यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 17
स्वयं के प्रकाशित होने का अनुभव
एक साधक को स्वयंमेव हो जाता है, इसको पहचान लेने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता
नहीं होती | आचार-विचार, आहार-व्यवहार आदि सब कुछ एक दम से बदल जाते हैं | संसार से
किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रह जाता है और संसार में बने भी रह सकते हैं | आलोकित
व्यक्ति के लिए संसार केवल बाहर ही होता है, भीतर वह एक दम शांत और संसार से अप्रभावित
रहता है | इस आलोकित अवस्था में आकर भी संतुष्ट नहीं होना है, यही गुरु कहता है | आलोकित
हो जाने के बाद भी उससे ऊपर का एक चरण और है, जो आपको गोविन्द तक ले जाता है | गुरु
द्वितीय चरण तक आपके साथ रहता है परन्तु तीसरे चरण में आपको स्वयं ही प्रवेश करना होगा
| गुरु ने आपको आंदोलित कर दिया, तत्पश्चात आपको आलोकित कर दिया, अब उस आलोक के साथ
आपको तीसरे चरण में प्रवेश करना होगा | इस तीसरे चरण अथवा अवस्था का नाम है, आनन्दित
होना |
तृतीय चरण- आनन्दित होना –
गुरु से गोविद तक की यात्रा का अंतिम चरण है- आनंदित होना |
आनंद की अवस्था वह निर्द्वंद्व की अवस्था है जहाँ पहुंचकर एक साधक सिद्ध हो जाता है
| आलोक से आनंद तक की दूरी बहुत ही छोटी सी है, परन्तु एक साधक को यह छोटा सा रास्ता
अकेले ही तय करना होता है | गुरु ने आपको आलोकित कर दिया परन्तु आनन्दित आपको स्वयं
अपने स्तर से होना होगा | आनंद उस द्वंद्व रहित अवस्था का नाम है, जहाँ साधक सभी द्वन्द्वों
के पार चला जाता है | इस अवस्था को उपलब्ध होकर संसार में रहकर भी साधक संसार से अलग
बना रहता है | उसे संसार के द्वंद्व विचलित नहीं करते | राग-द्वेष, सुख-दुःख, पाप-पुण्य,
हानि-लाभ आदि किसी भी प्रकार के विकार उसके भीतर नहीं रह सकते और न ही फिर प्रवेश
कर सकते हैं | सभी प्रकार के मान-सम्मान, अपमान, मद, मोह, अहंकार आदि का लेश मात्र
अंश भी उसके भीतर नहीं रहता | यह आनन्द की अवस्था है | सांसारिकता से आध्यात्मिकता
की यात्रा का समापन आनंद के इस चरण पर पहुंचकर हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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