क्रमश:
सात्विक गुणों से युक्त पुरुष जब अपने मानव जीवन काल में सात्विक कर्म करता है तो शरीर त्यागने के पश्चात उसकी गति के बारे में स्पष्ट हो चूका है|परन्तु अगर ऐसा व्यक्ति अगर सात्विक कर्मों के साथ साथ कुछेक राजसिक या तामसिक कर्म करता है तो फिर उसकी क्या गति होगी?ऐसे पुरुष का देव व ब्रह्म लोक में निवास अल्प अवधि का ही होता है और राजसिक या तामसिक कर्म का फल उसे पुनः मानव योनि में आकर भुगतना होगा |
राजसिक कर्म के लक्षण बताते हुये भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहन्कारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् || गीता १८/२४ ||
अर्थात्,जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों कों चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है,वह कर्म राजस कहा गया है|
अगर हम आज के समाज में रह रहे व्यक्तियों का अवलोकन करें तो हमें ज्यादातर लोग राजस कर्म करते हुये ही प्रतीत होंगे|आज प्रायः सभी जन, भोगों की प्राप्ति के लिए बहुत ही श्रम वाले कर्म करते हैं|जिन लोगों कों सभी भोग उपलब्ध है वे अहंकार रखते हुये इसी प्रकार के कर्म करते है|ऐसे कर्म करने वाला कर्ता आसक्ति से युक्त,कर्मों का फल चाहने वाला तथा लोभी होता है|राजसिक व्यक्ति दूसरों कों कष्ट देनेवाला तथा अशुद्ध आचरण करने वाला होता है|राजसिक कर्ता हर्ष-शोक से लिप्त होता है|किसी उपलब्धि पर वह हर्षित हो जाता है तथा कभी विपरीत परिणाम पाने पर उतना ही शोकग्रस्त हो जाता है|
ऐसे राजसिक गुणों से युक्त पुरुष के कर्म भी प्रायः राजसिक लक्षण वाले ही होते हैं|चूँकि राजसिक व्यक्ति का संसार में जबरदस्त आकर्षण होता है,और वह जीवन भर सांसारिक भोगों के प्रति आसक्त रहता है और उन भोगों कों प्राप्त करने के लिए वह श्रमशील भी होता है|ऐसे व्यक्ति देह त्यागने के उपरांत तत्काल ही मानव योनि में पुनर्जन्म लेते है और अपने अधूरे भोगों और कामनाओं कों पूरा करने हेतु राजसिक कर्म करने लगते है|यह चक्र मानव दर मानव योनि सतत चलता रहता है,जब तक कि वह सत्संग के माध्यम से परमात्मा की तरफ उन्मुख नहीं होता|
राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अपने जीवन काल में तामसिक या सात्विक कर्म भी कर लेता है|ऐसी परिस्थिति में अगर उसने साथ में एकाधिक तामसिक कर्म किये है तो उनकी तीव्रता के अनुसार पहले नीच योनि में भी जन्म लेना पड़ सकता है|तामसिक कर्मफलों कों भोगने के बाद उसे पुनः मानव योनि सुलभ हो जाती है|इसी प्रकार अगर उसने एकाधिक सात्विक कर्म किये है तो भी उसका उच्च लोक में जाना संभव नहीं है|हाँ,इतना अवश्य होता है कि मानव योनि प्राप्त होने पर उसका जन्म पूर्वजन्म से अच्छे कुल में हो जाता है,जहाँ अपने सात्विक कर्म का फल प्राप्त करता है|
राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य कों यथार्थ रूप से नहीं जानता क्योंकि उसकी बुद्धि भी राजसिक प्रवृति की होती है|ऐसा व्यक्ति इन्द्रियों से प्राप्त क्षणिक सुख कों ही वास्तविक सुख मान लेता है,जबकि वह वास्तविक सुख होता नहीं है|जो सुख इन्द्रियों के संयोग से वह प्राप्त करता है वह भोग काल में तो अमृत तुल्य प्रतीत होता है लेकिन उसके परिणाम विष तुल्य होते हैं|इन्द्रियों के अत्यधिक भोग बल,वीर्य ,बुद्धि, धन और उत्साह नाशक तो होते ही है,साथ ही परलोक नाशक भी होते है|कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर त्यागने के बाद भी इन भोगों के लिए किये गए कर्मों के फल भी विषतुल्य होते हैं|
इसी प्रकार राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अगर ईश्वर की पूजा और यज्ञ तपादि भी करता है तो केवल दम्भाचरण के लिये फल कों ही दृष्टि में लिए करता है| जिसका परिणाम भी श्रेष्ट प्राप्त नहीं होता|क्योंकि सब कर्म फलों की प्राप्ति कों ध्यान में रखकर किये जाते हैं|
अतः स्पष्ट है कि राजसिक स्वभाव युक्त पुरुष मानव जन्मों में इसी प्रकार भटकता रहता है,फिर भी उसकी भोगों की कामनाएं किसी भी जन्म में पूरी नहीं हो पाती|और वह इस जन्म-मरण के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा| उसका हर बार मानव रूप में पुनर्जन्म होता रहेगा|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
सात्विक गुणों से युक्त पुरुष जब अपने मानव जीवन काल में सात्विक कर्म करता है तो शरीर त्यागने के पश्चात उसकी गति के बारे में स्पष्ट हो चूका है|परन्तु अगर ऐसा व्यक्ति अगर सात्विक कर्मों के साथ साथ कुछेक राजसिक या तामसिक कर्म करता है तो फिर उसकी क्या गति होगी?ऐसे पुरुष का देव व ब्रह्म लोक में निवास अल्प अवधि का ही होता है और राजसिक या तामसिक कर्म का फल उसे पुनः मानव योनि में आकर भुगतना होगा |
राजसिक कर्म के लक्षण बताते हुये भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं-
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहन्कारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् || गीता १८/२४ ||
अर्थात्,जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों कों चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है,वह कर्म राजस कहा गया है|
अगर हम आज के समाज में रह रहे व्यक्तियों का अवलोकन करें तो हमें ज्यादातर लोग राजस कर्म करते हुये ही प्रतीत होंगे|आज प्रायः सभी जन, भोगों की प्राप्ति के लिए बहुत ही श्रम वाले कर्म करते हैं|जिन लोगों कों सभी भोग उपलब्ध है वे अहंकार रखते हुये इसी प्रकार के कर्म करते है|ऐसे कर्म करने वाला कर्ता आसक्ति से युक्त,कर्मों का फल चाहने वाला तथा लोभी होता है|राजसिक व्यक्ति दूसरों कों कष्ट देनेवाला तथा अशुद्ध आचरण करने वाला होता है|राजसिक कर्ता हर्ष-शोक से लिप्त होता है|किसी उपलब्धि पर वह हर्षित हो जाता है तथा कभी विपरीत परिणाम पाने पर उतना ही शोकग्रस्त हो जाता है|
ऐसे राजसिक गुणों से युक्त पुरुष के कर्म भी प्रायः राजसिक लक्षण वाले ही होते हैं|चूँकि राजसिक व्यक्ति का संसार में जबरदस्त आकर्षण होता है,और वह जीवन भर सांसारिक भोगों के प्रति आसक्त रहता है और उन भोगों कों प्राप्त करने के लिए वह श्रमशील भी होता है|ऐसे व्यक्ति देह त्यागने के उपरांत तत्काल ही मानव योनि में पुनर्जन्म लेते है और अपने अधूरे भोगों और कामनाओं कों पूरा करने हेतु राजसिक कर्म करने लगते है|यह चक्र मानव दर मानव योनि सतत चलता रहता है,जब तक कि वह सत्संग के माध्यम से परमात्मा की तरफ उन्मुख नहीं होता|
राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अपने जीवन काल में तामसिक या सात्विक कर्म भी कर लेता है|ऐसी परिस्थिति में अगर उसने साथ में एकाधिक तामसिक कर्म किये है तो उनकी तीव्रता के अनुसार पहले नीच योनि में भी जन्म लेना पड़ सकता है|तामसिक कर्मफलों कों भोगने के बाद उसे पुनः मानव योनि सुलभ हो जाती है|इसी प्रकार अगर उसने एकाधिक सात्विक कर्म किये है तो भी उसका उच्च लोक में जाना संभव नहीं है|हाँ,इतना अवश्य होता है कि मानव योनि प्राप्त होने पर उसका जन्म पूर्वजन्म से अच्छे कुल में हो जाता है,जहाँ अपने सात्विक कर्म का फल प्राप्त करता है|
राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य कों यथार्थ रूप से नहीं जानता क्योंकि उसकी बुद्धि भी राजसिक प्रवृति की होती है|ऐसा व्यक्ति इन्द्रियों से प्राप्त क्षणिक सुख कों ही वास्तविक सुख मान लेता है,जबकि वह वास्तविक सुख होता नहीं है|जो सुख इन्द्रियों के संयोग से वह प्राप्त करता है वह भोग काल में तो अमृत तुल्य प्रतीत होता है लेकिन उसके परिणाम विष तुल्य होते हैं|इन्द्रियों के अत्यधिक भोग बल,वीर्य ,बुद्धि, धन और उत्साह नाशक तो होते ही है,साथ ही परलोक नाशक भी होते है|कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर त्यागने के बाद भी इन भोगों के लिए किये गए कर्मों के फल भी विषतुल्य होते हैं|
इसी प्रकार राजसिक गुणों से युक्त व्यक्ति अगर ईश्वर की पूजा और यज्ञ तपादि भी करता है तो केवल दम्भाचरण के लिये फल कों ही दृष्टि में लिए करता है| जिसका परिणाम भी श्रेष्ट प्राप्त नहीं होता|क्योंकि सब कर्म फलों की प्राप्ति कों ध्यान में रखकर किये जाते हैं|
अतः स्पष्ट है कि राजसिक स्वभाव युक्त पुरुष मानव जन्मों में इसी प्रकार भटकता रहता है,फिर भी उसकी भोगों की कामनाएं किसी भी जन्म में पूरी नहीं हो पाती|और वह इस जन्म-मरण के चक्र से कभी भी मुक्त नहीं हो पायेगा| उसका हर बार मानव रूप में पुनर्जन्म होता रहेगा|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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