो जाता है | आत्मबोध हो जाना अर्थात स्वयं का ज्ञान हो जाना और स्वयं का ज्ञान हो जाने से ही व्यक्ति शरीर के रहते हुए ही शरीर से मुक्त हो जाता है | जैन धर्म में ऐसे व्यक्ति को अरिहंत कहा जाता हैं | बौद्ध धर्म में इसे संबुद्ध कहा जाता है | मोक्ष ही कैवल्य है और यही  निर्वाण और समाधि कहलाता है | 
                 भारतीय दर्शन में सांसारिक नश्वरता को दुःख का कारण बताया गया है | जो कल था वह आज नहीं है, जो आज है, वह कल नहीं रहेगा | यह परिवर्तनशील संसार का नियम है | संसार ही आवागमन अर्थात जन्म-मरण का केंद्र है | इस आवागमन से मुक्ति का नाम ही मोक्ष है | संसार में आवागमन से मुक्ति क्यों आवश्यक है ? हमें अपने प्रत्येक जीवन का ज्ञान नहीं रहता, इसलिए यह प्रश्न मन में बार-बार उठता है | वास्तविकता है कि हम अपने प्रत्येक जीवन में इस नश्वर संसार में आकर दुःखी ही हुए हैं | सुख की चाह हमें इस नश्वर संसार से भी अपेक्षाएं पैदा कर देती हैं | अपेक्षाओं के अनुरूप यह संसार हमें कुछ भी नहीं दे सकता | जब हमारी अपेक्षाएं पूरी नहीं होती तो हम दुःखी हो जाते हैं | जब दुःख असह्य हो जाता है तब हमें इस संसार की नश्वरता का भान होता है और हम इससे मुक्त होने का प्रयास करते हैं |
                        जिससे मुक्त होना है,वह है शरीर और संसार और जो मुक्त होता है वह है आत्मा अर्थात हम स्वयं | संसार और शरीर दोनों से मुक्त होने पर जो शेष बचता है वह है आत्मा अर्थात स्वयं | स्वयं को जान लेना ही आत्म बोध है और स्वयं का ज्ञान हो जाना आत्म ज्ञान | शरीर और संसार से मुक्त होना संभव भी है और असंभव भी | असंभव इस कारण से कि व्यक्ति कितना भी प्रयास कर ले मन के भीतर किसी न किसी प्रकार की एक आध आसक्ति रह ही जाती है | सभी भी प्रकार की आसक्तियों और कामनाओं से छूटना लगभग असंभव है | ऐसे में व्यक्ति के सामने एक मार्ग ही शेष रहता है- भक्ति मार्ग | परमात्मा के प्रति आसक्त हो जाना अर्थात सब कुछ परमात्मा को समर्पण कर देना यहाँ तक कि अपनी सभी प्रकार की कामनाएं भी | इसीलिए कहा जाता है कि मोक्ष से भक्ति अधिक श्रेष्ठ है | भक्ति को मोक्ष से श्रेष्ठ तभी कहा जा सकता है जब यह जान लिया जाये कि हमारी इस नश्वर संसार से मुक्ति क्यों नहीं हो सकती ? नश्वर संसार से मुक्ति के लिए भी तो कोई मार्ग होगा ? आइये ! जानने का प्रयास करते हैं कि इस संसार से मुक्ति के कौन कौन से मार्ग हैं ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||


Sunday, November 4, 2018

पुरुषार्थ-40-काम-4


पुरुषार्थ-40-काम-4
                      तपस्वी की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर अंततः एक दिन परमात्मा प्रकट हो ही गए | प्रकट होते ही उन्होंने तपस्वी से वर मांगने को कहा | परमात्मा ने तपस्वी से पूछा -‘कहो वत्स, तुम्हे मोक्ष चाहिए अथवा मेरी भक्ति | क्या कामना है तुम्हारी ? तुम्हारे अति कठोर तप से प्रसन्न होकर मैं आज तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा |’ तपस्वी हाथ जोड़कर परमात्मा के समक्ष खड़ा हो गया और क्षुब्ध होकर कहने लगा -‘न तो मुझे आपकी भक्ति चाहिए और न ही मोक्ष | अगर आपको मुझे कुछ देना ही है, तो गाँव की उस सुन्दर कन्या को तत्काल यहाँ बुलाकर उसका विवाह मेरे साथ करा दीजिये |’ तपस्वी की यह बात सुनकर परमात्मा ने उसकी यह कामना पूरी की अथवा नहीं, अपने को इससे कुछ भी लेना देना नहीं है | हमें तो इस दृष्टान्त से एक ही बात ग्रहण करनी चाहिए कि मनुष्य की सांसारिक कामनाओं का कहीं भी कोई अंत नहीं है | अतः हमें सांसारिक कामनाओं में उलझना नहीं है क्योंकि वे अनन्त है और एक के पूरी होते ही दूसरी कामना का मन में जन्म हो जाता है |
               हमें जीवन में अर्थ और काम, दोनों की ही उपलब्धि पूर्व मानव जीवन के कर्मों और अधूरी रही कामनाओं के कारण बने प्रारब्ध के अनुसार होती है और इस जीवन में मन में पैदा हुए काम के अनुसार भावी जीवन में अर्थ और काम की प्राप्ति होगी | इस बात को सदैव ध्यान में रखें | अतः इस जीवन में हमारे लिए काम एक ही होना चाहिए- अंतिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ को प्राप्त करने का | जैसा कि मैंने इस श्रृंखला के प्रारम्भ में ही कह दिया था कि इस जीवन में पुरुषार्थ कर नए जीवन में अर्थ और काम को पाया जा सकता है और इसी जीवन में उस पुरुषार्थ से धर्म और मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है | मानव जीवन को प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है, मोक्ष प्राप्त करना | ‘मोक्ष’ विषय बड़ा ही जटिल है | हम वर्तमान जीवन में ‘मोक्ष’ को उपलब्ध होंगे अथवा नहीं, यह चिंतनीय नहीं है क्योंकि इसे प्राप्त करना हमारे कर्म पर निर्भर है परन्तु  ‘मोक्ष’ विषय पर चिंतन करने को हम स्वतन्त्र है | चिंतन से ही प्रेरित हो हम ‘मोक्ष’ की और प्रस्थान कर सकते हैं | तो आइये ! कदम बढाते हैं ‘मोक्ष’ द्वार की ओर |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Saturday, November 3, 2018

पुरुषार्थ-39-काम-3


पुरुषार्थ-39-काम-3
                  कामनाएं चाहे परमात्मा को पाने की हो अथवा सांसारिक सुख की, दोनों ही प्रकार की कामनाओं का छूट जाना आवश्यक है | परमात्मा को पाने की कामना आध्यात्मिक कामना है जिसे धर्म के मार्ग पर चलते हुए सात्विक कर्म करके पाया जा सकता है और अंत में इस कामना का भी त्याग करना होता है | सांसारिक कामनाओं को पूरा करने के लिए सात्विक कर्म करें अर्थात धर्माचरण करते हुए शास्त्रोक्त कर्म करें | धर्माचरण करना और शास्त्रोक्त कर्म करना, दोनों एक ही बात है | धर्म कहता है कि प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को अहिंसा, सत्य,अस्तेय(चोरी न करना),अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए | ये पांचो समाज और संसार के हित के लिए पालनीय धर्म है | ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं – चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना | साथ ही साथ शौच अर्थात बाहर भीतर की शुद्धि, संतोष, तप अर्थात स्वयं से अनुशासित रहना, स्वाध्याय अर्थात आत्मचिंतन करना और ईश्वर प्राणिधान अर्थात ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव का पालन करना चाहिए | यह सभी निजी धर्म है | अगर हम सांसारिक सुख के लिए धर्म का त्याग करते हैं तो हम अपने जीवन में आध्यात्मिक कभी हो ही नहीं सकते | 
                  हमारे जीवन में सांसारिक कामनाओं का अंत कभी भी नहीं आता है | इस बात को स्पष्ट करने के लिए  एक दृष्टान्त देना चाहूँगा | एक व्यक्ति मोक्ष की कामना के साथ घने जंगल में तप कर रहा था | उस व्यक्ति की कुटिया के पास ही एक मीठे जल का तालाब था | गाँव की महिलाएं तालाब से जल लेने आया करती थी | एक दिन एक सुन्दर बाला ने विचार किया कि तपस्वी को कुटिया में तालाब से जल ले जाने में असुविधा होती होगी, क्यों न इनकी कुटिया में प्रतिदिन मैं ही जल भर कर रख दिया करूँ ? अगले दिन से ही वह ऐसा करने लगी | एक दिन तपस्वी जब अपनी साधना से उठा ही था कि उसकी दृष्टि उस कन्या पर पड़ गयी | उसकी सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध होकर उस कन्या पर मोहित हो गया | उसके मन में उस कन्या से विवाह करने की कामना जगी परन्तु एक तपस्वी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उसने यह बात अपने भीतर ही रखी | प्रतिदिन कन्या आती, उसकी कुटिया में जल भरकर रख देती | तपस्वी उसको निहारता रहता परन्तु उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका | कई दिनों बाद उस कन्या को एक लम्बी अवधि के लिए उस गाँव से दूर किसी नगर में जाना पड़ा जिससे उसका वन में आना न हो सका | इस प्रकार तपस्वी की कुटिया में जल भरकर रखने का क्रम भी टूट गया | तपस्वी को जल भरने की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी उस कन्या को लेकर चिंता थी कि आखिर वह कहाँ चली गयी ? उस कन्या को देखे बिना तो तपस्वी का हाल बेहाल हो गया | वह तप छोड़कर रात-दिन केवल उस कन्या का चिंतन करने लगा | एक दिन उसने गाँव की किसी अन्य महिला से उस कन्या के बारे में पूछा | महिला ने बताया कि वह तो यहाँ से बहुत दूर किसी नगर में चली गयी है और निकट भविष्य में उसका लौटना संभव नहीं है | थक हारकर आखिर तपस्वी ने उस कन्या की राह देखना छोड़ दिया और पुनः तप में लग गया |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम् ||

Friday, November 2, 2018

पुरुषार्थ-38-काम-2


पुरुषार्थ-38 – काम-2  
                सात्विक काम फल की कामना के बिना अर्थात किसी प्रत्याशा/अपेक्षा (Expectancy) के बिना और स्व-धर्मानुसार (विवेकानुसार) संपन्न किया जाता है | सात्विक काम धर्म सम्मत होता है | राजसिक काम विषय, वासना और इन्द्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा रखते हुए किया जाने वाला काम है | इस प्रकार के काम को भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है किन्तु इसका परिणाम दुखकारी होता है | तामसिक काम में मनुष्य मोह पाश में बंधा हुआ होता है , वह न तो वर्तमान का और न ही भविष्य का कोई विचार करता है | आलस्य(Laziness), निद्रा (Lethargy) और प्रमाद(Negligence) इस काम के जनक कहे गए हैं | इस प्रकार का काम न तो भोगते समय सुख देता है और न ही इसका परिणाम सुखकारी होता है | इन तीनों कामों में सात्विक काम श्रेष्ठ है जो भोगते समय तो विषकारी हो सकता है लेकिन परिणाम सदैव आनंददायी और मुक्तिकारक होता है |  अन्य काम तो केवल बंधन ही पैदा करते हैं | यही कारण है कि  भारतीय मनीषियों ने स्वीकार किया है कि यौन (Sexual) सम्बन्धी इच्छाओं की तृप्ति (Satiety) जीवन का एक सहज (Effortless), स्वाभाविक (Natural) अथवा मूल प्रवृत्यात्मक अंग (Part) है | इसकी संतुष्टि के लिए हमारी संस्कृति में विवाह (marriage) का विधान है |
              गीता में इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए काम को तृप्त करने के लिए कहा गया है | गीता के दूसरे अध्याय के 62 और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की इन विषयों के साथ आसक्ति (Attachment) हो जाती है, आसक्ति से काम पैदा होता है और काम की तृप्ति न होने से क्रोध (Anger) पैदा होता है | क्रोध से मोह (fascination) पैदा होता है, मोह से स्मृति-भ्रम (Delusion) और अविवेक (Indiscriminate) पैदा होता है | अविवेक से बुद्धि (Intelligence) का नाश हो जाता है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का नष्ट हो जाना निश्चित है अर्थात मनुष्य पुरुषार्थ के योग्य नहीं रह जाता है |
             मनुष्य के जीवन में कामनाओं का कभी भी अंत नहीं होता क्योंकि संसार के सभी प्राणियों का अस्तित्व ही मनुष्य की कामनाओं पर टिका हुआ है |  मनुष्य की सांसारिक सुख प्राप्त करते रहने की कामनाएं जीवन भर पूरा नहीं हो सकती इसीलिए उसे विभिन्न प्राणियों के रूप में जन्म लेना पड़ता है | इससे सिद्ध होता है कि कामनाएं ही इस संसार के सतत (Continuous) गतिमान रहने का आधार है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, November 1, 2018

पुरुषार्थ-37-काम-1


पुरुषार्थ-37-काम-1  
काम (Pleasure/Business/Action) – Psychological values
                मनुष्य जीवन का तीसरा पुरुषार्थ है काम | काम का शाब्दिक अर्थ है ‘इच्छा’ अथवा ‘कामना’ | सामान्य रूप से कामना का मंतव्य होता है - शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना | पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्रायः मनुष्य की उन सभी शारीरिक, मानसिक आदि कामनाओं की पूर्ति से से है, जो उसके सम्पूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक है | इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति (Motivational power) है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रत्येक कार्य के पीछे काम का होना एक आवश्यक शर्त है |
                 मनुष्य के जीवन में कामनाओं का महत्वपूर्ण स्थान है | अगर मन में कामना ही न उठे तो फिर अर्थ कैसे प्राप्त होगा ? अर्थ धर्म के एक आवश्यक अंग, ‘दान’ के लिए आवश्यक है | अतः जीवन में काम का होना धर्म और अर्थ की तरह ही महत्वपूर्ण है | बिना काम के हमारा जीवन एक भार ढोने वाले प्राणी से बिलकुल भी भिन्न नहीं होगा | जीवन बोझ तभी बन जाता है, जब कामनाएं पूरी न हो | अतः कामनाओं का जीवन में उठना, उनको पूरा करने का प्रयास करना और फिर सुख प्राप्त करना ही जीवन की गति के लिए आवश्यक है |
                  जीवन में कामनाएं होना / रखना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि जीवन में कामनाएं किस प्रकार की रखनी चाहिये ? सांसारिक सुख एक क्षण के सुख से अधिक कुछ भी नहीं है जबकि परमात्मा का सुख अखंड और अनन्त (Infinity) है | हमारे जीवन में कामनाएं प्रायः सांसारिक सुख की होती है | सांसारिक सुख अस्थाई (Temporary) और अंततः दुःख में परिवर्तित होने वाला होता है | जीवन में ऐसे काम को हमें महत्त्व (Importance) देना चाहिए जो हमें स्थाई सुख दे सके | स्थाई सुख परमात्मा में ही मिल सकता है, संसार में नहीं | अतः हमारी कामना परमात्मा का प्रेम पाने के लिए होनी चाहिए, संसार से प्रेम पाने की नहीं | परमात्मा से प्रेम करने पर हमें प्रेम ही प्रत्युतर में मिलता है जबकि संसार से प्रेम करने पर अंततः दुःख की प्राप्ति होती है |
काम को भारतीय मनीषियों ने तीन श्रेणियों में रखा है, सात्विक, राजसिक और तामसिक | गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
 बलं बलवंता चाहं कामरागविवर्जितम् |
धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोSस्मि भरतर्षभ ||गीता-7/11||
अर्थात हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना और आसक्ति रहित बल यानि सामर्थ्य हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||