Monday, July 31, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक-समापन कड़ी

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक -23 समापन कड़ी
सार-संक्षेप-
            गुरु से गोविन्द तक की यात्रा, एक ऐसी यात्रा है जो मानव जीवन के मूल उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है | यह यात्रा संसार से एक दम विपरीत दिशा की यात्रा है | बिना किसी के मार्गदर्शन के यह यात्रा संपन्न होनी लगभग असंभव है | मार्गदर्शक दो प्रकार के हो सकते हैं- शास्त्र अथवा गुरु | शास्त्र आपको पुस्तकीय ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, आपको आंदोलित कर सकते हैं परन्तु गुरु अपने अनुभव के आधार पर आपका मार्गदर्शन करता है | गुरु ने शास्त्रों को अपने ऊपर आजमाया है, जिससे उसके अनुभव की सार्थकता है | उसने केवल प्रायोगिक ज्ञान पर पुस्तक नहीं पढ़ी है बल्कि अपनी प्रयोगशाला में उन्हें प्रयोग कर सिद्ध किया है | वह जिस प्रकार से आपके पुस्तकीय ज्ञान को प्रायोगिक ज्ञान में परिवर्तित करता है, वह आपकी इस यात्रा को सुगम बनाता है | इसलिए गुरु की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता |
              गुरु से इस यात्रा का मार्गदर्शन तभी मिल सकता है, जब आप संसार से विमुख होना प्रारम्भ कर देते हैं | इसमे आपको गुरु सहायता करता है | उसके द्वारा दिए गए निर्देश आपको यात्रा पथ पर आगे बढ़ने में सहायक सिद्ध होते हैं | जब आप सत्य को जानने के लिए तैयार हो जाते हैं तब गुरु आपको ज्ञान देकर आलोकित कर देता है | इस चैतन्य की अवस्था को उपलब्ध होकर आप आनंदित हो उठते हैं | आप सत्य को जानकर चेतन हो जाते हैं, साथ ही साथ आप आनन्दित भी हो उठते हैं | इस चरण तक पहुंचकर आप स्वयं ही सच्चिदानंद हो जाते हैं, जो कि परमात्मा का भी स्वरुप है | इस प्रकार आप स्वयं ही गुरु की सहायता से गोविन्द हो जाते हैं | यही आत्म-बोध है और इस गुरु से गोविन्द तक की यात्रा का समापन भी |
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरु: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||
तो, अब आप सब तैयार हैं न, इस यात्रा के लिए – गुरु से गोविन्द तक की यात्रा के लिए | तो आइये चलें, गुरु के साथ, गोविन्द तक पहुँचने के लिए इस यात्रा पर अग्रसर होने की तैयारी करने के लिए अर्थात गुरु से कुछ सूत्र जानने के लिए, नई श्रृंखला-‘गुरु के सूत्र’ में |
आज स्वदेश के लिए रवाना हो रहा हूँ, अतः नई श्रृंखला की प्रथम कड़ी के प्रकाशन में 4-5 दिन का समय लग सकता है | आप सभी का आभार |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Sunday, July 30, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 22

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 22 
                इस प्रकार सत्य से आनंद तक की यात्रा में गुरु की भूमिका क्या है ? गुरु की भूमिका है, हमें अपने होने का उद्देश्य स्पष्ट करने में, हम जो स्वयं के स्वरुप को विस्मृत कर चुके हैं, उस स्मृति को पुनः लौटाने में | गुरु उसके लिए ज्ञान को साधन बनाता है | वह उस ज्ञान को देकर हमें स्वयं से ही हमारा परिचय करा देता है | इस प्रकार हमें ‘स्व’ का ज्ञान हो जाता है | ‘स्व’ के ज्ञान को आत्म-ज्ञान होना अथवा आत्म-बोध होना कहते हैं | आत्म-ज्ञान होते ही हम स्वयं ही वह हो जाते हैं, जिसके अतिरिक्त इस संसार में अन्य कुछ भी नहीं है | वही प्रकृति है, वही पुरुष है, वही गुरु है, वही शिष्य है और इस प्रकार हम भी वही है – गोविन्द | इस  प्रकार इस गुरु से गोविन्द तक की यात्रा हमारे स्वयं को स्वयं का ज्ञान हो जाने की यात्रा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |
                 हमें गोविन्द तक पहुँचने के लिए आंदोलित होना हो अथवा आलोकित होना, उसके लिए किसी ज्ञानी व्यक्ति की आवश्यकता रहेगी ही |  ज्ञान आप किसी भी माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उस ज्ञान से आलोकित तभी हो सकते हैं, जब गुरु का सानिध्य मिलेगा | आत्म-ज्ञान हो जाना कोई साधारण बात नहीं है |   इस संसार में अधिकांश मनुष्य तो ऐसे है, जिनसे जीवन में आत्म-कल्याण की चर्चा तक सुनने को नहीं मिलती | वे ऐसे वातावरण में रहते हैं, जहाँ 24 घंटे सांसारिक विषय-भोग के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर चिंतन होता ही नहीं है | शेष रहे बहुत ही कम लोगों में से किसी को अगर कहीं सत्संग में जाने का अवसर सुलभ भी हो जाता है, तो वापिस लौटकर वे अपने उसी संसार के भोगों में रम जाते है , सत्संग में मिले ज्ञान पर चिंतन करने का समय तक उनके पास नहीं है |  अगर एकाध को चिंतन का समय मिल भी जाता है, तो वे उस आत्मतत्व के बारे में स्वयं समझ नहीं सकते | ऐसे लोगों को ही वास्तव में गुरु की आवश्यकता होती है |
                  कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद है, जिसमें नचिकेता यम से आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहता है परन्तु यम उसे आसानी से वह ब्रह्म-विद्या प्रदान नहीं करते | पहले वे नचिकेता की परीक्षा लेते हैं कि कहीं उसकी विषय-भोगों में आसक्ति तो नहीं है | जब वे संतुष्ट हो जाते हैं, तब नचिकेता को आत्मज्ञान देते हुए गुरु की आवश्यकता बतलाते हैं | यम कहते हैं –
न नरेणावरेण प्रोक्त एष
      सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः |
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति
        अणीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात् || कठोपनिषद-1/2/8||
अर्थात अल्पज्ञ मनुष्य के द्वारा बतलाये जाने पर और बहुत प्रकार से चिंतन किये जाने पर भी यह आत्म-ज्ञान समझ में आ जाये; ऐसा नहीं है | किसी दूसरे ज्ञानी पुरुष (गुरु) के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में मनुष्य का प्रवेश नहीं हो पाता , क्योंकि यह अत्यंत सूक्ष्म वस्तु से भी अधिक सूक्ष्म है और किसी भी तर्क से अतीत है |   
              इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुरु के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है जो कि मनुष्य को आत्म-ज्ञान करा सके | यही कारण है कि गुरु को गोविन्द से ऊपर माना गया है |
कल समापन कड़ी  
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, July 29, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 21

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 21
                   इस यात्रा का द्वितीय चरण है- आलोकित होना | परमात्मा सत्य होने के साथ साथ चैतन्य भी है | चैतन्य का दूसरा नाम आलोक भी है | गुरु हमें गोविन्द तक की इस यात्रा में हमें ज्ञान देकर आलोकित करता है | ज्ञान वह जो परमात्मा के चैतन्य स्वरुप से हमें परिचित करा दे | जब हमें गुरु चैतन्य कर देता है तब हम उस चैतन्य स्वरुप के ही एक अंश अर्थात स्वयं से परिचित हो जाते हैं | ऐसा नहीं है कि हम इससे पहले उस चैतन्य के अंश नहीं थे, हम सदैव ही उस चैतन्य के अंश है परन्तु सांसारिक विषय भोगों में लिप्तता के कारण हम अपने उस स्वरुप को विस्मृत कर चुके हैं | गुरु हमारी उसी विस्मृति को पुनः स्मृति में परिवर्तित कर देता है |
                 गुरु से गोविन्द तक की इस यात्रा का तृतीय चरण है- आनंदित होना | गुरु हमें हमारी स्मृति लौटा देता है | स्मृति को पाकर हम सभी द्वंद्वों से परे होकर निर्द्वंद्व हो जाते हैं, भय-मुक्त हो जाते हैं, सभी गुणों से परे होकर गुणातीत हो जाते हैं | इसी निर्द्वंद्व, गुणातीत और भय-मुक्त अवस्था का नाम है आनन्दित होना | आनंद स्वरुप भी परमात्मा का स्वरुप है | इस प्रकार चैतन्य करने के बाद गुरु हमें आनन्द प्राप्त करने के लिए स्वयं से भी मुक्त कर देता है | इसीलिए एक सच्चा गुरु कभी भी हमें स्वयं के साथ चिपके रहने को विवश नहीं करता है बल्कि वह स्वयं से भी हमें मुक्त कर देता है | आनंद मुक्ति में ही है, बंधन में नहीं | जो गुरु स्वयं के साथ आपको बांध लेता है, वह आपको आनन्दित नहीं होने देता | इसीलिए गुरु कहता है कि प्रथम चरण को पाकर ही संतुष्ट न होना और न ही आलोकित होकर संतुष्ट हो जाना | दोनों से भी एक तीसरी अवस्था और है, जिसे पाना अत्यावश्यक है और वह अवस्था है, आनंद की, जो शिष्य को अकेले ही आगे बढकर प्राप्त करनी होती है | जिसको सभी बंधन तोड़कर, सभी कामनाओं को त्यागकर ही प्राप्त किया जा सकता है |
                   इस प्रकार हम देखते हैं कि शिष्य ने गुरु से प्रथम चरण में सत्य को पाने का प्रयास किया, दूसरे चरण में अपने सत्य और चैतन्य स्वरुप होने का ज्ञान प्राप्त किया और अंतिम चरण में सभी प्रकार के बंधन और कामनाओं को त्यागकर आनन्द को प्राप्त हुआ | इस प्रकार वह सत्य, चैतन्यता और आनन्द तीनों को पाकर स्वयं ही सच्चिदानंद हो गया है, जो कि साक्षात् परमात्मा का स्वरुप है | सच्चिदानंद स्वयं गोविन्द ही है | इस प्रकार एक व्यक्ति का स्वयं ही गोविद हो जाना है, एक आत्मा का अपने वास्तविक स्वरुप को जानकर परमात्मा हो जाना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, July 28, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 20

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 20
  गोविन्द (सच्चिदानंदघन ) –
                गोविन्द, परम-ब्रहम, इस संसार का आधार, जो ब्रह्माण्ड के आगमन से पूर्व भी था और ब्रह्माण्ड के समापन के बाद भी बना रहेगा | वही एक मात्र ऐसा है, जिसे जानना असंभव है | उसे कुछ सीमा तक जाना जा सकता है परन्तु सम्पूर्ण रूप से जानना लगभग असंभव है | जानने के स्थान पर उसे मान लेना अधिक उचित है | फिर भी जिज्ञाषु मन किसी के वश में कहाँ रहता है ? वह उसे जानने का प्रयास करता ही है और जानने के लिए किये जा रहे प्रयास करते-करते जब वह थक जाता है, तब उसे समझ में आता है कि इसे जाना नहीं जा सकता | जिसे जाना नहीं जा सकता है, उसी का नाम परमात्मा है, वही गोविन्द है | अंततः उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना ही उसे जानना है | उस का अस्तित्व आनंदित होकर ही स्वीकार किया जा सकता है | दुःख में कहने को हम उसकी पूजा, अर्चना, पार्थना आदि सब कुछ करते अवश्य है परन्तु फिर भी उसके अस्तित्व पर शंका करते हैं, उस पर विश्वास नहीं करते | अगर उस पर हमारा विश्वास होता तो फिर केवल उसी की शरण होते, अपने दुःख को दूर करने के लिए, अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए इधर उधर नहीं दौड़ते | हमें स्वीकार करना होगा कि एक मात्र वही इस ब्रह्माण्ड का सत्य है, वही चैतन्य है और वही आनंद है | सत्य, चित्त और आनंद तीनों उसी एक में है, इसलिए उन्हें सच्चिदानंदघन (सत+चित्त+आनंद) कहा जाता है |
                हमारा गुरु भी तो उसे उसके इन तीनों स्वरूपों के सहित जानता है और गुरु ही उसको हमें जनाता है | जो जिसको जानता है वह सदैव उस जाने जाने वाले से बड़ा होता है, क्योंकि वह उसके द्वारा जाना जा चूका है | यही कारण है कि गुरु को गोविन्द से बड़ा माना गया है | गुरु के पास तभी जाया जाता है, जब हमारी मुमुक्षा इतनी अधिक तीव्र हो जाती है कि हम उसे जानने के लिए व्यथित हो जाते हैं | गुरु हमें सच्चिदानंद तक तभी ले जा सकता है, जब वह उससे परिचित हो चूका हो | हमने पूर्व में गुरु के साथ गोविन्द तक की यात्रा के विभिन्न चरणों की यात्रा संपन्न की है | क्या आपने इस यात्रा में अनुभव किया है कि यह यात्रा संसार से अध्यात्म की यात्रा है, स्वयं को जानने की यात्रा है, बाहर से भीतर की यात्रा है | इस यात्रा के सभी चरण हमें संसार से विमुख कर स्वयं की ओर उन्मुख करते है | तो आइये ! इन स्वय से सम्बंधित तीनों चरणों की यात्रा के गोविन्द से जुड़े होने के विषय पर कुछ चर्चा करें |
                      प्रथम चरण है आंदोलित होना | आंदोलित किसके लिए होना ? व्यक्ति संसार से विमुख इसीलिए होता है क्योंकि वह सत्य को जानना चाहता है, स्वयं से परिचित होना चाहता है | सत्य को जानने की तड़प ही उसे आंदोलित कर देती है | यह तड़प उसे सच्चे गुरु की खोज में लगा देती है | सच्चा गुरु वही होता है जो उसके सत्य की खोज की चाह को तीव्रता प्रदान कर दे, सत्य को प्राप्त करने के लिए उसको और अधिक आंदोलित कर दे | आन्दोलन सत्य को जानने के लिए ही क्यों ? उसका कारण है कि परमात्मा का स्वरुप भी सत्य है | सत्य ही आलोक है | प्रारम्भिक चरण में सत्य को पाना ही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए, तभी हम सच्चिदानंदघन तक पहुँच सकते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, July 27, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 19

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 19
              सांसारिक यात्रा का समापन क्यों नहीं हो पाता है ? इस प्रश्न का उत्तर केवल एक ही है – संसार के प्रति हमारी आसक्ति | हमारी देह, हमारी धन-सम्पति, हमारा परिवार, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि में हमारी आसक्ति ही कामनाओं के अनवरत चलते रहने वाले चक्र की जननी है | हमारे भीतर सदैव उठती रहने वाली विभिन्न प्रकार की कामनाएं हमें संसार के साथ बांधे रखती है | मनुष्य के जीवन में सांसारिक कामनाओं का कभी भी अंत नहीं हो सकता, इसीलिए संसार की यात्रा का समापन भी नहीं है | जब कामनाएं एक जीवन काल में पूरी नहीं होती, तो उन्हीं कामनाओं को पूरा करने के लिए दूसरा जन्म लेना पड़ता है | नया जन्म पाकर भी कौन सी सभी कामनाएं पूरी हो जाती है ? समस्त कामनाएं पूरी इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि एक कामना पूरी होते ही फिर एक नई कामना का जन्म हो जाता है | फिर एक जन्म, एक और जन्म, इस प्रकार यह अंतहीन शारीरिक जन्म-मरण अर्थात शरीर परिवर्तन का चक्र सतत चलता रहता है |
              आध्यात्मिक यात्रा का समापन निश्चित है क्योंकि इसमे कामना केवल गोविन्द को पाने की है और वह कामना भी गुरु की कृपा से शीघ्र ही पूरी हो जाती है | आंदोलित होने से लेकर आनन्दित होने तक की यात्रा में सभी कामनाएं एक एक कर समाप्त होती जाती है और अंत में गोविन्द को प्राप्त करने की कामना भी गिर जाती है | सभी कामनाओं का समापन हो जाना ही आध्यात्मिक यात्रा का समापन है | इस आध्यात्मिक यात्रा को ही गुरु से गोविन्द तक की यात्रा कहा जाता है | गुरु को जान लिया, गुरु के प्रभाव को जान लिया, उसके ज्ञान को जान लिया, फिर भी यह जानना अभी भी शेष है कि आखिर हमें गोविद ही क्यों चाहिए ? गोविन्द कौन है ? क्यों हमें गोविन्द को जानकर अपनी यात्रा का समापन कर देना चाहिए ? आइये ! गोविन्द को जानने के लिए उसकी तरफ चलें |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, July 26, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक -18

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 18
              आनंद के इस चरण पर आकर साधक की सभी कामनाएं तिरोहित हो जाती है, यहाँ तक कि गोविन्द को पाने की कामना भी | जब आप अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, तब आप लक्ष्य से अलग बने नहीं रह सकते बल्कि आप उसी लक्ष्य के आत्मसात हो जाते हैं | साधक का साध्य के साथ मिलन होते ही साधक मिट जाता है | आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन हो जाने पर एक केवल परमात्मा ही शेष रह जाता है | इस प्रकार आनंद की अवस्था को उपलब्ध हो जाने पर स्वयं का अर्थात ‘मैं’ का अंत हो जाता है | राग-द्वेष, सुख-दुःख, मान-अपमान, जन्म-मृत्यु, मोह, मद, भय आदि तो ‘मैं’ में ही तो रहते हैं और उस ‘मैं’ के कारण ही होते हैं | गुरु ने आपके ‘मैं’ को समाप्त कर दिया | ‘मैं’ की समाप्ति ही गोविन्द की प्राप्ति है और इस आध्यात्मिक यात्रा का अंत भी | आनंद की अवस्था में न कोई बंधन है और न ही किसी भी प्रकार की मुक्ति | बंधन रहता है, तभी तक मुक्ति की चाह रहती है, एक बार बंधन टूटा कि मुक्ति की चाह भी समाप्त हो गई | आनंद की अवस्था में न तो जन्म है और न ही मृत्यु | जब जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं है तो इसका अर्थ है कि फिर पुनर्जन्म भी संभव नहीं है | इस आवागमन मिट जाने वाली अवस्था को हम आध्यात्मिक यात्रा का अंत कह सकते हैं |
             आनंद की प्राप्ति आपको सभी प्रकार के भय से भी मुक्त कर देती है | मृत्यु का भय सबसे बड़ा भय है | शारीरिक मोह के कारण मृत्यु का भय पैदा होता है, सांसारिक मोह के कारण दुःख पैदा होने का भय होता है, पारिवारिक मोह के कारण कुछ न कुछ खो जाने का भय रहता है | इस भय से मुक्त होना तभी संभव है, जब आप वास्तविक ज्ञान अर्थात आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए हों | आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाना ही परमात्मा हो जाना है, गोविन्द को पा लेना है | आत्म-ज्ञान आपको सभी प्रकार के भय से मुक्त कर देता है | अतः गुरु कहते हैं कि आलोकित होकर भी संतुष्ट नहीं होना है | आलोक को जीवन में उतारकर आनंद की अवस्था को उपलब्ध होना है | आनंदित होना अर्थात परमात्मा हो जाना, गोविन्द तक की यात्रा पूरी कर लेना | सांसारिक यात्रा का समापन नहीं हो सकता परन्तु इस गोविन्द तक की यात्रा का समापन अवश्य संभव है | इस प्रकार की यात्रा के समापन का नाम ही कैवल्य है, निर्वाण है,मोक्ष है, शून्य हो जाना है, अनंत को पा लेना है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, July 25, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 17

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 17 
                    स्वयं के प्रकाशित होने का अनुभव एक साधक को स्वयंमेव हो जाता है, इसको पहचान लेने के लिए किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती | आचार-विचार, आहार-व्यवहार आदि सब कुछ एक दम से बदल जाते हैं | संसार से किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रह जाता है और संसार में बने भी रह सकते हैं | आलोकित व्यक्ति के लिए संसार केवल बाहर ही होता है, भीतर वह एक दम शांत और संसार से अप्रभावित रहता है | इस आलोकित अवस्था में आकर भी संतुष्ट नहीं होना है, यही गुरु कहता है | आलोकित हो जाने के बाद भी उससे ऊपर का एक चरण और है, जो आपको गोविन्द तक ले जाता है | गुरु द्वितीय चरण तक आपके साथ रहता है परन्तु तीसरे चरण में आपको स्वयं ही प्रवेश करना होगा | गुरु ने आपको आंदोलित कर दिया, तत्पश्चात आपको आलोकित कर दिया, अब उस आलोक के साथ आपको तीसरे चरण में प्रवेश करना होगा | इस तीसरे चरण अथवा अवस्था का नाम है, आनन्दित होना |
  तृतीय चरण- आनन्दित होना –

                गुरु से गोविद तक की यात्रा का अंतिम चरण है- आनंदित होना | आनंद की अवस्था वह निर्द्वंद्व की अवस्था है जहाँ पहुंचकर एक साधक सिद्ध हो जाता है | आलोक से आनंद तक की दूरी बहुत ही छोटी सी है, परन्तु एक साधक को यह छोटा सा रास्ता अकेले ही तय करना होता है | गुरु ने आपको आलोकित कर दिया परन्तु आनन्दित आपको स्वयं अपने स्तर से होना होगा | आनंद उस द्वंद्व रहित अवस्था का नाम है, जहाँ साधक सभी द्वन्द्वों के पार चला जाता है | इस अवस्था को उपलब्ध होकर संसार में रहकर भी साधक संसार से अलग बना रहता है | उसे संसार के द्वंद्व विचलित नहीं करते | राग-द्वेष, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, हानि-लाभ आदि किसी भी प्रकार के विकार उसके भीतर नहीं रह सकते और न ही फिर प्रवेश कर सकते हैं | सभी प्रकार के मान-सम्मान, अपमान, मद, मोह, अहंकार आदि का लेश मात्र अंश भी उसके भीतर नहीं रहता | यह आनन्द की अवस्था है | सांसारिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा का समापन आनंद के इस चरण पर पहुंचकर हो जाता है |
क्रमशः 
प्रस्तुति - डॉ. प्रकाश काछवाल 
|| हरिः शरणम् ||

Monday, July 24, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 16

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 16
                  आलोकित होना आनंदित होने के लिए आवश्यक है | बिना आत्म-ज्ञान हुए हम स्वयं को पहचान नहीं सकते | जब तक हम स्वयं को नहीं जान पाएंगे तब तक परमात्मा को कैसे जान पाएंगे | गुरु इस गोविन्द तक की यात्रा में यही ज्ञान प्रदान करता है कि आप और परमात्मा में कोई भेद नहीं है | आत्मा और परमात्मा में किसी भी प्रकार का भेद न होना, यह सब व्यक्ति जानते हैं परन्तु इसका अनुभव कितनों को हुआ है, यह अधिक महत्वपूर्ण है | संसार में विभिन्न पुस्तकों में अथाह ज्ञान भरा पड़ा है और ऐसा भी नहीं है कि उन पुस्तकों को कोई पढ़ता नहीं है |  पढ़कर भी अगर हम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए तो ऐसा पढ़ना भी व्यर्थ है | इसीलिए पुस्तकें पढ़ लेने के बाद भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है | विभिन्न शास्त्र हमें आंदोलित कर सकते है, आलोकित नहीं | हमें आलोकित केवल वही व्यक्ति कर सकता है, जो स्वयं भी आलोकित हो चूका हो | ऐसे आलोकित व्यक्ति के पास जाने से ही हमें आत्म-ज्ञान हो सकता है |
                    गुरु हमें आलोकित होने के लिए मार्गदर्शन करता है | हमें मार्ग भी वही दिखा सकता है, जो उस मार्ग को जान चूका हो, हमें प्रकाश वही व्यक्ति दिखला सकता है, जिसके स्वयं के पास प्रकाश हो | अतः गुरु के प्रकाश में गोविन्द को जाने का मार्ग तलाश करें, गुरु को माध्यम बना लें, गोविद को पाने का | इस मनुष्य जीवन में अनेकों व्यक्ति मिल जायेंगे आपको परमात्मा का मार्ग बताने के लिए | परन्तु आत्म-ज्ञान करा देने वाला कोई विरला ही मिलेगा जो स्वयं आत्मज्ञानी हो | पुस्तकें पढ़कर सांसारिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है | एक शिक्षक भी आपको सांसारिक ज्ञान प्रदान कर सकता है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान केवल गुरु ही करा सकता है | कबीर इस बारे में कहते हैं –
पूरे सूं परचा भया सब दुःख मेल्या दूर |
निर्मल कीन्हीं आत्मा ताथै सदा हुजुर ||
अर्थात सद्गुरु की कृपा से मेरा सम्पूर्ण ब्रह्म से साक्षात्कार हो गया, उस सम्पूर्ण तत्व से मेरा परिचय हो गया | अब सारे दुःख और संसार की पीड़ा का बोध समाप्त हो गया | आत्मा समस्त आवरणों और विक्षेपों से मुक्त होकर शुद्ध हो गयी है | अब तो मैं सदैव मेरे मालिक (परमात्मा) की सेवा में ही लगा रहता हूँ |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, July 23, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 15

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 15
                प्रथम चरण के बाद साधक प्रवेश करता है, द्वितीय चरण में | आन्दोलन जब एक सीमा से अधिक बढ़ जाता है, प्यास उस जल को पाने के लिए अतिशय बढ़ जाती है, जिसको पाकर मन तृप्त हो सके तब केवल आन्दोलन ही आपको तृप्ति प्रदान नहीं कर सकता, इसीलिए आन्दोलन की इस अवस्था से भी आगे बढ़ना होगा | इस तृप्ति के लिए दूसरा चरण है- आलोकित होने का, जो केवल पहुंचे हुए गुरु के द्वारा ही संभव है |
द्वितीय चरण- आलोकित अथवा प्रकाशित होना –
                      मनुष्य इस संसार में रहते हुए ज्ञान के नाम पर इतना कूड़ा-करकट अपने मस्तिष्क में भर लेता है कि उसे अविद्या और विद्या में कोई अंतर दृष्टिगत नहीं होता | ज्ञान केवल आत्म-ज्ञान हो जाने का नाम है, शेष ज्ञान सब अपूर्ण-ज्ञान है | आत्म-ज्ञान हो जाना ही आलोकित हो जाना है | द्वितीय चरण में गुरु इस बात का ज्ञान कराता है कि ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है ? साधक वही होता है जो ज्ञान के साथ क्रीड़ा करे | ज्ञान को जो व्यक्ति बोझ समझता है, वह आत्म-ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता | ज्ञान बोझ नहीं है बल्कि ज्ञान बोझ को दूर करने, व्यक्ति को हल्का अथवा यों कह सकता हूँ कि शून्य करने का नाम है | प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के ज्ञान को पाकर बोझ तले दबा जा रहा है | उस बोझ से मुक्त होने का नाम ही ज्ञान है | हम जो कुछ (आत्मा) हैं, वास्तव में हम वह नहीं जानते बल्कि जो हम नहीं है, अपने आप को वही (शरीर) समझ बैठे हैं | इस एक दम विपरीत अर्थात उलटी बात को पूर्णतया सीधा करना ही प्रकाशित होना है |
                         ज्ञान के साथ क्रीड़ा करना अर्थात आत्म-ज्ञान के लिए ज्ञान का अवलंबन कर लक्ष्य तक पहुँचना | ज्ञान कोई खेल की वस्तु नहीं है | हाँ, यह बात एक दम सत्य है | परन्तु ज्ञान केवल पुस्तकों को पढ़कर परीक्षा को उतीर्ण कर लेना भी नहीं है | परीक्षा उतीर्ण करने के लिए पुस्तकें पढना, एक मानसिक बोझ प्रदान करता है परन्तु आत्म-ज्ञान के लिए पुस्तकों के ज्ञान के साथ नित्य क्रीड़ा करते हुए उसमें पारंगत हो जाना एक प्रकार का रुचिकर खेल ही है | गुरु इस प्रकार आलोकित होने में शिष्य की सहायता करता है | इस प्रकार गुरु से ज्ञान प्राप्त करने को लेकर कबीर कहते हैं –
पासा पकड़िया प्रेम का सारी किया शरीर |
सतगुरु दांव बताईया खेले दास कबीर ||
                      कबीर ने ज्ञान के साथ क्रीडा करने को चौपड के खेल की तरह बताया है, जिसमें प्रेम को पासा और शरीर को सारी (गोटी) बना लिया है | सद्गुरु ने इस खेल को जीतने का दांव बात दिया है | इस दांव के अनुसार ही मैं प्रेम और भक्ति का खेल खेल रहा हूँ | इस खेल से ज्ञान की प्राप्ति क्यों कर नहीं होगी ? अर्थात ज्ञान निश्चित ही प्राप्त होगा |
                  कई महापुरुष गुरु से इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने को लेकर कहते हैं कि गुरु को खूब भोगो | ‘भोग’ शब्द हो सकता है कि यहाँ अनुचित लगे क्योंकि यह शब्द हम प्रायः सांसारिक भोगों के प्रति उपयोग में लेते हैं | सांसारिक भोग हमें बंधन में डालते है जबकि गुरु से प्राप्त ज्ञान का भोग हमें मुक्त करता है | अतः इस शब्द ‘भोग’ के यहाँ किये गए उपयोग को अन्यथा न लें | गुरु को भोगने का अर्थ है जितना अधिक आप गुरु से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, उतना अधिक प्राप्त करें | इसमें गुरु को भी ज्ञान देने में अतिशय प्रसन्नता मिलती है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, July 22, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 14

  यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 14
                 पूर्व मानव-जन्म में परमात्मा को पाने के लिए किये गए प्रयास अगर उस जीवन में सफल नहीं हो पायें हों, तो इस जीवन में बाल्यकाल से ही मनुष्य संसार से विमुख हो जाता है और सत्य की खोज में लग जाता है | ऐसे बालक को गोविन्द को पाने में अथक प्रयास नहीं करना पड़ता परन्तु गुरु को पाकर इस लक्ष्य तक वह और अधिक सुगमता से पहुँच सकता है | इस प्रकार हमने देखा कि मनुष्य संसार से विमुख या तो पूर्व-जन्म के संस्कार से, तत्काल किसी घटना के कारण अथवा फिर निर्बल होते शरीर को देखकर समय रहते सावधान हो जाने से हो सकता है |     
              इस प्रकार संसार से विमुख होने के लिए एक आधार तैयार हो जाता है, जो हमें सत्य की ओर ले जा सकता है | इसके लिए मन में जो सत्य को जानने की तीव्र उत्कंठा पैदा होती है, उसे ही आंदोलित होना कहा जाता है |  ऐसा आन्दोलन, जो आपको संसार से विमुख कर परमात्मा के सम्मुख कर देता है | इस आन्दोलन का परिणाम क्या होगा ? यह सब गुरु जानता है | वही निश्चित करता है, इस आन्दोलन का परिणाम | संसार से विमुख और परमात्मा के सम्मुख कर देना ही गुरु के प्रयास का प्रथम चरण है | आधुनिक युग में ऐसे गुरु भी हैं जो सांसारिक बंधन से तो मुक्त करा नहीं सकते बल्कि अपने साथ और बांध लेते हैं | ऐसे गुरुओं से सावधान रहने की आवश्यकता है | गुरु-गीता में ऐसे ही गुरु को त्याग देने की बात कही गई है |
                   आंदोलित मन आनंद की खोज का प्रयास करता है | हमारा स्वयं का संसार और हमारी कामनाएं ही सुख दुःख का मूल कारण है | इस सुख-दुःख के द्वंद्व से बाहर निकलने का प्रयास ही आन्दोलन है | केवल सुख-दुःख के द्वंद्व से ही नहीं, राग-द्वेष, जीवन-मृत्यु, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य आदि सभी प्रकार के द्वंद्वों से परे जाने का ही यह आन्दोलन है | जब तक मनुष्य इन द्वंद्वों से बाहर निकलेगा नहीं, तब तक वह शांति को उपलब्ध नहीं हो सकता | इस बात का ज्ञान हो जाना कि ये सब द्वंद्व ही हमारी अशांति के मूलभूत कारण है और इन सबसे छुटकारा पाना आवश्यक है, ही आंदोलित होना है | यह स्थिति एक साधक की प्रारम्भिक स्थिति है | साधक, वह व्यक्ति जो साध्य अर्थात आनंद को पाने के लिए अब आंदोलित हो गया है | कई व्यक्ति साधक की इस प्रारम्भिक आवस्था में आकर ही संतुष्ट हो जाते हैं | हाँ, यह सत्य है कि आंदोलित मन सांसारिक मन से एक विपरीत अवस्था है परन्तु अभी भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने से कोसों दूर है | गुरु कहता है कि तुम इस आन्दोलन की स्थिति को प्राप्त होकर ही संतुष्ट न हो जाना | अभी भी बहुत लम्बा रास्ता तय करना शेष है |
  क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Friday, July 21, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 13

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 13
               इसके बाद नारद ने राजा चित्रकेतु के आग्रह पर उनके पुत्र के शरीर में रही जीवात्मा को वहीँ पर  बुलाया और उससे कहा कि “देखो, तुम्हारे माता-पिता कितने दुखी हो रहे हैं ? हमारा आग्रह है कि तुम अपने माता-पिता का दुःख दूर करने के लिए पुनः अपने इस शरीर में प्रवेश करो और राज्य को भोगो |” इस बात को सुनकर राज-पुत्र की जीवात्मा ने कहा कि “मैं न जाने अपने कर्मों के अनुसार कितनी योनियों में अनंत समय से घूम रहा हूँ | उनमें से किस-किस जन्म में ये मेरे माता-पिता हुए हैं, पहले यह बतलाइए ? प्रत्येक शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता अलग-अलग होते हैं, उनमें मोह रखने से क्या लाभ ? इस भौतिक संसार में जीवात्मा का कोई स्थाई रूप से माता-पिता अथवा पुत्र नहीं होता | अब मैं पुनः इस शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने कर्मों के अनुसार इस शरीर को जितना भोगना था, भोग चूका हूँ | अब मैं अपने कर्मों के अनुसार नए शरीर को प्राप्त करने के लिए आगे की यात्रा पर निकल चूका हूँ |” इस प्रकार राज-दम्पति को अपने राजपुत्र के मोह से बाहर निकालने के लिए अनेक बातें कहकर जीवात्मा वापिस चला गया | राजा चित्रकेतु और महारानी कृतद्युति जीवात्मा के द्वारा कही गई बाते सुनकर विस्मित रह गए | तत्पश्चात देवर्षि नारद ने उन्हें संसार की अनित्यता और परमात्मा के नित्य होने का ज्ञान दिया | सांसारिक सम्बन्ध का कारण पूर्वजन्म के कर्मों को बताते हुए इन्हें अस्थाई और केवल उन कर्मों के भोग प्राप्त करने तक का होना बताया | इस प्रकार राजा चित्रकेतु ज्ञान पाकर शोकमुक्त होकर परमात्मा के सम्मुख हो गए |    
                   जिस प्रकार राजा चित्रकेतु अचानक अपने पुत्र की मृत्यु की घटना से दुखी होकर संसार से विमुख हो गए और महर्षि अंगिरा और नारद जैसे ज्ञानी पुरुषों का सानिध्य पाकर परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आंदोलित हो गए उसी प्रकार इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसी घटना से दुखी होकर संसार से अनायास ही विमुख हो सकता है | इसके बाद उसे आवश्यकता रहती है, किसी ऐसे ज्ञानी पुरुष से मिलन की, जो उसका मार्गदर्शन करने के लिए आदर्श गुरु की भूमिका निभा सके |
                      दूसरी ओर, धीरे-धीरे संसार से विमुख होना, प्रकृति के गुणों के अधीन होता है | हमारा शरीर और इन्द्रियां प्रकृति के गुणों के अधीन हैं | जब अवस्थानुसार शारीरिक क्षय होना प्रारम्भ होता है तब इन्द्रियां भी शिथिल होने लगती है | ध्यान रहे, इन्द्रियों के शिथिल होने से मेरा आशय मन के शिथिल होने से नहीं है | मन कभी भी बुढा नहीं होता है | शरीर और इन्द्रियों की शिथिलता को समय रहते जो व्यक्ति पहचान लेता है, वह संसार से धीरे-धीरे अपने आपको निवृत कर परमात्मा की ओर प्रवृत हो सकता है | मन में उठ रही कामनाएं कभी कम अथवा समाप्त नहीं हो सकती | अतः मन और कामनाओं पर अधिक ध्यान नहीं दे और तेजी से होते जा रहे शारीरिक क्षय को देखते हुए उचित निर्णय लें | मन और कामनाओं की अवहेलना करने से उन पर धीरे-धीरे नियंत्रण स्थापित हो जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, July 20, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 12

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 12
                  इस बात को स्पष्ट करने के लिए भागवत में वर्णित राजा चित्रकेतु का वृतांत मैं आपको बताना चाहूँगा | राजा चित्रकेतु के कोई संतान नहीं थी | वृद्धावस्था जीवन के द्वार पर खड़ी थी | सभी रानियों के मन में पुत्र प्राप्ति की कामना थी | महर्षि अंगिरा के द्वारा यज्ञ किया गया और उस यज्ञ का प्रसाद सबसे बड़ी रानी कृतद्युति को देते हुए महर्षि अंगिरा ने राजा चित्रकेतु को कहा कि हे ! राजन, होने वाला पुत्र तुम्हें हर्ष और शोक दोनों देगा | समय पाकर रानी कृतद्युति के पुत्र उत्पन्न हुआ जिससे राजा चित्रकेतु को बड़ी प्रसन्नता हुई | पुत्र होने के बाद अन्य रानियाँ बड़ी रानी और राजा से द्वेष रखने लगी | इसी द्वेष भावना से अन्य सभी रानियों ने मिलकर नन्हें से राजकुमार को विष दे दिया, जिससे उसकी तत्काल ही मृत्यु हो गई | इस घटना से विकल होकर राजा चित्रकेतु और महारानी कृतद्युति विलाप करने लगे |
                   उसी समय महर्षि अंगिरा और नारद मुनि वहां पहुँच गए | उन्होंने दोनों को बहुत प्रकार से समझाया और कहा कि जिस बालक के लिए तुम दोनों इतना शोक कर रहे हो वह बालक इस जन्म और पूर्व के जन्मों में तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? अगले जन्मों में तुम्हारा उसके साथ क्या सम्बन्ध होगा ? परन्तु राज-दम्पति उनकी प्रत्येक बात को अतिशय दुःख के कारण अनसुना कर रहे थे | तब अंगिरा ऋषि ने राजा चित्रकेतु को कहा -
 अधुना पुत्रिणा तापो भवतैवानुभूयते |
एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पदः ||
शब्दादयश्च विषयाश्चला राज्यविभूतयः |
मही राज्यं बलं कोशो भृत्यामात्या: सुहृज्जना: ||भागवत-6/15/21-22||
अर्थात राजन ! तुम अब अनुभव कर रहे हो न कि पुत्रवानों को कितना दुःख होता है ? यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकार के ऐश्वर्य, संपतियां, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्य वैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य (राजा का मंत्री,सहचर) सगे-सम्बन्धी, इष्ट मित्र आदि सबके लिए है; क्योंकि वे सब अनित्य हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, July 19, 2017

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 11

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 11
                     गुरु के मिल जाने के उपरांत ही गोविन्द को पाने की यात्रा का प्रारम्भ होता है | यह यात्रा तीन चरणों में पूर्णता को प्राप्त होती है | यात्रा के प्रथम चरण में आपकी सत्य के प्रति प्यास बढती है, ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा जाग्रत होती है | ऐसा होते ही गुरु आपको यात्रा को गति प्रदान करता है, जो आपको अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती है | तो आइये ! इस यात्रा के प्रथम चरण में गुरु के साथ प्रवेश करते हैं |
  प्रथम चरण – मन का आंदोलित होना -
               गुरु के साथ सत्संग करने से आपका हृदय आंदोलित हो उठता है | जो गुरु आपको भीतर तक आंदोलित कर दे, वही सच्चा गुरु हो सकता है | आप गुरु के पास अपनी प्यास लेकर आये हैं | गुरु आपकी प्यास को महसूस कर आपको भीतर तक आंदोलित कर देता है | यह आन्दोलन आपको आत्म-ज्ञान की अवस्था तक पहुँचाने के लिए मुमुक्षु बना देता है | आन्दोलन एक शब्द, जिसका अर्थ है आनंद के लिए दोलन | जिस प्रकार एक दोलक बाएं से दायें और दायें से बांये दोलन करता रहता है, उसी प्रकार जब आपका हृदय, आपका मन आनंद के लिए दोलन करने लगे तो उसे आंदोलित होना कहते हैं | आनंद ही परमात्मा है | प्रथम चरण में आपको आनन्द प्राप्त करने के लिए आंदोलित होना होता है |
                 आपको अपने जीवन में जब सांसारिक बातें आकर्षित करना कम कर दे, तब आप समझ लें कि आपके जीवन में परिवर्तन का समय आ रहा है | जीवन में परिवर्तन अर्थात सांसारिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ | संसार से दो प्रकार से विमुख हुआ जा सकता है- तत्काल अथवा धीरे-धीरे | अचानक संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होने का सबसे बड़ा कारण होता है, जीवन में अघटित का घटित होना | वैसे अघटित कभी घटित नहीं हो सकता परन्तु संसार की दृष्टि में ऐसी किसी भी घटना को अघटित कहा जाता है, जिस घटना के घटित होने की कल्पना तक नहीं की जाती | प्रियजन से असामयिक विछोह की घटना को इस श्रेणी में रखा जा सकता है | ऐसी किसी भी घटना को संजीदगी के साथ लें और यही सोचें कि परमात्मा ने मेरे हित के लिए ही ऐसा किया होगा |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, July 18, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 10

यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 10
                गुरु केवल मार्ग बताता है, चलना शिष्य को ही पड़ता है | गुरु इशारों और संकेतों में बात करता है | जब तक शिष्य अपने अन्दर जिज्ञाषा नहीं रखता तब तक गुरु का संकेत समझना असंभव है | गुरु भी अपने शिष्य का चयन उसकी प्यास को देखकर ही करता है | जब तक शिष्य की प्यास एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाती, तब तक गुरु उसे मार्ग नहीं दिखा सकता | अतः किसी योग्य गुरु के पास जाओ, तो प्यास लेकर जाओ अन्यथा आप वैसे ही वापिस लौट आओगे | प्यास ज्ञान की, प्यास आत्म-बोध की | आप अगर पहले से किसी प्रकार के कथित ज्ञान से भरे हुए हों, जो कि वास्तव में देखा जाये तो केवल अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण (Imperfect) ज्ञान होता है, तो ऐसे में सच्चा गुरु भी आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता | एक आदर्श गुरु को पहले आपके इस त्रुटिपूर्ण ज्ञान को मिटाना पड़ता है | जो रीता हो, उसे ही भरा जा सकता है, भरे हुए को क्या भरना | पहले अपना मस्तिष्क समस्त प्रकार के ऐसे अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण ज्ञान से रिक्त करके आयें और फिर जिस व्यक्ति के पास जाने से आपके हृदय में परमात्मा को पाने के लिए हलचल मच जाये, जिस व्यक्ति को सुनकर आपको लगे की मुझे ऐसे ही ज्ञानी की खोज है, समझ लीजिये आपके लिए वही सच्चा गुरु है |
               सच्चे गुरु की खोज तभी प्रारम्भ होती है, जब आप सांसारिक गतिविधियों से उबकर आध्यात्मिकता की राह पर चलने को उद्यत हुए हो | सांसारिक कार्यकलाप आपको आध्यात्मिकता की राह पर चलने की जिज्ञाषा तक पैदा नहीं होने देते | गोविन्द को पाने की यात्रा प्रारम्भ करनी है तो सबसे पहले संसार की मोह माया के जाल से निकल कर किसी गुरु की शरण में जाना होगा | एक बार गुरु मिल गए तो समझ लें गोविन्द भी मिल गए | गुरु से गोविन्द तक की यात्रा तीन चरणों में सम्पूर्ण होती है | हम इन तीनों चरणों की एक एक कर चर्चा करेंगे | याद रखें, हमें किसी भी एक चरण पर पहुँच कर ही संतुष्ट नहीं होना है बल्कि अंतिम चरण तक पहुँचना है | अंतिम चरण को सफलता पूर्वक पूर्ण कर लेना ही परमात्मा को पा लेना है | गुरु आपको राह दिखा रहे हैं और उस गुरु के सानिध्य से आप प्रथम चरण में प्रवेश करते हैं | यह प्रथम चरण में प्रवेश ही आपकी भावी दिशा निश्चित करता है | गुरु के सानिध्य और उनसे हुए सत्संग से प्रथम चरण का प्रारम्भ होता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् || 

Monday, July 17, 2017

यात्रा - गुरु से गोविन्द तक - 9

                    यात्रा – गुरु से गोविन्द तक – 9
                    ऐसे गुरु, जो कि स्वयं सांसारिक भोगों में लगे हुए हैं, वे आपसे आपका संसार व परिवार तो छुड़ा देते हैं परन्तु स्वयं के संसार के साथ आपको बाँध लेते हैं | मैंने कई ऐसे कथित गुरुओं को देखा है, जो शिष्यों से उनके परिवार से दूर कर व्यसनी तक बना डालते हैं | नशे का व्यसन आपको तत्काल ही एक प्रकार की शांति प्रदान अवश्य कर देता है परन्तु यह शांति नशे के व्यसन के कारण छद्म होती है | यह शांति मस्तिष्क में उत्पन्न हुई संवेदन शून्यता की शांति है, वास्तविक शांति तो मस्तिष्क के पूर्ण जाग्रत हो जाने पर ही मिलती है | मस्तिष्क पूर्ण जाग्रत होता है, ज्ञान से | अतः जो गुरु आपको अपने परिवार से अलग कर अपने संसार के साथ बाँध लेता है, उससे बचें | यह तो वैसे ही हुआ जैसे एक व्यक्ति इधर कुएं से निकलकर उधर जाकर खड्ड में गिर जाये | ऐसे गुरु पतन की राह पर ही ले जा सकते हैं, परमात्मा के रास्ते पर नहीं | वास्तविक शांति तो संसार व परिवार से जुड़े रहते हुए भी वास्तविक गुरु ज्ञान देकर उपलब्ध करा सकता है | परमात्मा के लिए संसार छोड़ना आवश्यक नहीं है | अपने संसार को स्वयं के भीतर से निकाल कर बाहर करना होता है | साथ ही ऐसा उपाय करना होता है कि ऐसा संसार आपके भीतर पुनः प्रवेश न कर सके | ज्ञानीजन इस उपाय को बाड़ लगाना कहते हैं | इतना सब एक ज्ञानी गुरु ही संभव कर सकता है |
             संत कबीर सच्चे गुरु की प्रशंसा में यहाँ तक कह गए हैं कि –
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांय |
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय ||
                कबीर कहते हैं कि सच्चा गुरु वही है, जिसने आत्म-ज्ञान करा दिया, जिसने परमात्मा को पाने का रास्ता दिखा दिया | ऐसे गुरु पर बलिहारी हूँ जिसने गोविन्द को बता दिया अर्थात गोविन्द को कैसे पाया जा सकता है, उसका रास्ता दिखा दिया | ऐसे गुरु को कबीर ने गोविन्द से भी उच्च स्थान दिया है | ‘परमात्मा सर्वोच्च शक्ति है’, यह हम सभी जानते है, परन्तु हमारे में से कितने व्यक्तियों ने इस वाक्य को जिव्हा से ह्रदय में उतारा है ? इसी वाक्य को आत्मसात केवल गुरु ही करवा सकता है | इस वाक्य को आत्मसात करते ही आप स्वयं गोविन्द ही है | जो आपको स्वयं का ज्ञान करा दे, ऐसे में आपसे बड़ा आपको ज्ञान कराने वाला ही हुआ न | इसीलिए कबीर ने गोविन्द से गुरु को बड़ा कहा है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||