Sunday, July 30, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 22

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 22 
                इस प्रकार सत्य से आनंद तक की यात्रा में गुरु की भूमिका क्या है ? गुरु की भूमिका है, हमें अपने होने का उद्देश्य स्पष्ट करने में, हम जो स्वयं के स्वरुप को विस्मृत कर चुके हैं, उस स्मृति को पुनः लौटाने में | गुरु उसके लिए ज्ञान को साधन बनाता है | वह उस ज्ञान को देकर हमें स्वयं से ही हमारा परिचय करा देता है | इस प्रकार हमें ‘स्व’ का ज्ञान हो जाता है | ‘स्व’ के ज्ञान को आत्म-ज्ञान होना अथवा आत्म-बोध होना कहते हैं | आत्म-ज्ञान होते ही हम स्वयं ही वह हो जाते हैं, जिसके अतिरिक्त इस संसार में अन्य कुछ भी नहीं है | वही प्रकृति है, वही पुरुष है, वही गुरु है, वही शिष्य है और इस प्रकार हम भी वही है – गोविन्द | इस  प्रकार इस गुरु से गोविन्द तक की यात्रा हमारे स्वयं को स्वयं का ज्ञान हो जाने की यात्रा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
                 हमें गोविन्द तक पहुँचने के लिए आंदोलित होना हो अथवा आलोकित होना, उसके लिए किसी ज्ञानी व्यक्ति की आवश्यकता रहेगी ही |  ज्ञान आप किसी भी माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उस ज्ञान से आलोकित तभी हो सकते हैं, जब गुरु का सानिध्य मिलेगा | आत्म-ज्ञान हो जाना कोई साधारण बात नहीं है |   इस संसार में अधिकांश मनुष्य तो ऐसे है, जिनसे जीवन में आत्म-कल्याण की चर्चा तक सुनने को नहीं मिलती | वे ऐसे वातावरण में रहते हैं, जहाँ 24 घंटे सांसारिक विषय-भोग के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर चिंतन होता ही नहीं है | शेष रहे बहुत ही कम लोगों में से किसी को अगर कहीं सत्संग में जाने का अवसर सुलभ भी हो जाता है, तो वापिस लौटकर वे अपने उसी संसार के भोगों में रम जाते है , सत्संग में मिले ज्ञान पर चिंतन करने का समय तक उनके पास नहीं है |  अगर एकाध को चिंतन का समय मिल भी जाता है, तो वे उस आत्मतत्व के बारे में स्वयं समझ नहीं सकते | ऐसे लोगों को ही वास्तव में गुरु की आवश्यकता होती है |
                  कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद है, जिसमें नचिकेता यम से आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहता है परन्तु यम उसे आसानी से वह ब्रह्म-विद्या प्रदान नहीं करते | पहले वे नचिकेता की परीक्षा लेते हैं कि कहीं उसकी विषय-भोगों में आसक्ति तो नहीं है | जब वे संतुष्ट हो जाते हैं, तब नचिकेता को आत्मज्ञान देते हुए गुरु की आवश्यकता बतलाते हैं | यम कहते हैं –
न नरेणावरेण प्रोक्त एष
      सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः |
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति
        अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् || कठोपनिषद-1/2/8||
अर्थात अल्पज्ञ मनुष्य के द्वारा बतलाये जाने पर और बहुत प्रकार से चिंतन किये जाने पर भी यह आत्म-ज्ञान समझ में आ जाये; ऐसा नहीं है | किसी दूसरे ज्ञानी पुरुष (गुरु) के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में मनुष्य का प्रवेश नहीं हो पाता , क्योंकि यह अत्यंत सूक्ष्म वस्तु से भी अधिक सूक्ष्म है और किसी भी तर्क से अतीत है |   
              इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुरु के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है जो कि मनुष्य को आत्म-ज्ञान करा सके | यही कारण है कि गुरु को गोविन्द से ऊपर माना गया है |
कल समापन कड़ी  
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

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