यात्रा – गुरु से
गोविन्द तक
‘हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव
केवलम् | कलौ नास्तेव नास्तेव नास्तेव गतिरन्यथा ||’
इस श्रृंखला में जो कुछ भी आपको अच्छा लगे, वह
सब मेरे गुरु का प्रसाद है और जो कुछ भी अनुचित लगे, वह सब मेरे ज्ञान की न्यूनता
है | गुरुपूर्णिमा की आप सभी को शुभकामनाएं |
यात्रा – गुरु से
गोविन्द तक – 1
इस संसार में निर्जीव व सजीव,
चाहे वह चर हो अथवा अचर तथा केवल सजीव अथवा निर्जीव ही नहीं, सभी पञ्च भौतिक तत्व तक
प्रत्येक किसी न किसी प्रकार से गतिमान बना हुआ है | इस प्रकार गतिमान बने रहने को हम एक प्रकार
की “यात्रा” करना कह सकते हैं | यात्रा उसे कहते हैं, जहाँ सामने किसी न किसी प्रकार
का एक लक्ष्य हो और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए गतिमान होना आवश्यक है | बिना किसी
लक्ष्य के यात्रा हो ही नहीं सकती | मनुष्य के बारे में तो कहा जा सकता है कि वह कोई
न कोई एक लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और फिर उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यात्रा
प्रारम्भ करता है परन्तु शेष चर-अचर जीवों तथा निर्जीव वस्तुओं का भला क्या लक्ष्य
हो सकता है ? आपका इस प्रकार सोचना सही है | यह लक्ष्य किसी न किसी का तो निर्धारित
किया हुआ है, जिस कारण से इस संसार में सभी सजीव, निर्जीव तथा पांच भौतिक तत्वों की
यह यात्रा अनवरत चल रही है | परमात्मा ने ब्रह्माण्ड को बनाया, चेतन-अचेतन को
बनाया और अंततः उसने मनुष्य को बनाया | परमात्मा को मानव बनाने की आवश्यकता क्यों
हुई ? केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो सोच-समझ सकता है और अपना लक्ष्य
निर्धारित कर सकता है | अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य के द्वारा ही इस यात्रा का प्रारम्भ
होता है और मनुष्य के द्वारा ही इस यात्रा का अंत हो सकता है |
मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना ही यही
है कि वह अपने जीवन का लक्ष्य अभी तक सही प्रकार से निर्धारित नहीं कर सका है, तभी
तो उसकी यात्रा कभी समाप्त नहीं हो पा रही है | लक्ष्य एक ही हो सकता है, अनेक नहीं
| अनेक तो कामनाएं हो सकती है | हमें समझना होगा कि हमारे लिए यहाँ दो ही अनंत हैं,
एक तो हमारी कामनाएं और दूसरा परमात्मा | हम अनंत को तो पाना चाहते हैं परन्तु हमारा
यह अनंत परमात्मा न होकर हमारी कामनाएं होती है | कामनाएं अनंत होती हैं और इस कारण
से उनको कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता | परमात्मा भी अनन्त है परन्तु उसे प्राप्त
किया जा सकता है | मानव जन्म पाकर हमारा लक्ष्य केवल कामनाओं को पूरा करना ही रह गया
है, परमात्मा को पाना नहीं रहा | यही हमारी जीवन यात्रा का पथ-विचलन है | जिस समय हमें
हमारा भूला हुआ मार्ग स्मरण हो जायेगा, हमारा पथ-विचलन भी समाप्त हो जायेगा | मनुष्य
को यही सोचना और समझना होगा कि अनंत को पाने के लिए यात्रा को भी अनंत किया जाये अथवा
अनंत को पाकर यात्रा का अंत कर दिया जाये | अगर अनंत को पाने के लिए अनंत काल तक यात्रा
करनी है तो संसार के भोग विलास की कामनाएं मन में उत्पन्न करते रहें और अगर अनंत को
पाकर यात्रा समाप्त करनी है, तो परमात्मा को पाने की ही एक मात्र कामना करें |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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