यात्रा – गुरु
से गोविन्द तक – 20
गोविन्द (सच्चिदानंदघन ) –
गोविन्द, परम-ब्रहम, इस संसार का
आधार, जो ब्रह्माण्ड के आगमन से पूर्व भी था और ब्रह्माण्ड के समापन के बाद भी बना
रहेगा | वही एक मात्र ऐसा है, जिसे जानना असंभव है | उसे कुछ सीमा तक जाना जा सकता
है परन्तु सम्पूर्ण रूप से जानना लगभग असंभव है | जानने के स्थान पर उसे मान लेना अधिक
उचित है | फिर भी जिज्ञाषु मन किसी के वश में कहाँ रहता है ? वह उसे जानने का प्रयास
करता ही है और जानने के लिए किये जा रहे प्रयास करते-करते जब वह थक जाता है, तब उसे
समझ में आता है कि इसे जाना नहीं जा सकता | जिसे जाना नहीं जा सकता है, उसी का नाम
परमात्मा है, वही गोविन्द है | अंततः उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना ही उसे जानना
है | उस का अस्तित्व आनंदित होकर ही स्वीकार किया जा सकता है | दुःख में कहने को
हम उसकी पूजा, अर्चना, पार्थना आदि सब कुछ करते अवश्य है परन्तु फिर भी उसके
अस्तित्व पर शंका करते हैं, उस पर विश्वास नहीं करते | अगर उस पर हमारा विश्वास
होता तो फिर केवल उसी की शरण होते, अपने दुःख को दूर करने के लिए, अपनी कामनाओं की
पूर्ति के लिए इधर उधर नहीं दौड़ते | हमें स्वीकार करना होगा कि एक मात्र वही इस ब्रह्माण्ड
का सत्य है, वही चैतन्य है और वही आनंद है | सत्य, चित्त और आनंद तीनों उसी एक में
है, इसलिए उन्हें सच्चिदानंदघन (सत+चित्त+आनंद) कहा जाता है |
हमारा गुरु भी तो उसे उसके इन तीनों स्वरूपों के
सहित जानता है और गुरु ही उसको हमें जनाता है | जो जिसको जानता है वह सदैव उस जाने
जाने वाले से बड़ा होता है, क्योंकि वह उसके द्वारा जाना जा चूका है | यही कारण है कि
गुरु को गोविन्द से बड़ा माना गया है | गुरु के पास तभी जाया जाता है, जब हमारी मुमुक्षा
इतनी अधिक तीव्र हो जाती है कि हम उसे जानने के लिए व्यथित हो जाते हैं | गुरु हमें
सच्चिदानंद तक तभी ले जा सकता है, जब वह उससे परिचित हो चूका हो | हमने पूर्व में गुरु
के साथ गोविन्द तक की यात्रा के विभिन्न चरणों की यात्रा संपन्न की है | क्या आपने
इस यात्रा में अनुभव किया है कि यह यात्रा संसार से अध्यात्म की यात्रा है, स्वयं
को जानने की यात्रा है, बाहर से भीतर की यात्रा है | इस यात्रा के सभी चरण हमें
संसार से विमुख कर स्वयं की ओर उन्मुख करते है | तो आइये ! इन स्वय से सम्बंधित तीनों
चरणों की यात्रा के गोविन्द से जुड़े होने के विषय पर कुछ चर्चा करें |
प्रथम चरण है आंदोलित होना
| आंदोलित किसके लिए होना ? व्यक्ति संसार से विमुख इसीलिए होता है क्योंकि वह सत्य
को जानना चाहता है, स्वयं से परिचित होना चाहता है | सत्य को जानने की तड़प ही उसे आंदोलित
कर देती है | यह तड़प उसे सच्चे गुरु की खोज में लगा देती है | सच्चा गुरु वही होता
है जो उसके सत्य की खोज की चाह को तीव्रता प्रदान कर दे, सत्य को प्राप्त करने के लिए
उसको और अधिक आंदोलित कर दे | आन्दोलन सत्य को जानने के लिए ही क्यों ? उसका कारण है
कि परमात्मा का स्वरुप भी सत्य है | सत्य ही आलोक है | प्रारम्भिक चरण में सत्य को
पाना ही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए, तभी हम सच्चिदानंदघन तक पहुँच सकते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश
काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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