यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 8
किस प्रकार के गुरु को तत्काल त्याग देना
चाहिए ? इस बारे में श्री गुरु-गीता में कहा गया है –
ज्ञान दीनो गुरुस्त्याज्यो
मिथ्यावादी विडबकः |
स्वविश्रान्ति न
जानान्ति परशान्ति करोतिकिम ||
अर्थात जो गुरु अज्ञानी
हो, मिथ्यावादी हो उसका त्याग कर देना ही उचित है क्योंकि जो स्वयं का ही कल्याण नहीं
कर सका; भला वह अपने शिष्य का कल्याण कैसे कर पायेगा ?
अतः गुरु का चयन भली भांति सोच समझकर करना चाहिए
| जो गुरु केवल ज्ञान अर्थात गोविन्द का ही एक मात्र लक्ष्य रखे, उस पर दृष्टि
जमाये रखे, इधर उधर के कार्य कलापों में आपको न उलझने दे, वही सच्चा गुरु हो सकता
है | आज के इस भौतिक युग में गुरु स्वयं आमोद-प्रमोद में व्यस्त रहते हैं और
विषय-भोग में लगे हुए हैं, वे भला अपने शिष्य का उद्धार कैसे कर सकते हैं ? ऐसे
गुरु को समय रहते त्याग देना ही श्रेयष्कर है |
कई शिष्य अपने सांसारिक भोगों
के लाभ के लिए ऐसे गुरुओं का त्याग नहीं करते बल्कि उनके साथ सहयोगी की भूमिका निभाते
हैं | इस प्रकार के गुरु और शिष्य दोनों में से किसी का भी भला नहीं होता बल्कि हानि
ही होती है | इस प्रकार के कथित गुरु-शिष्य के बारे में कबीर भी कहते हैं –
गुरु लोभी शिष लालची,
दोनों खेले दांव |
दोनों डूबे बापडे,
बैठ पत्थर की नाव ||
कबीर कह रहे हैं कि ऐसे गुरु के सानिध्य
में शिष्य और गुरु विभिन्न प्रकार के सांसारिक दांव-पेंच करते रहते हैं | ऐसे गुरु-शिष्य
दोनों में से किसी का भी कल्याण नहीं होता और दोनों का डूबना निश्चित है | भला, पत्थर
की नाव पर बैठकर कोई संसार सागर को आज तक पार कर सका है ?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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