Monday, September 9, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-८ |

क्रमश:
                      जब सब कर्मों के अंकन से युक्त चित्त आत्मा के साथ अंतरिक्ष में स्वछन्द विचरण करता है तब कर्मों के आधार पर उनका भावी शरीर मिलना तय होता है|अगर पाप कर्मों की बहुलता होती है तो मन यानि चित्त को नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है|अगर पाप और पुण्य कर्मों का संचय समान रूप से हुआ होता है तो पहले यह तय होता है कि पापकर्मों की तीव्रता कितनी है |यह आवश्यक नहीं है कि किये हुये सभी कर्मों के कर्मफलों का निपटारा मात्र एक जन्म में ही हो जाये|इन कर्मों के कर्मफलों का भोग कई जन्मों और कई योनियों में भटकते हुये भोगना पड़ सकता है|इस समय कुछ भी अब मन या चित्त के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहता है|अब जो कुछ भी निर्धारण करना है,आत्मा को ही करना है|सारा भविष्य अब आत्मा के हाथ में रहता है कि इस मन को अब कौन सा शरीर उपलब्ध कराया जाये जिससे उसे उसके कर्मों का फल मिल सके|
                      यह स्पष्ट है कि मन या चित्त कर्मों के हिसाब से फल प्राप्त करने के अधिकारी हैं,परन्तु किन कर्मों का फल कहाँ पर,किस शरीर में और कब मिलना है ,यह सब आत्मा के द्वारा किये गए निर्णय पर आधारित होता है|परमब्रह्म परमात्मा का इससे कोई लेना देना नहीं होता है|किसी भी शरीर में आत्मा ही ,परमात्मा का एक मात्र प्रतिनिधि होता है|इसीलिए जो भी निर्णय आत्मा करता है ,वह निर्णय परमात्मा का ही माना जाता है|आत्मा की भूमिका  यहीं पर सबसे अधिक होती है|
                इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आत्मा कि महत्वता समझाते हुये कहते हैं-
                                  उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मनामवसादयेत्  |
                                  आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||गीता ६/५||
अर्थात्,अपने द्वारा अपना उद्धार इस संसार सागर से करे|अपने को अधोगति में न डाले;क्योंकि यह आत्मा (आप) ही तो अपना मित्र है और आत्मा (आप) ही अपना शत्रु है|
                              कहने का तात्पर्य यही है कि आत्मा शरीर में रहते हुये जिन भोगों का भोग करती है ,जिन भोगों के लिए मन के माध्यम से शरीर से कर्म करवाती है,उसी से उसका स्वयं के प्रति शत्रुवत या मित्रवत व्यवहार का आकलन होता है|अतः पुनर्जन्म कैसे,कब कहाँ और कौन से शरीर में होना है ,यह सब आत्मा ही निर्धारित करती है,परमात्मा के प्रतिनिधि के तौर पर आत्मा ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेती है|इसीलिए गीता में व्यक्ति स्वयं को यानि उसमे अवस्थित आत्मा ही को उसका मित्र या शत्रु बताया गया है|मित्र तभी माना जाता है जब वो अपने मन को नियंत्रण में रखे जिससे भोगों के प्रति आसक्ति ना हो और आत्मा पदार्थ के गुणों का संग न कर सके|पदार्थों के गुणों का संग न करने से चित्त में उन कर्मों का कोई भी अंकन संभव नहीं है,जो पुनर्जन्म में फलों को प्राप्त करने का कोई कारण बन सके|
                            गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                          असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मतिः |
                                          वश्यात्मना तु यतता शक्योSवाप्तुमुपयतः||गीता ६/३६ ||
अर्थात्, जिसका मन वश में नहीं किया हुआ है,ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुये मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से योग का प्राप्त होना सहज है-यह मेरा मत है|
                                         यहाँ योग प्राप्त होने से मतलब परमात्मा से योग होना है,क्योंकि आत्मा ,परमात्मा का प्रतिनिधि मात्र है|अंततोगत्वा उसे परमात्मा से ही मिलना है,पुनर्जन्मों में भटकना उसका मूल स्वभाव नहीं है |परन्तु चित्त से संयोग और विषयों के भोग के कारण पदार्थ के गुणों से संयोग करलेना ही उसे परमात्मा के साथ योग करने से वंचित कर देता है|
क्रमश:
                     || हरि शरणम् ||
                          

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