क्रमश:४
मंदबुद्धि वाले व्यक्ति के पास इतनी बुद्धि भी नहीं होती कि वह अपने भावी
जन्म के बारे में भी कुछ सोच विचार कर सके |परमात्मा प्राप्ति की बात तो उसके लिए
दूर की कौड़ी ही है |इसीलिए उन्हें तत्वज्ञानी व्यक्ति से जो भी सुनने को मिलता है
उसी अनुसार उपासना आदि कर इस संसार से मुक्त होने का प्रयास करता है |परन्तु जिनकी
बुद्धि सूक्ष्म है उनके बारे में ऐसा नहीं कह सकते |उनके पास अपनी वैचारिक क्षमता
होती है,जिसके आधार पर वह निर्णय करता है |परमात्मा प्राप्ति के लिए उसके सामने कई
विकल्प होते हैं जिनमें से कोई भी एक वह अपने स्वभावानुसार चुन सकता है
|श्रीमद्भागवतगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तीन विकल्प सुझाये है-ध्यान,ज्ञान
और कर्म मार्ग| इन तीनों में से कौन सा विकल्प
किसके लिए उपयुक्त होगा,कहना बड़ा ही मुश्किल है |इसको जानने का सबसे अच्छा तरीका
यही है कि व्यक्ति विशेष को जिस विकल्प को अपनाना और उस के अनुसार आगे बढ़ते रहना
सुगम लगता हो,जिसके अपनाने से उसे कोई असुविधा न हो और जिसका उसे कोई बोझ महसूस न
हो,वही विकल्प उसके लिए उपयुक्त होगा |कोई आवश्यक नहीं है कि मुझे जो विकल्प आसान
महसूस हो रहा हो वह आपको भी आसान लगे|अतः इसमे चयन उपयुक्तता के आधार पर होना
अत्यावश्यक है |
सारे विकल्प ,सारे मार्ग उस
परमात्मा को जानने,समझने और देखने के लिए ही है |समस्त मार्ग,समस्त विकल्प एक
दूसरे के समानान्तर चलते हैं |कोई भी मार्ग एक दूसरे को काटता नहीं है |और ऐसा भी
नहीं है कि एक मार्ग पर अग्रसर हो रहा व्यक्ति दूसरे मार्ग का अनुपालन नहीं कर रहा
होता है |किसी भी एक मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति स्वतः ही शेष दोनों मार्गों का
अनुसरण करने लगता है |जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति में केवल मात्र एक गुण नहीं होता
बल्कि समस्त तीनो गुण उपस्थित होते हैं परन्तु जिस गुण की बहुलता होती है,सम्बंधित
व्यक्ति की प्रकृति उसी गुण के अनुरूप मानी जाती है|उसी प्रकार परमात्मा प्राप्ति
के लिए चयनित मुख्य मार्ग के अनुसार ही वह व्यक्ति अपनी साधना करता है |परन्तु
उसके व्यवहार में शेष दोनों मार्गों का अनुसरण करना भी परिलक्षित होता है |
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में तीन साधन या मार्ग तो कुशाग्र और सूक्ष्म
बुद्धि वालों के लिए बताये हैं और चौथा साधन मंद बुद्धि वालों के लिए उपयुक्त
बताया है |कौन सा साधन श्रेष्ठ है,इसके बारे में श्री कृष्ण कहते हैं –
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं
विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || गीता १२/१२ ||
अर्थात्,किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ
है,ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ
है;क्योंकि त्याग से अनंत यानि परम शांति प्राप्त होती है |
तत्वज्ञानी पुरुष से सुनकर जो भी उपासना पद्धति व्यक्ति के द्वारा अपनाई
जाती है उसे अभ्यास कहते हैं |क्योंकि तत्वज्ञानी द्वारा परमात्मा में मन लगाने के
लिए यानि एकाग्रचित्त होने के लिए परमात्मा के नाम का स्मरण करना होता है |इसके लिए बार बार अभ्यास की आवश्यकता होती है
|इस विधि को अभ्यास योग कहकर संबोधित किया गया है |इस अभ्यास विधि से ज्ञान की विधि
श्रेष्ठ है |ज्ञान से विशेष स्थान ध्यान का है |परन्तु सबसे श्रेष्ठ कर्म फल का
त्याग है |त्याग भले ही किसी भी प्रकार का हो,त्याग करते ही व्यक्ति को परम और अनंत
शांति का अनुभव होता है |यहाँ पर त्याग का अर्थ केवल कर्मफल के त्याग से नहीं
है|यहाँ विशेष रूप से यह उल्लेख करना आवश्यक है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए
तीनों में से किसी भी साधन को अपनाया गया हो,सब में त्याग का ही प्रमुखता लिए हुए
है | इसीलिए भारतीय दर्शन में त्याग को ही सर्वोपरि माना गया है |
ध्यान योग में विचारों का त्याग महत्त्व रखता
है |ज्ञान योग में ज्ञान अर्जित करने के बाद ज्ञान के अभिमान का त्याग आवश्यक होता है अन्यथा
ज्ञानी होने का अभिमान व्यक्ति को अपनी स्थिति से नीचे गिरा सकता है |कर्म योग में
कर्मफल के त्याग का अपना महत्त्व है |अतः तीनों योग त्याग को ही प्रमुखता देते हैं
| इन तीनों योग में त्याग के साथ साथ काम,क्रोध,लोभ,मोह,ममता आदि का त्याग भी
आवश्यक है |त्याग ,व्यक्ति की स्थिति में उत्तरोतर सुधार करने के लिए आवश्यक है | कई
बार शास्त्रों के अध्ययन से ऐसा लगता है मानो त्याग ही आध्यात्मिकता का मूल मन्त्र
है,जो एक आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्य साधारण व्यक्ति से अलग करता है |
जैसा कि पहले वर्णित किया गया है
कि अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए तत्वज्ञानी पुरुषों से केवल सुनकर ही उनके
द्वारा सुझाई गयी उपासना पद्धति से एक साधारण व्यक्ति संसार से पार हो सकता है
|ऐसे व्यक्तियों की बहुतायत कलियुग में ज्यादा होती है |आज का युग कलियुग है और इस
प्रकार के व्यक्ति ही चारों और दृष्टिगोचर होते हैं | तत्वज्ञानी और योगी तो लगभग लुप्तप्राय
हो गए हैं |गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में ऐसे व्यक्तियों के लिए उपासना की विधि
सुझाई है –
कलियुग केवल नाम अधारा | सुमिरि
सुमिरि नर उतरहिं पारा ||
यहाँ गोस्वामीजी ने ऐसे ही व्यक्तियों के लिए यह लिखा है |आज के युग में
केवल परमात्मा के नाम का बार बार उच्चारण करने ,परमात्मा के नाम का सुमिरन करने
यानि इसके नाम का अभ्यास करने से व्यक्ति संसार सागर को पार कर लेता है |इसे
नाम-महिमा से जाना जाता है |कलियुग में भौतिकतावादी व्यक्ति ज्यादा संख्या में
होते हैं और उनका परमात्मा की तरफ केवल झुकाव अपने कार्यों की सिद्धि तक ही सीमित होता है |इस कारण से योग की तीनों
पद्धतियाँ ही उनके अनुकूल नहीं होती है |अतः ऐसी स्थिति में नाम-जप उनके लिए
सबसे सुगम साधन माना जा सकता है |साधारण तौर पर यह साधन बड़ा ही आसान प्रतीत होता
है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है |व्यक्ति के पास समय होने के बावजूद भी परमात्मा
का नाम लेना उसे लगभग असंभव लगता है |
क्रमश:
|| हरिः शरणम् ||
बहुत ज्ञान वर्धक और उत्तम सन्देश दिया है डाक्टर साहब ने
ReplyDeleteधन्यवाद
पंकज