Tuesday, July 25, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 17

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 17 
                    स्वयं के प्रकाशित होने का अनुभव एक साधक को स्वयंमेव हो जाता है, इसको पहचान लेने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती | आचार-विचार, आहार-व्यवहार आदि सब कुछ एक दम से बदल जाते हैं | संसार से किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रह जाता है और संसार में बने भी रह सकते हैं | आलोकित व्यक्ति के लिए संसार केवल बाहर ही होता है, भीतर वह एक दम शांत और संसार से अप्रभावित रहता है | इस आलोकित अवस्था में आकर भी संतुष्ट नहीं होना है, यही गुरु कहता है | आलोकित हो जाने के बाद भी उससे ऊपर का एक चरण और है, जो आपको गोविन्द तक ले जाता है | गुरु द्वितीय चरण तक आपके साथ रहता है परन्तु तीसरे चरण में आपको स्वयं ही प्रवेश करना होगा | गुरु ने आपको आंदोलित कर दिया, तत्पश्चात आपको आलोकित कर दिया, अब उस आलोक के साथ आपको तीसरे चरण में प्रवेश करना होगा | इस तीसरे चरण अथवा अवस्था का नाम है, आनन्दित होना |
  तृतीय चरण- आनन्दित होना –

                गुरु से गोविद तक की यात्रा का अंतिम चरण है- आनंदित होना | आनंद की अवस्था वह निर्द्वंद्व की अवस्था है जहाँ पहुंचकर एक साधक सिद्ध हो जाता है | आलोक से आनंद तक की दूरी बहुत ही छोटी सी है, परन्तु एक साधक को यह छोटा सा रास्ता अकेले ही तय करना होता है | गुरु ने आपको आलोकित कर दिया परन्तु आनन्दित आपको स्वयं अपने स्तर से होना होगा | आनंद उस द्वंद्व रहित अवस्था का नाम है, जहाँ साधक सभी द्वन्द्वों के पार चला जाता है | इस अवस्था को उपलब्ध होकर संसार में रहकर भी साधक संसार से अलग बना रहता है | उसे संसार के द्वंद्व विचलित नहीं करते | राग-द्वेष, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, हानि-लाभ आदि किसी भी प्रकार के विकार उसके भीतर नहीं रह सकते और न ही फिर प्रवेश कर सकते हैं | सभी प्रकार के मान-सम्मान, अपमान, मद, मोह, अहंकार आदि का लेश मात्र अंश भी उसके भीतर नहीं रहता | यह आनन्द की अवस्था है | सांसारिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा का समापन आनंद के इस चरण पर पहुंचकर हो जाता है |
क्रमशः 
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

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