यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 18
आनंद के इस चरण पर आकर साधक की सभी
कामनाएं तिरोहित हो जाती है, यहाँ तक कि गोविन्द को पाने की कामना भी | जब आप अपने
लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, तब आप लक्ष्य से अलग बने नहीं रह सकते बल्कि आप उसी लक्ष्य
के आत्मसात हो जाते हैं | साधक का साध्य के साथ मिलन होते ही साधक मिट जाता है | आत्मा
का परमात्मा के साथ मिलन हो जाने पर एक केवल परमात्मा ही शेष रह जाता है | इस प्रकार
आनंद की अवस्था को उपलब्ध हो जाने पर स्वयं का अर्थात ‘मैं’ का अंत हो जाता है | राग-द्वेष,
सुख-दुःख, मान-अपमान, जन्म-मृत्यु, मोह, मद, भय आदि तो ‘मैं’ में ही तो रहते हैं और
उस ‘मैं’ के कारण ही होते हैं | गुरु ने आपके ‘मैं’ को समाप्त कर दिया | ‘मैं’ की समाप्ति
ही गोविन्द की प्राप्ति है और इस आध्यात्मिक यात्रा का अंत भी | आनंद की अवस्था में
न कोई बंधन है और न ही किसी भी प्रकार की मुक्ति | बंधन रहता है, तभी तक मुक्ति की
चाह रहती है, एक बार बंधन टूटा कि मुक्ति की चाह भी समाप्त हो गई | आनंद की अवस्था
में न तो जन्म है और न ही मृत्यु | जब जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं है तो इसका
अर्थ है कि फिर पुनर्जन्म भी संभव नहीं है | इस आवागमन मिट जाने वाली अवस्था को हम
आध्यात्मिक यात्रा का अंत कह सकते हैं |
आनंद की प्राप्ति
आपको सभी प्रकार के भय से भी मुक्त कर देती है | मृत्यु का भय सबसे बड़ा भय है | शारीरिक
मोह के कारण मृत्यु का भय पैदा होता है, सांसारिक मोह के कारण दुःख पैदा होने का भय
होता है, पारिवारिक मोह के कारण कुछ न कुछ खो जाने का भय रहता है | इस भय से मुक्त
होना तभी संभव है, जब आप वास्तविक ज्ञान अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए हों | आत्म-ज्ञान
को उपलब्ध हो जाना ही परमात्मा हो जाना है, गोविन्द को पा लेना है | आत्म-ज्ञान आपको
सभी प्रकार के भय से मुक्त कर देता है | अतः गुरु कहते हैं कि आलोकित होकर भी संतुष्ट
नहीं होना है | आलोक को जीवन में उतारकर आनंद की अवस्था को उपलब्ध होना है | आनंदित
होना अर्थात परमात्मा हो जाना, गोविन्द तक की यात्रा पूरी कर लेना | सांसारिक यात्रा
का समापन नहीं हो सकता परन्तु इस गोविन्द तक की यात्रा का समापन अवश्य संभव है | इस
प्रकार की यात्रा के समापन का नाम ही कैवल्य है, निर्वाण है,मोक्ष है, शून्य हो
जाना है, अनंत को पा लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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