Friday, July 21, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 13

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 13
               इसके बाद नारद ने राजा चित्रकेतु के आग्रह पर उनके पुत्र के शरीर में रही जीवात्मा को वहीँ पर  बुलाया और उससे कहा कि “देखो, तुम्हारे माता-पिता कितने दुखी हो रहे हैं ? हमारा आग्रह है कि तुम अपने माता-पिता का दुःख दूर करने के लिए पुनः अपने इस शरीर में प्रवेश करो और राज्य को भोगो |” इस बात को सुनकर राज-पुत्र की जीवात्मा ने कहा कि “मैं न जाने अपने कर्मों के अनुसार कितनी योनियों में अनंत समय से घूम रहा हूँ | उनमें से किस-किस जन्म में ये मेरे माता-पिता हुए हैं, पहले यह बतलाइए ? प्रत्येक शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता अलग-अलग होते हैं, उनमें मोह रखने से क्या लाभ ? इस भौतिक संसार में जीवात्मा का कोई स्थाई रूप से माता-पिता अथवा पुत्र नहीं होता | अब मैं पुनः इस शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने कर्मों के अनुसार इस शरीर को जितना भोगना था, भोग चूका हूँ | अब मैं अपने कर्मों के अनुसार नए शरीर को प्राप्त करने के लिए आगे की यात्रा पर निकल चूका हूँ |” इस प्रकार राज-दम्पति को अपने राजपुत्र के मोह से बाहर निकालने के लिए अनेक बातें कहकर जीवात्मा वापिस चला गया | राजा चित्रकेतु और महारानी कृतद्युति जीवात्मा के द्वारा कही गई बाते सुनकर विस्मित रह गए | तत्पश्चात देवर्षि नारद ने उन्हें संसार की अनित्यता और परमात्मा के नित्य होने का ज्ञान दिया | सांसारिक सम्बन्ध का कारण पूर्वजन्म के कर्मों को बताते हुए इन्हें अस्थाई और केवल उन कर्मों के भोग प्राप्त करने तक का होना बताया | इस प्रकार राजा चित्रकेतु ज्ञान पाकर शोकमुक्त होकर परमात्मा के सम्मुख हो गए |    
                   जिस प्रकार राजा चित्रकेतु अचानक अपने पुत्र की मृत्यु की घटना से दुखी होकर संसार से विमुख हो गए और महर्षि अंगिरा और नारद जैसे ज्ञानी पुरुषों का सानिध्य पाकर परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आंदोलित हो गए उसी प्रकार इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसी घटना से दुखी होकर संसार से अनायास ही विमुख हो सकता है | इसके बाद उसे आवश्यकता रहती है, किसी ऐसे ज्ञानी पुरुष से मिलन की, जो उसका मार्गदर्शन करने के लिए आदर्श गुरु की भूमिका निभा सके |
                      दूसरी ओर, धीरे-धीरे संसार से विमुख होना, प्रकृति के गुणों के अधीन होता है | हमारा शरीर और इन्द्रियां प्रकृति के गुणों के अधीन हैं | जब अवस्थानुसार शारीरिक क्षय होना प्रारम्भ होता है तब इन्द्रियां भी शिथिल होने लगती है | ध्यान रहे, इन्द्रियों के शिथिल होने से मेरा आशय मन के शिथिल होने से नहीं है | मन कभी भी बुढा नहीं होता है | शरीर और इन्द्रियों की शिथिलता को समय रहते जो व्यक्ति पहचान लेता है, वह संसार से धीरे-धीरे अपने आपको निवृत कर परमात्मा की ओर प्रवृत हो सकता है | मन में उठ रही कामनाएं कभी कम अथवा समाप्त नहीं हो सकती | अतः मन और कामनाओं पर अधिक ध्यान नहीं दे और तेजी से होते जा रहे शारीरिक क्षय को देखते हुए उचित निर्णय लें | मन और कामनाओं की अवहेलना करने से उन पर धीरे-धीरे नियंत्रण स्थापित हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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