यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 7
श्री गुरुगीता
में भगवान् शिव कहते हैं –
गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ
निष्ठा परं तपः |
गुरोःपरतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि
ते ||तस्मात्संपूजयेद्गुरुम् ||
अर्थात गुरु ही
देव हैं, गुरु ही धर्म है, गुरु में निष्ठा ही परम तप है | गुरु से अधिक कुछ और
नहीं है | यह बात मैं तीन बार कहता हूँ | तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्, ऐसे गुरु की सदैव
पूजा करें |
गुरु को पाने के बाद शेष
रहता है, गोविन्द को पाना | गुरु रास्ते का वह संकेतक है, जो आपको गोविन्द को पाने
का रास्ता बताता है | किसी ओर संकेत केवल वही व्यक्ति कर सकता है, जो वहां उस लक्ष्य
तक पहुँच चूका हो, जिस लक्ष्य को आप पाना चाहते हो | गुरु आपको उस ओर संकेत करता है,
जहाँ आप जाना चाहते हैं | चलना आपको है, वह आपके साथ नहीं चलने वाला क्योंकि वह वहां
तक पहुँच चूका है और पहुंचे हुए की यात्रा समाप्त हो चुकी होती है | गुरु आपको संकेत
भर ही नहीं करता बल्कि रास्ते में आने वाली प्रत्येक बात तथा बाधा के प्रति जागरूक
भी करता है | वह यह भी जानता है कि आप वहां तक पहुँच सकते हो अथवा नहीं | इसीलिए वह
रास्ते की सभी विशेषताओं और बाधाओं के प्रति आपको जागरूक कर देना चाहता है | उस रास्ते
पर अग्रसर आपको अकेले ही होना है, गुरु तो समय समय पर आपके रास्ते पर संकेतक के रूप
में दृष्टिगोचर होता रहेगा | एक बार आप रास्ता भटक गए तो वह संकेतक दृष्टिगोचर नहीं
होगा क्योंकि आप उस रास्ते को त्याग चुके है, जिस रास्ते से आपका गुरु पहुंचा था |
आपको फिर किसी अन्य गुरु को पकड़ना होगा जो आपको पुनः सही मार्ग दिखा सके | इसके लिए
आपको कई मानव जन्म भी लेने पड़ सकते हैं |
सही गुरु की पहचान करना सरल कार्य नहीं है | आज इस युग में कई गुरु मिल जायेंगे
जो संसार से बंधन छुड़ाने के स्थान पर स्वयं के साथ बांध लेते है | कान में मन्त्र देने
वाले को भी हम गुरु मान लेते हैं, भले ही मंत्र देने वाला स्वयं भी अभी संसार में ही
रम रहा हो | जो गुरु स्वयं बंधन में है, भला वह आपको बंधन-मुक्त कैसे कर सकता है ?
गुरु-गीता कहती है कि ऐसे गुरु का समय रहते त्याग कर देना चाहिए |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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