यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 12
इस बात को स्पष्ट करने के लिए भागवत में वर्णित राजा चित्रकेतु का वृतांत
मैं आपको बताना चाहूँगा | राजा चित्रकेतु
के कोई संतान नहीं थी | वृद्धावस्था
जीवन के द्वार पर खड़ी थी | सभी रानियों के
मन में पुत्र प्राप्ति की कामना थी | महर्षि अंगिरा
के द्वारा यज्ञ किया गया और उस यज्ञ का प्रसाद सबसे बड़ी रानी कृतद्युति को देते
हुए महर्षि अंगिरा ने राजा चित्रकेतु को कहा कि हे ! राजन, होने वाला पुत्र तुम्हें हर्ष और शोक दोनों देगा | समय पाकर रानी कृतद्युति के पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे राजा चित्रकेतु को बड़ी
प्रसन्नता हुई | पुत्र होने के बाद अन्य
रानियाँ बड़ी रानी और राजा से द्वेष रखने लगी | इसी द्वेष भावना से अन्य सभी रानियों ने मिलकर नन्हें से राजकुमार को विष दे
दिया, जिससे उसकी तत्काल ही
मृत्यु हो गई | इस घटना से विकल होकर राजा
चित्रकेतु और महारानी कृतद्युति विलाप करने लगे |
उसी समय महर्षि अंगिरा और नारद मुनि वहां पहुँच गए | उन्होंने दोनों को बहुत प्रकार से समझाया और कहा कि जिस बालक के लिए तुम दोनों
इतना शोक कर रहे हो वह बालक इस जन्म और पूर्व के जन्मों में तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? अगले जन्मों में तुम्हारा
उसके साथ क्या सम्बन्ध होगा ? परन्तु
राज-दम्पति उनकी प्रत्येक बात को अतिशय दुःख के कारण अनसुना कर रहे थे | तब अंगिरा ऋषि ने राजा चित्रकेतु को कहा -
अधुना पुत्रिणा
तापो भवतैवानुभूयते |
एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पदः ||
शब्दादयश्च विषयाश्चला राज्यविभूतयः |
मही राज्यं बलं कोशो भृत्यामात्या: सुहृज्जना: ||भागवत-6/15/21-22||
अर्थात राजन ! तुम अब अनुभव कर रहे हो न कि पुत्रवानों को
कितना दुःख होता है ? यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकार के ऐश्वर्य, संपतियां, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्य वैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य (राजा का मंत्री,सहचर) सगे-सम्बन्धी, इष्ट मित्र आदि
सबके लिए है; क्योंकि वे सब अनित्य हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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