यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 15
प्रथम चरण के बाद साधक प्रवेश
करता है, द्वितीय चरण में | आन्दोलन जब एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है, प्यास उस जल को
पाने के लिए अतिशय बढ़ जाती है, जिसको पाकर मन तृप्त हो सके तब केवल आन्दोलन ही आपको
तृप्ति प्रदान नहीं कर सकता, इसीलिए आन्दोलन की इस अवस्था से भी आगे बढ़ना होगा | इस
तृप्ति के लिए दूसरा चरण है- आलोकित होने का, जो केवल पहुंचे हुए गुरु के द्वारा ही
संभव है |
द्वितीय चरण- आलोकित
अथवा प्रकाशित होना –
मनुष्य इस संसार में रहते हुए
ज्ञान के नाम पर इतना कूड़ा-करकट अपने मस्तिष्क में भर लेता है कि उसे अविद्या और विद्या
में कोई अंतर दृष्टिगत नहीं होता | ज्ञान केवल आत्म-ज्ञान हो जाने का नाम है, शेष ज्ञान
सब अपूर्ण-ज्ञान है | आत्म-ज्ञान हो जाना ही आलोकित हो जाना है | द्वितीय चरण में गुरु
इस बात का ज्ञान कराता है कि ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है ? साधक वही होता है जो
ज्ञान के साथ क्रीड़ा करे | ज्ञान को जो व्यक्ति बोझ समझता है, वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध
नहीं हो सकता | ज्ञान बोझ नहीं है बल्कि ज्ञान बोझ को दूर करने, व्यक्ति को हल्का अथवा
यों कह सकता हूँ कि शून्य करने का नाम है | प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के ज्ञान को
पाकर बोझ तले दबा जा रहा है | उस बोझ से मुक्त होने का नाम ही ज्ञान है | हम जो कुछ
(आत्मा) हैं, वास्तव में हम वह नहीं जानते बल्कि जो हम नहीं है, अपने आप को वही (शरीर)
समझ बैठे हैं | इस एक दम विपरीत अर्थात उलटी बात को पूर्णतया सीधा करना ही प्रकाशित
होना है |
ज्ञान के साथ क्रीड़ा करना
अर्थात आत्म-ज्ञान के लिए ज्ञान का अवलंबन कर लक्ष्य तक पहुँचना | ज्ञान कोई खेल की
वस्तु नहीं है | हाँ, यह बात एक दम सत्य है | परन्तु ज्ञान केवल पुस्तकों को पढ़कर परीक्षा
को उतीर्ण कर लेना भी नहीं है | परीक्षा उतीर्ण करने के लिए पुस्तकें पढना, एक मानसिक
बोझ प्रदान करता है परन्तु आत्म-ज्ञान के लिए पुस्तकों के ज्ञान के साथ नित्य क्रीड़ा
करते हुए उसमें पारंगत हो जाना एक प्रकार का रुचिकर खेल ही है | गुरु इस प्रकार आलोकित
होने में शिष्य की सहायता करता है | इस प्रकार गुरु से ज्ञान प्राप्त करने को लेकर
कबीर कहते हैं –
पासा पकड़िया
प्रेम का सारी किया शरीर |
सतगुरु दांव
बताईया खेले दास कबीर ||
कबीर ने ज्ञान के साथ
क्रीडा करने को चौपड के खेल की तरह बताया है, जिसमें प्रेम को पासा और शरीर को
सारी (गोटी) बना लिया है | सद्गुरु ने इस खेल को जीतने का दांव बात दिया है | इस
दांव के अनुसार ही मैं प्रेम और भक्ति का खेल खेल रहा हूँ | इस खेल से ज्ञान की
प्राप्ति क्यों कर नहीं होगी ? अर्थात ज्ञान निश्चित ही प्राप्त होगा |
कई महापुरुष गुरु से इस प्रकार
ज्ञान प्राप्त करने को लेकर कहते हैं कि गुरु को खूब भोगो | ‘भोग’ शब्द हो सकता है
कि यहाँ अनुचित लगे क्योंकि यह शब्द हम प्रायः सांसारिक भोगों के प्रति उपयोग में लेते
हैं | सांसारिक भोग हमें बंधन में डालते है जबकि गुरु से प्राप्त ज्ञान का भोग हमें
मुक्त करता है | अतः इस शब्द ‘भोग’ के यहाँ किये गए उपयोग को अन्यथा न लें | गुरु को
भोगने का अर्थ है जितना अधिक आप गुरु से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उतना अधिक प्राप्त
करें | इसमें गुरु को भी ज्ञान देने में अतिशय प्रसन्नता मिलती है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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