Tuesday, September 10, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-९ |

क्रमश:
                       गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
                                 भूतग्रामिमं कृत्सनमवशं प्रक्रितेर्वशात् || गीता ९/८ ||
अर्थात्,अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुये इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बार बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ|
                             यहाँ यह स्पष्ट है कि पुनार्जन्मका कारण व्यक्ति द्वारा किये गए उसके कर्म ही एक मात्र कारण होते है,अन्य कोई नहीं|वैज्ञानिक तौर पर देखा जाये तो कर्म जो भी चित्त में अंकित होते हैं वे चुम्बकीय तरंगों के रूप में होते हैं|इन्हें नष्ट नहींकिया  जा सकता,परन्तु पढ़ा जा सकता है|जितने भी कर्म इन चुम्बकीय तरंगों के रूप में होते है,वे नए शरीर में बने जैव  विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के साथ संयोग करने के लिए  उसकी तरफ आकर्षित होते हैं |क्योंकि उन्हें उस शरीर से ही फल प्राप्त होने की आशा होती है|जो कामनाएं अधूरी रह जाती है,उन्हें नए शरीर से प्राप्त कर लेने हेतु यह आकर्षण उसे नए शरीर में आने को  प्रेरित करता है|जिस तरीके से चित्त आत्मा को लेकर पुराने शरीर से अलग होता है,उसकी विपरीत क्रिया से चित्त आत्मा के साथ नए शरीर में प्रवेश करता है|
                                        जब आत्मा को नए शरीर में जाना होता है तब शरीर और आत्मा के विपरीत चुम्बकीय ध्रुव एक दूसरे के सामने होते है जिसे आत्मा मय चित्त उसकी तरफ आकर्षित होकर शरीर के साथ संयुक्त हो जाती है|ज्यादातर मामलों में इसी समय शिशु का जन्म होता है|ज्योंही आत्मा का शरीर के साथ संयोजन होता है,शरीर में उपस्थित मन के साथ आत्मा संयोग कर लेती है|फिर वापिस वही जीवन चक्र प्रारंभ हो जाता है ,जैसा पूर्व में वर्णित किया जा चूका है|वास्तव में शरीर में स्थित यही आत्मा ही भोक्ता है|इन्द्रियों के विषय मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों से कर्म करवाते हुये सब भोग आत्मा को ही उपलब्ध होते हैं|
                गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
                                 मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता १५/७ ||
अर्थात्,इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और यह प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है|
                                 श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च |
                                 अधिष्ठाय   मनश्चायं  विषयानुपसेवते ||गीता १५/९  ||
अर्थात्,यह जीवात्मा कान ,चक्षु,त्वचा,रसना ,नाक और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है|
                                उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट है की आत्मा,परमात्मा का ही अंश है ,और शरीर में आकार वह इन्द्रियों और मन सेसंयोग करते हुये इन्द्रियों के सभी विषयों का सेवन करती है|
                                  उपरोक्त दोनों श्लोक इस बात को स्पष्ट करते हैं कि शरीर में स्थित आत्मा ही इन्द्रियों के विषयों का भोग करती है|इन भोगों के प्रति आसक्तिभाव शरीर को मन के द्वारा कर्म करने को बाध्य करता है,जिसको आत्मा के द्वारा पदार्थ के गुणों का संग करना कहते हैं |यही गुण युक्त कर्म चित्त के साथ संयुक्त होकर मृत्यु उपरांत आत्मा के साथ चले जाते हैं|इन्ही के कारण पुनर्जन्म का आधार बनता है|इन्ही कर्मों के कर्मफल स्वरुप जब भी नया मानव शरीर उपलब्ध होता है,आत्मा फिर उसी प्रकार मन व इन्द्रियों के प्रति आकर्षित हो कर उनसे संयोग कर लेती है|और इस प्रकार नए कर्म फिर से चित्त में अंकित होते रहते है|इस प्रकार मानव जीवन में किये गए कर्मों के कर्मफलों से छुटकारा मिलना असंभव हो जाता है ,और व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता है|
                                                     || हरि शरणम् ||

                       

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